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फ़ैसला - 8

फ़ैसला

(8)

आज सबेरे ही मुझे बहुत अजीब लग रहा था। दिल में रह रहकर घबड़ाहट होने लगती थी। ऐसा होने पर सीना पकड़ कर जब मैं बैठ जाती तो बेटी आस्था दौड़ते हुए आती क्या हुआ मम्मी...!कहती । उसके इतना कहते ही मेरा कष्ट अपने आप कम हो जाता था। और मैं बेटी को अपने सीने से चिपका लेती। वह अपने छोटे-छोटे हाथों से मेरे गालों पर ढुलक आए आंसुओं को पोंछ रही थी। उसके ऐसा करते ही मेरा हृदय द्रवित हो आया था। बरबस ही मेरे ओंठ बेटी का चुम्बन करने लगे थे। आज बेटी आस्था के ऊपर मुझे बहुत प्यार आ रहा था। दिल से बस एक ही मूक स्वर निकलता था कि मैं उसे अपने सीने से अलग ही न करूं । परन्तु ऐसा सम्भव कहां था। घरेलू काम-काज के लिए उसे अलग करना मेरी मजबूरी थी।

फिर भी मेरा शरीर तो घर के काम कर रहा था लेकिन मस्तिष्क बेटी के इर्द-गिर्द ही घूम रहा था। वह घर के किसी भी कोने में होती लेकिन मन उसी की चिन्ता कर रहा होता। किसी क्षण मैं ये सोचने लगती कि आखिर क्या कारण है आज आस्था की सुरक्षा को लेकर ही मन इतना व्याकुल हो रहा है। फिर कुछ देर बाद स्वयं इस निष्कर्ष पर पहुंचती कि यह तो मन है जो व्यर्थ में समय-समय चिन्ता किया करता है और उसके बारे में तो बहुत ही अधिक जिसे आप अथाह प्रेम करते हों। मेरे लिए बेटी से बढ़कर कोई भी न था जिसे मैं इतना प्रेम करूं। पति स्त्री के लिए हो सकता है, लेकिन मेरे पति ने तो अपने रिश्ते की बहुत पहले ही अरथी निकाल दी थी। वह तो मुझे मात्र वस्तु ही समझता था। जिसका समय पड़ने पर भोग किया जा सके। इसलिए उससे प्रेम होगा मेरे लिए अब सम्भव ही न था।

अब तो अगर कोई मुझसे प्रेम करता था तो वह थी मेरी बेटी आस्था। वह मेरे बिना कुछ ही देर में व्याकुल हो जाती थी। वह अभी स्कूल तो जाती नहीं थी, इसलिए हमेशा मेरे साथ घर में रहती थी। इस समय वह लगभग चार वर्ष की हो रही थी। पिता के प्यार से वह भी धीरे-धीरे वंचित हो रही थी। जैसे कि मैं अपने पति के शराब से भरे गिलास में खो चुकी थी। इस जगह शराब की लत के सामने मेरा प्यार कमजोर पड़ गया था और अभय उसी आदत के बहाव में बहकर मुझसे कहीं अधिक अपने दोस्त मयंक का साथी बन गया था। तभी तो वह अपने ही रंग में रंगने के कार्य में सफल हो गया। परन्तु अब इन बातों की ओर ध्यान देने से कोई लाभ तो होने वाला नही। अब तो बहुत देर हो चुकी थी। मैं और अभय एक दूसरे के लिए नदी के दो किनारे बन चुके थे।

धीरे-धीरे घृणा, ग्लानि, मातृत्व और जिन्दगी से उलाहनों के बीच दिन तो किसी तरह बीत गया। परन्तु शाम होते ही न जाने क्यों मन में अनेको अच्छे-बुरे विचार आने लगे थे। उनमें अच्छे को क्या कहें बस अनिष्ट की आशंकाओं से मन व्याकुल हो रहा था। कमरे में थोड़ी दूरी पर बेटी खिलौनों के साथ खेल रही थी और मैं बेड पर बैठे-बैठे विचारो के ताने-बाने में उलझती जा रही थी। क्योंकि इधर लगभग एक साल से शायद ऐसी ही कोई शाम बीती हो जो मेरे लिए कष्ट प्रद न रही हो। वह चाहे मानसिक या शारीरिक। वैसे अधिकतर मुझे दोनों का सामना करना पड़ता था। अब तो इस शरीर को जैसे अभय द्वारा दंडित होने की आदत पड़ चुकी थी। पिछली घटनाओं को सोचते हुए मेरी आंखों से आंसू बहने लगे। उसी समय अचानक बेटी मेरी ओर आने लगी। उसे देखते ही मैंने जल्दी से साड़ी के आंचल से आंसू पोंछ लिए। वैसे मैं कोशिश करती थी कि मेरी बेटी मुझे रोते हुए न देखे। अगर उसने कभी मुझे रोते देख लिया तो इतने सवाल करती थी कि उनका जवाब देना मेरे लिए आसान नहीं होता था।

आस्था मेरे पास आयी और दोनों बाहों को जोड़ मेरे गले में लटक गयी। वह भी आज बहुत दुलार दिखा रही थी। तो मेरे होंठ भी उसके गालों के चुम्बन को बिबस हो गये। वह शायद खेलते-खेलते अब थक चुकी थी। इसलिए उसको थोड़ा खाना खिला, उसे सुलाने के लिए उसके साथ लेट गयी। वह मेरे साथ लेटते ही सोने लगी थी। मैं भी रिमोट उठाकर धीमी आवाज कर टीवी देखने लगी। मेरे आंखें तो टीवी पर थीं लेकिन कान गेट पर लगे हुए थे। आज मेरा मन सबेरे से ही किसी काम में नही लग रहा था। बस जबरन उसको इधर-उधर बहलाने की कोशिश कर रही थी।

उसी समय अचानक गेट पर खट-खट की आवाज हुई मैंने बिस्तर से उठकर गेट की तरफ देखा तो अभय ही था। मैं आकर बेड पर बैठ गयी। फिर अचानक गेट बन्द हुआ और अन्दर बरामदे में थोड़ी देर बाद कई लोगों के आने का आभास हुआ। तो मैंने परदे के किनारे बाहर देखने का प्रयास किया। बाहर देखा तो आज उन दोनों के अलावा एक तीसरा व्यक्ति भी था जो अधेड़ उम्र का होने के साथ-साथ चेहरे से थोड़ा खूंखार दिखायी दे रहा था। उसके देखते ही मेरा शरीर कांप गया और मैं चुपचार अपनी बेटी के पास जाकर बैठ गयी।

कुछ ही देर बाद एक जानी पहचानी आवाज ने सन्नाटे को भंग किया। सुगन्धा... जल्दी से ठंडा पानी लेकर आओ। इतना सुनते ही मेरे पसीना छूटने लगा। फिर भी यह ताबेदारी तो निभानी ही थी। मैं धीरे से उठी और किचन में जाकर फ्रिज़ से ठंडा पानी निकाल अभय के सामने मेज पर रख दिया। मैं मुड़कर जब कमरे की ओर जाने लगी तो उसी खूंखार आदमी ने मेरी ओर घूर करके देखा। उस समय अभय और मयंक दोनों हंस रहे थे। मैं अपने सिर को झुकाये हुए अपने कमरे में चली गयी। आज मुझे बहुत डर लग रहा था। इतना कभी मैं डरी नहीं। बस अन्दर ही अन्दर टूटती चली गयी और पुरूष ने समय-समय पर अपनी रूचि के अनुसार मेरा भोग किया। आप सोचते होंगे कि मैंने परिस्थिति के सामने घुटने क्यों टेक दिये। तो वह मेरी मजबूरी थी उसके अतिरिक्त मेरे सामने सारे रास्ते बंद थे।

उधर बरामदे में वे तीनों बैठ जाम से जाम लड़ा रहे थ। वैसे आज उनके साथ कोई भी लड़की नहीं थी। एक ओर से तो यह अच्छी बात थी। लेकिन कहीं न कहीं मुझे किसी अनिष्ट की आशंका भी हो रही थी। वे सब पीते समय तरह-तरह की गंदी बातें करते जा रहे थे। जिन्हें सुनकर मुझे बहुत ही क्रोध हो आ रहा था। अगर मेरे बस में होता तो मैं उनको अपने घर के बाहर खदेड़ देती। लेकिन यहां तो मेरे ही पति ने मुझ पर बंदिशों का ताला लगा दिया था। मैं अन्दर ही अन्दर घुट रही थी। थोड़ी देर के बाद मैं अपनी बेटी के पास लेट गयी और अपना मन टी.वी. के साथ बहलाने का प्रयास करने लगी। मैंने उसकी आवाज थोड़ा अधिक धीमी कर दी थी क्योंकि जिससे बाहर की आवाज भी सुनायी पड़ सके। कुछ ही समय बाद एकाएक मेरा ध्यान बरामदे की ओर गया। जहां चण्डाल चौकड़ी बैठकर शराब में अपने को सराबोर कर रही थी।

लगभग वे लोग शायद अपना प्रोग्राम समाप्त कर जाने की तैयारी में थे। उसी समय उस धूर्त मयंक की आवाज सुनायी पड़ी। जो अभय से कह रहा था अरे यार! भाई साहब का और कुछ स्वागत नहीं करोगे। अभय ने लड़खड़ाते स्वर में कहा क्यों नहीं अ...भी... इन्तजाम... करते हैं और इतना अभय ने कहा कि वे दोनों फिर वहीं पर बैठ गये। स्वागत का स्वर सुनकर मैं अन्दर ही अन्दर कांपने लगी। कि कहीं ऐसा न हो कि यह मेरा पति कहलाने वाला मुझे आज फिर इनके सामने न परोस दे और वही हुआ जिसका मुझे डर था।

अभय ने तेज स्वर में लड़खड़ाते हुए आवाज दी। सु...गं...धा... यहां... बाहर... आओ। इतना सुनते ही मेरे रोंगटे खड़े हो गये। मैं अपनी बेटी के पास से उठती कि उसकी वही आवाज दुबारा मेरे कानों को चीरती कमरे की दीवारेां से टकरा गयी। मैं उठकर विवशता भरे कदमों से चलती कमरे के बाहर पहुंच गयी। मेरे वहां पहुंचते ही उन लोगों के चेहरों पर कमीनगी भरी मुस्कराहट दौड़ गयी। मैंने भी तुरन्त अभय से पूंछा क्या बात है। क्यों मुझे आवाज दे रहे थे। अरे! अरे! इधर तो आओ। अभी बताते हैं। कहते हुए उसने मेरा हाथ पकड़ने के लिए अपना हाथ बढ़ाया।

मैं भी झटके से मुड़कर अपने कमरे की ओर जाते हुए कहा-कि मैं यहां पर नहीं रूकती। मेरे इतना कहते ही पीछे से किसी ने मेरी कमर को कसकर पकड़ लिया। जब मैं पीछे घूमी तो देखा वह मयंक था। मेरे पूरे शरीर में आग लग गयी। मैं चिल्लाते हुए बोली - मुझे छोड़ो यह क्या बद्तमीजी है। तुम लोगों से तो शराफत की उम्मीद करना भी बेकार है। तुम्हारे बहन, बेटी हैं या नहीं। मेरे इतना कहते ही अभय ने उठकर मेरे झापड़ मार दिया और गाली देते हुए कहा... कि... न..खरे करती है। लेकिन उधर मयंक ने मुझे छोड़ा नहीं। वह पकड़े ही रहा। फिर क्या था, मेरी इज्जत का एक बार फिर जनाजा निकालने के लिए उसने मुझे उसी कमरे में बिस्तर पर पटक दिया।

जल से निकालकर बाहर फेंकी गयी मछली की तरह मैं छटपटा रही थी। उन बहशी दरिन्दों से अपने को छुड़ाने का प्रयास कर रही थी लेकिन वह सब उनकी हैवानियत के सामन बेकार था। मेरे चिल्लाने का भी उनके ऊपर कोई असर नहीं हो रहा था। मयंक मेरे दोनों हाथ पकड़े हुए था। वह दुर्दान्त दिखने वाले आदमी ने मेरी साड़ी को शरीर से अलग कर दिया, फिर भी मैं अपने अंगों को उसकी नज़रों से बचाने की कोशिश कर रही थी। महाभारत में तो द्रौपदी की लाज कृष्ण ने बचा ली थी। परन्तु यहां पर मेरा पति स्वयं ही मुझे इन दुष्टों के सामने परोस चुका था। इधर मेरी इज्जत तार-तार होकर बिखर रही थी और उधर अभय शराब के नशे में धुत चेयर पर बैठकर मेरे मान मर्दन का तमाशा देख रहा था। वह दोनों मुझे किसी कसाई से बिल्कुल कम नहीं दिख रहे थे। जिन्होंने मुझे एक जानवर ही समझ रखा था।

इस तरह उस व्यक्ति ने लगभग मेरे सारे कपड़े नोंच कर मेरे शरीर से अलग कर दिये थे। अब मैं अपने को इनसे बचाने का निरर्थक प्रयास करते-करते परास्त हो चुकी थी और वह व्यक्ति अपनी वासना की अग्नि को शान्त कर रहा था। उस समय मैं पैर पटकते हुए ईश्वर से मन ही मन अपनी मौत मांग रही थी। क्योंकि अब यह सब मुझसे असहनीय हो चुका था। अगर दूसरे शब्दों में कहें तो मेरे पति ने ही मुझे बेमोल की वैश्या बना दिया था। उस रात उन दोनों ने मेरे साथ इच्छा भरके मनमानी की। परन्तु उस अभय के भावों में कोई परिवर्तन नहीं हुआ शायद उसका खून सफेद हो गया था।

अब मैं ईश्वर के अतिरिक्त किसी और से मुक्ति की भीख मांगना भी नहीं चाहती थी। मेरी आंखें बन्द थीं और मयंक रूपी गिद्ध मेरे तन-बदन को नोंच रहा था। कभी अपने हाथ-पैर पटकती और बड़बड़ाती लेकिन इन सबका उसके ऊपर कोई असर नहीं हो रहा था। यहां तक कि मैंने उन दोनों को नाखूनों से नोच भी लिया था। जिसके फलस्वरूप मुझे उन दोनों से मार भी खानी पड़ी थी। मैं अपने को मयंक से छुड़ाने का प्रयास कर रही थी कि अचानक मेरे कानों में मम्मी-मम्मी की आवाज पड़ीं तो मेरी आंखें एकाएक खुल गयीं। मैंने सिर उठाकर देखा तो मेरी बेटी मेरे पास खड़ी थी। वह मेरे उस बिस्तर पर जैसे चढ़ने लगी कि उस खूंखार व्यक्ति ने उसे पकड़ लिया।

इतना सब मेरे जीवन में घटित हो रहा था लेकिन अभय नशे में धुत कुर्सी पर आंख बन्द किये पड़ा था। बेटी आस्था उसके द्वारा पकड़ने पर बहुत तेज रोने लगी। उसने अपने को छुड़ाने के लिए उस आदमी के हाथ में काट लिया। तभी उस आदमी ने उसके तड़ाक-तड़ाक दो चाटे जड़ दिये। मेरी बेटी तिलमिला कर रह गयी। उसके दोनों गाल लाल सुर्ख हो गये थे। उसके बाद भी वह मेरी ओर ही रोते हुए लपक रही थी। वह अपने छोटे-छोटे हाथ फैलाकर मेरे पास आना चाह रही थी। इधर मयंक मुझे अपनी बाहों की गिरफ्त से बाहर ही नहीं जाने दे रहा था। वह अपनी पूरी ताकत लगा मुझे दबोचे हुए था। मुझको पकड़े हुए ही उसने उस आदमी से कहा-इससे अच्छा माल दूसरा क्या मिलेगा। इतना सुनते ही वह आदमी मेरी बेटी के साथ भी बलात्कार करने का प्रयास करने लगा। उसे उसने जमीन पर ही गिरा रखा था।

इतना देखते ही मेरे अन्दर पता नहीं कहां से इतनी शक्ति आ गयी कि मैंने मयंक को ढकेल दिया। वह बेड के नीचे गिर गया और मैं अपने कुछ एक बचे हुए कपड़ों को संभालते हुए बिस्तर से नीचे आ गयी। परन्तु दूसरे ही क्षण उसने मुझे फिर से अपनी बाहों में कस लिया। इधर वह आदमी मेरी बेटी को लहूलुहान कर चुका था। मेरी बेटी की चीख जिस तरह कमरे की दीवारों से टकरा कर शान्त हो गयी। वैसे ही मेरी बेटी की सांसे भी मेरे आंखों के सामने ही शान्त हो गयीं। मैं फटी हुई आंखों से बच्ची को कुछ क्षण तक देखती रही। तब तक मयंक ने मुझे छोड़ दिया था मेरी आंखों के सामने अंधेरा छा गया था। मुंह से आवाज भी नहीं निकल रही थी एक प्रकार से मैं जिन्दा लाश बन गयी थी।

अब मेरी हंसती-खेलती बेटी इन दुराचारियों की हवस का शिकार हो गयी थी। मेरी आंखों के सामने उसकी लाश पड़ी हुई थी। मैं कुछ क्षणों के लिए निस्तब्ध हो गयी थी। मेरा मुंह खुला का खुला ही रह गया। बस आंखों से आंसू अबाध गति से बह रहे थे। वे दोनों दुराचारी अपने कपड़े सही करने में लगे हुए थे। मैंने मौका पाकर कमरे से बाहर कदम रखते हुए बाहर से कमरे को बन्द कर दिया और मैं घर से बाहर उस अंधेरी रात में निकल गयी थी। मेरी गोद सूनी हो गयी थी मेरे मन को सबसे बड़ा आघात यही लगा था और मैं अपनी बेटी आस्था को इधर-उधर पुकारती हुई निकल गयी थी। उसके बाद कैसे मैं डा. साहब के क्लीनिक पहुंची मुझे कुछ भी पता नहीं। क्योंकि मेरी हंसती-खेलती दुनिया अब बीरान हो गयी थी। मैं इधर-उधर भटकती हुई अपनी आस्था को ढूंढ़ रही थी।

इस तरह कहते हुए सुगन्धा बिलख-बिलख कर रोने लगी। सिद्धेश भी अत्यन्त भाव-विभोर हो उठा था। उसने सुगन्धा को लपक कर सीने से लगा लिया और अपने हाथों से उसके आंसुओं को पोंछने लगा। परन्तु सुगन्धा चुप होने का नाम ही नहीं ले रही थी। सिद्धेश के बहुत प्रयास के बाद सुगन्धा के जब आंसू थमे तो उसने उसे भरोसा दिलाया कि जो तुम्हारे साथ दुष्कर्म हुआ है उससे मुझे बहुत ही आत्मिक कष्ट है। मैं उन सभी दुराचारियों को उनके किये का दण्ड अवश्य दिलाऊंगा।

इतना कहकर सुगन्धा के कन्धों को पकड़कर उसने उठाया। अब रात बहुत हो गयी चलकर सो जाओ। सबेरे ही मैं उनके खिलाफ एफ.आई.आर. करूंगा। ऐसा कहते हुए सिद्धेश उसको कमरे तक छोड़ने चला गया। सुगन्धा को कमरे में सान्त्वना देने के बाद स्वयं कमरे में आकर सो गया।

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