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फ़ैसला - 3

फ़ैसला

(3)

उसके बाद तो उन घर की चाभियों ने तो मेरी जिन्दगी ही बदल दी। अब मैं बेटी से बहू बनने के इस दौर से गुजर रही थी। जहां पर स्त्री को मानसिक और शारीरिक अनेकों झंझावतों का सामना करना पड़ता है। लेकिन इन सबके बाद भी अपने परिवार और कुल की परम्पराओं और जिम्मेदारियों को पूरी ईमानदारी के साथ निभाना पड़ता है। फिर तो शादी के बाद मैं मात्र एकबार अपने अम्मा-पिताजी के घर गांव जा पायी। अम्मा भी मेरी जिम्मेदारियों को समझते हुए मुझे गावं बुलाने की जिद नहीं करती थीं। उनको पता था कि मेरी बेटी ससुराल में अकेली है इस लिए उसका रहना वहां अधिक जरूरी है। अगर सास या ननद होती तो बात ही और होती। जिम्मेदारियां थोड़ी-बहुत तो बंट ही जातीं। यही सब सोचकर मां ने भी समय से समझौता कर लिया था। मेरी क्या? मैं तो अब ससुराल की होकर रह गयी। लेकिन मेरा मन अब पति और ससुरजी की सेवा तथा घर के कामकाज में रमने लगा था। मेरी तो बस ससुराल ही दुनिया थी।

अभय मुझसे बहुत प्रेम करता था कभी किसी चीज की कमी का आभास मुझे नहीं होने देता था। वैसे तो वह दिनभर अपनी दुकान पर काम के सिलसिले में ही व्यस्त रहता था। लेेकिन रात में घर आने के बाद जो समय मिलता वह अपने पिताजी और मुझे पूरा-पूरा देता था। अगर मैं जरा सा कुछ सोचने भी लगती तो वह बहुत परेशान हो जाता था। अभय जितना मुझसे प्रेम करता था, मैं भी उससे कहीं अधिक ही उसको प्यार करने लगी थी। अब तो जब तक वह शाम को वापस घर नहीं आ जाता मेरा दिल बहुत ही बेचैन रहता था। कभी-कभी तो बेचैनी इस कदर बढ़ जाती कि मैं मोबाइल उठाकर उभय को फोन करने लगती। जबकि उसने यह हिदायत दी हुई थी कि जब तक कोई बहुत आवश्यक काम न हो मुझे दुकान पर फोन न किया करो। लेकिन दिल है कि मानता ही नहीं था। आखिर फोन पर एक प्यार भरी डांट मुझे पड़ती और मैं फोन रख देती।

सिद्धेश उस समय बड़े गौर से सुगन्धा के चेहरे को देख रहा था। वह जब अपने और अभय की प्रेम चर्चा कर रही थी उस समय एक चमक सी उसके कपोलों की लालिमा में नजर आ रही थी। वैसे तो रात बहुत बीत चुकी है घड़ी की ओर देखते हुए सिद्धेश ने मन ही मन सोचा। लेकिन आज जब सुगन्धा अपने अतीत के पन्नों को खोल रही है तो उसे बीच में रोकना ठीक नहीं। यह सोच उसने आगे बताने के लिए सुगन्धा को इशारा किया। सुगन्धा भी इस समय अपने शारीरिक और मानसिक कष्टों को भूल अतीत की गलियों में खो चुकी थी। सोफे पर बैठने की स्थिति को बदलते हुए उसने सिद्धेश की ओर मुंह कर अतीत का अगला पन्ना खोला।

मेरे ससुरजी भी कभी घरेलू कार्यों में कोई कमी नहीं निकालते बल्कि मेरे द्वारा किये गये कामों की तारीफ ही किया करते थे। उन्होंने मुझे कभी बहू की नजर से देखा ही नहीं हमेशा बेटी ही मानते रहे और मैं भी उनको अपने पिताजी से कम नहीं मानती थी। मेरी शादी के बाद घर के खर्चों की जिम्मेदारी भी उन्होंने मेरे ऊपर ही डाल रखी थी। रुपये-पैसों का लेन-देन भी मेरे ही हाथों होता था। इस तरह मेरे गृहस्थ जीवन की गाड़ी बहुत अच्छी तरह से चल रही थी। पति की ओर से भी मैं बहुत संतुष्ट थी। वे मुझसे कभी किसी-चीज की कमी नहीं होने देते थे। कभी-कभी तो मेरे मना करने के बाद भी मेरे लिए कपड़े और जरूरत का सामान घर ले आते थे। इससे तंग आकर मैं कभी उनसे मुंह मोड़ लेती थी। लेकिन मुझे मनाने के तरीके उनके पास बहुत थे आखिर वे किसी न किसी तरह से मुझे मना ही लेते थे। फिर मैं अपने को आंखें नीचे किये हुए, मुस्कराहट के साथ उनके बाहों के घेरे में पाती थी। उस समय तो मुझे इतनी लाज आने लगती, कि मैं वो देखो पिताजी... आ रहे हैं। कहकर उनकी बाहों से अपने को छुड़ा दूर हो जाती थी।

घर में सास के न होने के कारण अगर देखा जाय तो आजादी कुछ अधिक ही मुझे मिली जो कि अन्य लड़कियों के नसीब में कम ही होता है। परन्तु कहीं न कहीं सास की कमी भी मुझे बहुत लगती थी। जब कोई तीज-त्यौहार या पूजा के समय कोई चीज समझ नहीं आती थी। तब यही लगता कि काश अगर वो होतीं तो मैं पूछ तो सकती थी। फिर मुझे मां के पास फोन कर उनसे पूछना पड़ता। तब मुझे अहसास होता कि एक बहू के लिए घर में सास का होना कितना आवश्यक होता है क्योंकि एक नवविवाहिता के सामने छोटी-बड़ी अनेकों समस्यायें परिवार में आ ही जाती हैं। जिनका समाधान घर की बुजुर्ग महिलाओं के पास ही होता है। इसीलिए मुझे कभी न कभी सास की कमी जरूर लगती थी।

धीरे-धीरे मेरी शादी को एक वर्ष से ऊपर बीत चुका था। मैं अपनी गृहस्थी में लीन हो चुकी थी। पति का प्यार मेरे ऊपर वर्षा ऋतु के काले मेघों के समान बरस रहा था और एक नव यौवना सरीखी अपने वच्छांग को समेटे उसी प्रेम रूपी बारिस में दिन प्रतिदिन नहा रही थी। इस प्रकार मेरा पारिवारिक जीवन बहुत ही सुखमय एवं शांतिपूर्वक व्यतीत हो रहा था। परन्तु शायद यह ईश्वर को अच्छा न लगा होगा। अचानक ससुर जी का स्वास्थ्य बहुत खराब हो गया। अभय ने उनको कई डाक्टरों के पास दिखाया। कई दिनों तक वे हास्पिटल में एडमिट भी रहे। कभी उनका हालत में सुधार होता, तो कभी उनकी तबियत बहुत अधिक खराब हो जाती। इस तरह लगभग एक सप्ताह बीता होगा, कि मेरे ससुर जी का देहान्त हो गया।

उस समय हम दोनों को कुछ समझ में ही नहीं आ रहा था कि अब क्या करें। जब तक वे जीवित थे उनका बहुत बड़ा सहारा था। ऐसा लगता था कि कोई तो है जो हमें समय पड़ने पर उचित सलाह देकर दोनों का मार्गदर्शन कर सकता है। ससुर जी का होना मेरे लिए किसी छाते से कम न था। जिसके नीचे हम दोनों बेखौफ सुख-दुख में समान अवस्था में रहने को तैयार रहते थे। कोई अधिक चिंता भी नहीं थी। अगर कोई मुश्किल होगी भी, तो पिताजी उसे संभाल लेंगे। वे हमारे लिए किसी वट-वृक्ष से कम न थे। लेकिन उनका देहान्त होते ही सब कुछ सूना-सूना हो गया था। घर का वह कमरा जिसमें वे रहते थे वह तो काट खाने को दौड़ता था। उसमें शमशान जैसा सन्नाटा छाया रहता था।

अभय की हालत का तो बयान ही नहीं किया जा सकता उसका तो रो-रोकर बुरा हाल था। कई दिनों तक तो वह दुकान पर भी नही गया। दुकान पर जो लड़के काम करते थे। वही चाभी ले जाकर दुकान खोलते और वही बंद करके चाभी वापस घर पर दे जाते। रुपये-पैसों का हिसाब भी दुकान का एक नौकर देखता था लेकिन वह था तो नौकर ही। जो भी वह बताता वह मानना पड़ता। एक दिन मैंने अभय को बहुत समझाया कि इस तरह आखिर कब तक चलेगा। आपके इस तरह घर पर बैठे रहने से पिताजी वापस तो नहीं आ जायेंगे। वह भी सिर हिलाकर समर्थन कर रहा था।आखिर दूसरे दिन सबेरे ही वह दुकान के लिए तैयार होने लगा। वैसे समय दुःखो का सबसे बड़ा मरहम होता है, वह जैसे-जैसे बीतता दुःखों के घाव वैसे-वैसे भरने लगते हैं। वही आज अभय के साथ हुआ था। शायद उसने भी मान लिया था कि बैठे रहने से यह जीवन रूपी गाड़ी चलने वाली तो है नहीं।

अतः वह अपनी दुकान पर चला गया। अब तौ मैं घर में बिल्कुल ही अकेले हो गयी। सारा घर भांय-भांय कर रहा था। सबसे अधिक मुझे अब ससुरजी की याद आती थी, ऐसा लगता था कि अभी वे बाहर से आकर कहेंगे। बहू चाय बन गयी है। इस तरह के अनेकों विचार मेरे मन मैं बिजली की तरह कौंध रहे थे। एक तरफ अकेले होने के कारण डर भी बहुत लगता था। इसलिए मैंने जल्दी से किचन का काम निपटा कर अपने कमरे में टी.वी. खोलकर बैठ गयी कि किसी तरह मन दूसरी ओर लगे। इसके बाद जब शाम को अभय ने आकर दरवाजे पर लगी बेल को बजाया। तब मैं कमरे के बाहर निकलकर दरवाजा खोलने गयी।

अभय ने आते ही मेरा हाल-चाल पूंछा और पास ही रखी चेयर पर बुझे मन से बैठ गया। मैंने पानी का गिलास उसकी ओर बढ़ाते हुए आखिर पंूछ ही लिया, कि क्या बात है कुछ दुकान पर हुआ क्या? उसने पहले नहीं कहकर टालने की कोशिश की, परन्तु उसके बाद बताया। कि वह जब घर पर ही बैठा रहा और दुकान नहीं गया। उसी बीच वहां काम करने वाले एक लड़के ने बहुत मन मानी की। ýपयों में भी उसने कुछ हेर-फेर कर दिया, जिस काण नुकसान भी काफी हो गया। मैं तो पहले ही कहती थी कि कर्मचारियों पर एक हद से ज्यादा विश्वास करना ठीक नहीं होता और वो जो अभी कुल मिलाकर चार दिन से आ रहा हो।

हां सुगन्धा! तुम बिल्कुल ठीक कहती थी। गलती मेरी ही थी जो मैंने उस पर इतना विश्वास किया कि सारा लेन-देन का भार उसको सौंप दिया। यही कहिए! इसका पता दूसरे लड़कों से चल गया, नहीं तो पता नहीं वह और कितने का चूना लगा देता। इसी तरह अभय बोल रहा था। मैंने भी आज उसको काम से निकाल दिया। इसने तो मेरी दुकान का कबाड़ा ही कर दिया। उफ... कहते हुए अभय ने अपना सिर ही पकड़ लिया। मैंने भी उसकी पीठ पर धैर्य और प्रेम से भरा हाथ रखते हुए कहा - चिन्ता मत करो। यदि ईश्वर की दृष्टि ठीक रही तो इस नुकासान की पूर्ति भी हो जायेगी।

उस समय शायद मेरी जीभ पर सरस्वती ही बैठ गयी थी। कुछ ही दिन बाद ईश्वर की ऐसी कृपा बरसी कि मेरे पति की दुकान में अच्छा-खासा फायदा होने लगा। अभय ने एक छोटी से दुकान से एक दूसरी दुकान भी खोल ली। एक दिन मैंने अभय से पूंछा यह इतनी जल्दी कैसे हो गया। वह मुस्कराकर बोला अरे यार! आम खाओ। पेड़ की डालियां गिनकर क्या करोगी। लेकिन मैं उसके इस उत्तर से सन्तुष्ट नहीं थी। मेरे मन को चैन नहीं मिला रहा था। क्योंकि इधर अचानक अभय के अन्दर मुझे कुछ बदलाव नजर आने लगे थे। जो व्यक्ति कभी किसी नशीली चीज़ को हाथ भी न लगाता हो और वह शराब पीकर घर आने लगे तो आश्चर्य तो होगा ही। अब पिताजी का कोई डर तो था नहीं। पत्नी से डरना कैसा। अगर अधिक बोलने लगी तो डांट-फटकार कर शांत कर दिया। इस समय यही मेरे साथ भी हो रहा था।

तुमने इसका कोई विरोध नहीं किया? बीच में टोकते हुए सिद्धेश बोला। विरोध तो अधिक नहीं कर पायी लेकिन हिम्मत करते हुए- अपने उसी प्रश्न को दुबारा दोहराया - कि कैसे अचानक बिज़नेस इतना बढ़ गया।

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