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फ़ैसला - 6

फ़ैसला

(6)

मैंने जैसे ही लेटने के लिए बेटी को एक ओर बिस्तर पर खिसकाना चाहा, कि उसी क्षण अभय लड़खड़ाते हुए कमरे में दाखिल हुआ। उसे देखते ही मेरे अंदर भरा गुस्से का लावा बाहर फूट पड़ा। मैं घायल शेरनी की तरह उस पर टूट पड़ी। उसके शर्ट के कॉलर को पकड़ कर मैं लगभग लटक गयी। वह कितना भी नशे में था। लेकिन एक पुरूष और एक स्त्री की ताकत में अन्तर होता है। उसने अपने दोनों हाथों से छुड़ाकर मुझको फर्श पर फेंक दिया। उसके बाद भी मैं दौड़कर उससे लिपटकर नोचने लगी। बार-बार मैं एक ही शब्द दोहरा रही थी कि तुम औरत के दलाल हो। तुमको मैं अपना पति कहूं - छिः ... छिः ...। तुमसे अच्छे तो बेचारे वे लोग है जो झुग्गी-झोपड़ी में रहकर भी अपनी पत्नी की इज्जत पर आंच नहीं आने देते। हर हाल में पत्नी के मान की रक्षा करते हैं।

अच्छा तो तेरी नजर में वो झुग्गियों में रहने वाले मुझसे अच्छे हैं तू मेरी तुलना उन झोपड़ी वालों से कर रही है। वे है ही इस काबिल। इसीलिए तो वो भूखे नंगे घूमा करते हैं और मुझको देखो क्या नहीं है मेरे पास। और फिर जिसके पास मयंक जैसा दोस्त हो उसको क्या कमी हो सकती है। जब से उससे दोस्ती हुई मैं ऐश कर रहा हूँ। हां-हां क्यों नहीं वह तो तुम्हारा भगवान है। लेकिन भगवान की तरह तुम उसे पूजो मेरे लिए तो उससे नीच और चरित्रहीन कोई दूसरा नहीं। मेरा इतना कहना था कि उसने मुझे धक्का देकर जीमन पर गिरा दिया और लात-घूसों से मुझे मारने लगा। मैं चिल्लाती रही लेकिन उसके हाथ पैर नहीं रूके। ऐसा लग रहा था जैसे कि मैंने उसको बहुत बड़ी गाली दे दी हो।

मेरे रोने की आवाज सुनकर बेटी आस्था जग गयी उसने मुझे फर्श पर बैठे रोते हुए देखा तो वह भी रोती हुई मुझसे आकर लिपट गयी। परन्तु अब तो शायद मेरी ज़िन्दगी में रोना ही लिखा था। मेरी इच्छाएं और मान-मर्यादा सभी को इस समाज द्वारा कहे जाने वाले पति ने कुचल डाला था और विवशता के महापाश में जकड़ी हुई पराधीनता में बस सांसें भर ले रही थी। क्योंकि यह शरीर भी मुझे अब किसी बोझ से कम नही लग रहा था। यह घर मेरे लिए कारागार बन गया था। वैसे तो कहते हैं कि जेल में किसी बन्दी को प्रताड़ित नहीं किया जाता या कहिए कि उसे शारीरिक दण्ड नहीं दिया जाता। लेकिन यहां पर मुझे यह भी भोगना पड़ता था।

मैं अपने को बहुत ही अस्त-व्यस्त महसूस कर रही थी। परन्तु बेटी के पास आते ही अपने कष्टों को भूल मैं सिर्फ उसी के बारे में सोचने लगती थी कि अगर कहीं मेरे शरीर को कुछ हो गया तो मेरे बाद मेरी इस नन्हीं सी जान का क्या होगा। क्योंकि अब अभय पर मुझे लेश मात्र भी भरोसा नहीं था। वह किसी भी समय मेरे साथ कुछ भी कर सकता था या कहिए कि मेरी जान लेने में भी उसे कोई अफसोस नहीं होगा। आज की रात मुझे बहुत ही भयावह प्रतीत हो रही थी। कमरे में अब केवल सन्नाटा ही पसरा हुआ था जिसको कभी-कभी मेरी सिसकी या फिर बेटी आस्था की तोतली बोली भंग कर देती थी।

अभय की तरफ मुझे देखने की इच्छा नहीं होती थी। वह तो बेसुध टांगे फैलाये बिस्तर पर लेटा हुआ था। वह इस समय किसी शैतान से कम नहीं लग रहा था। वैसे तो शैतान कहना ठीक नहीं, तुम कहोगे कि वह तुम्हारा पति है ऐसे कहते हुए सुगन्धा ने सिद्धेश की ओर देखा। सिद्धेश से भी अब नहीं रहा गया वह बोला यह भी कोई बात है कि पुरूष नारी को भांति-भांति से प्रताड़ित करता जाय। फिर भी वह समाज की दृष्टि में दूध का धुला होने का ढोंग करे। यह तो अत्यन्त नीच पुरूष के कृत्य हैं जो अपनी ब्याहता स़्त्री को पर- पुरूष को कुकृत्य के लिए सौंप दे, वह पति कहलाने के लायक ही नहीं। उसे तो पेड़ पर लटकाकर इतने कोड़े मारने चाहिए जब तक उसकी अन्तिम सांस न निकल जाय। अरे मुझको तो आश्चर्य होता है कि तुमने यह सब सहन कैसे कर लिया। मेरे तो सुनकर रोंगटे खड़े हो जाते हैं और फिर तुम्हारे ऊपर तो सब बीत चुका है तुम्हारी मनःस्थिति क्या होगी। इसका मैं अनुमान लगा सकता हूं। इतना कहते हुए सिद्धेश ने सुगन्धा से आगे बताने के लिए आग्रह किया।

कहीं मेरी ब्यथा से आप बोर तो नहीं हो रहे हो। मैं भी तुम्हारे सामने आप बीती लेकर बैठ गयी। सुगन्धा ने सांस को थोड़ा लम्बा खींचते हुए कहा।

अरे नहीं तुम ऐसा क्यों सोचती हो। तुम अपने को मुझसे अलग मानती हो क्या?

उसने अपना सिर न कहने के अन्दाज में हिला दिया। और आगे बताने लगी - मैं बेटी को लेकर फर्श पर ही लेट गयी। क्योंकि उस बिस्तर पर अभय लेटा था इसलिए वह मुझे अंगारों की सेज के समान प्रतीत हो रहा थी। अतएव उससे मैं दूर ही रहना चाहती थी। मेरे कलेजे की आग वैसे ही भट्ठी की तरह धधक रही थी। जिसकी तपिस मेरी आंखों में उस समय साफ देखी जा सकती थी।

मैं बेटी के साथ जमीन पर लेटी जरूर थी। लेकिन आंखों में नींद ठीक उसी तरह गायब थी जैसे रोने के समय हंसना। उसे कमरे में अंधेरा छाया हुआ था इस समय शायद यह कमरा भी सोना चाहता हो। लेकिन मेरी आंखें उस अंधेरे में भी खुली ही थी। जैसे आंखों से नींद कहीं गायब हो गयी थी। बस उस समय मेरे मस्तिष्क में विचारों का ज्वार भांटा उठ रहा था। ऐसा लगता था कि सिर फटकर धड़ से अलग हो जाएगा। इतना भयानक सिर दर्द होने लगा था जिसे मैं बता नही सकती। कभी उठकर बैठ जाती या कभी लेट जाती। दर्द का कारण तो सामने बिस्तर पर लेटा मेरा पति ही था।

रात भर यही सोचती रही कि वे औरतें धन्य हैं कि जिनके पति बाहर से घर आने पर अपनी पत्नियों का सुख-दुख तो पूंछते हैं और सहानुभूति भरे हाथ उनकी पीठ पर फिरा देते हैं। लेकिन मैं क्या करूं, यहां तो मेरा पति ही मुझको नीलाम करने पर तुला हुआ है। उसे गलत संगति के कारण तो मेरी इज्जत का सौदा करने में भी कोई झिझक नहीं महसूस हुई। बल्कि वह अपने उस चत्रिहीन दोस्त मयंक को अपना सबसे बड़ा हितैषी मानता है और मुझे उसके सामने पैर की जूती।

पैर की जूती से भी याद आया कि अभय ने कई बार मुझको अपने पैर के जूतों से भी मारा था। जिस कारण मेरा सिर और पीठ कई दिन तक दर्द करते रहे। लेकिन क्या मजाल वह अगर एक रुपये की दवाई तक घर लाया हो। जब से यह दोस्त क्या इसकी जिन्दगी में आया। मेरी हंसती-खेलती दुनिया ही उजड़ गयी। हम दोनों के बीच में उसने ऐसा कांटों का जाल बिछाया कि जिसकी चुभन आज भी टीस बनकर कलेजे को सालती रहती है। पहले बिना कहे पत्नी और बेटी की जरूरत का हर सामान लाने वाला, आज पर्चा लिखकर देने के बाद भी कुछ लाया नहीं।

वह हम दोनों की तरफ से बिल्कुल लापरवाह हो गया था। उसे बस अपनी दोस्ती और बिजनेस की ही चिन्ता थी। वह भी ऐसा कि अगर उसे शराब और शबाब की दावत कोई दे दे तो कहो दुकान कर शटर खुला ही छोड़कर चला जाय। लेकिन गंदी आदत सिर्फ और सिर्फ मयंक से दोस्ती के बाद ही पड़ी। वरना पहले तो समय से घर आना और दिन में चार बार फोन कर मेरे और बेटी के हाल-खबर लेना, समय से घर वापस खुशी-खुशी आना और साथ में सामान से लदा झोला जरूर होता था। लेकिन अब दिन में खैर-खबर लेने की बात तो दूर, देर शाम को लड़खड़ाते कदमों और उसी शराबी दोस्त के साथ वापस आना और आते ही मुझे चार-छः गालियों का उपहार देना। उस झोले में अब घरेलू सामान की जगह शराब की बोतले, नानवेज और दालमोठ न ले ली थी।

अब तो बेटी के लिए चाकलेट और बिस्कुट की भी उसे याद नहीं रहती थी। अगर कभी ले भी आया तो जानवरों के आगे जैसे चारा डाला जाता है। उसी तरह पैकेट को पटकने के अन्दाज में मेरे सामने डाल देता था। लेकिन मुझे अब गालियों और कार मार का उपहार देना बिल्कुल भी नहीं भूलता था। ऐसे ही विचारों के भंवर में अपनी बेटी को सीने से चिपकाये आंखें बन्द किये हुए नींद से कोसों दूर नींद इन्तजार कर रही थी। मालूम नहीं मेरी कब आंख बन्द हुई और निद्र देवी ने मुझे सारी उलझनों से कुछ समय के लिए दूर कर दिया।

क्रमशः