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शून्य बटे सन्नाटा


हवाईजहाज मेरे शहर की सीमा में पहुँच चुका था। सर्दियों में अंधेरा जल्दी घिर आता है। थोड़ी देर पहले नीले आसमान में प्रसरित सूर्यकनियों की स्वर्णिम रोशनी को स्याह अंधेरा अपनी आगोश में ले चुका था। अब मीलों तक नीचे पसरे शहर की बत्तियां तारों जैसी टिमटिमाती दिख रहीं थीं। मैं ऊपर उड़ रही थी और आसमान मानो मेरे कदमों तले बिछा हुआ था। मैं हमेशा से आसमान में उड़ते हुए गाना चाहती थी... 'आज मैं ऊपर... आसमां नीचे...' आज मेरा सपना सच हो रहा था... किन्तु मैं खुश क्यों नहीं...??

बचपन से नीले आसमान को छू लेने की चाह मेरे मन में बलवती रही। मैं उचक उचक कर उड़ने की कोशिश करती थी। मेरे पापा ने मेरा हर सपना पूरा करने में मेरा साथ दिया। सही मायनों में पापा की परी थी मैं... उन्होंने हौसलों के पंख दिए और उड़ान का सपना भी... इकलौती बेटी की हर फरमाइश पूरी की। मम्मी नाराज़ होकर कहती थीं कि आसमान में उड़ो लेकिन धरती पर कदम टिकाए रखो। मैं ही उड़ते उड़ते आकाश के अनन्त विस्तार में कहीं गुम गयी थी, यथार्थ की पथरीली चट्टान पर पैर टिका ही न पायी। आज फिर लौट रही हूँ अपनी छोड़ी हुई जमीन की तलाश में... मन में एक दबी हुई आस की किरण अभी भी जिंदा है.. शायद मेरा शशांक अपनी विभा का इंतज़ार कर रहा होगा।

प्लेन लैंड कर चुका था। उस पल मेरे दिल की धड़कन मुझे ही अजनबी लग रही थी। यह मेरा अपना शहर है। यहाँ की मिट्टी की खुशबू मेरी रग रग में बसी हुई है। आज यह भी अपरिचित सा लग रहा है। जीवन के तीस बसन्त गुजारे हैं मैंने इस शहर में... क्या पिछले दस साल उन तीस सालों से भी लम्बे थे, जिन्होंने मेरी दुनिया ही बदल दी। यंत्रचालित सी मैं एयरपोर्ट से लगेज लेकर बाहर आयी। मेरी नज़रें शशांक को ढूंढ रही थीं। वहाँ कई चेहरे नाम की तख्तियों के पीछे छुपे थे। मैं उन्हें नज़रंदाज़ कर आगे बढ़ गयी। विश्वास था कि मेरे नाम की तख्ती नहीं होगी, इन दस सालों में शशांक ने एक एक पल मेरे इंतज़ार में बिताया होगा और शिद्दत से मेरे लौटने का इंतज़ार कर रहा होगा। कितना हसीन होगा वह पल जब हमारी नज़रें मिलेगी... क्या मैं आज भी शरमा जाऊँगी, क्या उसकी नज़रों में वही प्यार का झरना बहता होगा...? मैं सोच सोच कर अधीर हो रही थी।

यह सच है कि मेरी महत्वाकांक्षा ने मुझे शशांक से दूर कर दिया था, हमारे बीच दस साल का लंबा अंतराल पसरा था, किन्तु यह भी उतना ही सच है कि इन दस सालों में एक पल भी ऐसा नहीं गुज़रा जब मैंने शशांक को याद न किया हो। मेरे दिल की हर धड़कन ने उसी को पुकारा था। मुझे विश्वास था कि मेरे आने की खबर सुनकर शशांक सब काम छोड़कर दौड़ा चला आएगा और मुझे बाँहों में समेटकर कहेगा कि 'सुबह का भूला शाम को घर लौट आए तो उसे भूला नहीं कहते..'
'घर आया मेरा परदेसी.... ' गाने की आवाज़ आयी तो मैं खुशी से पलटी... शायद किसी के मोबाइल की रिंगटोन थी।
'बीप' की आवाज़ के साथ मेरे मोबाइल में लाइट फ्लैश हुई। मैसेज था... "सॉरी विभा, एक मीटिंग में फँस गया हूँ, ड्राइवर को भेजा है गाड़ी लेकर तुम्हे रिसीव करने।" मैंने पीछे नज़र दौड़ाई, केवल एक तख्ती थी, विभा के नाम की... आज मेरा नाम भी मैं पहचान नहीं पा रही थी। मन बोझिल हो तो तन उससे दस गुना बोझिल हो जाता है। एक एक कदम उठाना मुश्किल लग रहा था। ड्राइवर ने एयर बैग डिक्की में रखा और कार का गेट खोल दिया। कार शहर की चिरपरिचित गलियों में दौड़ रही थी और मेरा मन भी...

मेरे जन्म का जश्न पूरे सालभर तक चला था। आखिर आठ साल से खाली माँ की सूनी गोद मेरे आने से भरी थी। मेरे पापाजी उस विभाग के उच्च अधिकारी थे, जहाँ बिना प्रयास ही काली कमाई का ढेर लगा रहता। मेरे कहने से पहले ही मेरी इच्छाएँ पूरी हो जाती थीं। जिंदगी में अभाव कभी रहा ही नहीं और मेरा प्रभाव सब पर रहा। शायद इसीलिए मैं जिद्दी हो गयी थी। शशांक और मेरी दोस्ती कॉलेज कैंटीन में हुई थी। उस दिन वह आखिरी समोसा बचा था और खरीदार हम दोनों... कैंटीन वाला पसोपेश में... तभी उसने दो प्लेट लेकर समोसा आधा आधा किया और मुस्कुराते हुए एक प्लेट मेरी ओर बढ़ा दी। बस उस मुस्कुराहट ने मेरा दिल ले लिया। पहली बार देखा था उसे। वह उम्र का असर था जिसने मेरे मन में शशांक के लिए सॉफ्ट कार्नर पैदा कर दिया था। मैं फैशन डिजाइनिंग का कोर्स कर रही थी और वह एम बी ए का स्टूडेंट था। एक फैशन इवेंट के मैनेजमेंट के लिए हमारे इंस्टिट्यूट आया था। हमारा प्रेम परवान चढ़ा और......

"मैडम! होटल आ गया।" ड्राइवर की आवाज़ से तन्द्रा टूटी।
"होटल क्यों...? घर पर......"
"मैडम! साहब ने यहीं रूम बुक करवाया है आपके लिए, आइए..." उसने डिक्की से लगेज निकाल लिया था।

रूम का दरवाजा बंद करते ही मैं कटे पेड़ की तरह पलंग पर गिर पड़ी। मन बेहद विचलित था। खुद को ही दिलासा दे रही थी... शशांक नहीं चाहता होगा कि उसकी अस्त व्यस्त जिंदगी में उसकी अनुपस्थिति में झांकूँ... उसका टूटा दिल भी वहीं कहीं बिखरा पड़ा होगा, मैं सोच रही थी कि उसके मीटिंग में से लौटने के पहले ही बिखराव समेट लूँगी, उसे तो वैसे भी बेतरतीब रहने की आदत है, इतने सालों में जिंदगी की सीवन कुछ और उधड़ गयी होगी, उसे प्यार के पैबन्द लगाकर तुरप दूँगी... कैसे रहा होगा वह मेरे बिना... मैं अपने सपने पूरे करने की जिद में उसे अनदेखा कर चली गयी थी, कितना रोका था उसने... किन्तु....

'ट्रीन..' वेटर था... "मैडम! साहब का फोन था आप डिनर में क्या लेंगी? बता दीजिए...."
"थोड़ी देर से बता दूँगी..."
मैंने गीजर ऑन किया। एक शॉवर लेने से तन मन दोनों हल्के हो गए। गाउन पहन लिया और बालों को हल्की नॉट बनाकर छोड़ दिया। अब मैंने नोट किया कि यह वही होटल था, जिसमें हम सप्ताहांत में आया करते थे... 'मतलब शशांक को मेरी पसन्द का ख्याल अब भी है, मैं कितनी गलत थी, जो उसके प्यार को समझ नहीं पायी' सोचते सोचते मैंने रिसेप्शन का नम्बर डायल किया... "रूम नम्बर 214 में एक कॉफी और एक डोसा भिजवा दीजिए..." मैं सोचने लगी... '214... मतलब इक्कीस अप्रेल... तारीख भी... मतलब.... शशांक मुझे फिर से उन लम्हों में ले जाना चाहता है... कितनी बुद्धू थी मैं जो उसके प्यार को ठुकराकर अपने सपनों के पीछे भाग रही थी... आकाश से भी ऊँचे सपने थे मेरे, भूल गयी थी कि कितना भी ऊपर उड़ो, आकाश और ऊँचा होता जाता है, पर उसे बाँहों में कोई नहीं समेट पाता, अलबत्ता पैरों के नीचे से जमीन जरूर सरक जाती है..." सोचते सोचते आँख लग गयी।

सुबह मैं सनराइज देख रही थी। इस होटल के इसी रूम की विंडो से बने एंगल से यह खूबसूरत नजारा पहले भी शशांक और मैंने साथ में देखा है... "विभा और शशांक एक दूसरे के पूरक हैं, रात के बिना चाँद दिखता नहीं और चाँद से रात भी उजियारी हो जाती है..." वह हमेशा कहता था और मैं उसकी बाँहों में सिमट जाती थी। हमने कभी गौर ही नहीं किया कि सूरज के आने से रात और चाँद दोनों कहीं खो जाते हैं। हमें सूरज का आना हमेशा अच्छा लगता रहा... अचानक कंधे पर जाना पहचाना स्पर्श महसूस हुआ, पलटकर देखा... मैं सही थी... शशांक आ गया था, हम साथ में सूर्योदय देख रहे थे...
"विभा! मुझे पता था कि तुम लौटकर जरूर आओगी..."
"शशांक! मुझे माफ़ कर दो, मैं भूल गयी थी कि मैं जिस महत्वाकांक्षा को पूरा करने जा रही थी, वह मेरे लिए मृगमरीचिका ही साबित होगी, भास्कर ने मुझे सपना दिखाया और मैं उसे पूरा करने निकल पड़ी, ग्लैमर की दुनिया में नाम और दाम तो है, किन्तु सुकून नहीं... हमने कई देशों में फ़ैशन शो किए, अब मैं थक गयी हूँ..." मैं उसके कंधे पर सिर टिकाकर रो पड़ी... सूर्योदय हो गया था और मैंने देखा कि शशांक का चेहरा बदलने लगा... सामने भास्कर खड़ा था... मैं घबरा गयी और चिल्ला उठी... 'शशांक शशांक कहाँ हो तुम..? अचानक नींद खुली... 'ओह! यह सपना था...' मैंने राहत की सांस ली। नौ बजे चुके थे।

मोबाइल की घण्टी बजी... "विभा! तुम तैयार रहना, मैं एक घण्टे में आ रहा हूँ।"
"ठीक है.." अभी भी आदत नहीं बदली जनाब की.. एकबार हालचाल पूछ लेते तो क्या बिगड़ जाता... हुह... विचारों को झटक कर मैं उठ बैठी। नहाने के बाद बहुत देर तक बैग खोलकर बैठी रही...नीला सूट निकाला... उहूँ... शशांक को गुलाबी रंग पसन्द है... फिर बेबी पिंक कलर का प्लाज़ो सूट निकाल कर पहना, फर वाला मैरून कोट, स्टोल और शूज पहनकर काजल, हल्की लिपस्टिक और मैरून बिंदी लगाई। शशांक का फेवरेट परफ्यूम लगाकर बाल खुले छोड़ दिए।कानों में लंबे वाले इयरिंग्स, ब्रेसलेट और गले में पतली सी चैन डाल ली। आईने में देख खुद पर ही मोहित हो गयी। चालीस की उम्र में भी मैं षोडशी ही लगती हूँ, आखिर जानी मानी फ़ैशन डिजाइनर हूँ, जिसका नाम देश ही नहीं विदेश तक जाना जाता है। कितने ही फैशन शो अरेंज कर चुकी हूँ। टॉप की मॉडल्स मेरे साथ काम करती हैं। मैं रूम से निकलकर लॉबी में आ गयी थी और वहीं सोफे पर बैठकर शशांक का इंतज़ार करते हुए न्यूज़ पेपर देखने लगी।

'कितना प्यारा बच्चा है...' पेपर में छपी फोटो पर नज़र ठहर गयी... बहुत पहचाना सा चेहरा लगा मैं सोचने लगी कि शशांक बचपन में ऐसा ही दिखता होगा। कितनी समानता है चेहरे में... किसी स्कूल फंक्शन में प्राइज लेते हुए वह बहुत मासूम लग रहा था।

"हेलो विभा, कैसी हो, कोई दिक्कत तो नहीं हुई?" शशांक आ चुका था। उसने मेरी ओर हाथ बढ़ाया... हाथ मिलाते हुए पहले स्पर्श सी अनुभूति हुई। संयत रहते हुए मैंने जवाब दिया
"ठीक ही हूँ, तुम कैसे हो.."
"अच्छा हूँ, चलें..." मेरे जवाब की प्रतीक्षा किए बिना वह बाहर निकल गया। मेरे मन में कुछ दरक गया.... कहाँ तो मैं सोच रही थी कि वह मुझे देखते ही खुशी से पागल हो बाँहों में भर लेगा, मेरी तारीफ में कसीदे पढ़ेगा और मैं शरमा कर उसकी बाँहों में सिमट जाऊँगी, पहले की तरह... लेकिन....
"तुम बहुत बदल गए हो.." मैंने कार में बैठते हुए कहा...
"बदलना तो प्रकृति का नियम है, बदलाव स्वाभाविक है, तुम भी तो बदली बदली लग रही हो... अब चलें..?"
"पहले कॉलेज चलो... आज उसी कैंटीन में समोसा खाने का मन है।" मैं उसे अहसास कराना चाहती थी कि मैं भी उसके साथ बिताए लम्हों को पुनः जीना चाहती हूँ।
मैंने कार में म्यूजिक सिस्टम ऑन कर दिया। कोई नया गाना चल रहा था...
"तुम्हें तो पुराने गाने पसन्द थे..?"
"और सुनाओ भास्कर कैसा है?" उसने मेरे प्रश्न के जवाब में दूसरा प्रश्न पूछा।
"भास्कर...?? अच्छा ही होगा, अब हम साथ में काम नहीं करते, यहाँ एक फैशन कॉम्पिटिशन में जज बनकर आयी थी, तुम्हारी याद यहाँ खींच लाई... इतनी पास आकर बिना मिले चली जाती तो शायद तुम्हें भी अच्छा नहीं लगता।"
मेरी बात सुनकर वह थोड़ा असहज लगा...
"हम्म... मुझे बुरा लगने की परवाह तुम्हें कब से होने लगी..?"
सही तो कह रहा था शशांक... उसे कितना बुरा लगा होगा दस साल पहले जब मैं अपने सपनों की राह में उसे रोड़ा मानकर यूँ उसकी जिंदगी से एकाएक ही चली गयी थी।
"मुझे गलत मत समझो शशांक... गोल्डन ऑपर्च्युनिटी बार बार नहीं मिलती... यह सच है कि वह मौका छूट जाता तो आज मैं फ़ैशन जगत की जानी मानी हस्ती नहीं होती।"
"अब तो तुम खुश हो न? तुमने जिन्दगी में जो चाहा, वह पाया... आज तुम्हारे पास धन, ऐश्वर्य, शोहरत सब कुछ तो है..."
शशांक मेरी बाहरी दुनिया देख रहा था, और मैं अपने अंदर समाए सन्नाटे का शोर सुन रही थी.…
"ह्म्म्म..." मैं बोलना चाहती थी कि सबकुछ होते हुए भी मैं खुश नहीं हूँ, मेरी जिंदगी में तुम्हारी जगह आज भी खाली है...

कॉलेज आ गया था। कैंटीन भी कितना बदला बदला लग रहा था। पहले छोटा था, कुर्सियां पुरानी थीं किन्तु अपना सा था, अब नए सोफे, और नई इंटीरियर डिजाइन ने वह अपनत्व छीन लिया था। समोसे में भी वह पुराना स्वाद नहीं था।

कार अब मेरे पुराने घर की ओर जा रही थी। मम्मी पापा की दुर्घटना में मृत्यु के समय मैं इंग्लैंड में थी। खबर मिलते ही आयी थी। शशांक ने ही सब क्रियाकर्म करवाया। कुछ दिनों में ही वापस लौट गयी थी, शशांक को ही घर की जिम्मेदारी सौंपकर। शशांक भी तो मेरा अपना नहीं रहा अब, मेरी ही जिद थी अलग होने की, शशांक तो तब भी मुझे एक बार और सोचने को कह रहा था। मम्मी होतीं तो शायद मुझे समझाकर रोक लेतीं, मैं जिस खुशी की तलाश में गयी थी, वह तो मिली नहीं जो खुशी मेरी अपनी थी उससे मैं दूर जा चुकी थी। घर पर वकील साहब हमारा ही इंतज़ार कर रहे थे... कागजात तैयार थे... किराएदार ही घर खरीदना चाहता था... "विभा! ये पेपर्स मैंने तैयार करवा दिए हैं, घर की कीमत भी गाइड लाइन के हिसाब से तय की है, तुम तो अब यहाँ लौटोगी नहीं, तो तुम्हारी पैतृक प्रॉपर्टी कौन सम्भालेगा, पैसा तुम्हारे एकाउंट में जमा हो जाएगा, तुम ये देखकर, वकील से बात कर ये पेपर साइन कर देना... मैं इस जिम्मेदारी से भी मुक्त होना चाहता हूँ।"
'क्यों नहीं लौटूंगी यहाँ....? एक बार कहकर देखो, यहीं रुक जाऊँगी....' मैं चीख चीख कर कहना चाहती थी किन्तु कुछ नहीं बोल पायी... फ़ाइल रख ली और वकील से अगले दिन का अपॉइंटमेंट ले लिया। अब हम घर की ओर जा रहे थे... वह घर जो मेरा और शशांक का था कभी.. कितनी सुकूनभरी जिंदगी थी, शशांक से प्रेमविवाह करके मैं खुश थी, तभी आया था भास्कर, उसका कॉलेज का साथी और मेरे सोए सपने जाग गए थे। शादी के बाद प्यार का खुमार उतरने लगा था। मुझे लगने लगा था कि क्या मेरी जिंदगी का लक्ष्य सिर्फ यही था? मेरी डिग्री का क्या औचित्य यदि मैं घरगृहस्थी में उलझकर उसका उपयोग न करूँ? भास्कर को अपने ग्लैमरस वर्ल्ड स्टूडियो के लिए एक फैशन डिजाइनर की जरूरत थी। उसने साथ में काम करने का प्रस्ताव दिया। प्रस्ताव स्वीकार करने में दोनों का फायदा था। शशांक ने मना नहीं किया, वह मुझे भी मेरे हिस्से का आसमान देना चाहता था और भास्कर भी उसका दोस्त था। जब एक सपना सच होता है, तो दूसरा कुलबुलाने लगता है। ख्वाबों और ख्वाहिशों का कोई अंत नहीं है। शहर दर शहर फैशन शो करते हुए हम अब विदेशों में भी शो करने लगे थे। मम्मी पापा के एक्सीडेंट के समय इंग्लैंड से आयी थी। उसके कुछ महीनों बाद पेरिस में ग्लोबल फ़ैशन शो का आयोजन होना था, जिसमें मुझे महती जिम्मेदारी दी गयी थी। तभी मेरे अंदर एक नया जीवन पलने के संकेत मिले। कितना खुश हुआ था शशांक... "हम अपने बेटे का नाम गगन रखेंगे..." वह गुनगुनाने लगा था..."धीरे धीरे चल... चाँद गगन में, कहीं ढल न जाए रात, टूट न जाए सपने...."
"लेकिन मैं नहीं चाहती कि मेरा सपना टूटे... मुझे पेरिस जाना है, मुझे अभी बच्चा नहीं चाहिए..." मैंने जिद कर एबॉर्शन करवाया और इस बात से शशांक भी टूट गया और हमारा घर भी... कितना समझाया था उसने पर मुझे भास्कर के दिखाए सपनों पर भरोसा था। आज मैं समझ पायी हूँ कि मैं तो सिर्फ माध्यम थी भास्कर का सपना पूरा करने का... मैंने शशांक को खो दिया और अपनी सुखद गृहस्थी में भी खुद ही आग लगा ली। सच जानकर अब लौटना चाहती हूँ... इंतज़ार कर रही हूँ शशांक के एक इशारे का... मेरी महत्वाकांक्षा ने मुझे जो दिया, उससे कहीं अधिक छीन लिया... शशांक तुम एक बार पुकार लो, मैं सब छोड़कर दौड़ी चली आऊंगी... मुझे गलती का अहसास हो गया है।

"आओ विभा..." कार रुक गयी थी, किन्तु उसकी सोच नहीं... घर आ गया था... मेरा घर। यह भी कितना बदला बदला लग रहा है, पहले से ज्यादा व्यवस्थित... क्या शशांक ने मेरे बिना खुद को संभाल लिया है। बाहर लॉन में झूला लगा था, उस पर बैठा एक प्यारा सा बच्चा दौड़कर आया और चिल्लाकर बोला... "मम्मी! पापा आ गए... नमस्ते आंटी.." मैं बुरी तरह चौंक गयी... शशांक की ओर देखा वह निर्विकार था... "तुमने बताया नहीं कि तुमने शादी.....??"
"विभा! जब जिंदगी में तुम आगे बढ़ गईं, तो मैं कब तक रुकता... किस अधिकार से बताता तुम्हें...? तुम तो सम्बन्ध खत्म कर चली गयीं थी हमारे सपने को तोड़कर अपने सपने के पीछे भाग रही थी... तुमने जब जो चाहा पाया, जब चाहा छोड़ा... खैर! इन बातों का अब क्या फायदा... आओ इनसे मिलो... ये मेरी पत्नी... वसुधा और..." उसके परिचय कराने से पहले ही वह बोली...
"नमस्ते आइए विभाजी..." मैंने भी हाथ जोड़ दिए... कुछ बोल ही नहीं पायी।
क्या सोचकर आयी थी और क्या हो गया। सबकुछ काँच सा पारदर्शी था... मैंने कभी प्रेम को समझने की कोशिश ही नहीं की, विवाह का अर्थ जान ही नहीं पायी। 'मैं' और 'तुम' से 'हम' तक पहुँच ही नहीं पायी। यदि मुझे पता होता कि शशांक ने शादी कर ली है, तो क्या मैं इनके घर आती...? शायद नहीं... किन्तु वसुधा कितनी उदारमना है, जानती है कि शशांक और मेरी लव मैरिज थी, फिर भी इतनी सहज होकर मेरा स्वागत कर रही है, दोनों की जोड़ी कितनी अच्छी है, एक दूसरे के प्रति कितने समर्पित हैं। अब यह मेरा नहीं वसुधा का घर है.. चप्पे चप्पे पर उसकी छाप अंकित है। मुझे उससे ईर्ष्या हो रही है... लेकिन क्यों..? मैं ही तो सब छोड़कर चली गयी थी, सपना पूरा करने, अब अधूरा सपना याद आने लगा.. मानव जिस खुशी की चाह में भटकता रहता है, वह तो उसके अंतर्मन में ही छिपी है... यह बात आज वसुधा को देखकर जान पायी हूँ।
"गगन! आओ बेटा, खाना खा लो.." गगन....? मैं थोड़ा और दरक गयी। यही तस्वीर तो सुबह मेरे सामने पड़े न्यूज़ पेपर मे छपी थी। तभी शशांक से चेहरा मिलता हुआ लगा था। मतलब शशांक इसके स्कूल कार्यक्रम में था, मीटिंग का बहाना था। सामने शशांक, वसुधा और गगन की तस्वीरें थीं, इस फ्रेम में वसुधा की जगह मैं हो सकती थी... उन तीनों को यूं मुस्कुराता देखकर मुझे अपनी हार प्रतीत हो रही है। उन दोनों की शादी की तस्वीर भी फ्रेम में थी... डेट लिखी थी... 21 अप्रैल... मतलब हमारी शादी की तारीख को ही शशांक ने वसुधा से शादी की। अब ज्यादा देर रुका नहीं जा रहा था। मुझे अपना अजन्मा बच्चा याद आ रहा था... अपनी महत्वाकांक्षा को पूरा करने की प्रत्याशा में कितना कुछ गंवा दिया मैंने... जीवन के अनमोल पल सपनों की मरीचिका में भटक कर यूँ ही जाया कर दिए, फिर भी मैं तृषित ही हूँ। शशांक के दिल में लहराता प्यार का झरना अब वसुधा की ओर प्रवाहित हो चला है... मातृत्व के बिना कोई भी स्त्री अधूरी ही है, यह मैं आज समझ पायी हूँ... न मैं माँ बन पायी और न ही पत्नी बनी रह सकी... आसमान छूने की चाहत में जमीन गंवा दी है मैंने.... शाम को वे तीनों मुझे वापिस छोड़ने आये...
"आंटी देखो! सूरज कितना प्यारा लग रहा है.." गगन और मैं पीछे बैठे थे, कार की खिड़की से गोल गोल और लाल सूरज वाकई सुंदर दिख रहा था। ये ढलती शाम मैं शशांक के साथ बिताना चाहती थी... सूर्यास्त देखना चाहती थी उसके कंधे पर सिर टिकाए हुए, जो अब सम्भव नहीं था। रेयर व्यू मिरर में एक पल को हमारी नज़रें मिलीं... मैं फिर बाहर देखने लगी.. नहीं चाहती थी कि वह मेरी आँखों की झील में ढलता सूरज देखे।

होटल पहुँचकर मैंने वकील को फोन किया। कल की बजाय आज ही मिलने और जरूरी कागजात तैयार करने के निर्देश दिए। मैं कल्पना कर रही थी कि शशांक बीच में खड़ा है, उसके एक तरफ मैं और दूसरी तरफ वसुधा है। मेरे पास कितना कुछ है... अपने सपनों का आसमान पा लिया है मैंने, शशांक का पहला प्यार हूँ मैं, फिर भी वह वसुधा का है... वसुधा ने शशांक के प्यार और सपनों का आसमान पाया है... गगन के रूप में और मैं सूरज की चकाचौंध में चाँद को भी गंवा बैठी। मेरे जीवन में जो शून्य आ गया है, उसकी भरपाई असम्भव है। आज मेरे पास ऐशोआराम के सारे साधन हैं, किन्तु जीने की वजह नहीं... मैंने मेरा पैतृक घर बेचने की बजाय गगन के नाम कर दिया, जानती हूँ कि रिश्तों के बंधन खत्म हो जाने के बाद भी यादों का महीन धागा दिलों को जोड़े रखता है। मैं तो उन यादों के भंवर में अभी भी उलझी हूँ, किन्तु शशांक की उदासीनता मुझे बेचैन कर रही है। मैं चाहती हूँ कि उससे मेरा नाता कभी न टूटे.... मैं वसुधा और उनकी जिंदगी में आना नहीं चाहती, परन्तु जिंदगी से जाना भी नहीं चाहती। सब कुछ पा लेने के बाद भी बहुत कुछ खो देने का यह अहसास क्या मेरे अंदर एक नई तृष्णा को जन्म दे रहा है??

ऑनलाइन टिकट बुक करवाया और चल पड़ी एक नए मुकाम की ओर... शशांक और भास्कर दोनों ही पीछे छूट रहे थे.... अब मुझे परवाह भी कहाँ थी।
अगली सुबह काउंटर पर शशांक के लिए एक लिफाफा छोड़ मैंने होटल से चेक आउट कर दिया।