Moods of Lockdown - 2 books and stories free download online pdf in Hindi

मूड्स ऑफ़ लॉकडाउन - 2

क्वारंटाइन...लॉक डाउन...कोविड 19... कोरोना के नाम रहेगी यह सदी। हम सब इस समय एक चक्र के भीतर हैं और बाहर है एक महामारी। अचानक आई इस विपदा ने हम सबको हतप्रभ कर दिया हैं | ऐसा समय इससे पहले हममें से किसी ने नहीं देखा है। मानसिक शारीरिक भावुक स्तर पर सब अपनी अपनी लडाई लड़ रहे हैं |

लॉकडाउन का यह वक्त अपने साथ कई संकटों के साथ-साथ कुछ मौके भी ले कर आया है। इनमें से एक मौका हमारे सामने आया: लॉकडाउन की कहानियां लिखने का।

नीलिमा शर्मा और जयंती रंगनाथन की आपसी बातचीत के दौरान इन कहानियों के धरातल ने जन्म लिया राजधानी से सटे उत्तरप्रदेश के पॉश सबर्ब नोएडा सेक्टर 71 में एक पॉश बिल्डिंग नेनाम रखा क्राउन पैलेस। इस बिल्डिंग में ग्यारह फ्लोर हैं। हर फ्लोर पर दो फ्लैट। एक फ्लैट बिल्डर का हैबंद है। बाकि इक्कीस फ्लैटों में रिहाइश है। लॉकडाउन के दौरान क्या चल रहा है हर फ्लैट के अंदर?

आइए, हर रोज एक नए लेखक के साथ लॉकडाउन 

मूड के अलग अलग फ्लैटों के अंदर क्या चल रहा है, पढ़ते हैं | हो सकता है किसी फ्लैट की कहानी आपको अपनी सी लगने लगे...हमको बताइयेगा जरुर...

मूड्स ऑफ़ लॉकडाउन

कहानी 2

लेखक: राजीव रंजन

(अपने अपने लॉकडाउन)

राजीव रंजन

‘सिर मुड़ाते ही ओले पड़े’, ये कहावत जिसने भी बनाई होगी, वह भी कभी जरूर शशांक की तरह ऐसी ही किसी स्थिति में फंस गया होगा। कहावतें जीवन के अनुभवों का ही तो निचोड़ हैं। शशांक बस दो दिन पहले ही नोएडा सेक्टर 71 की इस पॉश सोसाइटी में आया था। घर का सामान पूरी तरह सेट भी नहीं हो पाया था कि ये आफत गले पड़ गई। सामान के कई कार्टन तो अभी भी बंधे ही पड़े हैं।

फ्लैट का पजेशन उसे कुछ हफ्ते पहले ही मिल गया था। तब कोरोना का ऐसा हंगामा नहीं था। उसको फ्लैट में कुछ काम कराना था, इसलिए तुरंत शिफ्ट नहीं हुआ। उसने सोचा था नवरात्र शुभ समय होता है, तो उसी दौरान शिफ्ट करेगा। फिर धीरे-धीरे कोरोना की चर्चाएं बढ़ने लगीं। अचानक उसके दिमाग में ख्याल आया कि कोरोना की आफत ज्यादा बढ़े, इससे पहले शिफ्ट हो जाना ठीक रहेगा। प्रधानमंत्री ने पहले रविवार, 22 मार्च को जनता कफ्र्यू की घोषणा की, फिर एक दिन बाद ही 24 मार्च से लॉकडाउन का एलान कर दिया। वह सोशल मीडिया पर चलने वाली हर बात पर आंख मूंद कर भरोसा नहीं करता था, लेकिन जैसी हवा चल रही थी, वह कुछ अच्छी फीलिंग नहीं दे रही थी। हालांकि उसे ऐसा भी नहीं लगा था कि हालात इतनी तेजी से बदल जाएंगे कि जनता कफ्र्यू के एक दिन के बाद ही लॉकडाउन हो जाएगा।

उसने सोचा था कि एक हफ्ते में इस इलाके से, यहां के माहौल से, अपने पड़ोसियों से थोड़ी जान-पहचान हो जाएगी, तो पुरानी जगह छूटने की कसक थोड़ी कम हो जाएगी। पर यहां तो सारा हिसाब-किताब ही गड़बड़ा गया। ये तो उसने समझदारी बरती थी कि चलने से पहले ग्रॉसरी का सामान पर्याप्त मात्रा में लेकर रख लिया था। अब नई जगह जाते ही ग्रॉसरी खरीदने का झंझट कौन पाले और कौन-सा उसे कंधे पर ढोकर ले जाना था। ट्रक पर दूसरे सामान के साथ रसद भी पहुंच जाएगी। शशांक जहां पहले रहता था, वह जगह भी बुरी नहीं थी, बल्कि दिल्ली के सबसे अच्छे इलाकों में गिनी जाती थी। हर चीज सुलभ, छोटी-मोटी जरूरत की चीज मोहल्ले में ही मिल जाती थी। मार्केट घर से महज आधा किलोमीटर, रिंग रोड उससे थोड़ा-सा आगे और मेट्रो करीब एक किलोमीटर की दूरी पर। वहां कोई दिक्कत नहीं थी, मगर भीड़भाड़ बहुत थी। वह इस भीड़भाड़ से तंग आ गया था। बुरी तरह पक गया था। घरों की दीवारें एक दूसरे से सटी हुईं थीं, न ढंग से धूप आती थी, न हवा। करवाचौथ के दिन चांद के दर्शन के लिए पत्नी को बहुत पापड़ बेलने पड़ते थे। गली में दोनों तरफ एक के बाद एक कारें ऐसी खड़ी रहती थीं कि कई बार कार लेकर आने-जाने में उसे बहुत ज्यादा मशक्कत करनी पड़ती थी। वही हाल मोहल्ले की मुख्य सड़क का भी था। लोग रास्ते में ऐसी आड़ी-तिरछी गाड़ियां पार्क करते थे कि जाम-सा लग जाता था। वह झल्ला उठता था- साले ठीक से गाड़ी भी खड़ी नहीं कर सकते, जरा भी सलीका नहीं है। और सच पूछो, तो वह सालों से एक ही जगह पर रहते-रहते ऊब भी गया था। ऑफिस भी वहां से काफी दूर हो गया था, लिहाजा उसने यहां नोएडा सेक्टर 71 में आने का फैसला किया। 22 फ्लैटों वाली इस छोटी-सी सोसाइटी में। जाहिर है, सोसाइटी ज्यादा बड़ी नहीं थी, लेकिन खुली थी। फ्लैट भी अच्छे बने थे। खुले और ठीकठाक स्पेस वाले।

उसे पहली नजर में ही ये घर भा गया था। मगर लॉकडाउन के बीच, यहां आकर शशांक को लगा कि वह गलत समय पर आ गया है। फंस गया है। या तो फ्लैट का पजेशन मिलने के फौरन बाद शिफ्ट हो जाता, या फिर ये झमेला खत्म होने के बाद। पुरानी जगह में कम से कम ये ढाढ़स रहता है कि चेहरे तो जाने-पहचाने हैं। यहां तो हर जगह अजनबियत का साम्राज्य व्याप्त है। इलाका अपरिचित, माहौल अपरिचित, लोग भी अपरिचित। हां, लोग आसपास के फ्लैटों में हैं, लेकिन किसी से ढंग से परिचय भी कहां हो पाया है! बाहर फिजा में डर और आशंका ऐसे घुल गए हैं कि अंदर भी उसकी परछाई साफ देखी जा सकती है। कोई किसी को घर आकर चाय पीने को भी नहीं कह सकता। अभी तो सोशल डिस्टेंसिंग ही जीवन का मूल मंत्र बन गया है। बसों-ट्रकों पर लिखा जुमला ‘लटकले त गइले बेटा’ (लटके तो गए बेटा) वॉट्सएप पर बदल कर ‘सटले त गइले बेटा’ (सटे तो गए बेटा) हो गया है। सही भी है, रिस्क क्यों लेना! उसे नाना पाटेकर की फिल्म ‘यशवंत’ का डायलॉग बड़ी शिद्दत से याद आ रहा है- एक मच्छर आदमी को हिजड़ा बना देता है। उसके होंठों पर अनायास आ जाता है- एक वायरस दुनिया को उसकी औकात बता देता है। उसे बड़ा गुस्सा आ रहा है मनुष्यों पर। पहले आदमी ने प्रकृति की ऐसी-तैसी की, अब प्रकृति उसकी ऐसी-तैसी कर रही है। आखिर इनसान प्रकृति के साथ सह-अस्तित्व की भावना को क्यों भूल गया! लो अब उसका नतीजा भुगतो। अचानक उसे चीन और चीनियों पर तेज गुस्सा आने लगा- भला चमगादड़ भी खाने की चीज हैं! हद कर दी सालों ने!

वह चीनियों को कुछ और गालियों से नवाजने जा ही रहा था कि किचन से आती पत्नी की आवाज सुनाई दी- आकर चाय ले जाओ। आजकल पत्नी का काम भी बढ़ गया है। घर के सारे काम खुद ही करने पड़ रहे हैं। सोसाइटी के गार्ड से काम वाली बाई के लिए कह रखा था, लेकिन अब इस माहौल में कहां ये संभव था। लोगों ने डर से बाइयों को बुलाना बंद कर दिया है। बेचारी पत्नी... और शशांक तो इतना आलसी है कि एक ग्लास पानी भी खुद लेकर पीना उसे पहाड़ तोड़ने जैसा लगता है। वह सोचता तो बहुत है कि पत्नी की मदद कर दे, लेकिन आदत से लाचार है। किचन में खुद चाय लेने चला जाता है, यही उसके लिए किसी उपलब्धि से कम नहीं। वह चाय लेकर बालकनी में आ गया। बालकनी में बैठ कर चाय पिए उसके काफी दिन हो गए हैं। पहले जहां रहता था, वह घर ग्राउंड फ्लोर पर था। डाइनिंग हॉल में या बेडरूम में चाय सुड़कनी पड़ती थी। दिल्ली आने से पहले, तब घर पर, वह शाम की चाय पीछे वाली बालकनी में पीता था। सुबह की नहीं। सुबह पापा घर पर ही होते थे। उनकी उपस्थिति में बालकनी जाना मतलब डांट सुनना... वहां बालकनी में क्या रखा है, जो दिन भर वही खड़े रहते हो।

वो भी क्या दिन थे। उन दिनों उसने क्लासिकल सुनना नया नया शुरू किया था। कुछ दिन पहले ही उस्ताद शुजात खान का एल्बम ‘लाजो’ खरीद कर लाया था। वह टेप रिकॉर्डर पर उस्ताद शुजात खान की ठुमरी ‘हमरी अटरिया पे आ जा रे संवरिया देखा देखी तनिक होई जाए’ तेज वॉल्यूम में चला देता था और चाय की चुस्कियों के साथ सामने वाले घर पर नजरें टिका देता था। इस उम्मीद में, कि शायद उस्ताद शुजात खान की पुकार सुन कर उस घर की लड़की पिघल जाए और बालकनी में आ जाए। और फिर तनिक देखादेखी हो जाए। बालकनी में खड़े होने का श्रम सार्थक हो जाए। मां को शायद उसकी इस हरकत की भनक थी। इसीलिए वह उसे झिड़कती रहती थी कि इतनी तेज आवाज में गाना बजाने का क्या तुक है। खुद सुनना है कि पूरे मोहल्ले को सुनाना है! अब वह मां को क्या बताए... उसकी निगाहें सामने वाले घर पर लगी रहती थीं। कई बार लड़की बालकनी में आ भी जाती थी। कभी सूखे हुए कपड़े उठाने, तो कभी कुड़े की थैली बगल वाले खाली प्लॉट में फेंकने के लिए। शशांक को पता नहीं क्यों, ये लगता था कि लड़की उसे देखने के लिए आती है। काम तो बहाना है। अकसर दोनों की निगाहें मिल भी जाती थीं, पर बात इससे आगे नहीं बढ़ी। कई कहानियां इसी मोड़ तक पहुंचते पहुंचते दम तोड़ देती हैं।

उसे ये सब याद कर अच्छा लगा। माहौल के अजनबीपन से थोड़ी राहत मिली। अचानक उसे अपने पुराने दिनों की शक्ल में एक सहारा मिल गया, वर्तमान की इस भयावहता से पीछा छुड़ाने का। आदमी हर अंधेरे में रोशनी की एक लकीर ढूंढ़ ही लेता है। बंद रास्तों के बीच कहीं एक छोटी पगडंडी ढूंढ़ ही लेता है। शशांक के लिए ये रोशनी की लकीर, छोटी-सी पगडंडी उसका अतीत है। वह जब भी वर्तमान से घबरा जाता है, अपने अतीत में भाग जाता है। और फिर अतीत से छलांग लगा कर सीधे भविष्य में पहुंच जाता है। वर्तमान को हराने का सबसे अच्छा उपाय उसके पास यही था। हालांकि वह अच्छे से जानता है कि अतीत भी कभी वर्तमान था, और जिस भविष्य में वो छलांग लगा कर पहुंचता था, वह भी एक दिन वर्तमान हो जाएगा। लेकिन इस विचार को वह तुरंत झटक देता है... और फिर पहुंच जाता है अतीत में।

वह सोच रहा है कि हर आदमी के जीवन में लॉकडाउन आते हैं। इस बार की तरह भले ही सामूहिक रूप से एक ही वक्त नहीं, मगर अलग-अलग तो आते ही हैं। गरीबों की जिंदगी तो अकसरहां लॉकडाउन में ही फंसी रहती है। ऐसी गंभीर बात सोचते हुए यकायक उसके होठों पर मुस्कान तैर गई। वह भी एक बार शुरुआती जवानी के दिनों में एक अजीबगरीब लॉकडाउन में फंस गया था। तब बस बालिग हुआ ही था। मुहल्ले की एक लड़की उस पर आते-जाते फिकरे कसती रहती थी। उसे बड़ा गुस्सा आता, लेकिन कुछ बोल नहीं पाता था। एक दिन लड़की ने कमेंट किया- एकदम मक्खन जैसा लगता है। उस दिन शशांक को गुस्सा आ गया, बोला- तो खा लो। लड़की भी एकदम बिंदास थी, बोली- मिले तो सही। शशांक चुपचाप आगे बढ़ गया। सामने ही पापा के एक कुलीग का घर था। चाची मुहल्ले की खबरी थीं। किसी भी खबर को आज के खबरिया चैनलों से भी ज्यादा तेजी से मुहल्ले में फैला देती थीं। उसे लगा, अगर ज्यादा देर खड़ा रहा तो मां तक बात पहुंचते देर नहीं लगेगी। मां से उसे बहुत डर लगता है। वह बोलना शुरू करती है तो चुप ही नहीं होती। लेकिन होनी तो होनी ही थी।

वह लड़की रोज फिकरे कसती। बात मक्खन से रसीले सेब, रसगुल्ला, मसालेदार चिकन तक पहुंच गई। शशांक अब अपना आपा खोने लगा कि वह आदमी है या खाने की चीज। उसने सोचा, जो होगा देखा जाएगा। उसने चुनौती को कबूल करते हुए कहा- आ जाना, अपना पसंदीदा व्यंजन चखने। यह कर उसने लड़की को मुहल्ले के ही एक दोस्त के घर पर आने का न्योता दे दिया। लड़की और उसके घरवाले दोस्त के परिवार को अच्छी तरह जानते थे। लड़की ने भी बिना डरे आमंत्रण स्वीकार कर लिया। दोस्त के पिता जी एक छोटे-से पहाड़ी कस्बे में फॉरेस्ट विभाग में थे। इलाका थोड़ा दुर्गम था, इसलिए परिवार साथ नहीं रखते थे। महीने में दो-तीन के लिए आते थे। दोस्त की मां एक स्कूल में अकाउंट में थी। सुबह चली जाती थीं। उसका बड़ा भाई भी कहीं प्राइवेट काम करता था, शाम को ही घर आता था। बड़ी बहन की शादी हो गई थी। दिन में पांच-छह घंटे दोस्त के घर में अकेला वही बचता था। उसे पढ़ाई में खास दिलचस्पी थी नहीं, तो कॉलेज का मुंह कम ही देखना पसंद करता था। शशांक ने किसी तरह दोस्त को इस मिलन के लिए अपना घर देने को राजी कर लिया। दोस्त बहुत डर रहा था, लेकिन दोस्ती का वास्ता देने पर मान गया।

अगले दिन शशांक तय समय से पहले ही दोस्त के घर पहुंच गया। थोड़ी देर बाद लड़की भी छुपते-छुपाते पहुंच गई। दोस्त ने बाहर से ताला लगा दिया और आसपास कहीं चला गया। शशांक ने लड़की का हाथ अपने हाथ में ले लिया। जो लड़की बिंदास होकर फिकरे कसती थी, उसका मुंह इस जरा-सी बात पर लाल हो गया। शशांक बोला- रोज तो कमेंट पास करती थी कि मक्खन है... सेब है... रसगुल्ल है... चिकन है... अब तो सामने है, जो समझ कर खाना है, खा लो। मगर लड़की निगाहें नीची किए बैठी रही। पता नहीं शर्मा रही थी कि डर रही थी। हालांकि हाथ उसने छुड़ाया नहीं। कुछ देर की चुप्पी के बाद वह शशांक के थोड़ा और करीब आ गई। दोनों की सांसें बहुत तेज धड़कने लगीं। लगा जैसे ड्राइवर ने बेलचे से ढेर सारा कोयला भाप इंजन की भट्ठी में झोंक दिया है और गाड़ी की छुक-छुक बहुत तेज हो गई है। दोनों थोड़ा और करीब हो गए। चेतना गायब होने लगी। जबान बंद। आंखें बंद। बस सांसों की हर पल तेज होती छुकछुक सुनाई दे रही थी... तभी बाहर लड़की के नाम की पुकार सुनाई दी। बहुत तेज आवाज में। एक पल पहले जो भाप इंजन धधक रहा था, उसकी भट्टी में इस आवाज ने दर्जनों बाल्टी पानी डाल दिया। लड़की घबड़ा गई, बोली- मां है। इतना सुनते ही शशांक के होश फाख्ता हो गए। उसे लगा, आज इस कुचे से बहुत बेआबरू होकर निकलना पड़ेगा। वह विकट लॉकडाउन में फंस गया था। लड़की भी बेहद डरी हुई थी। शशांक को लगा, किसी रकीब ने मुखबिरी कर दी है। दोनों उस घर में दम साधे बाहर कोरोना के गुजर जाने का इंतजार करने लगे। लेकिन आवाज तेज होती जा रही थी। कोरोना पल प्रतिपल विकराल होता जा रहा था। आखिर कब तक लॉकडाउन झेलना पड़ेगा। कुछ देर बाद दोस्त की मां के आने का समय हो जाएगा। लॉकडाउन खोलना ही पड़ेगा। आज तो संक्रमण अवश्यंभावी लग रहा था। ये ख्याल आते ही शशांक को तैंतीस कोटि देवी-देवता याद आने लगे। अब वह प्रार्थना और मन्नत मोड में आ गया था। लड़की की हालत भी कुछ ऐसी ही थी। उधर दोस्त को भी खतरे का आभास हो गया था। वह पास में ही कहीं था, भागा हुआ आया और लड़की की मां से पूछा- क्या हुआ? मां ने पूछा वो यहां आई है। दोस्त ने हिम्मत करके कहा- आप देख नहीं रही हैं, ताला बंद है। मैं बाजार गया था। वो यहां कैसे आ सकती है! दोस्त ने लड़की की मां को बताया उसने लड़की को अपनी एक दोस्त के घर की ओर जाते देखा था, वो वहीं जाकर पता कर लें। लड़की की मां आंखों में अविश्वास धारण किए वहां से चली गई। तब तक दो-चार लोग वहां जुट गए थे। बड़ी विकट स्थिति थी। अभी ताला खोलना मुनासिब नहीं था। दोस्त घर की पिछली वाली दीवार को फांद कर अंदर पहुंचा और फिर एक तख्त के ऊपर कुर्सी लगाई। फिर उसी दीवार से कूद कर पहले शशांक बाहर आया और फिर दोनों ने लड़की को सहारा देकर नीचे उतारा। कोरोना से जान बची, लेकिन उससे बचने के चक्कर में उन सबका कई लीटर खून सूख गया था। चेहरे सफेद हो गए थे। शशांक ने उस दिन कसम खाई, मोहल्ले में कभी ये दुस्साहस नहीं करेगा। लड़की ने भी उस पर फब्तियां कसना बंद कर दिया।

इस घटना के बारे में सोचते हुए शशांक को हंसी आ गई। उसने भी कैसी कैसी बेवकूफियां की हैं। पत्नी को अगर बता दे, तो कैसे रिएक्ट करेगी वो! शायद हंस दे, या फिर कोई ताना दे। उसे ये तो पक्का विश्वास है कि भड़केगी नहीं। गुजरा चुका वक्त परेशानियां नहीं देता। वर्तमान ही परेशान करता है। अपने मामले में तो वह कम से कम ये कह ही सकता है। पत्नी का नाम याद आते ही उसे भूख लग आई। तुरंत पहुंच गया किचन में।

ऐसे ही एक-एक दिन गुजर रहा है लॉकडाउन का, कुछ अतीत को याद कर, कुछ भविष्य की सोच कर और कुछ घर से ही ऑफिस का काम कर। उसे बार-बार ऑफिस की कुर्सी याद आती है। घर की कुर्सी पर बैठ कर काम करने में दिक्कत होती है। उसने मन ही मन सोचा, अब कभी ऐसी स्थिति आई तो वह ऑफिस कुर्सी भी ले आएगा। इस बचकाने ख्याल से उसे बड़ी संतुष्टि मिली।

अतीत, भविष्य और काम से शशांक जब भी फारिग होता है, बालकनी में आ जाता है। वहां खड़े होकर देखने की कोशिश करता है कि दूसरे लोग लॉकडाउन का समय कैसे गुजार रहे हैं। बस अंदाजा लगाता रहता है। एक दिन एक फ्लैट से एक लड़की के जोर-जोर से बोलने की आवाज आ रही थी। शायद अपने पति पर चिल्ला रही थी। एक फ्लैट को छोड़ कर बाकी सभी में लोग रहते हैं। वह खाली फ्लैट के बारे में सोचने लगा। लगता है ये फ्लैट बिका नहीं है, या कहीं इसका मालिक किसी दूसरी जगह लॉकडाउन में तो नहीं फंस गया होगा। कोई बड़ी बात नहीं, हो सकता है ऐसा ही हो। आजकल वह हर बात को लॉकडाउन, कोरोना से जोड़कर देखने लगाता है। बात कुछ भी हो, वह घूम फिर कर इन्हीं दो शब्दों पर पहुंच जाता है।

लॉकडाउन। ऐसा लगता है बड़ा पुराना रिश्ता है उसका इस शब्द के साथ। हालांकि ये शब्द बस कुछ दिन पहले ही सुना है उसने। लेकिन शब्द की संज्ञा से क्या फर्क पड़ता है। असल चीज तो उसका मायने है। ये मायने उसे ढाई दशक पीछे लेकर चला जाता है। पापा के ऑफिस से घर आते ही लॉकडाउन शुरू हो जाता था। कफ्र्यू लग जाता था। सारी दुनिया से कटकर स्कूल की कॉपियों-किताबों में कैद। बाकी दुनिया से कोई मतलब नहीं। लालटेन की मद्धम पीली रोशनी में खुली किताबें-कॉपियां ही उस मुश्किल वक्त की साथी होती थीं। उस मद्धम पीली रोशनी में एक एक हर्फ को पढ़ने के लिए आंखों को बहुत मेहनत करनी पड़ती थी। ऐसा नहीं है कि तब, 1990 के दशक के मध्य में उसके छोटे से उस कस्बे में बिजली नहीं थी। बस आती कभी कभी थी। खासकर पढ़ने और खाना बनाने के समय तो बिजली नहीं ही रहती थी। उसकी मां लालटेन की फीकी रोशनी में ही खाना बनाती थीं। कोयले के चूल्हे पर। घर में गैस का चूल्हा भी था, लेकिन सिलिंडर कब मिलेगा, इसकी गारंटी नहीं होती थी। तो बाकी ढेरों मांओं की तरह उसकी मां भी गैस को बहुत किफायत के साथ इस्तेमाल करती थी। जब किसी दिन चूल्हा बुझा देने के बाद कोई मेहमान या परिचित आ टपकता था, तो उसके लिए चाय नाश्ते का प्रबंध गैस चूल्हे से होता था। सुबह और शाम का खाना कोयले वाले चूल्हे पर ही बनता था। उसे बड़ी हैरानी होती है कि उस अंधेरा मिश्रित प्रकाश में मां कितना स्वादिष्ट खाना बना लेती थी। कोयले की लाल आंच मां के चेहरे पड़ती थी तो उसका चेहरा दीप्त हो उठता था। मां बहुत सुंदर थी। उसकी आंखों में मां का चेहरा और जीभ पर उसके हाथों का स्वाद उभरने लगता है। तन्मय होकर विविध भारती सुनते पापा की छवि सजीव होने लगती है। किताबों पर पड़ती पीली मद्धम रोशनी याद दिलाती है, लॉकडाउन में किताबें बहुत साथ देती हैं।

अचानक उसके हाथ एक कोने में रखे किताबों के कार्टन की ओर बढ़ जाते हैं। रेणु की ‘मैला आंचल’ हाथ में आती है। पढ़ चुका है, फिर भी दुबारा पढ़ने की ललक जाग उठती है। अचानक उसके दिमाग में ये बात कौंध जाती है। उपन्यास की नायिका कमली भी तो लॉकडाउन में फंसी है। घर में बंद है। बिनब्याही मां बन कर उसने बदनामी के कोरोना को न्योता दे दिया है। डॉक्टर भी इस कठिन समय में यहां उसके पास नहीं है। क्या करे कमली! पिता ने उसे दुनिया से आइसोलेट कर दिया है। शशांक को कमली के लॉकडाउन की व्यथा ने विह्वल कर दिया। उसने ‘मैला आंचल’ वापस रख दिया। लॉकडाउन खत्म होने के बाद ही पढ़ेगा।

दूसरी किताब जो उसने उठाई, वह थी महाभारत। राजगोपलाचारी वाली। उसे ये किताब बहुत पसंद है। राजगोपालाचारी ने महाभारत के मर्म को कितने सरल, सरस तरीके से बयां किया है! धृतराष्ट्र को लाक्षागृह में पांडवों के जल जाने का समाचार मिलता है। राजगोपालाचारी लिखते हैं कि यह समाचार सुन कर धृतराष्ट्र के हृदय की दशा गर्मी में तालाब के जल के जैसी है, जो उपर से तो गर्म है, लेकिन अंदर से शीतल है। वह द्युतक्रीड़ा, द्रौपदी चीरहरण से आगे बढ़ते हुए पांडवों के अज्ञातवास तक पहुंचता है। पांचों भाई और द्रौपदी मत्स्य प्रदेश पहुंच गए हैं। अपनी गदा के भीषण प्रहार से बड़े-बड़े दिग्गजों को धूल चटा देने वाले महाबली भीम को रसोइया बनना पड़ा है। जिसकी गांडीव की टंकार से दिग-दिगंत गूंज उठते थे, वह अर्जुन किन्नर बन कर राजकुमारी उत्तरा को नृत्य सिखाने को विवश है। कुरुवंश के प्रतापी सम्राट युधिष्ठिर महज एक दरबारी, नकुल-सहदेव घोड़ों और गायों के सेवक। शशांक को लगता है कि ये भी तो लॉकडाउन ही है। दुष्ट दुर्योधन कोरोना बन पांडवों को संक्रमित करना चाहता है। उन्हें फिर से वनवास और अज्ञातवास में भेज देने का कुचक्र रच रहा है। पांडव इसी कोरोना के डर से छुपे हुए हैं अपनी पहचान, अपना पराक्रम शमी के पेड़ पर टांग कर। उसे अब खुद पर कोफ्त होने लगी है। लॉकडाउन और कोरोना उससे प्रेत की तरह लिपट गए हैं। उसकी गर्दन पर बेताल की तरह लटक गए हैं। पीछा ही नहीं छोड़ते। उनसे पीछा छुड़ाने के की गरज से पढ़ना छोड़ अतीत की गलियों में निकल लेता है...

‘छे चार।’ अचानक खुशी में लिपटी तेज आवाज उसके कानों से टकराती है। तंद्रा भंग होती है। अतीत से कनेक्शन कट जाता है और वर्तमान से जुड़ जाता है। बेटा अपने कजिन के साथ ऑनलाइन लूडो खेल रहा है। छे चार से उसने अपनी मौसेरी बहन की गोटी काट दी है और उसी खुशी में चहक रहा है। शशांक इस खुशी को महसूस करने की कोशिश करता है, लेकिन बड़े हो जाने की सबसे बड़ी दिक्कत यही हो जाती है कि आप बच्चों जैसी खुशी महसूस नहीं कर पाते। फिर भी वह खुश होने की कोशिश करता है और बेटे के साथ चियर करने लगता है। बेटा और खुश हो जाता है। शशांक को पिताजी याद आ जाते हैं। सचिन तेंदुलकर जब चौके-छक्के लगाता था तो वह भी बच्चों की तरह खुश होते थे। उसका मांं-पापा से बात करने को मन होने लगा, वह फोन लेने चला गया। बेटा फिर लूडो में व्यस्त हो गया।

कहते हैं- अच्छे दिन नहीं रहे, तो बुरे दिन भी रहेंगे। आखिरकार लॉकडाउन खत्म हो ही गया। मगर उसे बाहर निकलने की कोई हड़बड़ी नहीं, कोई उतावलापन नहीं। तत्काल कोई मजबूरी भी नहीं है। वह सोच रहा है, लॉकडाउन इतना बुरा भी नहीं है। कुछ अरसे पर दो-चार दिनों के लिए लॉकडाउन होते रहना चाहिए। बेवजह की भागमभाग और जल्दबाजी से निजात मिलती है। कुछ ठहर कर अपने भीतर झांकने का मौका तो मिलता है।

लेखक परिचय:

जन्म 45 साल पहले बिहार के आरा में। पैतृक घर बिहार के रोहतास जिले के एक बेहद छोटे से गांव खैरा भुतहा में। ननिहाल आरा के महाराजा कॉलेज से संस्कृत में स्नातक और दिल्ली विश्वविद्यालय के रामजस कॉलेज से संस्कृत में स्नातकोत्तर। उत्तर प्रदेश राजर्षि टंडन मुक्त विश्वविद्यालय से जनसंचार और पत्रकारिता में स्नातकोत्तर। पिछले 21 वर्षों से दिल्ली में हूं और करीब 19 सालों से पत्रकारिता में हाथ-पैर मार रहा हूं। वर्तमान में दैनिक “हिन्दुस्तान” में चीफ़ कंटेंट क्रिएटर के पद पर कार्यरत। 

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