Moods of Lockdown - 9 books and stories free download online pdf in Hindi

मूड्स ऑफ़ लॉकडाउन - 9

क्वारंटाइन...लॉक डाउन...कोविड 19... कोरोना के नाम रहेगी यह सदी। हम सब इस समय एक चक्र के भीतर हैं और बाहर है एक महामारी। अचानक आई इस विपदा ने हम सबको हतप्रभ कर दिया हैं | ऐसा समय इससे पहले हममें से किसी ने नहीं देखा है। मानसिक शारीरिक भावुक स्तर पर सब अपनी अपनी लडाई लड़ रहे हैं |

लॉकडाउन का यह वक्त अपने साथ कई संकटों के साथ-साथ कुछ मौके भी ले कर आया है। इनमें से एक मौका हमारे सामने आया: लॉकडाउन की कहानियां लिखने का।

नीलिमा शर्मा और जयंती रंगनाथन की आपसी बातचीत के दौरान इन कहानियों के धरातल ने जन्म लिया | राजधानी से सटे उत्तरप्रदेश के पॉश सबर्ब नोएडा सेक्टर 71 में एक पॉश बिल्डिंग ने, नाम रखा क्राउन पैलेस। इस बिल्डिंग में ग्यारह फ्लोर हैं। हर फ्लोर पर दो फ्लैट। एक फ्लैट बिल्डर का है, बंद है। बाकि इक्कीस फ्लैटों में रिहाइश है। लॉकडाउन के दौरान क्या चल रहा है हर फ्लैट के अंदर?

आइए, हर रोज एक नए लेखक के साथ लॉकडाउन

मूड के अलग अलग फ्लैटों के अंदर क्या चल रहा है, पढ़ते हैं | हो सकता है किसी फ्लैट की कहानी आपको अपनी सी लगने लगे...हमको बताइयेगा जरुर...

मूड्स ऑफ़ लॉकडाउन

कहानी 9

लेखिका: मृणाल वल्लरी

हैशटैग द विंची

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जेसिका दस मिनट भी स्थिर होकर काम नहीं कर पा रही थी। कभी ये फोन तो कभी वो फोन। हर किसी से फोन पर यही कि मर जाऊंगी घर में रह कर। लॉकडाउन के ऐलान के बाद से ही वह पैनिक में थी कि अखबार का काम वर्क फ्रॉम होम कैसे हो सकता है। घर में उसके काम करने की सारी सुविधा थी, लेकिन जिस चीज की कमी नहीं हो रही थी वे थीं शिकायतें। उसे सबसे ज्यादा चिढ़ रोहित से हो रही थी। लॉकडाउन के बाद से वो जितना शांत होकर दफ्तर के काम में तल्लीन रहता, खुश होकर घर के काम करता, कमरों की सजावट करता, जेसिका उतना ही ज्यादा चिढ़ती। आखिर कोई घर में कैसे खुश रह सकता है। उसने रोहित से कहा - तुम्हें मालूम है न, मेरी पिछली सबसे लंबी छुट्टी नौ दिनों की थी, वो भी तेरह साल पहले हमारी शादी पर। तुम्हारे बाहर छुट्टी प्लान करने की मेरी एक ही शर्त होती थी कि छुट्टी लूंगी पांच दिन की और आगे पीछे वीकली आॅफ मिलाकर छुट्टी हो जाएगी नौ दिन की। न कभी अपने जन्मदिन पर छुट्टी ली और न तुम्हारे, न कभी शादी की सालगिरह पर। न रिश्तेदारों की शादियों में जाती और न बहन-भाई के बच्चों के जन्मदिन पर।

उसके धाराप्नवाह उदाहरण पर लगाम लगाते हुए रोहित ने कहा - बिलकुल टिटहरी की तरह ही तुम्हें लगता था कि धरती यानी आॅफिस तुमने ही संभाला हुआ है और कोरोना ने तुम्हें तुम्हारी औकात बता दी कि तुम घर से निकल नहीं सकती और दुनिया को तुम्हारी जरूरत ही नहीं महसूस होगी। तुम क्या तुम्हारे अखबार की भी जरूरत नहीं रही। लोगों ने सबसे पहले तुम्हारा अखबार लेना ही बंद कर दिया, उसे बुनियादी सेवाओं से बेदखल कर दिया। तुमने खुद को कभी एक दिन के लिए रुकने नहीं दिया और आज तुम रुकी हो तो दुनिया चल रही है। तेरह सालों में सिर्फ नौ दिन की लंबी छुट्टी लेने का क्या फायदा हुआ कि तुम मेरे साथ लंबे समय तक रहने की बात से भी खुश नहीं हो। मेरी बात छोड़ो, अपने लिए भी समय मिलने से खुश नहीं हो।

रोहित की ये बातें जेसिका के लिए झटका थीं। उसने तिलमिलाते हुए कहा, हां जी, मैंने घर के अंदर बंद रहना नहीं सीखा। और तुम तो हमेशा से घरघुस्सु थे...अचानक से जेसिका को लगा कि उसने बहुत गलत बोल दिया है। वह हताश होकर खिड़की के पास जाकर बैठ गई।

रोहित भी उसके सामने आकर बैठ गया और धीरे से बोला - जेसी ये तुम्हें भी पता है कि मैं हमेशा से घरघुस्सु नहीं था। बहुत बड़ी थी मेरी दुनिया और मैं भी था सड़क का दीवाना। खोजी पत्रकार। कोई कोरोना नहीं था और न सरकार का जारी लॉकडाउन। लेकिन मुझे जकड़ा था अनुपयोगिता के विषाणु ने। जानती हो जेसी, तीन साल से ज्यादा के निजी लॉकडाउन में जाना कि सबसे खतरनाक होता है आपकी उपयोगिता का शून्य हो जाना। तब आप इतने संक्रामक हो जाते हैं कि डर के मारे सब आपसे सोशल डिस्टेंस बरतने लगते हैं। तीन साल के सामाजिक अलगाव ने मुझे खिड़की के अंदर देखना सिखा दिया है। मैं खाना बनाता हूं, घर सजाता हूं, गिटार बजाता हूं, गीजर और आरओ भी ठीक कर लेता हूं तो तुम मुझे अपना पर्सनल लियोनार्दो द विंची कहती हो। तुम्हें पता है न, मैं ये सब क्यों करता हूं?

रोहित की बातें सुन कर जेसिका रो रही थी। रोहित ने उसे आराम कुर्सी पर बिठाया और बोला - इस लॉकडाउन में अपने पर्सनल लियोनार्दो द विंची की कहानी एक बार फिर से सुन लो। एकदम भोगा हुआ माल है जो न तुम्हें रामायण में मिलेगा और न नेटफ्लिक्स में। जेसिका हौले से मुसकुरा कर उसे सुनने लगी।

26 जनवरी 2001 की सुबह। पांच बजे पटपड़गंज से बस से निकला। बस ने आईटीओ पर ही उतार दिया। साढ़े सात बजे इंडिया गेट पहुंचा और प्रेसदीर्घा में जा बैठा। कड़कड़ाती ठंड में इंडिया गेट। नौ बजने का इंतजार। साढ़े आठ बजे तालियों की गूंज के साथ प्रधानमंत्री दिखाई पड़े। लोगों की तरफ हाथ दिखाते हुए माइक की ओर बढ़ गए। थोड़ा अचरज हुआ कि माइक की ओर क्यों जा रहे, क्योंकि आज तो उनका भाषण नहीं होता है, यह दिन तो उद्घोषकों के नाम रहता है। अचानक से लाउडस्पीकर से अटल बिहारी वाजपेयी की आवाज गूंजी। वाजपेयी जी की कांपती आवाज ने बताया कि अभी कुछ देर पहले गुजरात में भयानक भूकंप आया है। गुजरात नाम सुनते ही मेरा दिल कांपा, अगली आवाज के पहले ही दिल की कंपकंपी से दिमाग ने कहा कि गुजरात तो बहुत बड़ा है, वहां थोड़े ही आया होगा। आवाज का नक्शा मेरी उम्मीदों को कंपित कर रहा था, सूरत, बड़ौदा और सबसे प्नभावित कच्छ। कच्छ कैसे हो सकता है सबसे प्नभावित। अरे कच्छ तो इतना बड़ा जिला है, भुज में थोड़े ही आया होगा। प्रधानमंत्री ने एलान किया कि आज परेड आधे घंटे की होगी रक्षा मंत्री को गुजरात निकलना है। मेरा पूरा शरीर कांप रहा था। कांपते हाथ बार-बार पैंट की जेब में जा रहे थे, लेकिन परेड के कारण पेजर लेकर नहीं आया था। बस खुद से कहे जा रहा था, नीहारिका को थोड़े ही कुछ हुआ होगा।

जेसी, खिड़की से हाईवे पर जाते कामगारों को देख तुम पूछ रही हो न, कोई इतनी दूर के लिए पैदल कैसे निकल सकता है? निकल जाते हैं, नीहारिका से संपर्क की बेचैनी में मैं भी इंडिया गेट से पैदल निकल पड़ा था। थोड़ी कोशिश करता तो सवारी मिल जाती, लेकिन मैं एक मिनट भी रुकना नहीं चाहता था। रुकता तो फिक्र के भूकंप से दिमाग फट जाता। बिना लिफ्ट पांचवीं मंजिल पर पहुंचा और कॉलबेल पर उंगली लगा शरीर का पूरा भार उस पर टिका दिया। साथ रह रहे दोस्त राहुल ने दरवाजा खोलते ही गले लगा लिया। सोफे पर बिठा ढांढ़स बंधाने लगा कि नीहारिका और उसका परिवार ठीक होगा। ये ढांढ़स मुझे और डरा रहा था। अब मैंने फोन उठा उसके घर का नंबर मिलाया। उस नंबर पर कोई प्रतिक्रिया नहीं हो रही थी। तब तक मेरे बॉस भी घर आ चुके थे। आते ही बोले कि भुज का कोई नंबर काम नहीं कर रहा है। सोसायटी के और भी लोग घर में पहुंच चुके थे क्योंकि उन सबके घर चार फरवरी को होने वाली मेरी शादी का कार्ड पहुंच चुका था और बारात को भुज जाना था। वहां मैं अकेला था जिसका भुज से नाता था।

अचानक मैं दराज की तरफ गया और जितने पैसे थे उसे जेब में भरा। एक शॉल कंधे पर रखी और निकलने लगा। सबने पूछा, कहां जा रहे हो तो बोला कि थोड़ी देर में आता हूं। पहले आनंद विहार बस अड्डे की बस पकड़ी और वहां से एअरपोर्ट की बस ली।

एअरपोर्ट पर पांव रखने की जगह नहीं थी। पता चला कि सबको अहमदाबाद जाना था। वहां बताया गया कि कई फ्लाइट अहमदाबाद के लिए तैयार की गई हैं। मैं भी अहमदाबाद की टिकट की लाइन में खड़ा हो गया। आधे घंटे बाद समझ आ गया कि टिकट मिलना मुश्किल है। हताशा में लाइन से निकल किनारे बैठ गया। बगल में बैठे आदमी ने पूछा, कहां जाना है। मैंने कहा भुज। उसने कहा कि वहां के सारे रास्ते तो बंद हैं। मैंने कहा कि बस अहमदाबाद पहुंज जाऊं तो वहां से चार सौ किलोमीटर पैदल चल कर भुज जाऊंगा। उसने मुझे दया भाव से देखते हुए कहा कि तब तो किसी और भी शहर से चार सौ किलोमीटर चलकर भुज पहुंच सकते हो। अहमदाबाद के लिए तो अभी टिकट मिलना मुश्किल है, पूरी दिल्ली तो गुजरात ही जा रही मानो। मैं दौड़ कर टिकट खिड़की पर पहुंचा और चेन्नई से लेकर बेंगलूर तक का टिकट मांगा पर किसी भी फ्लाइट में नहीं मिली। लोगों की बातों से लग रहा था कि भुज में सब कुछ खत्म हो चुका है। एक कोई बोल रहा था, सबसे ज्यादा नुकसान भुज के शहरी क्षेत्रों में हुआ है। पेजर पर सबके संदेश आ रहे थे, बस नीहारिका का नहीं। क्या नौ महीने में सब खत्म हो गया? अप्रैल में हम मिले थे और चार फरवरी को शादी थी। दिमाग ने याद दिलाया कि गुजरात जानेवाली ज्यादातर ट्रेनें तो निकल चुकी होंगी, अब एक रात दस बजे वाली ट्रेन बची है।

शाम के साढ़े पांच बज चुके थे और मैं दौड़ता हुआ एअरपोर्ट से बाहर निकला और बस से आईएसबीटी पहुंचा। वहां से पैदल ही रेलवे स्टेशन पहुंचा तो रात के नौ बज चुके थे। टिकट खिड़की पर बताया गया कि अहमदाबाद तक गाड़ी नहीं जाएगी, पालनपुर तक जाएगी। मैंने पालनपुर का टिकट ले लिया। ट्रेन आई तो ज्यादा भीड़ नहीं थी। ज्यादातर लोग गुजराती में बात कर रहे थे। जिंदगी में पहली बार भगवान की याद आई कि उसको बचा लो फिर कुछ नहीं मांगूंगा। एक जगह गाड़ी बहुत देर रुकी, दिल ने कहा कि गिरा हुआ अपार्टमेंट भी देखने को मिलेगा या नहीं। पूरी रात डिब्बे में न तो कोई चाय-पानी बेचने आया और न किसी ने कुछ खाया।

सुबह पौने नौ बजे ट्रेन पालनपुर पहुंची और मैं दौड़ कर बस स्टैंड पहुंचा। वहां इतनी भीड़ थी कि सिर चकरा गया। दूर तक कोई बस नजर नहीं आ रही थी। वहां से भुज बारह सौ किलोमीटर दूर था। एक बस आई और अपनी पूरी ताकत लगा दी घुसने में। तब गुजरात की बसों में एक दरवाजा ही होता था। आधे घंटे तक मैं बस में घुस नहीं पाया क्योेंकि बहुत से लोग दरवाजे पर फंसे हुए थे। अचानक एक आदमी बस में घुस पाया तो औरों के भी घुसने की जगह बनी। कंडक्टर ने एलान किया कि रास्ते टूटे-फूटे हुए हैं, तो भुज तक पहुंचाने की गारंटी नहीं, लेकिन जहां तक भी पहुंचाया जाएगा पैसे पूरे लिए जाएंगे। बस चलने के बाद मुझे एक बार खयाल आया कि मैंने परसों रात के बाद से कुछ खाया नहीं है।

तभी बस के जोर से ब्रेक मारने के कारण झटका लगा। अब बस के बाहर सड़कों के किनारे लाशें दिखने लगी थीं। ये वो लाशें थीं जिन्हें भूकंप में गिरे हुए घरों से निकाल सड़क किनारे रखा गया था। कोई लाश कपड़े से ढकी हुई थी तो कोई ऐसे ही। मैं सोच में पड़ गया कि अभी तो भुज चार सौ किलोमीटर दूर है और अभी से लाशें बिछी हुई दिख रही हैं तो नीहारिका के घर के पास का क्या हाल होगा। पहली बार डर लगा कि क्या देखने जा रहा हूं? खाकी पैंट पहने आरएसएस के स्वयंसेवक लाशों को घरों से निकाल सड़क के किनारे रख रहे थे। लगातार भूकंप के झटकों के कारण जिंदा लोग भी सड़क पर थे। अचानक बस पीछे मुड़ी और सड़क छोड़ खेत से गुजरने लगी। बस के कंडक्टर ने कहा कि सड़क पर लाशें बिछी हैं इसलिए उधर से नहीं जा सकते। अंधेरे में बस की हेडलाइट में कपड़े से लिपटी लाशें दिख जाती थीं। मुझे अंदाजा हो रहा था कि भूकंप के केंद्र भुज में एक खंभा भी नहीं बचा होगा।

नीहारिका के घर के पच्चीस किलोमीटर पहले मैं उतरा था। चारों तरफ घुप्प अंधेरा और सड़क के किनारे लाश और बीच में सड़क पर सोए हुए लोग। अब मैं नीहारिका के अपार्टमेंट के मलबे के पास था। मलबे के पास कुछ लोग सोए पड़े थे। मैं सोए लोगों के बीच बच-बच के चल रहा था। अचानक किसी के हाथों ने मेरा पैर पकड़ा और आवाज आई, तुम आ गए, मुझे पता था तुम जल्दी से जल्दी आओगे। मैं चीखा, नीहारिका तुम जिंदा हो। मैं लड़खड़ा के नीचे गिरा और नीहारिका को पकड़ रोने लगा। हमारी आवाज से पास सो रहे नीहारिका के मम्मी-पापा भी उठ गए और रोने लगे। तभी नीहारिका की मां ने पूछा, रोहित तुम्हारा बैग कहां है, तुम दिल्ली से कुछ खाने का सामान लाए हो? मैंने रोते हुए कहा कि बैग लाने की सुध किसको थी।

सुबह हो चुकी थी और नीहारिका मेरी गोद में सो चुकी थी। उजाले में चारों तरफ मकानों का मलबा देख लगा उजाला क्यों हुआ। अब मैं नीहारिका के साथ वो घर देखने गया जो हमने खरीदा था शादी के बाद रहने के लिए। नीहारिका का फैसला था कि वह शादी के बाद नौकरी नहीं छोड़ेगी, वहीं भुज में रहेगी। हम दोनों दिल्ली और भुज आते-जाते रहेंगे।

मेरी खुशी का ठिकाना नहीं था कि नीहारिका और उसका पूरा परिवार बच गया था। हमारे नए घर के पास पहुंचा तो देखा कि चारों तरफ गिरे मलबे के बीच घर खड़ा था। मुझे भरोसा नहीं हुआ कि मेरा सब कुछ बचा हुआ है। नीहारिका ने मुझे अंदर जाने से रोका। लेकिन मैं खुशी से चिल्लाता हुआ अंदर घुस गया और सीधे दूसरी मंजिल पर चढ़ गया। दूसरी मंजिल की बालकोनी में खड़ा हो नीहारिका को अंदर बुलाने लगा। नीहारिका मुझे परेशान नजरों से देख रही थी, तभी मुझे लगा कि बालकोनी धंस रही है और मकान ढह रहा है।

मेरी आंख खुली तो पूरी तरह पट्टियों में लिपटा एक तंबूनुमा अस्पताल में लेटा हुआ था। पास खड़ी नीहारिका ने बताया कि वो मकान दरका हुआ था और फिर से हलके झटके के बाद पूरी तरह गिर गया। मेरी इक्कीस जगह सर्जरी हुई है और कम से कम एक साल तक तो मुझे बिस्तर पर पड़ा रहना होगा। तभी जानलेवा दर्द के बीच नीहारिका की आवाज आई, क्या जरूरत थी दिल्ली से आने की। हमारी मुसीबत बढ़ा दी। अब अपने परिवार को देखूं या तुम्हें। नीहारिका ने एलान सा कर दिया था कि टूटा-फूटा मंगेतर परिवार का हिस्सा नहीं हो सकता था।

कहानी सुना रहे रोहित ने गर्मी से परेशान हो बनियान उतार दी थी। उसकी पीठ पर सर्जरी के निशान दिख रहे थे, जिससे जेसिका को इश्क था। इसके बाद की कहानी के किरदार में जेसिका भी थी। सालों पहले वह एक स्टोरी करने अहमदाबाद गई थी और वहां एक अस्पताल के कमरे में उसकी मुलाकात रोहित से हुई। अस्पताल के एक कमरे में चुपचाप खिड़की से बाहर देखता हुआ। नर्स ने बताया था कि तीन साल से बिस्तर पर हैं और आज तक इनसे मिलने कोई नहीं आया। अब ठीक हो रहे हैं और चलने-फिरने लगे हैं। जेसिका ने देखा कि अस्पताल के बिस्तर पर वह स्वेटर बुन रहा है। स्वेटर बुनते उस इंसान से उसे पहली ही नजर में इश्क हो गया था। नर्स बताती थी, ये व्हील चेयर से अस्पताल के किचन पहुंच जाते हैं और बहुत अच्छा खाना बनाते हैं। जेसिका ने उसकी बनाई पेंटिंग भी देखी और सत्ता को हिला देनेवाली उसकी जमीनी रिपोर्ट के किस्से भी सुने। तीन महीने बाद वो दिल्ली लौट रही थी तो तीन साल, तीन महीने बाद वो भी दिल्ली लौट रहा था, उसी ट्रेन से खाली हाथ बिना किसी सामान के।

अचानक से जोर की गड़गड़ाहट के साथ अपार्टमेंट हिला और रोहित घबराकर जेसिका से लिपट गया। घर का हिलना उसे अंदर तक डरा गया। जेसिका भी बुरी तरह डर गई थी। दोनों एक-दूसरे से लिपटे हुए थे कि रोहित ने कहा कि जिस तरह धरती कांपने की गड़गड़ाहट सुनाई दी उससे कह सकता हूं कि भूकंप का केंद्र पूर्वी दिल्ली है। देखो लियोनार्दो वाली खोज की न। तभी सामने म्यूट रखे हुए टीवी पर पट्टी चलने लगी-दिल्ली-एनसीआर में भूकंप के झटके एपीसेंटर पूर्वी दिल्ली। पट्टी पढ़ते ही दोनों जोर से हंस पड़े। लॉकडाउन के बाद पहली बार जेसिका इतनी जोर से हंसी थी।

जेसिका ने खिड़की बंद कर दी और रोहित के कमरे में जाकर आलमारी खोली। अब तक वह रोहित के बुने स्वेटर इस शर्म से नहीं पहनती थी कि लोग क्या कहेंंगे कि इसका पति स्वेटर बुनता है। गर्मी की परवाह नहीं करते हुए उसने स्वेटर पहनते हुए रोहित से पूछा, तुम्हें आईब्रो सेट करना तो नहीं आता होगा। उम्मीद के अनुसार जवाब था, ममेरी बहन जब ब्यूटीशियन का कोर्स कर रही थी, तो सीखा था। जेसिका ने रोहित के बुने स्वेटर में सेल्फी ली और फेसबुक पर पोस्ट किया - #हैशटैग दी विन्ची

लेखिका परिचय

वरिष्ठ पत्रकार, जनसत्ता अखबार में सहायक संपादक, खबरों और साहित्य पर पैनी नजर

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