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और ख़ामोशी बोल पड़ी (पुस्तक-समीक्षा )

और ख़ामोशी बोल पड़ी (पुस्तक-समीक्षा )

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ख़ामोशी मनुष्य-मन के भीतर हर पल चलती है ,कभी तीव्र गति से तो कभी रुक-रुककर लेकिन भीतर होती हर मन में है ,कभी उससे बात करके देखें तब कैसे लिपट जाती है आवेगों से,संवेदनाओं से ! कई दिनों से अर्चना अनुप्रिया की 'और ख़ामोशी बोल पड़ी ' संग्रह की रचनाओं में गुम थी |
कोई लकीर सी खिंचती चली जाती है भीतर मन में ,जब कभी छू जाता है ज्वार संवेदनाओं का ---(प्रणव भारती )

विधा कोई भी क्यों न हो जब छूने लगती है संवेदना ,भीतर के पटों को झंझोड़ने लगती है तब कुछ माँगती है | माँगती है उन्हें छू लिया जाए,उठा लिया जाए ,शब्दों का लिबास पहना दिया जाय !और की जाए उनसे अपनत्व की वो बातचीत जो हल्का कर दे मन को |

यूँ हर मन कहाँ अपनी बात का खुलासा कर पाता है ,चुप्पी से सिले होठों में भीतर की कसमसाहट को भीतर ही जोड़ते रहते हैं हम ,एक गठ्ठर सा बना लेते हैं | किन्तु एक पल ऐसा भी आता है जब ख़ामोशी हर बंधन तोड़ने पर उतारू हो जाती है मन :स्थिति ,हर गठरी खुलने लगती है और उसमें से आवाज़ें कसमसाने लगती हैं ---- और जब ख़ामोशी बोलती है तब खुलवा देती है बहुत से मन के भीतरी रिसते घाव जिन पर मलहम भी वही लगाती है |यानि ,दर्द भी वही,दवा भी वही !

अर्चना अनुप्रिया बरसों चुप रहीं लेकिन चुप्पी एक ऎसी सखी है जो मन से बात करती ही रहती है ,उनकी चुप्पी भी बात करती रही होगी | हर बात की एक सीमा होती है , इसकी भी सीमा आ गई और एक दिन ख़ामोशी ने उन्हें झंझोड़ा तब स्वाभाविक और ज़रूरी था ख़ामोशी का बोल पड़ना | यह खुल जाना ज़रूरी होता है ,कब तक घुटन का आँचल ओढ़े ख़ामोशी ? मुझे याद आ रही है अपनी परम मित्र श्रीमती साधना भट्ट की ! यह उन दिनों की बात है जब वो आकाशवाणी में सह-निदेशक के उच्च पद पर आसीन थीं !बाद में निदेशक के पद पर भी रहीं | यह बहुत पहले की बात है , शायद चालीसों वर्ष हो गए लेकिन वो बातें,मुलाकातें आज तक कल की बातें लगती हैं | इसका कारण है बरसों आकाशवाणी ,अहमदाबाद से जुड़े रहना ! हम मित्र उनके कमरे में जाकर बैठते | जब कभी आकाशवाणी में रेकार्डिंग हो और साधना बहन के पास जाकर दो-चार घंटे न बिता लिए जाएँ ,ये तो हो ही नहीं सकता था | सच कहूँ तो रेकार्डिंग से अधिक उनके साथ बैठने ,कविताओं का अथवा किसी चर्चा का आदान-प्रदान होना अधिक रोमांचित करता था |

उन दिनों वे अपनी ड्रॉअर से कुछ पुर्ज़े निकालकर अपनी लिखी हुई संवेदनाएं साँझा करतीं | हम मित्रों ने ज़बरदस्ती उनके अलग-अलग बिखरे पड़े कागज़ निकलवाए ,उन्होंने उसे सुधारा और उनकी पुस्तक की पांडुलिपी तैयार हुई | अब सवाल था पुस्तक के शीर्षक का | सोचा गया और नाम रखा गया 'चुपके से '---यानि जिस किसी को सपने में भी साधना भट्ट की रचनाओं के बारे ख़बर नहीं थी ,उन सबके मन के द्वार पर इस 'चुपके से' ने आकर साँकल बजा दी |

अर्चना अनुप्रिया की पुस्तक देखकर मुझे उस 'चुपके से' की याद सहसा ही हो आई |अर्चना की कहानी में मुझे 'चुपके से 'का साम्य भी महसूस हुआ और उनकी खामोशी में हलचल का उद्वेलन भी दृष्टिगोचर हुआ |

अर्चना से मेरा अहमदाबाद 'अस्मिता' के माध्यम से ही परिचय हुआ | मुस्कुराते चेहरे वाली सुंदर सी अर्चना के सरल,सहज व्यवहार ने सभी मित्रों के हृदय में शीघ्र ही स्थान बना लिया | उन दिनों वह कुछ ही गोष्ठियों में सम्मिलित हो सकीं |आई.पी. एस अफ़सर पति होने के दिल्ली स्थानांतरण होने के कारण स्वाभाविक रूप से उन्हें अहमदाबाद छोड़ना पड़ा किन्तु वह सबसे जुड़ी रहीं | हम उनकी संवेदनायुक्त रचनाओं का बहुत कम समय आस्वादन कर पाए |

एक बार 'एफ़बी' पर से उनका लेख लेकर,उनकी इज़ाज़त से मैंने 'उजाले की ओर 'अपने 'विराट वैभव' के रविवारीय कॉलम में प्रयुक्त किया था |जिस कॉलम को मैं बहुत लंबे वर्षों से लिखती रही थी |

इस संग्रह में अर्चना की रचना शुरू होती है-- बचपन की ड्योढ़ी से जिसमें नए व पुराने का मिश्रण दूध में मिश्री से घोल देता है | निम्न पंक्तियाँ पेड़ों की वृद्धावस्था के साथ एक वृद्ध का चित्र पाठक के समक्ष उकेर देती हैं |पेड़ के चित्र से साम्य करता एक और चित्र पाठक-मन में उभरने लगता है और वह सहज ही उससे तादातम्य स्थापित करने लगता है |

'बचपन के साथी----पेड़'

बचपन के साथी पेड़ अब बूढ़े हो चले हैं

गाँठों में तब्दील उनकी झुर्रियाँ उनकी परिपक्वता बताती हैं
उनकी निढाल पड़ी शाखाएँ ,मानो हमें बुलाती हैं -----
अर्चना के इस कविता-संग्रह में मेघा है। साँझ की सुहानी खूबसूरती है तो ,पेड़ और पत्तों के बीच संवाद भी ! जिसमें पेड़ व पत्ता अपनी-अपनी महत्ता के बारे में संवाद करते दिखाई देते हैं | कृषक भी कवयित्री की दृष्टि से नहीं चूका है तो अपनी सीमा का वह प्रहरी भी जिसके कारण हम चैन की नींद लेते हैं | जीवन-चक्र, व कोहरा के भीतर से सुगबुगाती ऋतु बसंत झाँकती है तो पावस ऋतु मल्हार गाती है | बादल-गीत का तराना शरद पूनम के चाँद के साथ मुस्कुराता दिखलाई देता है तो पर्यावरण और त्यौहार के बाद रोता पर्यावरण भी शिकायत दर्ज़ करके आँसू की आपबीती सुनाता है|

अर्चना के इस संग्रह में ऐसी अनेक संवेदन से परिपूर्ण रचनाएँ दृष्टिगोचर होती हैं |इनकी रचनाओं में पिता का साया है तो माँ की लोरी भी ,बच्चे के लाड़ को दुलारती एक माँ है तो बहू के रिश्ते को गंभीरता से निभाने का सहज स्पर्श भी ! यदि यह कहा जाए कि अर्चना की कलम ने हर रिश्ते की संवेदना को छूने का प्रयास किया है तो ग़लत नहीं होगा |
कुछ पंक्तियाँ सहज ही ध्यान आकर्षित करती हैं ;-

मौसम तो हमारे अंदर ही होता है
या फिर

टेढ़ा-मेढ़ा अभिमानी पत्थर ,
कभी घरों को जोड़ नहीं सकता ---

संवेदनशील कवयित्री चैतन्य हैं ,अपनी संवेदना के तहत उन सभी नदियों के प्रति कृतज्ञ हैं जिन्होंने हमें पाला-पोसा है ,हमें जिलाए रखा है ,उनसे क्षमा-याचना करते हुए कहती हैं ;

आँखों में लेकर ग़म के बादल तू चुप सी हो रही है

जीवंत होने की चाहत लेकर न जाने कहाँ खो रही है ?

उन्हें चिंता है -----

रूठ गई तू हमसे ,नमी धरा से चली जाएगी |

कैसे बचेगा जीवों का जीवन कैसे पीढ़ियाँ पनप पाएँगी ?

प्रकृति के प्रति उनकी संवेदना कई स्थानों पर मुखर होती है , लिखती हैं ;

माँ की तरह प्रकृति बिन माँगे सब देती है ---

एक माँ की कोमल संवेदना से माँ की ममता छलक-छलक जाती है ;

जब तेरे तुतले बोल मुझसे बात करते हैं ---

कवयित्री को एक स्त्री होने पर गर्व है , वे पूरी चेतना के साथ निम्न शब्दों में प्रस्तुत करती हैं -----

घर-बार है हमीं से

संसार है हमीं से

जीवन जन्म हमसे

संस्कार भी हमीं से ---
हमारे सबके दिल के कोने में बचपन छिपा रहता है | अर्चना की कवयित्री भी उस बचपन की नन्ही-नन्ही भावनाओं की स्मृतियों में भीगने लगती हैं ;

रोएँ कभी तो आँसू संग ही ,

हँस दें भूलें पीड़ाएँ सारी

नन्ही-नन्ही माँगों में ही ,

छिपी नन्ही ख़ुशी हमारी

बालपन के बाद यौवनावस्था का वह खूबसूरत पल आता है जिसमें दो आत्माएँ एक होकर जीवन के प्रति समर्पित हो जाती हैं |

'हम -तुम' में उनकी इन सुकोमल भावनाओं की छुअन को महसूस किया जा सकता है | इस रिश्ते की खटमीठी बानगी को वे कुछ इस प्रकार प्रस्तुत करती हैं |
नफ़रत भी खुद को

प्रेम की दुनिया के निकट पाता है

जब नफ़रतों के समुद्र का

खारापन मिटाकर भावनाओं की मिठास

भर देते हैं हम-तुम ---!

दूसरे ही क्षण आज के अपराध से भरे वातावरण पर इंगित करती उनकी लेखनी प्रश्न पूछती है --

क्या मनुष्य न हो जाएगा दानव ?
असली ख़ुशी कहाँ स्वार्थ में है ?

मनुष्य के कर्मों पर दृष्टिपात करते हुए वे लिखती हैं ;

पन्ने-पन्ने पर लिखा है

अच्छे बुरे कर्मों का हिसाब

पल प्रतिपल लिखती रहती है

मानव की किताब !
हर मनुष्य के भीतर मन का एक कोना होता है जिसमें न जाने क्या-क्या छिपा रहता है उनकी 'दृष्टि 'इस कोने पर भी पहुँचती है और एक संदेश लेकर उजास पसरा देती है ;

यह जो मन का कोना है,

बनता सपन सलोना है ,

निराशा भरी कालिमा में ,

अंतर्मन से उज्जवल होना है ---
आज की पीढ़ी के प्रति अर्चना के मन में पीड़ा है ,अपने चारों ओर के वातावरण में झाँकते हुए कहती हैं ;
उम्र के बड़ों को भी छोटे

आँख दिखाया करते हैं ---
'सखी का से कहूँ' में बालपन की गुड्डे-गुड़िया की शादी को याद करते हुए कवियित्री को

अपने ही घर में 'पराया धन 'कहलाना

देता है दिल को पीड़ा की सौगात ---

इसी में ही ----

जिधर भी देखो,

बस दुखी है नारी कभी

'अबला बेचारी' कभी

'वृद्धा है भारी' ---
जैसे ऊपर वर्णित किया गया है अर्चना अपने देश के वीर सपूतों के प्रति अत्यंत संवेदनशील हैं |वो रक्षाबंधन पर अपने वीर भाईयों को बड़े स्नेह से याद करती हैं, सैनिकों के लिए

'सरहद की राखी ' पर ही अपना स्नेहाशीष भेजती हैं | अपने देश के प्रति नमन करते हुए अपने सैनिक भाइयों को गुहार लगाती हैं ---

'मुझे राखी का नेग ये देना, एक भी शत्रु का शीश न बचे '
आज का दौर रिश्तों की टूटन का है जिससे हम सब परिचित हैं अनेक कारण हैं | इतनी संवेदनशील कवयित्री किस प्रकार इस वातावरण से अछूती रह सकती हैं?

परिवर्तन का यह दौर कैसा ?

रिश्तों के टूटने का यह शोर कैसा ?
'जानवर और इंसान ' में उनकी पीड़ा सर्वोपरि हो जाती है ;

न जाने किस दुनिया में खोए हुए हैं लोग
हरियाली है वन में ,

ख़ुशहाली है वन में

जानवरों में भाईचारा बढ़ने लगा है

अंतरिक्ष की ऊँचाई नापकर क्या होगा भला ---?
उनकी उपरोक्त पंक्तियों में सच्चाई दिखाई देती है ,हम कितने ही बड़े होने का ,विज्ञान का अभिमान करें किन्तु जब अपने इस धरती के संसार में ही काँटे बोएँगे तो अंतरिक्ष से क्या और कैसे पाएँगे ? पहले मनुष्य इतना चेतन तो हो जाए कि उस वातावरण को स्वच्छ व सुखकर बनाए जिसमें वह रहता है ,निवास करता है | अंतरिक्ष की बात तो बाद की है |
कवयित्री ने 'जोकर' के लिए एक बहुत अच्छी बात कही है जो मेरे अंतर् को छू गई | सच में ,इन छोटी सी पंक्तियों में उन्होंने कितनी बड़ी बात प्रस्तुत की है |

वह जोकर सुलझा इंसान था

ज़िंदगी पर ठहाके लगा रहा था ----

दूसरी ओर स्त्री को एक योद्धा स्वीकार करके बड़ी सशक्तता से लिखती हैं ;

हर पल चौकन्ना

रहता है योद्धा

जैसे जंगल में हिरणी

वह योद्धा और कोई नहीं

है हर घर की गृहिणी ----

कवियित्री पीड़ित है ,अफ़सोस है उन्हें ! कितने कष्ट से लिखा होगा -----
शरीर चल रहे हैं ,

लेकिन आत्मा मृत पड़ी है ,

ज़िन्दों से भरा जहाँ

अब मुझे श्मशान दिखा रहा है--------
'परिवर्तन' में वे एक आशा भी रखती हैं---यानि इंसान चाहे तो क्या नहीं कर सकता लेकिन वह चाहे तो सही ,इच्छा तो उठे उसके मन में ---

हमेशा ये याद रखें,ये हमीं हैं ,

जो बुराइयों को अच्छाइयों में बदलते हैं ---

'मौन हैं सभी' में प्रश्न किसी एक से नहीं ,अनेक के समक्ष परोसे हैं उन्होंने ---

मर्यादा पुरुषोत्तम कहलाने वाले के प्रति भी प्रश्न अंकुरित होता है
तो --एक स्त्री -धर्म का वीरों की भरी सभा में अपमान हुआ ?यह प्रश्न भी अंकुरित होता है ----

साथ ही बुद्ध भी प्रश्न के दायरे से बाहर नहीं निकल पाते ----

जाग्रति का प्रकाश देने वाले

पत्नी और पुत्र को

अकेलेपन के अंधकार में

छोड़ गए ?

पुरुष वर्चस्व समाज में जब स्त्री को पीड़ा होती देखकर भी कोई आवाज़ नहीं उठाता तब उनकी लेखनी मौन नहीं रह पाती और सबको प्रश्नों के घेरे में ला खड़ा करती हैं |

मौन हैं सभी वेद-पुराण

क्यों ज्ञान के इतने बड़े भंडार में

स्त्रियों के स्वाभिमान की रक्षा के लिए

कोई घ्यान नहीं -----?

और यह भी कि ------

मौन है पुरुष समाज

क्यों सामजिक स्वतंत्रता की लड़ाई में

स्त्रियों को स्वतंत्र होने का

कोई अवसर नहीं |

कुछ रचनाओं में बहुत सी पंक्तियाँ बरबस पाठक का ध्यान आकर्षित करती हैं किन्तु उन्हें पढ़ने के बाद ही रचना का वास्तविक अस्तित्व दृष्टव्य होता है ----

बहुत आहत हूँ मैं भी
भीष्म पितामह सा

शूलों पर हूँ

अपने ही लोगों से

दुखी हुआ हूँ ---

दृढ़ विश्वास है उन्हें स्त्री की असीम शक्ति पर इसीलिए तो उनको लेखनी सहज ही प्रसृत होती है|

हम शक्ति असीम हैं
कल तुम्हें बनाया था

आज ख़ुद के लिए खड़े रहेंगे

'अंत ही आरंभ है 'संग्रह की अंतिम रचना जैसे बिन कहे ही पाठक को दर्शन की ओर आकर्षित करती है |
एक कड़ी जब ख़त्म होती तो

नयी कड़ी जुड़ जाती है---

और ----

ज़िंदगी के अटल स्तंभ हैं

ख़त्म कभी होता नहीं सिलसिला

हर अंत ही आरंभ है -----| |
अर्चना ने इस संग्रह में लगभग सभी विषयों का समावेश किया है | आशा है उनकी यह पुस्तक हिंदी साहित्य-जगत में ऊँचा मुक़ाम पाएगी और भविष्य में कवयित्री को नव-लेखन के लिए प्रोत्साहित करेगी |
इस कविता-लहरी को कवयित्री ने पाँच निम्न भागों में विभक्त किया है |
1-खंड क -प्रकृति और पर्यावरण

2 -खंड ख -रिश्ते और परिवार

3 -खंड ग -लोक और समाज

4 -खंड घ -भक्ति एवं वंदना

5-खंड -ड -दर्शन और मन
वनिका प्रकाशन से प्रकाशित यह 231 पृष्ठों की पुस्तक पाठक को बहुत कुछ सोचने के लिए विवश करती है |

कुछ प्रश्न ऐसे उठाए गए हैं जिनके बारे में सोचकर संवेदनशील प्रबुद्ध पाठक उनके उत्तर तलाशने का प्रयास करता प्रतीत होता है |

कवयित्री श्रीमती अर्चना अनुप्रिया व वणिका प्रकाशन की प्रिय नीरज को मेरा हृदय से साधुवाद !

अनेकानेक शुभकामनाओं सहित

डॉ. प्रणव भारती

अहमदाबाद

'और ख़ामोशी बोल पड़ी' (काव्य संग्रह)

संस्करण प्रथम --2019

कवयित्री,श्रीमती अर्चनाअनुप्रिया

वनिता प्रकाशन

मूल्य --चारसौ रूपये