Chandra Prabha - Part (13) books and stories free download online pdf in Hindi

चन्द्र-प्रभा--भाग(१३)

सूर्यप्रभा, राजकुमार का प्रेम देखकर द्रवित हो उठी,वो स्वयं को भाग्यशाली समझ रही थी,परन्तु उसे अब ये संदेह हो रहा था कि अम्बालिका राजकुमार के मार्ग मे अवश्य अवरोध उत्पन्न करेंगी, जिससे वें यहाँ ना पहुँच पाएं और मैं इस रूप में हूँ कि मेरी स्वयं की माँ भी मुझसे अपरिचित हैं कि मैं ही उनकी बेटी हूँ, समझ मैं नहीं आ रहा कि ऐसा क्या करूँ, जिससे मैं अपने पूर्व रूप में आ सकूँ।।
तभी रानी जलकुम्भी भी अम्बालिका की आहट सुनकर जाग उठी और रात्रि में अम्बालिका को मैना के पिंजरे के निकट खड़ा हुआ देखकर बोली___
क्या बात है? अम्बालिका, इतनी रात्रि में तुम्हें कोई संदेह हो रहा है क्या? जो बेचारी मैना को कष्ट पहुँचाने आ पहुँची, ऐसा भी क्या अपराध किया हैं बेचारी ने।।
रानी जलकुम्भी! तुम तो यूंँ ही चिन्तित हो रही हो,मैं तो मैना बनी राजकुमारी को प्रसन्न कर देने वाली सूचना देने आई थीं कि जिस राजकुमार से इसका विवाह होने वाला था,वो इसे बचाने आ पहुँचा हैं अपने साथियों के साथ,अम्बालिका बोली।।
ये तो अत्यधिक प्रसनन्ता वाली सूचना हुई,कितना प्रेम करता हैं राकुमार,इस मैना बनी राजकुमारी से,रानी जलकुम्भी बोली।।
हाँ!वहीं तो,परन्तु मैने उसका मार्ग रोकने का अत्यधिक प्रयास किया किन्तु वो तो बहुत साहसी निकला,उसने हार नहीं मानी,परन्तु रात्रि को अम्बिका ने उसके मित्र पर प्रहार किया है, जिससें उसकी दशा अत्यधिक गम्भीर है, अब देखती हूँ कि राजकुमार शीशमहल तक कैसे पहुँचता हैं? अम्बालिका बोली।।
अरी,दुष्टा! कुछ तो तरस खा,इस पर,इसने तुझे क्या हानि पहुँचाई है जो तू इसके साथ ऐसा व्यवहार कर रही हैं, जलकुम्भी क्रोधित होकर बोली।।
बस,कुछ किया होगा, इसलिए तो मै इसके साथ ऐसा कर रही हूँ, अम्बालिका बोली।।
अम्बालिका! तू चाहे कितने भी पाप कर लें , तेरे पापों का घड़ा,एक ना एक दिन भर कर रहेगा,कभी ना कभी वो दिन अ्वश्य आएगा,जब तू अपने प्राणों की भिक्षा मांगती हुई दिखाई देगी,ये मेरा श्राप है तुझ पर, रानी जलकुम्भी बोली।।
अरे,रानी जलकुम्भी इतना क्रोधित मत होइए,क्या पता उस दिन की प्रतीक्षा करते करते तुम्हारे ही प्राण ना चलें जाएं,अम्बालिका बोली।।
नहीं जाएंगे मेरे प्राण इतनी सरलता से,जब तक कि तेरा सर्वनाश नहीं देख लेती,तुझ जैसी चण्डालिनी को तो ऐसी मृत्यु मिलनी चाहिए कि तूं झटपटाए और तेरे प्राण ना निकलें,जलकुम्भी बोली।।
रानी क्यो अपना समय नष्ट कर रही हो,अभी रात्रि ब्यतीत नहीं हुई है जाओ अपने पत्रो के बिछोने पर विश्राम करो, निंद्रा का आनन्द उठाओ,मैं भी जा रही हूं,तनिक कोई युक्ति निकालूं राजकुमार को हराने की और इतना कहकर अम्बालिका चली गई।।
इतना सुनकर सूर्यप्रभा की आंखों से झरझर अश्रु बह निकले, परन्तु उसे जलकुम्भी ने ढ़ाढस बंधाया कि अम्बालिका कभी भी विजयी नहीं होगी, उसने इतने पाप किए हैं कि अब समय आ गया कि उसे उचित दण्ड मिलना चाहिए।।
सूर्यप्रभा अब कुछ संतुष्ट थी,रानी की बात सुनकर।।
और उधर सहस्त्रबाहु की दशा अत्यधिक गम्भीर हो चली थी,भालचन्द्र का मस्तिष्क कार्य नहीं कर रहा था, इतना अच्छा मित्र वो खोना नहीं चाहता था,भालचन्द्र की मनोदशा अत्यन्त दयनीय थी,वो चाहता कि उसका मित्र स्वस्थ होकर फिर पहले की तरह हंसने लगे।।
सबकी आंखें अश्रुपूरित थीं, कोई भी नहीं चाहता था कि कोई भी अमंगल हो,सब कामना कर रहे थे कि सहस्त्रबाहु शीघ्र स्वस्थ हो जाए, नागदेवता अपने यज्ञ को भली-भांति सफल करने का प्रयास कर रहे थे और कुछ समय उपरांत उस यज्ञ में से एक देवी प्रकट हुई।।
नागदेवता ने उस देवी के समक्ष अपना शीश नवाया और कहा कि सहायता करें कुल देवी,इस अबोध बालक की रक्षा करें,इसने मेरे प्राण बचाने के लिए अपने प्राणों को संकट में डाल दिया, मैं ये नहीं देख सकता कि एक निरापराध बालक मेरी आंखों के सामने अपने प्राण त्याग दें।।
चिंता ना करो पुत्र! ऐसा कभी नहीं होगा,इस बालक के शरीर पर इस यज्ञ की विभूति को मलो,ये बालक तत्पश्चात् स्वस्थ हो जाएगा और इतना कहकर कुल देवी अन्तर्ध्यान हो गई।।
नागदेवता ने यज्ञ में से किसी बर्तन की सहायता से विभूति निकाली, उसे धरती पर बिखेर दी जिससे की विभूति ठंडी हो जाए, इससे विभूति शीघ्रता से ठंडी हो गई और फिर सबने वो विभूति सहस्त्रबाहु के शरीर पर मली, जिससे कुछ समय पश्चात् भोर होते ही सूर्य की लालिमा के संग सहस्त्रबाहु ने अपनी आंखें खोल लिया,भालचन्द्र ने मारे खुशी के सहस्त्रबाहु को अपने हृदय से लगा लिया और बोला__
मित्र! तुमने तो जैसे मेरे प्राण ही निकाल दिए, ऐसे सब मुझसे एक एक करके दूर होते जाएंगे तो मैं कैसे जी पाऊंगा।‌।
धन्यवाद मित्र! इतना स्नेह तो केवल भ्राता ही कर सकता है, सहस्त्रबाहु बोला।।
तुम मेरे भ्राता ही तो हो,अब विश्राम करो, मैं कुछ समय पश्चात् मिलूंगा और इतना कहकर भालचन्द्र चला गया।।
सबने बारी बारी से सहस्त्रबाहु से भेंट की और अन्त में सोनमयी आई और पूछा।
कैसा अनुभव कर रहे हो?
अब ठीक हूं, सहस्त्रबाहु बोला।।
अच्छा मैं तुम्हारे उपचार का प्रबन्ध करती हूं, राजकुमार जड़ी-बूटियों का प्रबन्ध करने गए हैं बाबा के साथ,सोनमयी बोली।।
तुम कुछ देर मेरे निकट रहोगी तो मैं तो ऐसे ही स्वस्थ हो जाऊंगा,तुम्हीं मेरा उपचार हो और तुम ही मेरी औषधि, सहस्त्रबाहु बोला।।
ये कैसी बातें कर रहे हो? सोनमयी ने पूछा।
ये सत्य है सोनमयी, मैं तुमसे प्रेम करने लगा हूं,सहस्त्रबाहु बोला।‌
धत् और इतना कह कर सोनमयी लजाते हुए भाग गई।।
उधर अम्बालिका को अपने गुप्तचर से सूचना मिली कि सहस्त्रबाहु के प्राण बच गए हैं तो वो क्रोध से अपना संतुलन खो बैठी,उसे नागदेवता पर अत्यधिक क्रोध हुआ और उसने अम्बिका से कहा कि तेरे कारण ऐसा हुआ ,तू नागदेवता से अपना प्रतिशोध ना लेती, कुछ समय और ठहर जाती तो क्या हो जाता, मुझे लगा था तू उनके बीच वृद्ध के रूप में वेष बदल कर रहोगी तो मुझे उनके क्रियाकलापों के विषय में ज्ञात होता रहेगा, परन्तु तूने सब नष्ट कर दिया।।
पर क्या करूं? मैं विचलित हो गई थी, शेषनाग ने जो वर्षों पहले मेरे संग किया था, मुझे उसका प्रतिशोध चाहिए था,अम्बिका बोली।।
अब जो हुआ सो हुआ, परन्तु अब से ऐसा कदापि ना हो, नहीं तो हम दोनों के प्राण संकट में पड़ सकते हैं,अम्बालिका बोली।
और उधर सहस्त्रबाहु का उपचार चल रहा था,सब आपस में वार्तालाप कर रहे थे,तभी भालचन्द्र ने नागदेवता से पूछा कि ऐसा क्या कारण था जो अम्बिका आपसे प्रतिशोध लेना चाहती थी।।
तब नागदेवता बोले,ये उस समय की बात है जब अम्बिका का तुम्हारे पिता से विवाह नहीं हुआ था,वो अविवाहित युवती थी,रूप लावण्य से परिपूर्ण, सुन्दर तो वो थी ही और एक सपेरे से प्रेम करती थी ।।
वो प्राय: वन में जाती उस सपेरे से मिलने और वो सपेरा अम्बिका से प्रेम नहीं करता था वो तो इसे उपयोग कर रहा था अपने कार्य के लिए ताकि वो उसकी शक्तियों द्वारा ये ज्ञात कर सके कि मैं और नागरानी किस स्थान पर वास करते हैं।।
उस सपेरे को हम दोनों की नागमणियां चाहिए थी जिससे वो एक सिद्ध सपेरा बन सकता था और किसी भी इच्छाधारी नाग को अपने वश में कर सकता था और इसलिए उसने हमारी नागमणियां प्राप्त करने के लिए ये योजना बनाई एवं अम्बिका को अपने प्रेमजाल में फंसाया और अम्बिका सपेरे की बातों में आ गई।।
और उन दोनों ने हमें खोजने के लिए धरती और आकाश एक कर दिए परन्तु हम मिल ना सकें,हम उस मंदिर में वास करते हैं ये उनकी कदापि ज्ञात ना हो सका।।
तभी एक दिन अम्बिका को ये सूचना मिली कि राजकुमार अपारशक्ति नागदेवता और नागदेवी के दर्शन करने किसी मंदिर में जाते हैं,तब अपारशक्ति अविवाहित थे और राजा भी नहीं थे।।
हमारे वास स्थान के विषय में ज्ञात होते ही दोनों ने हमारे भक्त होने का स्वांग रचा, उन्होंने ये दिखाने का प्रयास किया कि वो दोनों हम दोनों के भक्त हैं और धीरे-धीरे हमारे विषय में जानकारियां लेनी प्रारम्भ कर लीं और उन दोनों ने ये ज्ञात कर लिया कि पूर्णिमा की रात को हम दोनों पति-पत्नी अपनी अपनी मणियों की पूजा करते हैं, ये करना हमें वर्ष भर में पूर्णिमा के दिन अनिवार्य होता है और ये उन्होंने ज्ञात कर लिया,उस रात्रि दोनों घात लगाकर मंदिर के बाहर बैठे रहे।।
और ज़्यों ही हम पति-पत्नी समाधि लगाकर अपनी अपनी मणियां निकालकर बैठे, दोनों ही हमारी मणियां चुराकर मंदिर से भाग निकले और संयोगवश अपारशक्ति भी पूर्णिमा की रात्रि हमारे दर्शन को आए और मणियां ना देखकर उन्होंने हमें समाधि से जगाया,तब मैं और अपारशक्ति दोनों को खोजते हुए जंगल की ओर निकल पड़े।।
और हमारे हाथ दोनों लग गए, मैं सपेरे को कोई हानि नहीं पहुंचाना चाहता था अपारशक्ति ने उससे मणियां छीनी और मुझे दे दीं एवं हम दोनों वापस लौटने लगे लेकिन उसे तो मणियां चाहिए थीं उसने खंजर से अपारशक्ति की पीठ पर प्रहार कर दिया तब मैंने भी उस पर अपने विष वाले दंत गड़ा दिए और उसकी मृत्यु हो गई ये सब देखकर अम्बिका बोली,इसका प्रतिशोध मैं एक ना एक दिन अवश्य लूंगी....
और उस दिन से अब उसे मैं मिला तो उसे अपना प्रतिशोध याद आ गया होगा।।
ये कहानी थी,मेरी और अम्बिका के मध्य शत्रुता की, नागदेवता बोले।।

क्रमशः_
सरोज वर्मा...