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कर्तव्य - 2

कर्तव्य (2)

मैं जैसे ही अंदर गई भाभीजी ने मुझे गले लगा लिया और मेरी पहनी हुई फ्राक की खूब तारीफ़ की । मुझे भी अच्छा लगा और मैं उनसे बातें करने लगी ।

भाभीजी— “गुड़िया तुम्हारी ड्रेस बहुत सुंदर है,कौन लाया था ।”

मैंने बताया—“भाभीजी यह ड्रेस रक्षा बंधन पर बड़े भैया लेकर आये थे, आज ही मैंने पहनी है ।देखो भाभीजी मेरे लिए भैया माला भी लाये थे , यह भी मैंने पहली बार पहनी है; कैसी लग रही है ।”

भाभीजी— “अरे वाह क्या बात है गुड़िया तुम तो बहुत प्यारी लग रही हो।”

यह कह कर भाभीजी अपने काम में लग गई और ख़ज़ांची भाईसाहब ने हमारे लिए आसान बिछा दिया, हम दोनों आसन पर बैठ गए तो भाईसाहब भी भाभीजी की मदद के लिए चले गए ।

जैसे ही ख़ज़ांची साहब गये भैया ने मुझे कोहनी का प्रहार कर दिया मैं दर्द से चिल्ला उठी ।भाभीजी ने आवाज़ लगाई; क्या हुआ गुड़िया?

मैं अपना दर्द छिपा कर बोली कुछ नहीं भाभीजी मोटा चूहा था, वह चला गया । भाभीजी के घर में बहुत सफ़ाई रहती थी , उनके घर में चूहे नहीं थे; ख़ज़ांची साहब ने सुना तो वह चूहे की तलाश में जुट गए । जब कोई चूहा नहीं मिला तो वह बोले—
गुड़िया तुम्हारा वहम था,घर में तो कोई चूहा है ही नहीं । चलो अब पूजा हो गई, तुम लोग बैठ जाओ ।

हम दोनों आसन पर बैठ गए और भाभीजी ने हमारे लिए भोजन परोस दिया ।

भोजन में तरह-तरह के पकवान और मिठाइयों को परोसा गया था,भूख भी ज़ोर से लगी थी ।देख कर बहुत अच्छा लग रहा था, तभी भाभीजी ने पहले मेरे पैर पानी से धोकर ;तौलिया से सुखाने के बाद भैया के पैर धोकर तौलिया से सुखा दिये ।

फिर हम लोग स्वादिष्ट भोजन का आनंद लेते हुए भोजन करने लगे।

ख़ज़ांची साहब के कोई भी संतान नहीं हुई थी, जब -तब भाभीजी मुझे बुला लेती; में भी जब समय होता उनके बुलाने पर चली ज़ाया करती ।

एक बार हम कपड़ों की पसंद की बातें कर रहे थे, भाभीजी ने मेरी पसंद की जानकारी ले ली थी ।

जब हम भोजन कर चुके तो भाभीजी ने मुझे और भैया को एक-एक पैकेट दिया । भाभीजी ने पैर छूकर कुछ पैसे भी दिए और कहा— “गुड़िया तुम्हारी पसंद की है।”

हम लोग अभिवादन कर ख़ज़ांची साहब के साथ ही वापस घर लौट कर आ गये ।

घर आकर भैया ने अपना पैकेट खोला ,उसमें सुंदर सी उनकी ड्रेस थी; वह देख कर बहुत खुश हुए । फिर बोले—

“गुड़िया तू भी अपना पैकेट खोलकर देख ले।”

मैंने देखा तो मेरी बहुत ही सुंदर ड्रेस थी, मैं ख़ुशी से मॉं को दिखाने गई तो मॉं ने बहुत तारीफ़ करते हुए मुझे अपनी गोद में बैठा लिया ।

भैया ने देखा तो मॉं से मेरी शिकायत की मॉं इसने भाभीजी से यह ड्रेस मॉंग कर ली है अपनी पसंद की।

मॉं ने कुछ नहीं कहा मॉं अपने काम में लग गई । मॉं के जाने के बाद भैया ने मेरे फिर से कोहनी मारी और बोले—
बहुत स्यानी बनती हो। भाभीजी के सामने बहुत भली बनती हो अबकी बार जब जाऊँगा तब उन्हें तुम्हारी सभी बातें बताऊँगा । वह तुझे बहुत सीधी समझतीं है। मैं उन्हें बताउँगा कि तुम मुझे कितना परेशान करती हो। मैं रोने लगी मैंने कहा—
“मैंने क्या किया ?”

जब भैया ने देखा कि यह रोने लगी तो मुझे चुप कराने लगे । बोले—

“अब चुप हो जा, वरना तू जानती है , एक कोहनी मारूँगा; नानी याद करने लगेगी। चुप…।”

शाम को भैया के साथ में मैंने खेलने को मना कर दिया तो वह मेरी खुशामद करने लगे और एक रुपया देने का वायदा कर कहने लगे—

“गुड़िया मेरी प्यारी बहिन मेरे साथ आइस-पाइस खेल लो , मैं तुम्हें कोहनी नहीं मारूँगा ।”

मैं और भैया ख़ूब खेला करते, सब लड़ाई भूल जाते क्योंकि हम दोनों एक दूसरे के बिना रह नहीं पाते थे ।

एक दिन हमारे बड़े भाई किसी काम से मौसी के यहाँ जा रहे थे उन्होंने भैया से कहा—“तुम भी मेरे साथ चलो ।” वह चले गए, मौसी ने रात को दोनों को घर पर रुक जाने के लिए कहा ।

दोनों भाई रुक गये , बड़े भैया तो रात्रि को सो गए लेकिन उन्हें रात को नींद ही नहीं आई।

घर आकर बोले— गुड़िया वहाँ मौसी के यहाँ बहुत अच्छा था लेकिन अब की बार तुम भी साथ चलना मेरा वहाँ मन ही नहीं लगा तुम होगी तो हम दोनों ख़ूब खेलेंगे। भैया जहॉं भी जाते अकेले जाने में संकोच करते । उनका संकोची स्वभाव अन्य बच्चों के साथ खेलने में बाधक बन जाता ।हम दोनों खेलते , और भैया मुझे चिढ़ाने लगते तो मैं जीभ दिखा देती और वह मेरी चोटी खींच कर दूर भाग जाते ।मैं दौड़ कर पकड़ने की कोशिश करती तो वह कभी भी मेरी पकड़ में नहीं आये।

क्रमशः ✍️

आशा सारस्वत


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