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अंत... एक नई शुरुआत - 1

कभी किसी नें कहा था मुझसे कि हर एक अंत एक नई शुरुआत का सूचक होता है मगर ये कितना सच है और कितना झूठ,ये तो मैं स्वयं भी नहीं जानती ! अब आपका अगला सवाल कि आखिर ये मुझसे किसने कहा था तो माफ कीजिएगा यहाँ भी आपको मेरी तरफ़ से सटीक जवाब की उम्मीद छोड़नी पड़ेगी क्योंकि कुछ राज़ तो खुद से भी छिपकर करवटें बदलते हैं और ये भी कमबख्त उसी श्रेणी का है ! हाँ तो मैं बात कर रही थी अंत की मतलब कि मेरे अंत की जो मैंने स्वयं अपने लिए चुना है और जिसका समय भी मैं ही तय कर रही हूँ । मेरे हाथ में ये जो ऊषा देवी जी की नींद की गोलियों की शीशी है न बस यही बनेगी मेरे अंत का सामान !!!

सोचती हूँ कि आँखें बंद करने से पहले क्यों न अपने अतीत के कुछ पन्ने पलटकर देख लूँ और फिर वैसे भी न जाने ये मौका दोबारा अगले कितने जन्म लेने के बाद ही नसीब हो। देखो सोचा नहीं कि बस सबकुछ नाचने सा लगा मेरी आँखों के सामने ।

मेरी माँ जो कि एक बेहद खूबसूरत महिला थी न कि सिर्फ शक्ल से बल्कि अक्ल से भी मगर फिर भी न जाने क्यों वो मेरे चरित्रहीन पिता से खुद को ऊपर तो क्या कभी उनके समांतर भी न रख पायीं और जिसकी सजा उन्हें मरते दम तक भोगनी पड़ी । मैं अपनी माँ की माँगी हुई मुराद मगर अपने पिता की अनचाही औलाद थी । मुझसे पहले भी वो अपनी तीन बेटियों का कत्ल मेरी माँ की कोख में कर चुके थे और फिर जब मैं पैदा हुई तो वो अपने खुद के ही लगाये गए बेटा होने वाले गणित पर पछताने के सिवा कुछ नहीं कर पाये । अब ऐसा भी नहीं कि वो बिल्कुल ही कुछ नहीं कर पाये क्योंकि ऐसा कहना तो उनकी समस्त मर्द जाति पर ही तोहमत साबित होती न तो बस इसी अहम भरी मर्दाना सोच के चलते मेरे पिताजी ने मेरी माँ को मेरे जन्म के तीन दिन बाद ही यानि कि सीधे अस्पताल से मुझे लेकर अपने घर आने की बजाय कहीं और जाकर मुँह काला करने का फरमान सुना दिया, जी हाँ बिल्कुल यही शब्द थे उनके और मेरी माँ चुपचाप अपनी तीन दिन की बच्ची को अपनी छाती से चिपकाए निकल पड़ी अपने पति की आज्ञा का पालन करने। जब वो मुझे गोद में उठाए बस में चढ़ने का प्रयास कर रही थी तब जैसे ही उसनें अपना एक पाँव बस में ऊपर चढने के लिए पावदान पर रखा वैसे ही उसकी टाँगों के बीच में से उसका कलेजा चीर देने वाली एक दर्द की वीभत्स लहर उठी और वो वहीं बुरी तरह से काँप कर रह गई ।

इस बीच धक्कामुक्की करती हुई उस बस में चढ़ने वाली अनगिनत सवारियाँ मेरी माँ को पीछे छोड़ उस बस में सवार हो गई और मेरी माँ इस बीच कई बार बस में चढ़ने का असफल प्रयास करती हुई वहीं खड़ी रह गई लेकिन कहते हैं न कि जिसका कोई नहीं उसका तो खुदा है,यारों और वो खुदा हमें कब,कहाँ,किस रूप में मिल जाये,ये अनुमान लगाना भी हमारे वश की बात नहीं तो बस उस दिन मेरी माँ के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ।न जाने कहाँ से एक शख्स वहाँ आया और मेरी माँ की परेशानी भाँप गया फिर उसनें मेरी माँ को सहारा देकर उस बस में चढ़ा दिया मगर इससे पहले कि वो उसका शुक्रिया भी अदा कर पातीं वो शख्स उनकी आँखों से ओझल हो गया ।

क्रमशः

लेखिका...
💐निशा शर्मा💐