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अंत... एक नई शुरुआत - 4

जीवन के इस पड़ाव पर ज़िन्दगी मुझे ऐसा भी कोई मौका देगी,ये मैंने कभी सपने में भी नहीं सोचा था।मेरे इस सपने को साकार करने का पूरा श्रेय सिर्फ और सिर्फ मेरे पति समीर को ही जाता है।मैं अपने चेहरे की हर एक शिकन,अपनी आँख के हर एक आँसू और अपनी किस्मत या अपने पाँव में पड़े हुए हर एक छाले को समीर की ठंडी और खुशबूदार मोहब्बत के झोंके में पूरी तरह से भूल जाती हूँ।

आज मेरे टीचर ट्रेनिंग का पहला दिन है और डर के मारे मेरा बहुत बुरा हाल है जो कि होना लाज़िमी भी है क्योंकि एक छोटे से शहर अलीगढ़ की लड़की और वो भी शादीशुदा लड़की,नई दिल्ली की लड़कियों के बीच भला कैसे सहज हो पायेगी?क्या वो कभी उनमें अपनी पहचान भी बना पायेगी?,ये सवाल रह-रहकर मेरे दिल को धड़का रहा है।समीर ने मुझे मेरे कॉलेज के बाहर छोड़ दिया है और वो मुझे ऑल द बैस्ट कहकर अपने ऑफिस के लिए यहाँ से जा चुके हैं।उफ्फ़....पूरे क्लास में लड़कियाँ खचाखच भरी हैं,अरे मेरा मतलब है कि फैशनेबल लड़कियाँ!!

पता नहीं किसने गाना बनाया है...दिल्ली की सर्दी अगर मुझे मौका मिलता तो मैं तो पक्का बनाती...दिल्ली की लड़की!सच में ऐसा लग रहा है कि जैसे कोई फैशन शो चल रहा है यहाँ और दूसरी तरफ़ मैं साधारण से सलवार-कमीज में,माथे पर बस एक छोटी सी महरून रंग की शिल्पा की बिंदी,हाथों में दो चार लाल रंग की चूड़ियाँ और बस कानों में छोटीछोटी बालियों के साथ गले में काले मोतियों का छोटे से पैंडेंट वाला मंगलसूत्र मगर जब उन लड़कियों का ध्यान उनके फेशन की व्यस्तता से हटकर मुझपर गया तो ऐसा लग रहा था कि जैसे अजूबा वो लोग नहीं बल्कि मैं हूँ!जबकि मैं तो कॉलेज के हिसाब से ही तैयार हुई थी और फैशन-परेड के हिसाब से वो लोग बनठन कर आयी हुई थीं मगर फिर भी....मैं बस अपने आपको कुछ सहज करने की फिराक में ही थी कि तभी उनमें से एक लड़की जिसनें कि एक सफेद रंग का पारदर्शी सा टॉप और एक लाल रंग की शॉर्ट स्कर्ट पहन रखी थी,मेरे पास आकर और बहुत ही अजीब सा मुंह बनाकर बोली....आर यू ए स्टूडेंट?और इस बात का मैं कुछ जवाब दे पाती उससे पहले ही उनमें से एक और लड़की बोल उठी कि उसनें बाहर मुझे स्टूडेंट-एडमिशन रजिस्टर साइन करते हुए देखा था।फिर क्या उसके बाद तो किसी ने मुझे बहन जी कहकर मेरी हंसी उड़ाई तो किसी ने कहा कि शादी के बाद ये सब फॉर्मेलिटी करने की क्या ज़रूरत???

अब मैं उन्हें कैसे और किस भाषा में ये समझाती कि जो पढ़ाई उनके लिए फॉर्मेलिटी है दरअसल वो मेरा सपना!खैर!अपने आँखों की नमी छुपाकर अपने चेहरे की मायूसी को मुस्कुराहट का नकाब उढ़ाकर मैं चुपचाप एक कोने की सीट लेकर बैठ गई और मैं आज भी उस कोने की सीट का पूरे दिल से शुक्रिया अदा करती हूँ क्योंकि मुझे उस कोने वाली सीट ने जो दिया वो मेरे लिए हमेशा अनमोल रहेगा और वो है मेरी एकलौती,सबसे प्यारी,मेरी सबसे खास सहेली...पूजा!!

पूजा मतलब कि जैसा नाम वैसी ही नीयत!दरअसल वो भी एक छोटे शहर मेरठ से अपने मामाजी के घर पर यानि कि यहाँ दिल्ली में रहकर ये टीचिंग-कोर्स करने आयी थी और उसनें भी मेरी ही तरह इस जीवन में कई उतार-चढ़ाव देखे थे।मैंने तो फिर भी अपनी ज़िंदगी में माँ नाम का अमृत तो चखा था मगर उस बेचारी को तो सौतेली माँ के नाम के दंश के सिवा कुछ भी नसीब नहीं हुआ था और शायद यही कारण था कि उसके पापा को उसे पढ़ाई के लिए मजबूरन यहाँ दिल्ली भेजना पड़ा।उसके बारे में आपको बताने के बाद आप इतना तो समझ ही गए होंगे कि उसकी और मेरी हालत में ज्यादा कुछ खास अंतर नहीं था उस क्लास में उन लड़कियों के बीच!!

अंतर बस इतना था कि मैं रूप-रंग के मामले में जितनी गरीब थी,पूजा रूप-रंग से उतनी ही मालामाल!उन लड़कियों के लिए जहाँ मैं अजूबा थी बस एक हंसी का पात्र, वहीं वहाँ की सारी अध्यापिकाओं के दिल में मैंने अपनी कड़ी मेहनत तथा लगन से एक बहुत ही महत्वपूर्ण स्थान बना लिया था।वैसे ये सब इतना आसान भी नहीं था मगर बस मुझे मेरी आँखों में मेरी माँ का सपना जो पलता हुआ दिख रहा था उसनें मुझे इतनी हिम्मत दी कि मैं अपनी घर-गृहस्थी का पूरा काम भी सुचारू रूप से कर रही थी और अपनी पढ़ाई भी पूरे मन और मेहनत से कर रही थी।सुबह चार बजे से उठकर मैं सारा कामकाज निपटाती फिर जल्दी-जल्दी तैयार होकर सात बजे कॉलेज के लिए निकलती और फिर शाम को साढ़े पाँच बजे घर में घुसते ही फिर चकरघिन्नी सा मेरा नाचना शुरू।इसके बाद रात के बारह बजे तक कॉलेज का काम....उफ्फ़!!और इन सबके बीच पति को, सास को और परिवार को खुश भी रखना।मतलब कि पति तो चलो कई बार अपनी खुशी एडजस्ट भी कर लेता पर वो ऊषा देवी तो मजाल है कि किसी एक दिन भी तरस खाकर छोड़ दे मुझे।पर नहीं,उन्हें तो प्रतिदिन नियम से अपने पैर भी दबवाने हैं तो तरह-तरह की फ़रमाइशें भी करनी हैं और उसपर जलीकटी सुनाने या ताने मारने का कोई अवसर भी नहीं गंवाना!

खैर...मैं फिर भी बहुत खुश थी क्योंकि इन सभी परेशानियों और भागदौड़ के बीच मुझे जो चीज़ दिख रही थी वो था मेरा अपने पैरों पर खड़े होने का सुनहरा,चमकता हुआ सपना और अपने सपने को साकार करने की चाहत में खुद को घिसती मैं अपनी किस्मत को चमकाती कब अपने कोर्स के प्रथम वर्ष से द्वितीय में प्रवेश कर गई,सचमुच पता ही नहीं चला और फिर उसपर मेरे प्रथम वर्ष का परीक्षा-परिणाम जिसनें मुझे पंख दिये।मैनें उन सभी लड़कियों में टॉप किया था और मुझे उस वर्ष का "बैस्ट स्टूडेंट ऑफ दि इयर" तथा "हन्ड्रैड पर्सेंट अटैन्डैन्स अवॉर्ड" भी मिला था।

अब बारी थी मेरे द्वितीय अथवा अंतिम वर्ष की जिसमें पढ़ाई में कठिन परिश्रम और घर-गृहस्थी के कामकाज के अलावा भी बहुत सी चुनौतियाँ मेरा इंतज़ार कर रही थीं।

क्रमशः

लेखिका...
💐निशा शर्मा💐