UJALE KI OR---SANSMRAN books and stories free download online pdf in Hindi

उजाले की ओर---संस्मरण

उजाले की ओर --संस्मरण

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जीवन में एक समय होता है जब हम बच्चे होते हैं ,अपनी अठखेलियों से अपने परिवार का ,अपने माता-पिता का ध्यान आकर्षित करते हैं ,उनका प्यार,दुलार पाते है और फिर बड़े होने की प्रक्रिया में सहजता से आगे बढ़ते जाते हैं |दरअसल ,इसमें हमारा कोई हाथ नहीं होता ,ये सब चीज़ें प्राकृतिक हैं जो प्रत्येक मनुष्य के साथ बड़ी ही सहजता से घटित होती हैं | जीवन की प्रत्येक डगर हमें आगे बढ़ाती है ,नए संदेश देती है ,नए मार्गों की ओर प्रेरित करती है | हमें लगता है ,हम सब कुछ करते हैं | किन्तु यदि हम चिंतन करें तो क्या हम कुछ सप्रयास करते हैं ?

हमारे समक्ष समय की एक रूपरेखा तैयार ही तो होकर आती है ,हमें उस पर चलना होता है | डग भरने होते हैं | उस समय हमारे समक्ष कई मार्ग आकर सहज ही खड़े हो जाते हैं ,हमें अपनी बुद्धि से,अपनी चिंतन-शक्ति से उनमें से केवल यह सोचकर मार्ग पर चलना होता है कि हमारे हित में कौनसा मार्ग है ?अक्सर मित्रों ,हम यहीं गड़बड़ा जाते हैं और या तो किसी गलत मार्ग की ओर चल पड़ते हैं अथवा हम अपना मार्ग अपनी बुद्धि,अपनी योग्यता,अपने पर आत्मविश्वास से चयनित करने में चूक जाते हैं और कुछ ऐसे दोस्तों के बहकावे में आकर गलत मार्ग का चयन कर बैठते हैं जो हमारे लिए तो कम से कम उचित नहीं होता |

हमारे जीवन में कई मोड़ आते ही हैं जो स्वाभाविक होते हैं किन्तु इन मोड़ों पर कुछ पल रुककर चिंतन करना बहुत महत्वपूर्ण होता है | जीवन के इन गलत मोड़ों पर कोई एक नहीं ,कभी न कभी हम सब गलत दिशा का चयन कर बैठते हैं | इसका कारण यह होता है कि या तो हमें सच्चाई से सिखाने वाले गुरु नहीं सिखा पाते अथवा हम उनसे सीखना नहीं चाहते ,पल्ला झाड़कर आगे की ओर बढ़ जाते हैं|उन गुरुओं में कोई दीक्षा वाले गुरुओं की बात नहीं कर रही हूँ ,मैं बात कर रहे हूँ उन गुरुओं की जो सदा हमारे आसपास बने रहते हैं ,जो हमें प्रगति-पथ पर अग्रसर होते देखना चाहते हैं| वे हमसे कोई आशा -आकांक्षा नहीं रखते ,वे केवल हमारे जीवन में प्रसन्नता के फूलों को खिलते देखना चाहते हैं |

बालपन में मैं बहुत शरारती थी ,शायद इस बात का ज़िक्र मैं अपने बहुत से लेखों में कर चुकी हूँ और यह बहुत स्वाभाविक है कि अपने से जुड़ी बातों का ज़िक्र स्वत: ही लेखन का भाग बन जाता है| दिल्ली और एक छोटे शहर में खींचतानी में मेरा बालपन व्यतीत हुआ |कभी दिल्ली के पब्लिक स्कूल में तो कभी अपने छोटे शहर के आम स्कूल के बीच मेरी शिक्षा इधर से उधर यानि अंग्रेज़ी व हिन्दी माध्यम के बीच झूला खाती रही | माता-पिता के अधिक शिक्षित होने के लाभ तो होते हैं लेकिन बच्चों के सिर पर एक बोझ भी होता ही है | उनकी अपेक्षाएँ इतनी अधिक होती हैं कि सभी बच्चे पूरा नहीं कर पाते |

बचपन में जब और बच्चे सड़कों में हुड़दंग मचाकर घूमते रहते हों भला किस बच्चे को महान बनने के स्वप्न से खुशी मिलती है ?वह अपने सामने खेल में व्यस्त बच्चों को ही आदर्श मानने लगता है और माता-पिता उसके लिए कष्ट देने वाले बन जाते हैं |आज जब जीवन के इस मोड़ पर पहुँची हूँ तब लगता है बार-बार वह खिड़की खोलकर देखी जाए जहाँ जीवन को जिलाने का मेंह बरसता था | याद आती है उन गुरुओं की जिन्होंने जीवन में बहुत कुछ दिया ,सिखलाया किन्तु मुझे लगता है कि मैं उन्हें 'गुरु दक्षिणा' में कुछ भी अर्पित नहीं कर पाई |उनकी गुरु-दक्षिणा केवल शिष्य की सफ़लता होती थी | हमारे समय में गुरु अपनी पूरी शक्ति से शिष्य की प्रगति की राह खोलना चाहते थे | आज यह देखकर अफसोस होता है कि आज शिक्षा बेशक बहुत विस्तृत रूपों में फ़ेल गई है किन्तु गुरुओं व शिष्यों के आपसी संबंधों में वह गहनता,गंभीरता दिखाई नहीं देती | ऐसा नहीं है कि सबके साथ ऐसा है किन्तु अधिकांश गुरु-शिष्य संबंधों में सम्मान व आदर का भाव ही दिखाई नहीं देता |

पापा ने सदा शिक्षण का महत्व समझाने की कोशिश की ,माँ ने अपनी ममताली गोदी में बैठाकर न जाने कितनी शिक्षाप्र्द कहानियों के माध्यम से बहुत सी बातें बताईं किन्तु तब कुछ अधिक समझ नहीं आया | बड़े होने पर आया और पापा का यह कहना 'हम जीवन के बालपन से लेकर मृत्यु के पैताने तक भी छात्र होते हैं |' अब गौर करने पर समझ में आता है ,अपने से आगे की पीढ़ी को समझने का प्रयत्न किया जाता है किन्तु आज का समय तो हमारे समय से कहीं अधिक एडवांस है | जब हमने समझने में इतनी देर कर दी तो उन्हें कैसे इतनी शीघ्रता से समझ आएगा | एक गंभीर प्रश्न है जिसके लिए आज की पीढ़ी को कोई ऐसा मार्ग तलाशना होगा जो उनके आगे की पीढ़ी पर अधिक बोझ भी न पड़े और वे जीवन को सही मायनों में समझकर अपने प्रगति-पथ पर बढ़ती रहे !

आमीन !!

आप सबकी मित्र

डॉ. प्रणव भारती