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गुलाबो - भाग 7

भाग 7

आपने पिछले भाग में पढ़ा की गुलाबो परिवार वालों के साथ गांव आती है। उसके मां बनने की जानकारी होने पर जगत रानी बहुत खुश होती है। अब वो इस हालत में गुलाबो को शहर नही भेजना चाहती है। इधर गुलाबो ने अपना सारा सामान सहेज कर बक्से में रख लिया है। पर जगत रानी उसकी बजाय इस बार बड़ी बहू रज्जो को साथ भेजने का विचार व्यक्त करती है। अब आगे पढ़े।
गुलाबो भोली भाली थी पर उसे गुस्सा भी बहुत आता था। रसोई में सास की बातें उसे तीखी मिर्च से भी तीखी लग रही थी। अब उसे बिलकुल भी पति से जुदाई बर्दाश्त नहीं थी। शहर का रहन सहन उसे इतना भा गया था कि वो अब यहां गांव में नही रहना चाहती थी। सबसे अच्छी बात की उसे सास का रोब नही सहना पड़ता था वहां।
जो रज्जो उसे बेहद प्यारी थी। दोनों में सगी बहनों सा प्यार था। अब वही बहन समान जेठानी रज्जो को अपनी सबसे बड़ी दुश्मन जैसी महसूस हो रही थी गुलाबो। और ये बच्चा उसे अपने पांव की बेड़ी लग रहा था। रज्जो तो सदा की भांति शांत ही थी। उसे कोई विशेष प्रसन्नता नही थी शहर जाने की। पर गुलाबो सास की बात सुन कर बिना खाना खाए ही रज्जो से ये कहती हुई अपने कमरे में चली गई की, "दीदी मेरी तबियत ठीक नहीं लग रही मैं खाना नही खाऊंगी।"
रज्जो अभी इस अनुभव से वंचित थी। उसे नही पता था की गुलाबो को क्या हुआ जो वो खाना नही खा रही। वो अपना खाना परोस कर खाने लगी। जगत रानी ने जब रज्जो को अकेले खाते देखा तो रज्जो पर भड़क उठी और बोली, "तू कैसी जिठानी है री रज्जो….? उसने मना किया तो तू अकेली ही खाने बैठ गई। अरे..! वो दो जान से है। उसे ताकत की ज्यादा जरूरत है। पर छोड़ मैं तुझसे ये सब क्यों कह रही हूं तू क्या समझेगी..? तू अभी मां थोड़ी ना बनी है..?"
फिर थोड़ा ठहर कर बोली, "ऐसा कर तू खा ले फिर ले जा उसे जबरदस्ती कुछ खिला दे। ना हो तो दूध ही पिला दे। समझी..?" जगत रानी ने रज्जो से कहा। गुलाबो को खिला तो वो भी सकती थी। पर वो सास थी। बहू का खाना ले कर कमरे में जाना उनके सम्मान को घटा देता। इस लिए रज्जो को हिदायत दी।
रज्जो में जल्दी जल्दी अपना खाना हलक के नीचे उतारा। और थोड़ा थोड़ा सब चीज थाली में परोस कर साथ में एक गिलास दूध रक्खा और गुलाबो के कमरे में चली आई।
किसी के आने की आहट से गुलाबो चौकन्नी हो गई। उसे लगा अगर विजय होगा तो बिलकुल भी बात नही करेगी। ऐसा सोचते हुए गुलाबी ने जरा सा सर उठा कर देखा तो रज्जो थी। फिर से मुंह फेर कर चद्दर सर तक तान ली। रज्जो ने थाली पास के स्टूल पर रक्खा और गुलाबो की चादर हटा कर उसे आवाज दी। "उठ…! छोटी कुछ खा ले । थोड़ा ही सही। अम्मा ने बोला है। तू दो जान से है तेरा खाना बहुत जरूरी है।" बड़े ही प्यार से मधुर स्वर में रज्जो बोली। और चादर खींच कर गुलाबो को उठाने लगी।
गुलाबो का हृदय जो इस कारण सुलग रहा था की अब रज्जो शहर चली जायेगी अब सहन नही हुआ। वो आवेश में उठ कर बैठ गई और कड़वे स्वर में बोली, "दीदी तुमने क्यों तकलीफ की खाना ले कर आने की। मुझे भूख नहीं है। फिर अब तुम्हे मेरा मनुहार करने की कोई जरूरत नहीं है। अब तो तुम शहर जा रही हो। तुम तो अब शहर वाली बन जाओगी।" मुंह फुलाए फुलाए ही गुलाबो बोली।
रज्जो मीठी हंसी हंसते हुए बोली, "अच्छा..! तो ये बात है। मेरी छोटी की भूख इस बात को सुन कर खत्म हो गई है की अम्मा अब उसकी बजाय मुझे शहर भेज रही है।"
रज्जो ने गुलाबो को मना कर बिठाया और अपने हाथों से खिलाने लगी। उसे समझाते हुए बोली, "देख गुलाबो..! अम्मा सब कुछ सोच समझ कर ही करतीं है। अब तू इस हालत में अकेली अनजान शहर में कैसे रह पायेगी..? कौन तेरी देख भाल करेगा..? तुझे या बच्चे को कुछ हो गया तो..? मैं तो शहर नहीं जाना चाहती। मेरा तो यहीं पर मन लगता है। पर ससुर जी, देवर जी और तेरे भईया को खाने की दिक्कत हो जायेगी। फिर तूने ही तो उनकी आदत बिगाड़ दी है..!" रज्जो ने अपनी कोशिश भर खूब समझाया गुलाबो को। साथ ही ये आश्वासन भी दिया की बच्चा होते ही फिर से अम्मा उसे भेज देंगी। अगली बार वो ही शहर जायेगी। बस कुछ महीनों की ही बात है। दुखी तो बहुत थी गुलाबो पर मजबूर थी कुछ कर नही सकती थी। मन मार कर थोड़ा सा खाया। फिर मना कर दिया। "दीदी अब मुझसे नहीं खाया जायेगा।" गुलाबो ने खाने की थाली परे करते हुए कहा।
रज्जो ने भी जबरदस्ती नहीं की इस डर से को कही उल्टी न हो जाए। थाली ले कर रज्जो बाहर चली।
अब गुलाबो की जगह रज्जो की जाने की तैयारी हो रही थी। जगत रानी के आदेशानुसार गुलाबो को अपना बक्सा खाली कर रज्जो को सौंपना पड़ा। गुलाबो को अपना सामान निकालना बेहद तकलीफ दे रहा था। पर.. वो कुछ नही कर सकती थी।
जाने की तैयारी में ही दो दिन बीत गए। रज्जो भरे मन से घर और परिवार छोड़ कर जा रही थी। उसे कोई विशेष उत्साह, गुलाबो की भांति नही था शहर देखने का। उसे सास जगत रानी की घुड़कियों की इतनी आदत पड़ गई थी की उसे दूर जाना बिलकुल भी अच्छा नही लग रहा। था। खास कर गुलाबो को दुखी कर। बिना किसी गलती के गुलाबो रज्जो को ही कुसूरवार मान रही थी।
तय दिन विश्वनाथ जी दोनों बेटों जय और विजय और बहू रज्जो को साथ ले रवाना हो गए। गुलाबो तड़पती रह गई। जगत रानी जानती थी की रज्जो इतनी सुधड़ है की उसे कुछ भी बताने, सिखाने की जरूरत नहीं है। पर सास का धर्म निभाना भी जरूरी था। इसलिए कई नसीहत दे डाली। रज्जो चुप चाप हर बात में हामी भरते जाती।
उन सब के जाने के बाद गुलाबो कटे पेड़ सी ढह गई। वो सास से बहुत नाराज थी। पर प्रत्यक्ष रूप से कुछ भी करने की हिम्मत नही थी। वो समझ गई थी उसके पेट में पल रहा बच्चा सास जगत रानी की दुखती रग है। वो उसे चाहे जो कहें पर बच्चे को कोई नुकसान पहुंचे ये वो कभी नही सह पाएंगी। इस लिए मन ही मन निश्चय कर लिया और खुद से बोली, ’मुझे रोका है ना शहर जाने से। वो भी बच्चे की खातिर। तो अब फिर बच्चे की देख भाल अच्छे से करो। मैं कोई काम नहीं करूंगी। बहुत हुकुम चलाती थी ना। अब देखो कैसे मैं हुकुम चलाती हूं। ना परेशान कर दिया तो कहना।" गुलाबो मन ही मन तरह तरह की योजना बनाती है सास को तंग करने का। वो अच्छे से जानती थी की जब तक वो गर्भवती है सास उसका सारा नखरा उठाएगी।
अगले भाग मे पढ़े आखिर गुलाबो सास को परेशान करने के लिए क्या क्या गुल खिलाती है?? क्या जगत रानी उसके नखरे सहती है..? क्या शहर के माहौल में रज्जो ने खुद को ढाल लिया..? क्या उसका मन लग गया.?