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सरपँच जी

मेरी एक परिचिता राधा जी के पिताजी थे सरपँच भगवान जी।आज से लगभग 55-60 वर्ष पूर्व की कथा है यह,जो मैंने राधा जी की जुबानी सुनी थी,प्रस्तुत कर रही हूँ।वैसे,कहानी भले ही इतने पहले की है लेकिन आज भी ऐसी कथाएँ सुनने को मिलती रहती हैं, बस पात्रों की स्थिति बदल जाती है।

सात पुरवा का सम्मिलित गाँव था।गाँवों में जाति के हिसाब से पुरवा अर्थात मोहल्ले का विभाजन एवं नामकरण होता था-यथा,बामन(ब्राह्मण)पुरवा,ठाकुर पुरवा, भरौटी ……. इत्यादि।उस इलाके में भगवान जी का जबरदस्त दबदबा था,जमींदार खानदान से सम्बंधित थे।स्वतंत्रता के पश्चात जमींदारी तो समाप्त हो गई,लेकिन जमीन-जायदाद भरपूर था और इलाके में प्रभुत्व कायम था।

वे लगभग 20 वर्षों तक निर्बाध सरपंच रहे क्योंकि उनका कोई प्रतिद्वंद्वी खड़ा ही नहीं होता था, अतः वे निर्विरोध चुनाव जीत जाते थे।उनकी सबसे बड़ी अच्छाई उनकी ईमानदारी थी।उनका पारिवारिक जीवन जितना विवादास्पद रहा,उनका कार्यकाल उतना ही स्वच्छ।किसी के भी जमीन का एक टुकड़ा भी किसी को हड़पने नहीं दिया।सातों पुरवों के किसी भी विवाद का निबटारा वे पंचों की मदद से कर देते थे, समस्या चाहे जमीन-जायदाद की हो या बंटवारे का या झगड़ा-फसाद का,लोग उनके फैसले का पूर्ण सम्मान करते थे क्योंकि उनकी निष्पक्षता पूरे क्षेत्र में प्रसिद्ध थी।

कहानी तो उनके पारिवारिक जीवन की है।जब उनकी धर्मपत्नी का देहांत हुआ तब बड़ा बेटा दस साल का तथा छोटा मात्र एक वर्ष का था,राधा जी तीन साल की,उनसे बड़ी एक बहन एवं दो बड़े भाई कुल पांच भाई-बहन।सरपँच जी की उम्र भी 33 -34 के आसपास रही होगी।अपने माता-पिता के अकेले सन्तान थे,आसपास चचेरे-तएरे खानदानी रहते थे पत्नी की असमय मृत्यु के बाद चचेरी बहन ने घर सम्हाल लिया,जिसका अभी गौना नहीं हुआ था।

रिश्ते तो बहुत आए,रिश्तेदारों ने काफ़ी समझाया भी,किन्तु बच्चों के भविष्य को देखते हुए उनके लिए सौतेली माँ लाना उचित नहीं जान पड़ा।किन्तु युवा शरीर की आवश्यकता उन्हें दूसरे मार्ग पर लेती गई, वे स्वयं पर नियंत्रण नहीं रख सके।

सरपंच जी के घर से दो घर पीछे पंडित जी का घर था।15 वर्षीय पुत्री कजरी का विवाह करने के एक वर्ष बाद ही कुछ दिनों के ज्वर में ही पंडित जी स्वर्गवासी हो गए।विधवा पंडिताइन 7 साल के बेटे के साथ अकेली रह गईं थीं।उस समय गाँवों में लोगों के अंदर मदद की भावना अत्यधिक होती थी,किसी के यहाँ से सब्जी-अनाज प्राप्त हो जाता था, तीज-त्यौहारों पर वस्त्रादि मिल जाते थे,सरपँच जी भी रुपये-पैसे से अक्सर मदद करते रहते थे।

कजरी सुंदर युवती थी,एक बेटी की माँ बन चुकी थी कि दुर्भाग्य ने दस्तक दे दी किस्मत के दरवाजे पर।दो बार गर्भपात होने पर उसके पति ने ज्योतिषी को दिखाया तो उसने बताया कि कजरी के भाग्य में बेटा नहीं है,अतः पति ने कजरी का परित्याग कर दूसरा विवाह कर लिया।कजरी रोती-बिलखती अपनी आठ साल की बेटी के साथ मायके आ गई।

एकाकी सरपंच जी कजरी को सांत्वना देते-देते शीघ्र ही उसके करीब आ गए, दोनों की आवश्यकताओं ने उन्हें एक-दूसरे का परिपूरक बना दिया।इसी मध्य चचेरी बहन की विदाई हो गई।10 एवं 12 वर्षीय राधा एवं बहन लक्ष्मी ने कहाइन भौजी की मदद से गृहस्थी सम्हाल लिया।

अब कजरी का घर पर आना-जाना प्रारंभ हो गया।वह बड़े अधिकार से माँ के बक्से से अच्छी साड़ियों को निकालकर ले गई,जिसे बुआ ने सम्हालकर रखा था दोनों भतीजियों के बड़ी होने पर पहनने के लिए।एक-दो जेवर भी सरपँच जी ने कजरी को उपहार स्वरूप दे दिया।यह तो गनीमत रही कि पत्नी के शेष आभूषण भावी बहुओं के लिए रखवा दिए थे।कजरी सरपंच जी के साथ शहर जाती,अपने तथा अपनी बेटी रानी के लिए ढेरों सामान खरीदती,दिखाने के लिए एक-दो सामान राधा-लक्ष्मी के लिए भी ले लेती,जिसे क्रोध में वे पीछे से फेंक देतीं,क्योंकि किशोर बच्चे कजरी से खार खाए रहते,उन्हें लगता कि वह उनकी माँ की जगह लेने का प्रयास कर रही है।एक दिवाली पर सरपँच जी तीनों लड़कियों के लिए सितारों वाला कपड़ा लेकर आए किन्तु कजरी ने राधा-लक्ष्मी के फ्रॉक को दर्जी के यहाँ से ही गायब कर दिया।दोनों बहनों ने जब रानी को फ्रॉक पहने देखा तो दुःखी होकर फूट -फूट कर रोईं।

दोपहर में सरपँच जी के साथ ही कजरी रानी के साथ खाना खाने आती, तीनों के लिए एक साथ पटला लगाया जाता, राधा-लक्ष्मी कुढ़ते हुए खाना परोसतीं, रानी को उनके पास छोड़कर दोनों सरपँच जी की कोठरी में आराम करते,फिर रात का खाना खाकर कजरी अपने घर चली जाती।

पूरा गाँव उनके रिश्ते को जानता था,पीठ पीछे कानाफूसी भी होती थी लेकिन "समरथ को नहीं दोष गुसाईं"।कजरी की माँ को भी समर्थ सरपँच जी की सरपरस्ती स्वीकार कर लेने में ही भलाई नज़र आई थी।लगभग 5-6 वर्ष यह सम्बंध चला।समय ने फ़िर करवट बदली,कजरी की सौतन की दूसरी जचगी के समय मृत्यु हो गई, अतः उसका पति कजरी को वापस ले जाना चाहता था, कजरी तो तैयार नहीं थी वापसी हेतु किन्तु सरपँच जी ने समझाया कि हम विवाह तो कर नहीं सकते,क्योंकि उस जमाने में तलाक तो होता नहीं था,कल को रानी के विवाह में समस्या आएगी,अतः तुम्हारा वापस चले जाना ही तुम दोनों के लिए हितकारी है।कजरी को सरपँच जी ने बैलगाड़ी भर सामान के साथ विदा किया।जाते समय कजरी इतना रोई जितना वह अपनी पहली विदाई में नहीं रोई होगी।सरपँच जी के बच्चों ने राहत की सांस ली।

अब सरपँच जी के जीवन का तीसरा अध्याय प्रारंभ हुआ।गाँव में ही थोड़ी दूर पर उनके तएरे बड़े भाई का मकान था,जिन्हें सभी बड़के दादा कहते थे, वे सरपँच जी से काफ़ी बड़े थे।उनकी प्रथम पत्नी का देहांत 15-16 साल बाद ही हो गया था, उनसे एक पुत्री थी।दूसरी पत्नी ने भी डिलीवरी के समय प्राण त्याग दिया था।उस जमाने में 14-15 साल की उम्र से पहले ही कन्याओं का विवाह कर दिया जाता था,मान्यता थी कि रजस्वला होने से पूर्व ही कन्यादान करने से कन्यादान का फ़ल प्राप्त होता है।पुण्य मिले न मिले,किन्तु अल्पवय कन्याएं मातृत्व के बोझ तले या तो दब जाती थीं या डिलीवरी के समय कालकवलित हो जाती थीं।

अब खानदान चलाने को वारिस तो चाहिए ही,अतः 55 वर्षीय बड़के दादा ने तीसरी बार विवाह किया।तीसरी पत्नी अर्थात बड़की अम्मा उस समय मात्र 14 वर्ष की कन्या थीं।बड़के दादा कुछ अस्वस्थ रहने लगे थे, उस समय बड़की अम्मा लगभग 18 साल की रही होंगी, जब वे गर्भवती हुई थीं।दादा को शायद अपनी आसन्न मृत्यु का आभास हो गया था, अतः अपनी जमीन-जायदाद की जिम्मेदारी सरपँच जी को सौंप दिया, उन्हें भय था कि उनके रिश्तेदार सब हड़प जाएँगे।अपनी पुत्री का विवाह वे सम्पन्न कर चुके थे।अंततः 6 माह की गर्भवती पत्नी को छोड़कर वे स्वर्ग सिधार गए।

हालांकि बड़की अम्मा सरपँच जी की बेटी की उम्र की थीं लेकिन पदवी में बड़ी होने के कारण वे बड़की भौजी का सम्बोधन करते थे।यथासमय उन्होंने पुत्र अर्थात दादा के वारिस को जन्म दिया।सरपँच जी बड़की भौजी एवं उनके बेटे का तन-मन-धन से पूर्ण ध्यान रख रहे थे।अब सरपँच जी पूर्णतया उनके नियंत्रण में थे।राधा के दोनों बड़े भाई बाहर पढ़ाई कर रहे थे, उनके खर्चे के लिए पैसे भी बड़की अम्मा भींच कर देती थीं।लक्ष्मी का विवाह उनके नियंत्रण से पूर्व ही सम्पन्न हो गया था।

इसी मध्य चचेरी बुआ अपनी 6-7 वर्ष की बेटी के साथ किन्हीं पारिवारिक समस्याओं के कारण पुनः मायके आकर रहने लगीं, फूफाजी बीच-बीच में आते-जाते रहते।बड़की अम्मा ने कई बेकार से रिश्ते राधा के लिए सुझाए।वैसे तो सरपँच जी उनपर आँख मूंदकर विश्वास करते थे लेकिन गनीमत थी कि वे बुआ का बेहद सम्मान करते थे, अतः बुआ के मना करने पर उन रिश्तों को अस्वीकार कर दिया।फिर सरपँच जी के एक मित्र ने अपने बेटे के लिए राधा का हाथ माँग लिया,क्योंकि वे उन्हें बचपन से जानते थे।राधा बेहद खूबसूरत होने के साथ- साथ मातृविहीना होने से बचपन से घर सम्हालने के कारण घर-गृहस्थी के कार्यों में निपुण थी।अशिक्षा उस जमाने में बड़ा अवगुण नहीं होता था।हालांकि उम्र में 10 वर्षों का फ़र्क था,किन्तु अच्छा घर-वर जानकर उम्र के अंतर को नजरअंदाज करते हुए 16 वर्षीय राधा का विवाह संपन्न कर दिया।एक वर्ष बाद राधा की विदाई हो गई एवं बुआ पुनः पूर्ववत घर की देखभाल करने लगीं।सरपँच जी का अधिकांश समय बड़की अम्मा के घर ही बीतता था।बड़े बेटे की शिक्षा पूर्ण होते ही विवाह कर दिया, बहू ने आकर घर सम्हाल लिया।

सरपँच जी का बड़की अम्मा से सम्बंध उनके बेटे के बड़े होने तक अर्थात सरपँच जी के वृद्धावस्था तक चला।भतीजे के युवा होने पर सरपँच जी ने बड़ी ईमानदारी से उनकी जमीन-जायदाद उन्हें सौंप दिया।कालांतर में दोनों बड़े बेटे नौकरी लगने के पश्चात अपने-अपने परिवार के साथ बाहर शिफ़्ट हो गए, किन्तु छोटा बेटा एमए करने के उपरांत भी कोई नौकरी नहीं कर सका,अतः सपरिवार गाँव में ही रहकर खेती-बाड़ी सम्हालने लगा।सरपँच जी ज्यादातर गाँव में ही रहते।कभी-कभार दोनों बेटों के पास भी चले जाते, किन्तु शहर में उनका मन नहीं लगता।

राधा जी बता रही थीं कि उस समय हमें पिताजी के वे सम्बंध अत्यंत असहनीय एवं ग़लत प्रतीत होते थे, किन्तु अब महसूस होता है कि 35 वर्ष की आयु में विधुर हो जाने वाला व्यक्ति यदि दूसरा विवाह करता तो दूसरी पत्नी पाँच बच्चों को आसानी से स्वीकार तो नहीं ही कर पाती,फिर बच्चों का जीवन ज्यादा कष्टप्रद हो जाता।

खैर, हमें सही-ग़लत की विवेचना करनी भी नहीं है।जीवन में उतार-चढ़ाव आते रहते हैं, घटनाएं घटती रहती हैं, मनुष्य परिस्थितियोंवश निर्णय लेता है जो कभी सही कभी ग़लत निकलता है, यही तो जिंदगी है।

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