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यही है जिंदगी

इस बार मायके से लौटने के पश्चात वो ऊर्जा,वह खुशी महसूस नहीं हो रही थी, जो अबतक होती आई थी।चार दिन लौटे हुए हो गए थे, बैग से सामान तक निकालने की इच्छा नहीं हो रही थी।जरूरी काम निबटाकर मैं अनमनी सी सभी बातों का विश्लेषण कर रही थी।

बातें तो वही छोटी-छोटी थीं, लेकिन किस तरह समय एवं परिस्थितियों के अनुसार स्वभाव तथा विचारों में बदलाव आता है,फिर वे महत्वहीन बातें भी मन को चुभ जाती हैं, जिन्हें आसानी से अनदेखा किया जा सकता है।एक घर में एक माहौल में पले -बढ़े भाई-बहनों के स्वभाव में भी अत्यधिक भिन्नता होती है।भाग्य-कर्म के अनुसार उनका आगामी जीवन भी बेहद अलग होता है और उसी के अनुसार उनके विचार भी बनते-बिगड़ते रहते हैं।

कोरोना के कारण लगभग दो साल बाद मायके जाना हो पाया था,बहनों से मुलाकात हुए भी 2-3 वर्ष हो गए थे, इसलिए कोशिश करके सभी ने एक साथ एकत्रित होने का प्लान बनाया था।तीसरी बहन केवल 5 दिन के लिए आ सकी थी,क्योंकि घर की सुरक्षा के लिए अधिक दिन खाली छोड़ना उचित नहीं था।भाई से भी दो दिन के लिए आने को कहा था लेकिन हमेशा की तरह उसके पास समयाभाव था।

फोन पर माँ से निरंतर बातें होती रहती थीं लेकिन मिलने पर अहसास हुआ कि उम्र का प्रभाव अब अत्यधिक दिखने लगा है।अब उन्हें घर में अपनी दिनचर्या एवं कार्यशैली में जरा सा भी परिवर्तन बेहद परेशान कर देता है।उन्हें अहसास नहीं होता है कि वे हर बात पर कितनी बार टोकती हैं।मैं तो अपनी आदत के कारण अधिकतर कार्य उनकी इच्छानुसार कर देती थी या खामोशी से उनकी बातों को सुन लेती थी लेकिन बहनें अक्सर झुंझला जाती थीं।सभी बहनें उम्र के चौथे-पाँचवें दशक की महिलाएं हैं, उनके अपने तौर तरीके हैं,फिर भी माँ होने के नाते उनकी बात काफी सुन लेती हैं सभी।

सभी के जीवन में अत्यधिक समस्याएं होती हैं, हम उनसे संघर्ष करते हुए जीवनयापन करते हैं।मेरे जैसे कुछ तो उन परिस्थितियों को स्वीकार कर उसी में अनुकूलन कर प्रसन्न रहने का प्रयास करते हैं। कुछ लोग लड़ने का माद्दा रखते हैं और प्रयास जारी रखते हैं।वहीं कुछ लोग न ठीक से लड़ पाते हैं, न सामंजस्य स्थापित कर पाते हैं, परिणामस्वरूप अवसादग्रस्त हो जाते हैं।सबसे छोटी बहन उन्हीं हालातों से गुजर रही है।उसकी विचलित मनःस्थिति को देखकर मन बेहद दुःखी हो गया है।मनःचिकित्सक को दिखाने का प्रयास भी किया,लेकिन वह तैयार नहीं हुई।समझाने की कोशिशें भी उसपर नकारात्मक प्रभाव डालती हैं कि हाँ, सारी कमी मेरे अंदर है, या मैं पागल हो रही हूँ।अपनी छोटी सी बेटी पर क्रोध उतारते देख माँ से बर्दाश्त नहीं होता है, तो वे टोक देती हैं, फिर वह औऱ उग्र हो जाती है। हमनें तो सब किस्मत पर छोड़ दिया है लेकिन माँ उसकी चिंता में घुलती रहती हैं,हमारे समझाने का प्रयास भी निरर्थक जाता है।

मैं कहना चाहती थी कि अपने क्रोध एवं वाणी पर नियंत्रण रखो,वरना उसका दुष्प्रभाव बेटी पर पड़ेगा जो कालांतर में बेहद नुकसानदायक साबित होगा, फिर तुम्हें पछतावे के सिवाय कुछ भी हासिल नहीं होगा।बीता समय वापस नहीं आता,जिंदगी वन वे ट्रैक है, लौटने का रास्ता नहीं होता।एक गलत फैसला किस तरह जिंदगी बर्बाद कर देता है, उसके स्वयं के अतिरिक्त अन्य कई उदाहरण आसपास मौजूद हैं, फिर भी सबक नहीं ले रही हो।लेकिन उसका रुख देखकर कुछ विशेष समझाने का साहस नहीं जुटा सकी।

जिस दिन मेरा बेटा आया,उसके खाने में बाल निकल आया जो मैंने ही बनाया था, मैंने रोटी बनाने का प्रस्ताव रखा तो माँ उसपर भी बड़बड़ाने लगीं कि अरे बाल ही तो है, आदत खराब कर दिया है।मैं अन्मयस्क सी सोच रही थी कि इस उम्र में भी अपने बेटे के आने पर माँ उसकी पसन्द के अनुसार खाना बनाती हैं और इस समय ऐसा कह रही हैं।मैं इस बर्ताव का कारण नहीं समझ पा रही थी।

एक दिन किसी बात पर मैं छोटी बहन पर थोड़ी नाराज हो गई,जब प्रत्युत्तर में वह बिफ़र पड़ी तो मैं बेहद आहत हुई कि सभी जबतब नाराज होते रहते हैं और अगर मैं एक दिन नाराज हो गई तो क्या चुप नहीं रह सकते थे।हालांकि मैंने शीघ्र ही स्वयं को समझा लिया कि वह अवसादग्रस्त है, फिर मैं बड़ी हूँ।शायद यह मलाल उसके कहने का था भी नहीं।यह मेरे मन की टीस थी कि मेरे जैसे सोच-समझकर कहने-करने वाले व्यक्ति की एक बात भी किसी को बर्दाश्त नहीं।

माँ का झुंझलाना-बड़बड़ाना अनवरत जारी था,कभी मेरे सामने,कभी अकेले में।मैं उन्हें समझाती कि जबतक सभी हैं, चीजों को अनदेखा कीजिए, लेकिन इस उम्र में सामंजस्य उनके लिए दुरूह है।इसीलिए वृद्ध लोगों के साथ आज की अल्प सहनशील एवं तीव्र जीवनशैली वाली पीढ़ी के लिए निर्वहन मुश्किल हो जाता है।

इस समय मैं इसी तथ्य पर विचार कर रही थी कि आखिर मैं क्यों खिन्नता का अनुभव कर रही हूँ?मानव स्वभाव प्रभुत्व पसंद है, जब चीजें उसके मनोनुकूल नहीं हो पातीं,तो वह अप्रसन्न हो जाता है।मैं पतिगृह में कुछ भी स्वयं की मर्ज़ी से नहीं कर पाती हूँ, हर क्रियाकलाप पर कुछ न कुछ ना-नुकुर होता रहता है।भले ही सहनशीलता का जामा पहन शांत रहने का प्रयास करती हूँ, किंतु मन तो विद्रोह करता है।वही स्वतंत्रता का अनुभव मैं वहाँ करना चाहती थी,जो इस बार किंचित भी न पा सकने के कारण स्वयं को उत्साहहीन महसूस कर रही हूँ।खैर, यही जिंदगी है, यूँ ही कभी मीठी-नमकीन, कभी तीखी-खट्टी गुजरती जाती है।

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