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चरित्रहीन - (भाग-1)

चरित्रहीन........(भाग-1)

मैं वसुधा पाठक दिल्ली में ही पैदा हुई, यही पढी लिखी, नौकरी और फिर शादी भी यहीं....। दिल्ली के चप्पे चप्पे से वाकिफ हूँ मैं....पर मैं खुद को खुद से मिलाना ही भूल गयी थी। जब मिलाना चाहा तो चरित्रहीन का तमगा मिल गया वो भी अपनों से! दुख इस बात का है कि मेरे बच्चे भी मुझे समझ नहीं पाए!! जो मुझे अंदर तक दुखी कर गया.. ............ मैं तो फेल हो ही गयी साथ ही मेरी परवरिश भी। ये तो नहीं कह सकती कि सारी गलती सिर्फ मेरे बच्चों की है, कुछ हाथ तो मेरा भी रहा होगा और कुछ हमारे हालातों का। आप अभी ठीक से समझ नहीं पा रहे होंगे क्योंकि मैं यूँ ही बीच में आ कर बात करने लग गयी हूँ.....क्या करूँ, मन में बहुत उलझने हैं तो समझ ही नहीं आ रहा कि क्या छोड़ूँ और क्या पकडूँ? क्या पहले बताऊँ और क्या बात में? ऐसा करती हूँ, मैं शुरू से शुरूआत करती हूँ। मेरी पूरी कोशिश होगी कि मैं सभी घटनाओं को सिलसिलेवार बताती चलूँ। फिर आप ही फैसला कीजिएगा की मैं कितना गलत और कितना सही......!
मैं और मेरा छोटा भाई वरूण अपनी माँ अनुभा और पिता वीरेंद्र पाठक के दो ही बच्चे थे। मेरे पापा बिल्डर थे और माँ होम मेकर। हम दिल्ली के पॉश एरिया पंजाबी बाग में रहते थे। किसी बात की कोई कमी नहीं...बड़ा सा घर सभी ऐशो आराम में हमारा बचपन बीता। पापा को गुस्सा थोड़ा जल्दी आता था, सो माँ हमेशा डरी डरी ही रहती थी क्योंकि पापा गुस्सा तो करते थे, पर चिल्लाते नहीं थे। इतना आहिस्ता बोलते थे कि," माँ कई बार डर के मारे पूछ भी नहीं पाती थी कि क्या कहा समझ नहीं आया"। पापा बस चुप करके बाहर निकल जाते और माँ उनके वापिस आने तक टेंशन में रहती। वरूण तो पापा के सामने आता भी नहीं था, उसे माँ के साथ रहना पंसद आता था, कभी पापा के पास अकेले छोड़ देते तो वो पापा के पास चुपचाप बैठा रहता। अगर पापा कभी कह देते, "वरूण मेरे पैर दबा दे बेटा", तो वो मम्मी के पास भाग कर जाता और पूछता,"मम्मी पापा पैर दबाने को कह रहे हैं"! मम्मी उसे बहुत गुस्सा करती, "मुझे बताने क्यों आता है? जो पापा कहते हैं कर दिया करो"! पापा इस बात का खूब मजाक बनाते और कहते, "अनुभा अपने बेटे को बोल मेरे पैर दबा दे या वरूण को कहते जा बेटा अपनी मम्मी से पूछ कर आ कि मेरे पैर दबाने हैं या नहीं"! मैं वरूण से बिल्कुल उल्टा थी। उससे तीन साल बड़ा होने का पूरा फायदा उठाती थी, कई बार पापा से उसकी शिकायत कर देती तो पापा की डाँट उसको पड़ती। मेरे पापा की मैं लाडली थी, इसलिए न वो मुझे कुछ कहते न मम्मी को कुछ कहने देते। जिसका फायदा और नुकसान ये हुआ कि वरूण मम्मी से अनुशासन में रहने सीख गया और मैं हर तरफ से लापरवाह होती चली गयी। कई बार मम्मी को भी मेरी वजह से पापा से सुनना पड़ता। माँ पढी लिखी तो थी, पर गाँव की होने की वजह से थोड़ा झिझकती थी और पापा भी खास पढे लिखे नहीं थे, पर उनका काम इतना अच्छा चल रहा था कि पढाई की कमी उन्हें खास लगी नहीं।हमें उन्होंने इंग्लिश मीडियम स्कूल में डाला था।शुरू शुरू में तो माँ हमें पढाती थी, पर मैं बहुत परेशान करती थी तो उन्होंने एक ट्यूशन टीचर रख दी। वरूण ने तब स्कूल जाना शुरू किया था और मैं फर्स्ट में थी। टयूशन टीचर शुभा मैम बहुत Strict थीं।
मेरी गंदी हैंड राइटिंग को उन्होंने कुछ दिनों में सुधरवा दी। वरूण को बहुत डर लगता था उनसे पर न तो पापा और न ही मम्मी ने कभी उनके सामने हमारी साइड ली।दोनो ही बहुत खुश थे मेरे में आए सुधार से......! टीचर शुभा ने 1:30 घंटा पढाने की जिम्मेदारी ली थी, पर वो 2-3 घंटे भी पढा दिया करती थी, अगर मेरा कोई टेस्ट होता या मैं धीरे धीरे अपना काम करती....कभी टाइम को नहीं देखा था उन्होंने पढाते हुए, ऐसा सिर्फ वो मेरे और वरूण के साथ ही नहीं करती थी। उनका हर बच्चे के साथ यही ढंग होता था पढाने का......ज्यादातर चुप रहने वाली हमारी मम्मी अब थोड़ा खुल कर बात करने लगी थी....क्योंकि शुभा मैम ने सिर्फ हमें ही नहीं पढाया उन्होंने मम्मी में आत्मविश्वास की कमी को भी पढ़ लिया था.....हमारी मैम ने पापा को भैया और मम्मी को भाभी बना लिया था। वो काफी अच्छे परिवार से थी, वो अपना टाइम पास करने को पढाती थीं। सिर्फ 2-3 बच्चों को और होम ट्यूशन देती थी। इसकी वजह से वो हमें सबसे लास्ट में ही पढाती थी क्योंकि हम ही सबसे छोटे थे और टाइम भी उसी हिसाब से देती थी। धीरे धीरे मम्मी संडे को उनको अपने साथ ले जा कर शॉपिंग करने लगी....हमारे पापा को लगता था कि मम्मी की पसंद अच्छी नहीं है, इसलिए वो हमेशा शॉपिग करने साथ जाते थे। पहली बार शॉपिग पापा के बिना करके आयी थी मम्मी।पापा को जब हमारे कपड़े दिखाए तो उन्हें बहुत पसंद आए। पापा को बड़ा अजीब लगा था कि मम्मी अकेली बाजार चली गयी, पर जब मम्मी ने कहा कि वो शुभा मैम के साथ गयी थी तो वो बोले," आगे से उन्हें ही साथ ले जाना, उनकी पसंद अच्छी है। मुझे और वरूण को उन्होंने 8Th standard तक पढाया था।वरूण मुझसे ज्यादा Intelligent रहा है। मैं मैम के डर से पढती थी और ठीक ठीक कर रही थी। मैम की वजह से मम्मी इन सालों में काफी कांफिडेंट हो गयी थी। धीरे धीरे मम्मी में जो बदलाव आ रहे थे, वो पापा भी नोटिस कर रहे थे। पापा के आते ही मम्मी अपने आप को समेट लेती थी। मैम ने एक दिन पापा के सामने ही किसी बात को ले कर कह दिया, " भैया आप ये बात गलत कह रहे हैं"! हमें लगा कि पापा गुस्सा करेंगे, पर नहीं पापा चुप हो गए। मेरी मम्मी सिर्फ सादा खाना ही बनाया करती थी जिसकी वजह से हमें भी ज्यादा वैरायटी खाने की आदत नहीं थी। धीरे धीरे मैमने मम्मी को कई डिशेज बना कर दिखायी। वरूण6Th में था जब मैंने 10वीं के पेपर दिए थे। मैम मेरी हेल्प करती थी, पर उनके कहने पर ही मैंने 9-10की कोंचिग बाहर से ली थी। दोनो ही साल नं कुछ खास नहीं आए। मैमका टोकना भी पसंद नहीं आता था, पर उनसे डर इतना लगता था कि कुछ कहते नहीं बनता था। वैसे नं तो ज्यादा अच्छे नहीं थे, पर मैं कामर्स नहीं पढना नहीं चाहती थी तो मैंने जिद करके सांइस ले ली क्योंकि मेरी ज्यादातर सहेलियाँ वही ले रही थी। मैमने मेरे पापा को बहुत मना किया पर मेरे पापा ने कहा कि कोई नहीं मैमअब तो मेहनत कर लेगी ,समझ गयी है ये, अब दिल लगा कर पढेगी। मम्मी और मैम दोनो ही जानते थे कि मेरा ध्यान चित्रकारी में ज्यादा लगता है तो आर्टस ले कर 12 Th के बाद कुछ कोर्स ही कर लेगी इसी फील्ड में ,पर मैने रो रो कर मना लिया था पापा को तो मजबूर हो कर उन्हे् साइंस ले कर देनी पड़ी। उसका नतीजा ये हुआ कि मैं 11Th में ही फेल हो गयी। दोबारा पेपर दिए तब जा कर पास हुई वो भी बहुत मुश्किल से। मैं ने 11 वी दोबारा की और वरूण ने 8th के पेपर दिए, वो क्लॉस में फर्स्ट आया। मम ने हमारे घर आना छोड़ दिया। हम दोनो ने राहत की साँस ली। 12 th में मैं फिर फेल हो गयी और पापा को मैम की बात याद आयी कि ये सांइस नहीं कर पाएगी। मैंने साइंस छोड़ कर आर्टस में एडमिशन लिया और दोबारा पेपर दिए तो पास हो गयी। मैम को पता चला तो उन्होंने मेरे पापा को कहा,"आगे इसका एडमिशन कमर्शियल आर्टस में करा दें तो उन्होने कहा कि आगे क्या करेगी"? नौकरी मैं नहीं करने दूँगा और उन्होंने मुझे आर्किटेक्ट का कोर्स कराया। क्योंकि इसमें ड्राइंग भी बनानी होती थी तो मेरा मन उसमें लग गया। पापा ने दूर का सोचा था, पापा बिल्डर थे तो उन्हें आर्किटेक्ट की जरूरत पड़ती ही थी। मैं उनके साथ काम कर सकती थी। कॉलेज की हवा लगनी लाजिमी ही थी।12वीं तक पाबंदियों में रहे घर और स्कूल में.....
वैसे तो हम दोनों बहन भाई एक ही स्कूल में पढे हैं तो ऐसा नहीं थी कि लड़कों से दोस्ती नहीं थी! लड़को से दोस्ती की एक लिमिट रहती थी। कॉलेज में ऐसा कुछ नहीं था, एक बेफिक्री सी थी। घर पर म्मी और पापा की रोक टोक मुझे गुस्सा दिलाने लगी थी शायद उम्र ही ऐसी थी। 10th तक मेरा वर्चस्व रहा पापा पर लेकिन मेरे नं कम आने से पापा मुझ में गलतियाँ नजर आने लगी थी, वो बात अलग थी कि किसी के सामने कभी गुस्सा नहीं करते थे, पर हम दोनो बहन भाई तो पापा के चुप रहने और आँखों से ही डर जाया करते थे। मेरा मन कॉलेज में ज्यादा लगने लगा था। लेट क्लॉसेज का बहाना बना लिया करती थी बड़ी आसानी से.....मम्मी और पापा ने पढाई के नाम पर मुझे कभी कुछ नहीं कहा, जिसका फायदा मैंने खूब उठाया। मुझे नीरज वहीं तो मिला था......
क्रमश: