Charitrahin - 2 books and stories free download online pdf in Hindi

चरित्रहीन - (भाग-2)

चरित्रहीन........(भाग-2)

नीरज मेरा क्लॉसमेट था...। उसमें वो सारी खूबियाँ थी जो किसी भी लड़की को उसका दीवाना बना सकती थी। आकर्षक, लंबा कद चौड़ा माथा और भूरी भूरी आँखे ऊपर से गोरा रंग सब कुछ कयामत ही तो ढाता था। सब लड़कियाँ उससे बात करने के मौके ढूँढती थीं और वो किसी भी लड़की को निराश तो बिल्कुल नहीं करता था। बहुत थोड़े से टाइम में वो सबका चहेता बन गया था। पढने में भी ठीक था तो हर वक्त वो सबसे घिरा रहता था....। कई बार मैंने भी उससे बात करने की कोशिश की पर ज्यादा बात नहीं हो पायी। कोई न कोई उसे बुला लेता या वो खुद कहीं चल देता। फिर एक दिन मुझे मौका मिला उससे बात करने का......मैं अपनी कार से घर जा रही थी और वो बस स्टैंड पर खड़ा था। मैंने उसे देख कर कार रोकी और शीशा नीचे कर उसे पूछा," हाय नीरज, किस साइड जाना है, मैं पंजाबी बाग जा रही हूँ, उस साइड जाना हो तो मैं छोड़ दूँ"? हाय, हाँ यार मैं पश्चिम विहार जा रहा था पर कोई बस ही नहीं आ रही"! "कोई बात नहीं, मैं छोड़ देती हूँ आ जाओ"। थोड़ा ना नुकुर करके इस शर्त पर कार में बैठा कि, "मैं उसको अपने घर के सबसे पास स्टैंड पर छोड़ूँगी, आगे वो खुद चला जाएगा"। मैंने भी ज्यादा फोर्स नहीं किया। उस दिन हमने पहली बार ठीक से बात की थी। उससे बातों से पता चला कि पश्चिम विहार उसके मामा रहते हैं और वो लोग रानी बाग में रहते हैं। उसके मम्मी पापा दोनो बैंक में जॉब करते हैं और उसकी एक ही बड़ी बहन है जिसकी शादी हो गयी है और वो कृष्णा नगर में रहती है वो टीचर है....कुल मिला कर हमारे जैसा छोटा सा परिवार था।मैंने उसे अपने घर के पास वाले स्टैंड पर छोड़ दिया और खुद घर चली गयी। मुझे उससे बात करना बहुत अच्छा लगा था। मुझे तो अब अगले दिन का इंतजार था। अगले दिन जितने जोश खरोश से कॉलेज गयी थी, उतनी ही मायूसी से लौटी थी। नीरज से बात ही नही हो पायी थी और काम भी बहुत ज्यादा था.....पर वो दिन आखिरी तो था नहीं सो अगले दिन बात हो पाने की उम्मीद ले कर सो गयी। धीरे धीरे मैं उसके ग्रुप में शामिल हो ही गयी। मैं बहुत खुश थी क्योंकी पहली बार खुल कर बहुत सारे दोस्त बना लिए थे। उस टाइम मोबाइल कहाँ हुआ करते थे। M.T.N.L की लैंडलाइन हुआ करती थी। उस टाइम बहुत कम लड़कियाँ कार चलाती नजर आती थी। हमारे ग्रुप में बस मैं ही कार से आती थी तो धीरे धीरे आसपास रहने वाले फ्रैंडस को ड्रॉप कर दिया करती थी.....पर पापा से ये ज्यादा दिन छुपा नहीं रह सका। पापा को बिल्कुल पसंद नहीं था कि मैं लड़को से ज्यादा दोस्ती करूँ। कुछ काम हो तो बीत करो वरना लड़को के साथ घूमना फिरना उन्हें सख्त नापसंद था सो उन्होंने ड्राइवर रख दिया जो मुझे कॉलेज छोड़ भी आता और लेने भी आ जाता। गुस्सा तो बहुत आता था पर कुछ कर पाना मुश्किल था।
ऐसा भी नहीं था कि उस वक्त सिर्फ मेरे पापा की ही सोच ऐसी थी। कुछ कम या ज्यादा सब के घरों में यही हाल था। लड़के जो भी करे सब की खुली छूट पर लड़कियों को 7बजे तक घर आना ही है। नीरज ने अपने जन्मदिन की पार्टी रखी थी कमला नगर में तब "नरूला" बहुत फैमस हुआ करता था और उसकी आइसक्रीम लाजवाब हुआ करती थी।पापा ने बहुत मुश्किल से परमिशन दी थी। ड्राइवर के साथ ही गयी थी ,उस दिन 2-3 सहेलियों को भी मैंने अपने साथ बिठा लिया था। वहाँ हमने सेलिब्रेट किया उसका जन्मदिन.....सबके साथ बहुत मजा आया था। हमें खाने पीने की आजादी थी पर हम मम्मी पापा के साथ बहुत कम ही बाहर जा पाते थे, क्योंकि पापा के काम का पता नहीं चलता था कि कब फुरसत मिलेगी, फिर उन्हें टाइम से खा कर सोने की आदत रही थी तो बाहर जाने का प्रोग्राम जल्दी मिल ही नहीं पाता था.....। खैर जब मेरा जन्मदिन आया तो मैंने पापा को बहुत दिन पहले ही मना लिया था कि एक पूरा दिन मुझे अपनी फ्रैंड्स के साथ रहना है। मम्मी ने भी पापा को कहा कि जाने दो अब बड़ी हो गयी है....तब पापा ने बड़ी मुश्किल से हाँ की थी। उस दिन मैंने बहुत मजे किए और शॉपिग भी की......नीरज ने मुझे घड़ी गिफ्ट की थी अलग से जबकि उसके जन्मदिन पर हम सब दोस्तों ने मिल कर गिफ्ट दिए थे। उस टाइम ऑलविन ट्रैंडी की घड़ियाँ बहुत सुंदर आयी थी। बहुत प्यारी घड़ी थी....मुझे आज भी याद है मुझे नीले रंग का स्ट्रैप और घड़ी में 4 रंग जो 12 -3-6-9 ऐसे दिखाती थी समय दिखाती थी। धीरे धीरे मुझे वो अच्छा लगने लगा था और शायद उसे मैं....तभी तो मेरे साथ रहने के बहाने ढूँढने लगा था और मैं उसके साथ.....। कॉलेज के प्रोजेक्टस में एक दूसरे की मदद और नोटस लेना देना.......! हमारे दोस्त और सहेलियों ने कहना भी शुरू कर दिया था कि हम एक दूसरे के लिए परफेक्ट हैं। उस टाइम हमारे दिल में ऐसा कुछ नहीं था.....बस मुझे उसका साथ अच्छा लगता था। कोर्स पूरा होने तक हमारी दोस्ती मजबूत हो गयी थी। जिस दिन हमारा रिजल्ट आया उसी दिन नीरज ने मुझे प्रपोज किया एक गुलाब के साथ हमारे सभी दोस्तो के सामने.....मैंने खुशी खुशी उसे "हाँ" कर दी। आखिर "हाँ" क्यों न करती फाइनल इयर आने तक हम बिना इजहार किए, बिना कुछ कहे सुने इतना करीब जो आ चुके थे, सारा दिन बिताने लगे थे कभी पढाई तो कभी नोटस के लिए। मैंने तो पापा का ऑफिस जॉइन करना था और नीरज को जॉब ढूँढनी थी......... रिजल्ट के कुछ दिन बाद तो मैंने खूब आराम किया और घूमना फिरना शॉपिंग सब हुआ। पापा ने भी मना नहीं किया तो और मजा आया। नीरज के बारे में घर में किसी को पता नहीं चलने दिया था मैंने क्योंकि मैं चाहती थी कि नीरज को पहले कोई जॉब मिल जाए फिर बताना सही रहेगा। मैंने पापा का ऑफिस जॉइन कर लिया और कुछ टाइम बाद नीरज ने भी एक कंपनी को जॉइन कर लिया । उस टाइम आर्किटेक्ट का कोर्स ज्यादा बच्चे नहीं करते थे। पापा के साथ काम करना भी आसान नहीं था। क्योंकि मैं उनकी बेटी थी तो उन्हें लगता था कि मैं जैसे कह रहा हूँ बस वैसे ही करती जाऊँ....कभी कभी अपनी बात को उनको समझाना मुश्किल हो जाता था।एक बात और भी थी कि पापा के साथ काम करती थी तो उन्हें मेरे आने जाने का सब पता रहता था। मैं, नीरज से संडे को भी नहीं मिल पाते थी क्योंकि पापा कोई न कोई काम एक दिन पहले ही बता देते थे। कुछ दिन तो मैंने कुछ नहीं कहा क्योंकि नीरज की भी नयी ज़ब थी तो उसे भी अपने को साबित करना था। हम लोग रात को भी कभी कभार बात हो पाती थी। मेरा उससे ना मिल पाना मुझे परेशान करने लगा था तो मैंने हिम्मत करके एक दिन पापा से कह ही दिया, "पापा मुझे संडे को कोई काम मत दिया करो, मुझे एक दिन छुट्टी चाहिए"!
पहले तो पापा को गुस्सा आया कि मैं अपना बिजनेस भी नौकरी की तरह करना चाहती हूँ.....पर फिर पापा ने कहा, "ठीक है, संडे तुम्हारी छुट्टी रहेगी तुम घूम आया करो, सहेलियों से मिल लिया करो"!पहले पेजर और फिर मोबाइल फोन का दौर आ गया था, पहले पर सैंकड कॉल के पैसे लगा करते थे, मुझे तो चिंता उतनी नहीं होती थी पर नीरज इन सब चीजों पर बहुत ध्यान देता था। वो कहता, "घंटो मोबाइल पर बात करने से मिल कर बात करना ठीक रहता है"। पापा ने कभी ऐसा कुछ कहा नहीं था, शायद पापा हमें सब सहूलियत देते रहे तो मैं लापरवाह हो गयी जबकि वरूण बहुत सोच कर खर्च करता था। मुझे नीरज की टोका टाकी भी तब बहुत प्यारी लगने लगी थी और उसकी बात झट से मान भी लेती थी। प्यार इसे ही तो कहते हैं न.... 6महीने की जॉब के बाद नीरज ने अपनी बाइक ले ली थी तो अब मैं हर संडे को उसके साथ बाइक पर बेफिक्री से घूमने लगी थी। कांफिडेंट नहीं ऑवर कांफिडेंट हो गयी थी शायद मैं और मुझे लगता था कि पापा पंजाबी बाग से बाहर कभी निकलते ही नहीं....वो दिन मैं भूल नहीं सकती जब मैं और नीरज कमला नगर के मिनी शॉप से केवेंटर का शेक पीने और उससे पहले कमला नगर के छोटे गोल चक्कर से पहले बिल्कुल "सरदार की हट्टी" के सामने "चौधरी चाट कार्नर" से गोलगोप्पे खाने थे। उस चाट कार्नर से बिना गोल गप्पे या चाट खाए कभी कमला नगर से आयी ही नहीं थी। हम उस दिन भी वहीं खडे थे, मैं गोलगप्पे खा रही थी और नीरज दही भल्ले....मैं बीच बीच में उसके मुँह में गोलगप्पा डाल रही थी। बस उसी वक्त पापा की कार हमारे पास से निकल कर आगे जा कर रूक गयी। मेरा ध्यान ही तो नीरज पर था, कार से ड्राइवर निकल कर मेरे पास आया और बोला, "दीदी आपको सर बुला रहे हैं घर चलने के लिए"! मेरे तो हाथ पैर ही ठंडे हो गए, पापा का गुस्सा मैं जानती थी। नीरज ने मुझे कहा, "तुम जाओ और घर जा कर फोन करना"। मुझे पापा के गुस्से से बहुत डर लग रहा था, कार मुश्किल से दस कदम दूर थी.......पर वो दस कदम मुझे दस जन्म जैसे लग रहे थे। दिमाग ने काम करना बंद ही कर दिया था जैसे.....समझ ही नहीं आ रहा था कि पापा के सवालों का क्या जवाब दूँगी।
क्रमश: