Robert Gill ki Paro - 14 books and stories free download online pdf in Hindi

रॉबर्ट गिल की पारो - 14

भाग 14

रॉबर्ट महसूस करता है कि उसकी ज़िंदगी में घटनाएँ कितनी तेज़ी से हो रही थीं। वह आगे बढ़ना चाहता था। लेकिन फिर-फिर अतीत में खो जाता था। टैरेन्स ने उसकी मनपसंद किताबें उसको गिफ्ट में दी थीं। एक माउथ आॅर्गन भी दिया था, जिसे देखकर वह बहुत खुश हो गया था। फ्लावरड्यू ने फ्रेंकी को साथ ले लिया था। दोनों बच्चे फ्रेंकी ... फ्लावरड्यू का समय ठीक से कट रहा था। वह सुबह सवेरे जहाज के छत पर घूमने जाती। सूरज बहुत जल्दी निकल आता और समुद्र की ऊंची-नीची लहरों पर अपना सुनहलापन बिखेरता हुआ अठखेलियाँ करता। सूरज अठखेलियाँ करता या लहरें... वह मुस्कुरा उठती कि पीछे से रॉबर्ट की बाँहें उसके कंधों को अलिंगन में ले लेतीं।

वे लोग जब जहाज की छत से नीचे उतरते तो डेक पर किनारे पड़ी आरामकुर्सियों पर बैठ जाते। रॉबर्ट अक्सर माउथ आॅर्गन बजाता। दोनों बच्चे भी अपने बिस्तर से उठकर उन लोगों के पास आ जाते।

जहाज में चाय-कॉफी दोनों की व्यवस्था थी। फ्लावरड्यू का ध्यान वे लोग अधिक रखते क्योंकि वह गर्भवती है। फ्लावरड्यू की माँ द्वारा रखी खाने की वस्तुएँ, मेवे और अमेरिका, अर्जेन्टिना से आए टिन्ड फूड वे खाते। यह सब भी माँ ने साथ रखे थे।

रिकरबाय जमींदार परिवार के कारण भी उनकी देखरेख ज्Þयादा होती। फ्लावरड्यू हमेशा हर दिन उन लोगों को कुछ न कुछ रुपये बतौर टिप देती। जिससे जहाज के कर्मचारी उसके इर्दगिर्द ही भागते रहते।

उस दिन समुद्र में बड़ी-बड़ी लहरें और पूर्व-पश्चिम तेज़ हवाएँ चलने लगी थीं। जहाज उछलकूद मचा रहा था। दोनों बच्चे जहाज की इस डांवाडोल स्थिति को एंजॉय कर रहे थे। क्योंकि वे खतरों को सोच नहीं सकते थे। फ्लावरड्यू का चेहरा सफेद पड़ता जा रहा था। मानो किसी ने सारा रक्त निचोड़ लिया हो। रॉबर्ट ने उसका हाथ पकड़ लिया। और ‘‘घबराओ नहीं’’ में सिर हिलाया। जहाज के सुरक्षाकर्मियों ने छोटी नावें दिखाईं। सुरक्षा के सारे उपाय दुबारा बताए और प्रभु से प्रार्थना करने को कहा। रॉबर्ट ने कहा, ‘‘फ्लावर, मैं तुम्हें और दोनों बच्चों को कुछ नहीं होने दूंगा। मैं तैराक हूँ। अपने परिवार को बचा सकता हूँ।’’

यह हवाएँ तीखी ठंडी थीं। जहाज में सब ठंड से थर-थर काँप रहे थे। रॉबर्ट ने फ्लावर के साथ दोनों बच्चों को गरम-गरम कंबलों से लपेट दिया। वह जानता था कि जहाज पलटा तो वह सचमुच कुछ नहीं कर पाएगा। करीब आठ घंटे की समुद्र और जहाज की लड़ाई चली। हवाएँ धीमी हुईं। लहरें शांत हुईं। कल सुबह ही बॉम्बे पोर्ट पर जहाज लग जाएगा। सूचना मिली तो सभी आश्वस्त हुए। सारे दिन से भयभीत यात्रियों ने कुछ खाया नहीं था। अब जहाज पर सब खा-पी रहे थे और ईश्वर और प्रकृति का धन्यवाद कर रहे थे।

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इंडिया का समुद्र तट बॉम्बे। लगातार जहाज पिछड़ता रहा तो सुबह की जगह शाम को पहुँचाया। समुद्र की लहरें सफेद झाग के साथ किनारों पर पहुँच रही थीं और चाँदनी में चमक रही थी। रॉबर्ट ने देखा समुद्र की इस विशाल चादर पर कितने ही जहाज रेंगते दिखाई दे रहे थे। कोई जहाज आ रहा था, कोई जहाज जा रहा था। जो जा रहा था वह काला धब्बा बनता जा रहा था।

रॉबर्ट फिर कहीं खो गया था। शायद निश्चय ही वह फूलमून की रात थी। या कल हो चुकी थी। तभी लहरों ने उनके जहाज को इधर से उधर पटका था। समुद्र के पार यह देश... जहाँ उसकी किस्मत ने दुबारा ला पटका था। जबकि उसने मन बना लिया था कि वह वहीं इंग्लैंड में रहेगा। और लीसा को निश्चय ही खोजेगा। लेकिन अभी वह इस पार था। न जाने कितने समुद्रों को लांघकर यहाँ पहुँचा था तो क्या कभी वह सचमुच जा पाएगा? किनारे कभी नहीं मिलते रॉबर्ट... बस लहरें संदेश देती रहती हैं एक संदेश वाहक की तरह। कितने विचार... विचारों की कैद में वह घिर ही रहा था कि विलियम ने उसकी उंगली पकड़ ली। वह वर्तमान में लौटा जहाँ फ्लावरड्यू लकड़ी के डगमगाते पुल से नीचे उतर रही थी। उसका हाथ फ्रांसिस थामे थी।

ओह! फ्लावर गर्भवती है और वह कैसे पहले उतरकर भागा जा रहा है। उसने शर्मिन्दगी से भरी सांस को मुक्त किया और फ्लावर को लेने उस पुल पर चढ़ने लगा। फ्लावर ने उसे रुकने का इशारा किया। फिर दोनों बच्चों का हाथ थामे वे साथ चलने लगे।

उस रात वे लोग बॉम्बे में ही रुके। दूसरे दिन सवेरे जालना के लिए चले। बॉम्बे पहुँचकर रॉबर्ट ने मद्रास सूचना भेज दी थी कि दो दिन में वह जालना में अपना कार्यभार संभाल लेगा। एक पत्र जयकिशन के नाम भी था कि जैसे भी हो जल्दी जालना पहुँचो।

लम्बी समुद्र यात्रा, उसके बाद जालना शहर पहुँचना... सब कुछ थकावट भरा होता जा रहा था। खासकर फ्लावरड्यू के लिए। फ्लावर कितनी ही बार रॉबर्ट की गोद में सिर रखे हिचकोले खाती फिटन पर सो जाती थी। बच्चे भी बार-बार सो जाते थे। फ्लावर बच्चों को संभालने में असमर्थ हो जाती थी।

हफ्ते भर बाद जयकिशन उसके तीनों घोड़े और जॉनी के साथ जालना पहुँच गया। पीछे एक दूसरी गाड़ी पर ज़रूरी सामान भी आ गया था।

जालना का बंगलो भी सुविधायुक्त और हवादार था। बहुत ऊंची दीवारें, ऊंचे रोशनदान और अंग्रेजी खपरों से बनाया गया रूफ, जिससे बारिश में भी कोई मुसीबत नहीं होती थी। शायद उनके आने से पहले कोई अंग्रेज आॅफिसर ही रहता था। क्योंकि बगीचा हरा-भरा था। ऊंचे फलदार वृक्षों से घिरा और पीछे एक लंबी जगह जहाँ सब्जियां लगे होने का अनुमान था। एक बड़ा अस्तबल था। जयकिशन तो यह बंगलो देखकर बहुत खुश हुआ। यहाँ का मौसम ठंडा था। ठंडी हवाएं चलती रहती थीं।

यहाँ एक छोटा अस्पताल भी है। लेकिन फ्लावरड्यू अपने बच्चे को घर में जन्म देने वाली थी। जयकिशन ने एक नर्स को ढूंढ़ा था, जो बहुत समर्पित नर्स कहलाती थी। उसी ने बच्चा पैदा करवाने वाली अनुभवी दाई को बुलाया था। वह महाराष्ट्रीयन थी और एक तालाब किनारे अपनी एक गाय और चार-पाँच बकरियों के साथ रहती थी। फ्लावरड्यू उसे देखकर नाक-भौ सिकोड़ लेती थी। क्योंकि उसके कपड़ों से गोबर की गंध आती थी। ईसाई नर्स ने यह बात दाई को बता दी थी। लेकिन वह कितना ही धो-धो कर साड़ी पहने बास आती ही थी। फ्लावर अस्पताल के पुरूष चिकित्सक से जचकी (डिलीवरी) नहीं कराना चाहती थी। क्योंकि वह इंडियन था और इंडियन मेल को क्यों अपना शरीर देखने दे।

12 अक्टूबर, 1847 को फ्लावरड्यू ने एक बेटे को जन्म दिया। जिसका नाम एक भव्य पार्टी में रखा गया। रॉबर्ट ने बेटे को हाथों में उठाकर कहा-‘थॉमस रॉबर्ट गिल’। गिलास टकराए और पार्टी ने समाँ बांध दिया कि सभी खुश हो उठे।

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इसी दौरान रॉबर्ट को वापस मद्रास बुला लिया गया।

फ्लावरड्यू कुछ बीमार-सा अनुभव करने लगी थी। उसे जालना मौसम के हिसाब से ठीक लगा था। जब वह मद्रास में था उस समय एल्फिन को जालना भेजा गया। वैसे गंभीर और अपने आप में एकाकी रॉबर्ट को एल्फिन का जाना दुखदायी लगा। फ्लावरड्यू भी उस परिवार के बगैर अपने आपको अकेला ही महसूस कर रही थी। चाहकर भी वह अन्य ब्रिटिश परिवारों के साथ घुलमिल नहीं पाती थी।

उसकी प्रिय फ्रेंकी भी बीमार रहने लगी थी। और जानवरों के चिकित्सकों के अनुसार उसकी आयु पूरी हो गई थी।

आठ वर्ष पूरे हो रहे थे इंडिया में रहते हुए. वह सोचती है कि कैसा भाग्य रहा उसका कि जहाँ वह आना भी नहीं चाहती थी, वहाँ उसका जीवन व्यतीत हो रहा था।

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अभी तक एक प्यानो का प्रबंध नहीं हो पाया था कि रॉबर्ट अपने इस शौक को जारी रखता। वह अकेला ही घोड़े पर सवार समुद्र के किनारे इतनी दूर निकल जाता कि कोई और हो तो शायद वापिसी का रास्ता ही भूल जाए। उसे शिकार में मजा आता था। जालना के आसपास के घने जंगलों में उसने कई लेपर्ड का शिकार किया था। उनमें विभिन्न प्रकार के मसाले लगाकर भूसा भरवाया था। और सेना के कई उच्चपदासीन लोगों को बतौर तोहफा भिजवा दिया था। उसने कितनी ही बार पैदल चलकर शिकार किया था बगैर किसी सहयोगी को साथ लिए।

रॉबर्ट ने अभी तक की फोटोग्राफी में किसी इंसान का चेहरा नहीं देखा था। इंसान के चेहरे उसकी पेंन्टिंग तक सीमित थे। हां, सचमुच 1840 तक की फोटोग्राफी में इंसान के चेहरे नहीं आते थे। जिन जगहों पर वह अपना कैमरा सैट करता उसमें वही सब कुछ होता जो उसकी पेंन्टिंग में होते थे। दूर-दूर तक दिखती सुनसान सड़क, कतार में लगे विशाल दरख्त, झरते पत्ते या नई कोपलें वाले पत्ते, झाड़ियां, फूल...। जब तक किसी व्यक्ति पर कैमरा सैट होता, वह तस्वीर लेना चाहता तो वे फ्रेम से दूर कहीं चले जाते। उसने निश्चय किया कि अपने घर पर जाकर कैमरा सैट करेगा और तीनों बच्चों की तस्वीर लेगा। लेकिन घंटों की मेहनत के बाद जब वह बच्चों की तस्वीर ले पाया तो और जब उसने अंधेरे कमरे में लैम्प में लपेटे लाल कागज़ की लाल रोशनी में केमिकल से वह रील धोई तो कई फोटो न केवल साफ हो चुकी थीं अर्थात् उनमें कुछ भी नहीं दिख रहा था। आसपास झाड़ी नुमा पौधे और दोनों बच्चे भी नहीं दिख रहे थे। बस नन्हा-सा थॉमस खड़ा था जो मात्र एक परछाईं की तरह दिख रहा था। इस बात को लेकर फ्लावर ने उसकी हंसी उड़ाई थी। ‘‘तुम परिवार के लायक ही नहीं हो रॉबर्ट। जो परिवार तुम्हारे साथ खड़ा दिखे या तुम्हारे दृष्टिकोण से खड़ा हो।’’

लेकिन रॉबर्ट लगातार इन प्रयोगों में जुटा रहता।

उसी वर्ष एल्फिन जालना से वापिस लौटा और रॉबर्ट को फिर आदेश दिया गया कि उसे दस महीने के लिए जालना जाना है। फ्लावरड्यू को यह छठवां महीना चल रहा था गर्भधारण का। वह चौथे बच्चे की माँ बनने जा रही थी। ऐसी स्थिति में रॉबर्ट ने उसे अकेले छोड़ना ठीक नहीं समझा।

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रॉबर्ट स्वयं बार-बार के स्थान-परिवर्तन से परेशान हो चुका था। लेकिन कई अतिविशेष लोगों का स्थान परिवर्तन होता ही रहता था। शायद यह समय की माँग थी और वहाँ की परिस्थितियों की, कि अति योग्य व्यक्तियों के स्थानांतरण जल्दी-जल्दी किए जाते थे। आजादी की माँग को लेकर इंडिया का माहौल गरमाया हुआ था। यहाँ के राजाओं को सत्ता-सुख चाहिए था, जिनकी नब्ज़ अंग्रेजों ने पकड़ ली थी। एक दूसरे को भड़काकर अंग्रेज अपनी जीत हासिल कर रहे थे।

जालना जाने का आदेश तो आ ही गया था। इससे पूर्व उसने 1844 में एक पत्र द्वारा रॉयल एशियाटिक सोसायटी को सूचित किया था कि वह औरंगाबाद जो कि बॉम्बे से 240 मील दूर है वहाँ खोजी गई अजंता गुफाओं पर चित्र बनाकर कार्य करना चाहता है।

उसने जेम्स फर्ग्युसन की सूचना का ब्यौरा देते हुए कहा था कि वह इन रॉककट मंन्दिरों के संरक्षण और उनके बचाव, उनकी प्रतिलिपि, पेन्टिंग आदि बनाने में सक्षम है, तो उसे वहाँ भेजा जाए। लेकिन जालना जाने का पत्र उसके हाथ में था तो वह थोड़ा निराश भी हुआ क्योंकि सर जेम्स फर्ग्युसन ने उसके नाम की सिफारिश भी की थी।

अपने पत्र भेजने से पूर्व उसको यह मालूम हुआ था कि 1844 में लंदन में रॉयल एशियाटिक सोसायटी ने ईस्ट इंडिया कंपनी को इस बारे में सचेत किया था कि पश्चिमी भारत के गुफा मन्दिर और विशेष रूप से अजंता उपेक्षा की स्थिति में हैं। उन पर ध्यान दिया जाए।

यह महज एक संयोग ही था कि सर जेम्स फर्ग्युसन ने 1838 में इस स्थान का दौरा किया था। और विस्तृत रिपोर्ट लंदन में कंपनी के निदेशक मंडल को भेजी थी। वे उस समय भारत के रॉककट मंदिरों पर संरक्षण का कार्य कर रहे थे। उनकी इस रिपोर्ट पर गवर्नर जनरल, लॉर्ड हार्डिंग और कलकत्ता में कंपनी के डायरेक्टर को पत्र लिखकर तत्काल संरक्षण की सिफारिश की गई थी, लेकिन सन् 1844 के लिखे पत्र की सिफारिश को 5 वर्ष व्यतीत हो चुके थे। उन्होंने दुबारा कंपनी को पत्र लिखा था और वे लंदन वापिस लौट गए थे। दुबारा लिखे पत्र में उन्होंने पुन: याद दिलाया था कि अजंता केव्ज़ को मधुमख्खियों के छत्तों, चमगादड़ों, वनैले पशुओं, मकड़ियों ने भारी नुकसान पहुँचाया है। वहाँ कुछ रंगों से भरी चित्रकारी भी है जो नष्ट होने के कगार पर है। उन्होंने अनुरोध किया था कि अजंता के चित्र हमारे कुछ प्रतिभाशाली अधिकारियों द्वारा बनाएं जाएं। उनके दिमाग में रॉबर्ट गिल की चित्रकारी घूम रही थी जो वह मद्रास में रॉबर्ट गिल के बंगलो की बैठक में देख चुके थे। वे जानते थे कि रॉबर्ट एक समर्पित कलाकार है जो अपनी बैटमेनी के साथ इस जिम्मेदारी को भी संभाल लेगा। उन्होंने यह भी कहा कि एलोरा की गुफाएं और अजंता की गुफाओं तक जाने के लिए कोई पगडंडी तक की व्यवस्था नहीं है। वहाँ वारणा नदी के एक किनारे अजंता ग्राम के स्त्री-पुरुष स्नान करने, अनाज, कपड़े धोने और पानी लाने जाते हैं, जो कंटीली झाड़ियों के बीच से आने-जाने के कारण अपने आप वहाँ पगडंडी बन गई है। लेकिन अजंता केव्ज़ जाने का रास्ता पर्याप्त खतरनाक है। तब बॉम्बे सरकार ने निज़ाम हैदराबाद के साथ मिलकर अजंता के विशेष पाइन्ट जहाँ से अजंता केव्ज़ के लिए ढलान शुरू होती है। उस स्थान का नाम सर सिम्पसन ने ‘हॉर्स शू पॉइन्ट’ रखा था। वहाँ तक आने-जाने के लिए सड़क बनाने का काम शुरू करवा दिया था। जालना में रहते हुए एक बार रॉबर्ट अजंता और एलोरा गया था और तभी से उसके मन में यहाँ की चित्रकारी करने की इच्छा पैदा हो गई थी।

वह दु:खी था। उसने सोचा था कि शायद वह अजंता ग्राम भेजा जाएगा। लेकिन यह तो जालना जाने का पुन: आदेश था। उसने यही ठीक समझा कि ऊबड़-खाबड़ रास्तों की बजाय वह पानी के रास्ते मुंबई पहुँचेगा और वहाँ से जालना जाना अधिक दूर नहीं होगा। एल्फिन ने भी यह रास्ता सुविधाजनक माना था। एल्फिन लम्बी छुट्टी पर इंग्लैण्ड जा रहा था।

एक बार फिर मद्रास से जालना की ओर तीनों बच्चों और अपने आपको लेकर वह जालना की ओर बढ़ा। सड़क मार्ग से जयकिशन और मेहमूद को आना था।

क्योंकि दस महीने के लिए ही जालना जाना था। अत: कम से कम सामान लेकर जयकिशन और मेहमूद चल चुके थे। जालना का वही बंगलो उनका इंतज़ार कर रहा था। जहाँ थॉमस का जन्म हुआ था।

जालना पहुँचकर उसने दिए गए कार्य पर अपना ध्यान केंद्रित ही किया था कि बॉम्बे से आए अनेक लिफाफों के बीच एनी का एक लिफाफा था। उसने सभी लिफाफों को टेबिल पर से सरकाते हुए एनी का भेजा लिफाफा खोला। लिखा था- रॉबर्ट, डैड तो काफी पहले इंडिया आ गए थे। उन्हें जबलपुर भेजा गया है। लेकिन मैं अभी आई हूँ। मैं यहाँ कुछ दिन बॉम्बे में रुकुंगी। मुझे विश्वास है कि तुम मिलने आओगे-एनी।

पत्र पढ़कर वह बहुत खुश हो गया। एनी आई है... लेकिन फ्लावरड्यू को आठ महीने पूरे हो चुके हैं। उसे फ्लावर के पास रहना चाहिए। सारी शाम वह परेशान रहा कि फ्लावर को किसके भरोसे छोड़ा जाए। उसे एनी से मिलने जाना ही था। उसने जयकिशन को समझाया कि उसे ज़रूरी काम दिया गया है। वह कल सुबह ही बॉम्बे के लिए रवाना होगा। कुछ ही दिन में उसकी वापिसी हो जाएगी।

फ्लावरड्यू को अपना बॉम्बे जाना बताने की हिम्मत वह मुश्किल से कर पाया। वह चुप और आश्चर्य में डूबी थी। क्या काम कुछ दिनों के लिए स्थगित नहीं किया जा सकता, लेकिन वह चुप रही।

दो वर्ष पुरानी नर्स रूबीना को जयकिशन ढूंढ़कर ले आया था। दाई भी वही थी, जिसने थॉमस को पैदा करवाया था। उसने चलते समय रॉबर्ट को आश्वस्त किया था कि वह सब देख रेख करेगा। लेकिन फ्लावरड्यू की नाराजी? 1837 से वह रॉबर्ट के साथ है। वह रॉबर्ट के हर निश्चय को जानता था। जो करना है वह करता ही है रॉबर्ट।

एनी ने अपना पता दिया था। वह बताए पते पर पहुँचा तो वह एक बड़े कमरों वाली रिहायशी जगह थी। जहाँ इंग्लैण्ड के जहाज से आए ब्रिटिशर ठहरते थे। और फिर 2-3 दिन रुककर गंतव्य की ओर चले जाते थे।

दरवाज़ा खुलते ही एनी सामने खड़ी थी। रॉबर्ट को देखते ही उसकी आँखें भर आईं। रॉबर्ट ने उसे लिपटा लिया और उसके शरीर के हर अंग को चुंबनों से नहला दिया।

चार साल बाद दोनों मिल रहे थे। एनी जरा भी नहीं बदली थी। बल्कि और भी खूबसूरत दिखने लगी थी। काली शीशम की आरामदायक कुर्सी पर उसने रॉबर्ट को बिठाया। सामने की कुर्सी पर वह बैठ गई। दोनों में ढेरों बातें होती रहीं। चार वर्षों का एक-एक पन्ना दोनों के सामने खुलता रहा।

रॉबर्ट ने कहा- ‘‘तो तुमने कलाकृतियों की प्रदर्शनी लंदन में लगाई थी। और तुमने मेरी जो मूर्ति बनाई थी उसके नीचे ‘नॉट फॉर सेल’ लिखा था। है ना?’’

‘‘अरे तुम्हें कैसे मालूम रॉबर्ट?’’ एनी ने कहा।

‘‘क्योंकि मैं तुम्हारे साथ हर वक्त था एनी।’’ रॉबर्ट ने कहा।

इस एक वाक्य से एनी पिघल उठी। ‘‘हां, रॉबर्ट तुम मेरे दिल-दिमाग पर ऐसे छाए हो, कि अलग कुछ सूझता ही नहीं है। तुम मेरे हो रॉबर्ट।’’ कहते हुए वह कुर्सी से उठ खड़ी हुई। रॉबर्ट भी खड़ा हो गया। मानो दोनों एक-दूसरे में समा जाने को आतुर हों। एनी की ज़िंदगी का यह पहला पुरुष स्पर्श था। उसने एनी को इतना अलिंगनबद्ध किया कि उसकी मुलायम देह कसमसा उठी।

रॉबर्ट एनी के प्रेम में सचमुच पूरा डूब चुका था। रॉबर्ट तीन दिन बॉम्बे में रहा। वह एनी के साथ माहिम समुद्र तट पर बैठता। जहाँ किनारे पर लगी काली पत्थर की चट्टानों ने उन्हें आकर्षित किया था। ये चट्टानें मानो किसी अदृश्य शक्ति ने तराशी हों जो एकसमान किसी सांचे से ढली प्रतीत होती थीं। वे समुद्र किनारे लहरों में दौड़ते रहते। कभी रॉबर्ट समुद्र में दूर तक तैरते हुए गायब हो जाता तो एनी घबरा उठती। फिर जब रॉबर्ट हाथ हिलाता तो वह ऊंची-ऊंची कूदती और ताली बजाते हुए बच्ची बन जाती।

वे लोग भायखला भी गए। जहाँ घोड़ों की रेस होनी थी। अजब इत्तेफाक था कि घोड़ों की रेस का वह प्रथम दिन था जिस दिन वह वहाँ पहुँचे थे।

अंग्रेजों के और आसपास के भारतीय शासकों के घोड़े इस रेस में तैयार खड़े थे। रॉबर्ट का घोड़ों को दौड़ाना पसंदीदा शौक है। उसे जानकारी नहीं थी, वरना वह भी अपने फैन्टम और चेंडोबा को यहाँ भेज सकता था।

एनी से विदाई लेते वक्त दोनों बहुत उदास थे। एनी ने कहा था-‘‘अगर तुम जबलपुर आओ तो हम लोग कान्हा फॉरेस्ट और भेड़ाघाट घूमने चलेंगे। तुम कान्हा फॉरेस्ट में शेर का शिकार भी कर पाओगे। अब डैड मुझे तुम्हारे साथ जाने देंगे। उसने अपने डैड से सुनी भेड़ाघाट आदि जगहों की बहुत बातें बताई थीं।

‘‘क्या तुम मुझसे शादी करोगे रॉबर्ट?’’ अचानक एनी ने पूछा।

रॉबर्ट चुप। क्या उत्तर दे। लगा लीसा सामने खड़ी है।

‘‘खैर! कोई बात नहीं। तुम्हारी पत्नी है। तुम्हारे बच्चे हैं। रॉबर्ट मैं ऐसा कोई काम नहीं करूंगी कि तुम्हारा परिवार टूटे। बस मुझे आश्वस्त कर दो कि मैं तुम्हारी हूँ। तुम मेरे हो।’’ एनी ने कहा।

रॉबर्ट ने उसे पुन: ज़ोरों से आलिंगन में जकड़ लिया। यह एक आश्वस्ति थी जो रॉबर्ट ने बिना कहे एनी को दी थी। और एनी ने रॉबर्ट की खामोशी के साथ उसे स्वीकारा था।

..........

रॉबर्ट लौट आया तो पता चला कि फ्रैंकी मर चुकी है। तीनों बच्चे उससे लिपट गए। फ्लावरड्यू कमरे से बाहर नहीं आई। वह अंदर गया तो फ्लावर ने उसका स्पर्श करने वाला हाथ झटक दिया। वह नाराज थी। रॉबर्ट की अनुपस्थिति में कैप्टेन ज़ोज़ेफ घर पर आया था। उसे लगा कि रॉबर्ट बॉम्बे से लौट आया होगा। वह मिलने घर आया। क्योंकि वह बैंगलोर में रॉबर्ट से मिल चुका था। और जब उसने बॉम्बे के समुद्र तट पर एनी (उसके लिए अनजान लड़की) और रॉबर्ट को अलिंगनबद्ध देखा था तब वह अचंभित रह गया था। क्योंकि वह फ्लावरड्यू को पहचानता था। रॉबर्ट ने भी उसे समुद्र तट पर देखा था। लेकिन तब उसने इसकी परवाह नहीं की थी। वह लौटकर रॉबर्ट के बंगलो पर आया था। बातों ही बातों में उसने फ्लावरड्यू को बताया था कि मुझे लगा आप साथ हैं। लेकिन... लेकिन बॉम्बे के उस रिहायशी इलाके में तो मि. रॉबर्ट... उस लड़की के साथ...। जयकिशन ने सारी बातें और कैप्टन ज़ोज़ेफ का आना रॉबर्ट को बताया था। जितना वह समझ सका था बातों को।

बेंगलोर में भी ऐसी बातों के लिए ज़ोज़ेफ प्रसिद्ध था। इधर से उधर बातों को पहुँचाना उसका कार्य था। उसके भीतर मानो एक खलबलाहट रहती थी कि कैसे दूसरे को ये सब बताया जाए। हो सकता है कि वह उसका और एनी का पीछा करते हुए उनके एक साथ रुकने की जगह भी देखने आया हो। उसने फ्लावर को यह भी बताया कि बॉम्बे जाने का कोई आदेश नहीं था। बल्कि यह रॉबर्ट की पर्सनल ट्रिप थी।

‘‘कौन थी वह जिसके साथ तुमने छुट्टियां मनाई? और मैं आठ महीने की गर्भवती, मुझे अकेला छोड़कर तुम गए कैसे?’’ फ्लावरड्यू ने चिढ़ते हुए कहा।

‘‘एनी।’’ रॉबर्ट ने कहा।

‘‘एनी।’’ फ्लावर की आँखें आश्चर्य से विस्फारित हो गईं।

‘‘एनी! हां तुम मुझे अकेला छोड़कर मद्रास में इंग्लैण्ड चली गई थीं। और मैं अवसाद में डूबा था। उस वक्त की मेरी मित्र एनी।’’ रॉबर्ट ने सब कुछ बता दिया।

अब जबकि फ्लावर को सब कुछ पता ही है तो छुपाने का क्या फायदा?’’ रॉबर्ट ने सोचा।

दोनों के बीच एक ऐसी दरार आ गई कि फ्लावरड्यू ने उससे बातचीत करना ही बंद कर दिया।

फ्लावर सोचती है कैसे आसानी से रॉबर्ट को सारे एक्सक्यूज मिल जाते हैं कि वह निरपराध सिद्ध हो जाता है।

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फ्लावरड्यू ने इस बार असहनीय पीड़ा झेलकर 17 जुलाई 1849 को बेटी को जन्म दिया। जालना आए पाँच महीने हो चुके थे। फिर पाँच महीने बाद वापिस लौटना था।

एक सादे समारोह में जिसमें कैप्टन ज़ोज़ेफ भी आया था। बेटी का नामकरण किया गया। सादा समारोह इसलिए कि फ्लावरड्यू नाराज ही थी। और बातचीत न होने की वजह से रॉबर्ट अकेला कुछ नहीं कर पा रहा था। उधर इंग्लैण्ड से फ्लावरड्यू की माँ का संदेश आया था अनेक उपहारों के साथ कि लड़की का नाम लूसी एनी गिल रखा जाए।

फ्लावरड्यू ने स्वीकारा कि यही नाम रखेंगे। ताकि सारी ज़िंदगी रॉबर्ट को यह नाम याद दिलाता रहेगा कि उसने अपनी गर्भवती पत्नी के साथ बेवफाई की थी और एनी नाम की किसी स्त्री के साथ मनोरंजन में लिप्त रहा।

वह नवंबर का महीना था जब वे लोग जालना से मद्रास पुन: लौट रहे थे। बॉम्बे से जहाज में बैठने के बाद लगातार ठंडी हवाओं ने उन्हें घेरा था। बच्चे खुश थे।

जहाज पर अंग्रेजों के लिए अच्छा प्रबंध रहता था। खासकर तब जब उनका परिवार साथ हो तो और भी अच्छी देखभाल की जाती थी।

एल्फिन मद्रास में ही था। इस बार फ्लावरड्यू ने साईमा से कुछ नहीं छुपाया। रॉबर्ट और एनी के बारे में सब कुछ बताया। साईमा हैरान थी। वैसे अनेक घटनाएं साईमा ने सुन रखी थीं जब अंग्रेज आॅफीसर यहाँ इंडियन औरतों को पकड़ लेते थे। पत्नियां विरोध नहीं कर पाती थीं। क्योंकि वे लोग विरोध करने पर पत्नियों के प्रति कड़ा रुख अपनाते थे। लेकिन साईमा इसलिए अचंभित थी कि यह प्रेम भरी घटना थी। फ्लावरड्यू की नाराजगी ज्यों की त्यों कायम थी। लेकिन साईमा को बताकर वह हल्कापन महसूस कर रही थी। निश्चय ही साईमा ने अपने पति एल्फिन को सब बता ही दिया होगा। लेकिन एल्फिन ने इस बारे में रॉबर्ट से कोई बातचीत नहीं की। एल्फिन के द्वारा टैरेन्स को इस नए संबंध के बारे में पता लगा। बल्कि यह कन्फर्म हो गया। क्योंकि वह प्रदर्शनी में रॉबर्ट की मूर्ति को देख ही चुका था।

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कुछ दिन बाद ही नाराजी में ही अपने चारों बच्चों के साथ फ्लावरड्यू ‘‘मैं सदा के लिए जा रही हूँ।’’ कहकर इंग्लैण्ड लौट गई।

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एक बार फिर रॉबर्ट अकेला हो गया। वह अक्सर शाम के समय घोड़े पर सैर को निकल जाता और समुद्र के किनारे जो किनारा सूना और अकेला होता वहाँ किसी चट्टान पर बैठकर माउथ आॅर्गन बजाता। समुद्र की गर्जना करती लहरों में वह खो जाता। रॉबर्ट सोचता है दु:ख से बचना बहुत मुश्किल है। उसने दु:ख की परिभाषाएं भी निर्धारित की थीं। लेकिन सुख को खो देना भी नामुमकिन है। बल्कि बिल्कुल आसान नहीं है। यह सच है कि फ्लावरड्यू तो उसके प्रति समर्पित ही रही, फिर वह ऐसा क्यों सोचता है कि वह जो चाहता रहा वह फ्लावर से नहीं मिला। शायद इसीलिए कितनी ही बार वह सुख की खोज में भटका। और जब-जब सुख नज़दीक आया तो अचानक उसने पाया कि वह दु:ख और अकेलेपन से घिरा है। उसे परायों से प्रेम और अपनापन बहुत मिला। जबकि फादर रॉडरिक जो उसे उसके बचपन से समझते थे, उनसे भी वह कुछ नहीं कह पाया। उसने उनकी मृत्यु सही। फ्लावरड्यू के अलावा उसका था ही कौन जो उसका अपना था। लेकिन उसने हमेशा उसे अपने ढंग से चलाने की चेष्टा की। और जो मेरे प्रति समर्पित रहे वह कहीं ऐसे दूर चले गए कि दुबारा मिले ही नहीं। एनी ने प्रेम का आह्वान किया था। वह मित्रवत या प्रेमवश उस ओर खिंचता चला गया। हृदय का एक कोना एनी के लिए खाली है। वह जब चाहें वहाँ आकर रह सकती है।

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उसे बच्चों की बहुत याद आती है। बेटा विलियम और फ्रांसिस उसके बगैर कैसे रहते होंगे। लेकिन फ्लावर ने तो निष्ठुरता की सारी हदें पार कर ली थीं।

समुद्र की लहरें, लाल, सुनहरी हो चुकी थीं। सूरज डूब रहा था। इससे पहले कि समुद्र तट पर अछोर अंधेरा छा जाए वह घोड़े पर बैठ चुका था।

लौटते हुए उसने सोचा- ‘कल सुबह से फिर समुद्र तट पर आऊँगा। फोटोग्राफी करनी है। स्कैच, पेन्टिंग करके अपने मन को संतुलित करना है।

लहरों की गर्जना कुछ-कुछ अंतराल पर सुनाई देती है। क्या फ्लावर और बच्चे लंदन पहुँच गए होंगे? या जहाज पर होंगे। और मैं समुद्र तट पर खड़ा इन लहरों को देख रहा हूँ, जो उन्हें निरन्तर दूर ले जा रही हैं।

’’’

क्या मैं सचमुच बदनसीब हूँ।

’’’

 

एल्फिन भी मद्रास में नहीं है। वरना इस एकाकीपन में कुछ तो हरकत होती।

’’’

सामने रॉयल एशियाटिक सोसायटी का पत्र था, जो ईस्ट इंडिया कंपनी के द्वारा भिजवाया गया था। रॉबर्ट इतना खुश था कि उसके हाथ कांप रहे थे। उसका हृदय ज़ोर-ज़ोर से धड़क रहा था। वह 1849 का दिसंबर का प्रथम सप्ताह था। उसके बचपन के शौक को एक रूप मिल गया था। बार-बार उसके द्वारा किए गए प्रार्थना के बाद आज वह दिन आ गया था। जब वह अजंता गुफाओं की चित्रकारी करने औरंगाबाद भेजा जा रहा है। अजंता ग्राम... क्या था वहाँ? महज़ अजंता की चित्रकारी, उनका रखरखाव अथवा और कुछ? और कुछ क्या? लेकिन उसका हृदय ज़ोरों से धड़क रहा था।

’’’

वह बार बार इस पत्र को पढ़ता। अपनी यह खुशी वह किसके साथ बांटे? काश फ्लावरड्यू अभी इस समय उसके साथ होती। इतनी बड़ी खुशी... मेजर पद पर नियुक्ति... अजंता में पेंटिंग फोटोग्राफी का उसका मनपसंद कार्य... जिसे वह बरसों से माँग रहा था। सैन्य आॅफिस में सभी उसे बधाई दे रहे थे। टैरेन्स, एल्फिन ने भी यह सूचना पढ़ ली होगी। क्योंकि वहाँ लिस्ट लटका दी होगी।

ओह... वह सबके बीच... इस शोर के बीच अकेला खड़ा था। टैरेन्स, एल्फिन को उसने फौरन ही सूचना भिजवा दी। फ्लावरड्यू को अलग से सूचना दी। साथ ही टैरेन्स को भी कहा कि वह भी उसे सूचना भिजवा दे।

उसे इसी महीने औरंगाबाद के लिए रवाना होना था। उसने सर जेम्स फर्ग्युसन और विलियम हेनरी साईक्स को भी धन्यवाद पत्र भेजा। क्योंकि दोनों ने ही उसके नाम की सिफारिश की थी। और उसकी पेन्टिंग, फोटोग्राफी का मूल्यांकन किया था।

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हैदराबाद के निज़ाम को सूचना दे दी गई थी। उसने अजंता गाँव की बारादरी में उसके रहने का प्रबंध करवा दिया था। बारादरी अजंता का स्थानीय महल था। इस महल को असे के युद्ध (1803) के समय वेलिंगटन के. ड्यूक के लिए एक फील्ड अस्पताल और उसका अस्थायी निवास भी रहा था। इसे निज़ाम हैदराबाद ने ही बनवाया था। महल बहुत बड़ा था। और इसकी बनावट रॉबर्ट को बंगाल के भवनों के निर्माण जैसी लगी। उसके आने के पूर्व पूरा महल साफ करके पर्याप्त ज़रूरत की वस्तुएं उसमें रखवा दी गई थीं। बाहर बड़ा आँगन था, जिसे गोबर से लीपकर चारों ओर चूने की सफेद पट्टियां बनाई गई थीं। वह आँगन को सुंदरता प्रदान करती थीं। बाहर दीवार के पास क्यारियां थीं, जिनमें अनगिनत तरह के फूल कूंडे (गमले) में लगे थे। बड़े दरख्त भी थे, जो बरसों पहले लगाए गए होंगे।

उसकी फिटन गाड़ी सामान से लदी खड़ी थी। घोड़ों को खोलकर मोटे पेड़ से जयकिशन ने बांध दिया था। और उनका भोजन सामने डाल दिया था। ठंड का मौसम था और यहाँ कुछ ज्Þयादा ही ठंडक थी। वह पहले से ही रखी आराम कुर्सी पर बैठ गया। ठंडक से सारी थकान उतर चुकी थी। मद्रास से वह बॉम्बे आया था। फिर नासिक, धुले, मनमाड, औरंगाबाद होता हुआ अजंता गाँव पहुँचा था। मद्रास के तपते मौसम को वह भूल चुका था। वैसे तो वह दो बार पूना भी गया था। और फ्लावरड्यू और बच्चों के साथ महाबलेश्वर भी आया था। पहाड़ों से गिरते पानी के झरनों को देखकर बच्चे बहुत खुश थे। वे महाबलेश्वर और आगे पहाड़ी जगहों में ही थोड़े दिन बिताना चाहते थे। लेकिन यह संभव नहीं था। रॉबर्ट को बेंगलोर भी जाना था। और बच्चे मद्रास लौटना ही नहीं चाहते थे। हालांकि बच्चे बहुत छोटे ही थे। लेकिन परिवर्तन को तो वह भी समझते ही थे। अगर वह फ्लावरड्यू और बच्चों को यहाँ छोड़ भी देता तो किसके भरोसे? टैन्ट पर जंगली जानवरों और रेंगने वाले रेपटाइल्स का आक्रमण हो सकता था। ठगों का भी ज़ोर था। जिन पर अंग्रेज अभी तक सख्ती के बावजूद उनके अपराधों पर नियंत्रण नहीं कर पा रहे थे। अपने खास कर्मचारियों पर उसे भरोसा था, लेकिन बाकी इंडियन्स पर नहीं। विद्रोह की आंधी तो कहीं न कहीं से उठ ही जाती थी। कलकत्ते की अराजकता उसके समक्ष थी ही।

उसने इन सब बातों से ध्यान हटाया। फ्लावरड्यू को निश्चय ही उसकी पदोन्नति और स्थानांतरण की सूचना मिल ही गई होगी। उसने ‘ठंडी आह’ भरी। फादर का एक गलत निर्णय कभी भी उन दोनों की ज़िंदगी को संवार नहीं सका। वैचारिक मतभेद इतने थे कि फ्लावरड्यू के साथ हफ्तों उसकी बोलचाल बंद रहती थी। और उसका आक्रोश अपने अधीन लोगों पर निकला करता था। जिन्हें वह काले गुलाम कहती थी।

कुर्सी पर सिर टिकाकर वह बैठा ही था कि तभी जयशंकर ने खटका किया। उसने आँखें खोलीं। सामने उससे पाँच छह फुट की दूरी पर एक लड़की खड़ी थी।

‘‘सर, यह अजंता गाँव की है। देखिए, ये लोग आपसे मिलने आए हैं। लड़की से और अधिक दूरी बनाकर गाँव से आए नवयुवक, नवयुवतियां और अधेड़, बुजुर्ग भी खड़े थे। लड़की के हाथ में एक मिट्टी की साफ-सुथरी प्लेट थी। जिसमें दो रोटियां, जो घी लगी थीं, जो कि यहाँ के स्थानीय अनाज ज्वार की थी, जिसे ये लोग ज्वारी कहते हैं। उस पर कोई साग रखा था। बाद में जॉय ने बताया कि यह ज्वार की रोटी, जिसे भाखरी कहा जाता है और करडी का साग था।

‘‘हम आपके लिए खाना लाए हैं।’’ लड़की ने कहा। वह मुस्कुरा दिया और तिपाई से पैर नीचे किए।

‘‘अरे, अरे मुझे दो सर यह नहीं खाते।’’ जयशंकर ने प्लेट उसके हाथ से ले ली। लेकिन लड़की ने प्लेट वापिस ले ली। अब जयकिशन हाथ में रोटी और उसके ऊपर रखे साग को लिए खड़ा था।

‘‘नहीं दो मैं खाऊंगा।’’ रॉबर्ट ने कहा।

अभी तक सामान खोला नहीं गया था। जयकिशन को असमंजस और डर था कि क्या वह हाथ में खाना दे दे। उसने इधर उधर देखा।

रॉबर्ट समझ गया था। प्लेट नहीं है। उसने कहा-‘‘लाओ जॉय, वे लोग प्रेम से खाना दे रहे हैं।

पीछे खड़े गाँव वालों के समूह में हंसी छूट गई। अंग्रेज साहब हिन्दी बोलता है। शायद उन लोगों को उसके उच्चारण से हंसी आई होगी। लेकिन वे लोग तुरन्त शांत हो गए।

उसने लड़की को देखा। खुलता गेहुआं रंग। बगैर ब्लाउज की ऊंची साड़ी जो ऊपर के भाग को आंचल से कस कर ढंकी हुई थी। बालों का कसकर बांधा ऊंचा जूड़ा जिसमें गुलाब के दो फूल खुंसे हुए।

चेहरा कोमल और तीखे नाक, नक्श। अर्थात पूरा चेहरा सुंदर। गले में, हाथों में, पिंडलियों तक खुले पैरों में सभी जगह चाँदी के मोटे-मोटे गहने। वह मुस्कुरा रही थी।

उसने रोटी के कौर पर साग लगाई और मुँह में रखा तो उसे सचमुच खाना अच्छा लगा। या तो खाना अच्छा था या बेतरह भूख में उसे अच्छा लगा। वह एक रोटी खा गया। और दूसरी रोटी जॉय के हाथ में पकड़ा दी। तभी पीछे खड़े लोगों में से एक अधेड़-सा व्यक्ति आगे आया। उसके हाथ में एक छोटा घड़ा था, जो नया ही था, पानी से भरा। उस पर उथना ही बड़ा मिट्टी का ढक्कन था, जो बड़े दिए की शक्ल में था। उस पर छोटा-सा मिट्टी का लोटा था।

रॉबर्ट यह सब देखकर फिर मुस्कुराने लगा। जयकिशन ने इशारा पाते ही मिट्टी के लोटे में पानी भरकर रॉबर्ट को दिया। मिट्टी की सौंधी सुगंध और ठंडा-मीठा पानी उसे अच्छा लगा।

तभी उस लड़की तक आकर बाकी लड़कियां और उनके आगे छोटे बच्चे खड़े हो गए। उनके पीछे युवक, वृद्ध आदि खड़े हो गए।

एक वृद्ध पुरुष ने आगे बढ़कर रॉबर्ट के समक्ष हाथ जोड़े-‘‘साहब हम कोली जाति के हैं। यहीं अपने मिट्टी के घर बनाकर रहते हैं। जब हमारा यहाँ का दाना-पानी खतम हो जाएगा तो हम आगे बढ़ जाएंगे। हमें बंजारा कहते हैं।’’

‘‘दाना-पानी! बंजारा...’’ रॉबर्ट ने दोहराया।

‘‘दाना-पानी मतलब सर, जब तक यहाँ व्यापार-धंधा है, खाने लायक कमाई। और फिर कहीं और चले जाना। खानाबदोश को बंजारा कहते हैं यह लोग। अर्थात ‘‘जिप्सी’’ जयकिशन ने समझाकर रॉबर्ट को बताया।

‘‘ओके, ओके’’ रॉबर्ट ने कहा।

‘‘खाना कैसा लगा साहब?’’ उसी लड़की ने पूछा, जो खाना लाई थी।

‘‘टेस्टी’’ रॉबर्ट ने कहा।

वे लोग पुन: हंसने लगे। चल पारो, साहब को खाना टेस्टी... टेस्टी... लड़कियां दौड़ गईं। उनके पीछे बच्चों की पलटन।

‘‘अरे टेस्टी मतलब अच्छा लगा खाना।’’ जयकिशन ने ऊंची आवाज़ में बताया।

’’’

बारादरी बहुत बड़ी थी। विभिन्न कमरों में सामान जमा दिया था। बड़ा ऊंचा पलंग था, जिस पर गुदगुदा गद्दा था। चारों ओर नयी वाली मसहरी जो कील ठोंककर लगाई गई थी। साथ में एक टेबिल, एक आरामकुर्सी, लकड़ी की अलमारी रखी थी, जिसमें जयकिशन ने उसकी किताबें जमा दी थीं। दूसरे कमरे में रॉबर्ट की पेन्टिंग्ज़, फोटो (उसके द्वारा खींची गईं) एवं रंग-कूची (कलर-ब्रश) आदि रख दिए गए थे।

जयकिशन सत्रह-अठारह वर्ष की उम्र में रॉबर्ट के पास आ गया था। तबसे वह उनके साथ है। वह अपने सर को जितना जानता है, शायद उतना तो रॉबर्ट भी अपने आपको नहीं जानता होगा।

जयकिशन ने कभी अपनी शादी के बारे में नहीं सोचा। न ही रॉबर्ट ने कभी पूछा। वो कभी अपने गाँव नहीं गया। कैसी होगी बुआ? अब तो दो-चार बच्चों की माँ बन गई होगी। वह जब भी शादी के बारे में सोचता सामने बुआ आकर खड़ी हो जाती। यह बचपन का आकर्षण था। जो वह आज भी महसूस करता है। अगर बुआ जैसी लड़की मिल जाती तो वह ज़रूर ही शादी कर लेता। कितनी ही बार वह कहीं दूर बैठकर बाँसुरी बजाता। जब रॉबर्ट दौरे पर होता तो वह मद्रास में फूलों से भरी झाड़ी के नीचे बैठकर बाँसुरी बजाता, तब मेहमूद भी पास आ बैठता। मेहमूद सोचता निश्चय ही जयकिशन कोई दर्द दिल में छुपाए हुए है।

रॉबर्ट ने कई बार उसकी बाँसुरी की धुनें सुनी थीं। कहीं न कहीं वह रॉबर्ट को पसंद भी आती थीं। जयकिशन जब बहुत छोटा-सा था, तभी से वह बाँसुरी बजाया करता था। उनके गाँव में एक हनुमान मंदिर था, जिसमें हर त्योहार मनाया जाता था। कृष्णजन्माष्टमी, नवरात्र में दुर्गापूजा, हनुमान जयंती आदि। तब वह वहाँ पूजन के बाद आरती के समय बाँसुरी बजाता था। कृष्णजन्माष्टमी के बाद पूरे छह दिन वह बाँसुरी बजाता और गाँव वाले प्रसन्न होते।

एक बार रॉबर्ट के रहते उसने बाँसुरी बजाई थी। रॉबर्ट ने उसे बुलवाया। ‘‘यह कौन था और क्या बजा रहा था।’’

जयकिशन थर-थर कांपने लगा। नौकरी जाने और सजा के डर से उसने अपने हाथ पीछे करके बाँसुरी छिपा ली। रॉबर्ट ने पुन: कड़क आवाज़ में पूछा-‘‘मैंने कुछ पूछा जॉय?’’

जयकिशन ने बाँसुरी सामने कर दी।

‘‘यह बाँसुरी है सर।’’ उसने भयभीत हो आँखें बंद कर लीं।

लेकिन रॉबर्ट ने कहा-‘‘अच्छा लगता है। बहुत अच्छा बजाते हो, बजाया करो।’’

लेकिन जयकिशन इतना भयभीत हो चुका था कि वह महीनों बाँसुरी नहीं बजा पाया। यहाँ सिंतूर जैसा कोई बाजा भी उसने लोगों को बजाते देखा था। जिसमें कई धागे लगे होते थे। नीचे लोटेनुमा कोई मिट्टी का उल्टा छोटा-सा घड़ा जैसे आकार का, जिसमें ऊपर से यह धागे लगे होते थे। अद्भुद आश्चर्य... इसमें यह लोग मधुर धुन बजाया करते थे। एक लंबी लकड़ी की डंडी पर यह सब होता था और सितार की तरह डंडी को पकड़ा जाता था। दूसरी डंडी से स्वर निकाला जाता था। कभी-कभी ऐसा लगता कि मानो नाक से स्वर निकाले जा रहे हैं। यह भी सुनना रॉबर्ट को अच्छा लगता था। बीन बजाते तो उसने कितनी ही बार इस देश में सुना था। लेकिन फ्लावरड्यू की माँ इन सब से चिढ़ती थीं।

जैसे ही रॉबर्ट बाहर निकलता जयकिशन सारे इंतज़ाम देख लेता। रॉबर्ट मन ही मन खुश हो लेता कि कोई तो है, जो उसका इतना ध्यान रखता है। लेकिन वह जयकिशन को मालूम नहीं होने देता कि वह उस पर कितना निर्भर रहता है।

दिनभर के आराम के बाद वह शाम को घूमने जाना चाहता था। घोड़ा भी आराम कर चुका था। यहाँ तक का सफर लंबा था, लेकिन ऊबाऊ नहीं था। रास्ते में वह कई अंग्रेज आॅफिसर्स के घर का आतिथ्य ग्रहण करते हुए आया था।

रॉबर्ट अजंता विलेज की ओर जाना था। उसको तैयार होता देख जयकिशन ने फैंटम को तैयार कर दिया। चंदोबा भी नहाया साफ-सुथरा खड़ा सिर हिला रहा था। रॉबर्ट ने जयकिशन को बताया-‘‘मैं अजंताविलेज की ओर जा रहा हूँ। जैसा कि यहाँ आने से पूर्व उसने अजंता विलेज की पूरी जानकारी इकट्ठी की थी। इसी गाँव से आगे वर्गुणा नदी बहती है जो कि केव्ज़ के सामने से बहती हुई आगे निकल जाती है। केव्ज़ जाने के लिए घने जंगल से गुजरना होता है। यह भी कि जॉन स्मिथ यहाँ लैपर्ड के शिकार हेतु अपने साथियों के साथ आए थे।

शिकार के दौरान अजंता केव्ज़ की खोज एक्सीडेंटल कर डाली थी। रॉबर्ट ने भी अब तक 80 के लगभग शेर, चीते, सिंह का शिकार विभिन्न जगहों पर किया था। अब यहाँ लैपर्ड के शिकार हेतु वह जाया करेगा।

जयकिशन ने रॉबर्ट के बाहर निकलते ही छोटा-सा लकड़ी का स्टूल घोड़े के पास रख दिया। कभी-कभी उस पर पैर रखकर भी रॉबर्ट घोड़े पर बैठता था, लेकिन बहुत कम। अधिकतर वह दौड़ते हुए बैठता था। लेकिन स्टूल तो रखा ही जाता था।

जयकिशन जानता था अब रॉबर्ट गया तो सीधे रात को ही वापिस आएगा।

शराब, खाना, शराब के साथ कुछ न कुछ खाने के लिए, यह सब उसे तैयार रखना है। लेकिन यह सब उसके लिए एक घंटे का काम है। रॉबर्ट के जाते ही वह पास की एक चट्टान पर बैठ गया। बाँसुरी उसके हाथ में थी।

आज न जाने क्यों उसे अपना घर याद आ रहा था। लेकिन घर में कौन था? उसे अपने चाचाओं द्वारा उसके साथ की गई मारपीट याद आई। फिर उसे काम के लिए ब्रिटिश कंपनी आर्मी को सौंप देना याद आया। माता-पिता तो दोनों ही खेत में काम करते हुए आकाशीय बिजली गिरने का शिकार हो गए थे। तब वह मात्र दस वर्ष का था। उसकी एक बुआ थी जो उससे चार-पांच वर्ष ही बड़ी होगी। जिसे वह हमेशा याद करता रहा है। वह जयकिशन को बहुत प्यार करती थी। जब उसे चाचा मारपीट कर कोने में बिठा देता था कि आज खाना नहीं मिलेगा तब वह चुपचाप उसे शक्कर रोटी खिलाती थी। जब वह जा रहा था तब वह बहुत रोई थी। गाँव से दूर खेत किनारे चलते-चलते उसे बुआ का चेहरा याद था। आसुओं से भीगा गोरा-गोरा चेहरा। कसे हुए बालों की चोटी... वह पीछे मुड़मुड़कर देखता रहा कि शायद बुआ दौड़ती हुई आएगी और उसे वापिस ले जाएगी। सर्वप्रथम वह बॉम्बे पहुँचा था। उसके बाद मद्रास आर्मी को सौंप दिया गया था। तब से वह रॉबर्ट के साथ है। क्या शारदा बुआ जीवित होगी? ओह, क्या सोच डाला उसने... उससे मात्र चार-पाँच वर्ष ही तो बड़ी थीं। लेकिन कहां होंगी? किस गाँव में...?

बस याद करने को यही है उसके पास। और वर्तमान है। हां जन्माष्टमी पर उसे अपना कृष्ण बनना याद है। वह इसलिए भी कि वह बाँसुरी बजाता था।

रॉबर्ट अजंता गाँव के आसपास की जगहों को देखने के पश्चात वहाँ के झोपड़ी जैसे मकानों की कतार से आगे वह जंगल की ओर निकल गया।

अभी शाम के अंधेरे के पूर्व की उजास में एक अकेला तारा आसमान में टिमटिमा रहा था। घोड़े के पैरों के नीचे सूखे पत्तों की चरमराहट थी। और धीमे-धीमे अंधेरा फैल गया। इसके अलावा कुछ भी सुनाई नहीं दे रहा था। हवा भी तेज़ थी। विगत जीवन की यादों से वह उबरा भी नहीं था कि पुन: यादों ने घेर लिया था।

कहां से आया है वह? कहां आया था और किस छोटे-से गाँव की ओर उसकी अंतहीन यात्रा शुरू हो गई थी। यह तो सच है कि लीसा प्रकरण को छोड़ दिया जाए तो वह जैसा चाहता था वैसा ज़िंदगी को जीता रहा। लेकिन उसने यह क्यों चाहा कि फ्लावरड्यू उसका अनुसरण करती रहे। अब यह गाँव की ज़िंदगी... मद्रास, बेंगलोर, कलकत्ता, ब्रह्मपुत्र का किनारा, बर्मा, फिर शिमला की ओर... सभी कुछ तो उसने अपने हिसाब से जिया।

फ्लावरड्य ने उसका साथ तो दिया। रॉयल ढंग से ज़िंदगी जीने वाली फ्लावरड्यू उसके उटपटाँग फैसलों को स्वीकारती रही।

लेकिन उससे भी अधिक यह सच है कि उसने फ्लावर की कड़वाहट को झेला है। हां, याद है रॉबर्ट को बर्मा के वे दिन जब उसके हाथ में नन्हीं रोज़ मटिल्डा का शव था। और फिर मल्टिडा की मृत्यु का अपराधी उसे बनाकर वापिस इंग्लैण्ड लौट जाना।

क्या फ्लावर सचमुच यहाँ आना पसंद करेगी? न जाने कितने विचारों में डूबा उतराता वह चलता रहा था कि तभी घोड़ा हिनहिनाया। क्या उसे लैपर्ड की गंध सूंघ ली थी। घोड़ा आगे बढ़ने को तैयार नहीं था। वह वापिस जाने को पलटा। ओह... कितनी दूर वह आ गया था। उसको इस जंगल का अंदाज भी नहीं था। अब आकाश में अनगिनत तारे उसके साथ चल रहे थे। उसने इस भविष्य से छलांग लगाई और दूसरे भविष्य में वह गहराई से उतरने लगा। एक रोशनी उसके साथ है। वह समझ नहीं पा रहा है कि सचमुच कोई रोशनी उसके साथ है। या यह उसका वहम है।

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