Robert Gill ki Paro - 15 books and stories free download online pdf in Hindi

रॉबर्ट गिल की पारो - 15

भाग 15

वापिसी में उसने देखा जयकिशन लालटेन हाथ में लिए खड़ा है। उसकी आँखों में आँसू अटके हैं। जिसे वह स्पष्ट देख पा रहा था।

‘‘सर गाँव वालों ने अभी बताया कि वहाँ मादा चीता आई है। उसके साथ उसके नन्हें पब भी हैं। सर, मादा खतरनाक होती है इस समय। आप बंदूक भी बारादरी में छोड़ गए थे। जयकिशन के एक हाथ में बंदूक और दूसरे हाथ में लालटेन थी।

रॉबर्ट ने मुस्कुराकर अपने घोड़े की पीठ थपथपायी। ‘‘जॉय, यह तुम्हारा तुर्की घोड़ा मुझे वापिस लाया है। शायद इसे लैपर्ड कहीं आसपास ही महसूस हुआ था। यह गंध को पहचान लेते हैं।’’

अलाउद्दीन यह तुर्की घोड़ा था। जिसे बच्चे के रूप में जयकिशन के कहने से रॉबर्ट ने खरीदा था। तब उस अफगानी ने बच्चे घोड़े की पीठ थपथपाकर कहा था-‘‘अल्लू, अब अंग्रेज साहब के साथ रहना। तभी से वह लोग उसे अल्लाउद्दीन कहते थे। अल्लाउद्दीन अठारह महीने का हो चुका था।

रॉबर्ट की गैरहाजिरी में जयकिशन चंदोबा पर बैठकर दूर तक घूम आता था। वह ज़रूरत का सामान और सब्जी-भाजी भी सोमवार को लगने वाली मंडी से खरीद लेता था।

अब रॉबर्ट के पास फिर तीन घोड़े थे। फेन्टम, चंदोबा, और अल्लाउद्दीन। कुत्ता जॉनी भी है जो काफी बूढ़ा हो चुका है। और एक जगह बैठा सोता रहता है।

’’’

‘‘जॉय! आज मैं अजंता केव्ज़ की ओर जाना चाहूँगा।’’ सुबह उठते ही रॉबर्ट ने कहा।

‘‘जी सर, क्या मैं भी चलूं?’’ जॉय ने कहा।

‘‘नहीं! आज अकेला ही।’’

ब्रेकफास्ट लेकर रॉबर्ट बाहर निकला तब तक उसका घोड़ा खा-पीकर तैयार, गले में रॉबर्ट के लिए पानी से भरा छोटा मशक टाँगे खड़ा था। जयकिशन ने सबकुछ तैयार कर दिया था। बंदूक किनारे खड़ी थी। और कमर में बैल्ट के बक्कल में सर्विस गन भी थी। क्या पता लैपर्ड ही कही मिल जाए तो...।

रॉबर्ट चला गया था। और उस स्थान पर खड़ा था जहाँ से अजंता की गुफाओं को झाड़ियों के बीच से देखा जा सकता था। ऐसा लगता था जैसे यहाँ के पहाड़ों ने और चारों ओर की चट्टानों ने हरी-हरी चादर ओढ़ी हो और चारों ओर पेड़ों की ओट लेकर अपने आप को छुपाया हो। विशालकाय काली-भूरी चट्टाने मन को लुभाने वाली हैं। ये पहाड़ सह्याद्री पर्वतमाला कहा जाता है। यहाँ आने से पूर्व रॉबर्ट ने अजंता के बारे में सभी कुछ पढ़ लिया था।

इन गुफाओं की खोज, इन्हें किसने कब बनवाया था आदि।

यह गुफाएं घोड़े की नाल के आकार में निर्मित थीं। और यह चट्टानों को काटकर बनाई गई थीं। जॉन स्मिथ ने लिखा था यहाँ लगभग 29 गुफाएं हैं। उनकी खोज के पश्चात जॉन स्मिथ ने देखा था कि 30 वीं गुफा खराब हो गई है। यह चट्टानें ग्रेनाइट बेसाल्ट की हैं। यहाँ पर वार्गूणा नदी बहती है इसलिए इसे वार्गुण रिवर वैली कहा जाता है। इसी वैली में अजंता केव्ज़ स्थित हैं।

रॉबर्ट उसी स्थान पर खड़ा था, जहाँ जॉन स्मिथ ने पहली बार इन गुफाओं को देखा था। आज यह गुफाएं रॉबर्ट को स्पष्ट दिखाई दे रही थीं। जॉन स्मिथ जो कि 1819 में ब्रिटिश आर्मी में अफसर रहे, उन्होंने शिकार के दौरान इसकी खोज की थी। तब दूर से ही उन्होंने पहाड़ में कटाव की स्थिति देखी थी। और कुछ पत्थरों के झरोखे भी। उनकी पारखी आँखों ने पढ़ लिया कि यहाँ कुछ है जो लोगों की आँखों से दूर है। और जिसे आज तक ढूंढ़ा नहीं गया।

वह दूसरे दिन दुबारा गाँव के 2-3 लड़कों के साथ वहाँ गए। उन्होंने बाघ के शिकार के लिए उस घाटी में एक हिरन छोड़ दिया। ताकि बाघ का शिकार किया जा सकें। वे यहाँ के जंगल की सुंदरता में खो गए। यहाँ के जंगलों में बड़े-बड़े सफेदा के पेड़ थे और कीकर की झांड़ियां एवं फलों के अन्य दरख्तों ने उन्हें आकर्षित किया था।

जॉन स्मिथ को नहीं मालूम था कि वे एक बड़ी खोज को अंजाम देने जा रहे हैं।

अपने औरंगाबाद प्रवास के दौरान वे एलोरा दौलताबाद से आगे निकल गए थे। उनके साथ ऐसे भारतीय भी थे, जो अपने-अपने क्षेत्र के मालगुजार जमींदार या ऊंचे ओहदे पर थे। इनके पास बड़ी-बड़ी हवेलियां, घोड़े-नौकर-चाकर और शानो-शौकत की सभी चीज़ें थीं। वे शिकार के शौकीन थे और उनके पास शेर, बाघ, हिरन, बारहसिंघा के भूसा भरे सिर या पूरा शरीर उनकी बैठक की शोभा बढ़ाते थे। ऐसे ही लोगों से घिरे जॉन स्मिथ अजंता पहुँचे थे।

अचानक ही जॉन स्मिथ ने एक चट्टान को देखा जहाँ पर उन्हें एक पैच दिखाई दिया जो कि नक्काशीदार पत्थर का स्तंभ दिखाई दे रहा था। घने ऊबड़-खाबड़ रास्ते पर वे उतरते गए। उन्होंने देखा कि दूर किसी मंदिर, गुफा या पत्थर को तराश कर बनाई गई कोई ऐसी चीज दिखाई दे रही है। ऐसी पत्थर की कमान जिससे अंदाज लगाया जा सकता है कि वहाँ कोई प्राचीन मंदिर, किला या कोई गुफा होनी चाहिए। यह रेड गोल्डन कलर (लाल-सुनहरी रंग) की थी, जो दूर से ही चमक रही थी।

सूरज की ढलती रोशनी में वह चमक तो रही थी। लेकिन उन्होंने अपने साथियों से कहा कि अभी अंधेरा होने वाला है। हम कल यहाँ आएंगे।

’’’

आज फिर वे सब उसी जगह खड़े थे, जहाँ से कमान दिखाई दे रही थी। वे लोग नीचे उतरने लगे। लैपर्ड या किसी टाइगर, जंगली जानवर का डर तो था ही और जहरीले कीड़े मकोड़ों का भी डर था। वे लोग लगातार आगे बढ़ रहे थे। नदी की तेज़ आवाज़ थी। जॉन स्मिथ ने अंदाज लगाया यह करीब 200 फुट की ऊंचाई से गिर रही थी। इसलिए इसकी आवाज़ तेज़ है।

जॉन स्मिथ सोच रहे थे मुझे लगता है इन साथ आए लोगों को कोई इच्छा नहीं है कि वे नीचे जाएं और देखें कि घाटी पर क्या है? उन्हें तो शिकार, शराब और मनोरंजन के लिए लड़की चाहिए। ये समझते हैं इनका ओहदा इसी से बढ़ता है। कैसा देश है कि मानो कोई कुछ करना ही नहीं चाहता। ‘बिके हुए नॉनसेन्स पिट्ठू’ सोचते हुए उन्होंने पीछे घूमकर देखा और कहा-‘‘आप लोग जाना चाहेंं तो वापिस जा सकते हैं। आराम करें। मैं नीचे जहाँ पानी गिर रहा है जाऊँगा।’’

सभी वापिस जाने के लिए तैयार हो गए। वे लोग तो शेर के शिकार को आए थे। यहाँ तो इस अंग्रेज सेनाधिकारी के मन में क्या चल रहा है। मालूम नहीं। कहकर वे लोग हंसने लगे।

लेकिन उनके साथ दो अंग्रेज आॅफिसर और दोनों मज़दूर नीचे गए।

गोल घुमावदार कंटीली पगडंडी पर आगे-आगे जाते मज़दूर इन अंग्रेजों के लिए रास्ता बना रहे थे। बल्कि कोई पगडंडी थी ही नहीं। बस झाड़ियों, पेड़ों की अड़चन थी। जिनकी शाखाओं को ये मजदूर बैटमेन काट रहे थे। जॉन स्मिथ तेज़ी से आगे बढ़ रहे थे।

तभी एक काला सर्प जॉन स्मिथ के अंदाज से, तीन-चार फुट लंबा तो होगा, निकला। मजदूरों ने सिर हिला दिया-‘‘साहब उसे जाने दीजिए। वह डर गया है। वह अपने आप चला जाएगा।’’ जबकि अंग्रेज अफसर उसे मारना ही चाहते थे। घंटों की अथक मेहनत के बाद जॉन स्मिथ जहाँ खड़े थे, वहाँ चट्टान को काटकर केव्ज़ बनाई गई थीं। इसकी मेहराब (कमान) वे दूर से देख पा रहे थे। साथ आए दोनों अंग्रेज अफसर गिरते झरने के पास ही रुक गए थे।

जॉन स्मिथ खुशी से चिल्ला पड़े।

‘‘ये तो केव्ज़ हैं।’’ सबसे पहले उन्होंने जो देखा वह बुद्ध की विशाल मूर्ति (लार्ज स्कल्प्चर) थी। वे आश्चर्य में डूब गए।

साथ आए (भारतीय) मजदूर भी आश्चर्यचकित थे। ‘कैसे इनको इतनी दूर से लगा कि यहाँ कोई रंगित लेणी (रंगीन गुफाएं) होंगी।’

‘‘लेकिन हम यहाँ इतनी दूर आए ही कब? कौन-सा हम शिकार करते हैं। हमें तो जंगली जानवरों का भय ही बना रहता है।’’ एक ने कहा।

अब जॉन स्मिथ तेज़ गति से आगे बढ़ रहे थे। मजदूर उनके पीछे-पीछे दौड़ रहे थे। जबकि उन्हें साफ-सफाई के लिए आगे होना चाहिए था।

अब वे जिस गुफा के समक्ष खड़े थे। वहाँ चमगादड़ों का निवास, मधुमक्खियों के छत्ते और मकड़ी के जाले थे। गुफा दिख रही थी,  लेकिन बगैर साफ-सफाई के भीतर जाना मुश्किल था। एक मोटी डंडी उठाकर जॉन स्मिथ वहाँ के जाले साफ करने लगे। मजदूर झाड़ियों और पेड़ की शाखाओं को हटाने में लग गए। मधुमक्खी के छत्ते को किसी ने नहीं छुआ, न छेड़ा। तय हुआ कि अगले दिन लंबी डंड़ियों में कपड़ा बांधकर उसमें मिट्टी का तेल डालकर लाया जाएगा और उसमें आग लगाकर मधुमक्खियों को हटाया जाएगा।

सामने कई गुफाएं थीं। वे सामने खड़े थे। उन्होंने शिकारी चाकू बाहर निकाला। हो सकता है कोई जंगली जानवर अटैक कर दे। स्थानीय मजदूरों के पास मोटे-मोटे डंडे भी थे, जिसे वे हमेशा साथ ही रखते थे। अगर लोगों का समूह जंगली जानवर पर डंडे से प्रहार करने दौड़े तो वह भाग जाता है। कभी-कभी जानवर क्रोधित भी हो जाता है। तब नुकसान पहुँच सकता है। लेकिन कोई गंध नहीं थी, वहाँ कोई जानवर नहीं था।

जॉन स्मिथ ने अब तक इस देश में अनेक रॉककट मंदिर और ऐसी ही गुफाएं देखी थीं। उनका अध्ययन किया था, खोज की थी। और अपने लेख तैयार करके ईस्ट इंडिया कंपनी को भेजे थे। वे समझ गए थे कि वे कई सौ साल पुरानी तराशी गई गुफा के सामने खड़े थे।

सर्वप्रथम उनकी नज़र जिस केव पर गई थी। वे वहीं वापिस लौटने लगे।

अब वे उसी गुफा के समक्ष खड़े थे। वह (उन्हीं की खोज के परिणामस्वरूप) गुफा नं. 10 थी। उन्होंने इस गुफा के सामने वाले स्तंभ पर अपने शिकारी चाकू से खरोंचकर लिखा-‘28 अप्रैल, 1819-जॉन स्मिथ’ (उन्होंने अपने हस्ताक्षर भी इसी चाकू से खरोंच कर कर दिए।) (28 ३ँ अस्र१्र’ उं५ं’१८ 1819)

शाम का झुटपुटा गहरा गया था। आगे-आगे वह और पीछे-पीछे मजदूर चल रहे थे। एक मजदूर उनके घोड़े की रस्सी थामे था। न जाने क्यों उन्हें उदासी महसूस हुई। शायद इसका कारण यह भी रहा हो कि उनकी खोज को शेयर करने वाला फिलहाल कोई नहीं है।

उन्होंने दूर तक देख लिया था कि यहाँ अनेक केव्ज़ हैं। और बगैर रास्ता बनाए, साफ-सफाई करवाए आगे बढ़ पाना मुश्किल है।

रास्ते में उन्होंने इस सफलता की जानकारी उन दोनों अंग्रेज साथियों को दी। वे खुश हुए। और जॉन स्मिथ को बधाई दी।

(जॉन स्मिथ नहीं जानते थे कि इस फॉरेस्ट के बीच में दूसरी से छठवीं शताब्दी के प्राचीन भारतीय कला के मूर्त रूप की खोज एक इतिहास बन जाएगा। वे पहले योरोपियन हैं, जो पूरे एशिया में रॉककट मंदिरों की खोज का अध्याय लिखेंगे।)

अजंता पहुँचकर उन्होंने आराम किया। और आगे की योजना बनानी शुरू कर दी। निज़ाम की हुकूमत के चलते जॉन स्मिथ ने उन्हें इस खोज की जानकारी भी देना उचित समझा और अपने द्वारा लिखे पत्र में उनसे तुरन्त ही केव्ज़ की साफ-सफाई का अनुरोध किया।

निज़ाम हैदराबाद के भेजे कर्मचारी-मजदूर अपने कार्य पर लगते उससे पूर्व उन्होंने स्वयं यहाँ के मजदूरों को लेकर वहाँ की सफाई का कार्य शुरू करवा दिया। उनके साथ अजिंठा (अजंता) ग्राम का एक बड़ा समूह था, जो साफ-सफाई में मेहनत से लग गया।

एक के बाद एक केव्ज़ सामने आ रही थीं। तीसरी केव्ज़ की साफ-सफाई के दौरान निज़ाम के भेजे बैटमेन भी आ चुके थे। उनके पास सफाई के संसाधन थे। उन्होंने तेज़ गति से काम शुरू कर दिया था। मधुमक्खियों के छत्ते हटाए गए। चमगादड़ें आवाज़ करती हुईं दूर किसी अन्य खंडहरों की ओर मुड़ गईं। अब वे पहली गुफा के अंदर जा सकते थे। साफ-सफाई के पश्चात उन्होंने देखा कि यह पहली गुफा है, जो बाद में दसवीं गुफा साबित हुई।

जॉन स्मिथ ने इंडिया के कई रॉककट मंदिरों की साफ-सफाई करवाई थी। अत: वे जानते थे कि कैसे सफाई करवानी है ताकि यहाँ के रंगों को, भित्तिचित्रों को कोई नुकसान न पहुँचे। इन पर कुछ आलेख भी अंकित हैं। जिनकी लिपि वे समझ नहीं पाएंगे। अत: उन्हें कुछ इंच के चौकोर टुकड़े दीवाल पर से उखाड़कर लिपि विशेषज्ञों को भेजकर उस काल का पता करना होगा कि वे कब बनाई गई थीं। उन्होंने दीवाल पर से 6७6 इंच का टुकड़ा तराशकर उसे घास-फूस में लपेटकर सुरक्षित रखवा लिया था। उन्होंने यह भी ध्यान दिया कि गुफाएँ सिलसिलेवार नहीं बनी हैं। बल्कि हॉर्स शू शेप (घोड़े की नाल के आकार) के पत्थरों के बीच में बनी हैं। यहाँ पर रंगीन चित्रकारी भी है। और ये सारी केव्ज़ लॉर्ड गॉडेज़ बुद्ध को समर्पित हैं। प्रत्येक केव हिन्दू धर्म के प्रति भक्ति भाव को दर्शाती हैं।

अपना संपूर्ण लेख (राइट अप) तैयार करके और खरोंचे गए टुकड़े को उन्होंने सर जेम्स एलेक्जेंडर को भिजवाए। जो पुरातत्ववेत्ता हैं और लगातार इसी दिशा में कार्यरत हैं। खबर मिलते ही जेम्स एलेक्जेंडर अपनी टीम के साथ यहाँ आ गए। तब तक जॉन स्मिथ मद्रास लौट चुके थे।

1824 में मिलिट्री आॅफिसर और इन्हीं पुरातत्व शोध के लेखक मि. स्कॉटिव यहाँ आए। उन्हें रॉयल एशियाटिक सोसायटी ने सर्वेक्षण के लिए यहाँ भेजा था। वे पहले पुरातत्ववेत्ता और लेखक थे, जिन्होंने अजंता केव्ज़ की पेन्टिंग के बारे में प्रकाशित करवाया था और इसकी सूचना दी थी। यह लेख 1829 में ‘ट्रांस्केशन्स आॅफ ग्रेट ब्रिटेन एण्ड आयरलैंड’ (ळ१ंल्ल२ंू३्रङ्मल्ल२ ङ्मा ३ँी फङ्म८ं’ अ२्रं३्रू रङ्मू्री३८ ङ्मा ॠ१ीं३ इ१्र३ं्रल्ल ंल्ल िक१ी’ंल्ल)ि में प्रकाशित हुआ।

कई ब्रिटिशर ने उनकी इस खोज को अकस्मात खोज (एक्सीडेंटल रिसर्च) कहकर हंसी भी उड़ाई थी। लेकिन अजंता की खोज का श्रेय सिर्फ जॉन स्मिथ को ही जाता है।

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रॉबर्ट के पास उसके पॉकिट में वह राइटअप भी है जो जॉन स्मिथ ने रॉयल एशियाटिक सोसायटी को भेजा था। उसी की नकल उसके पास है। केव्ज़ छप्पन गज की ऊंचाई पर हैं और उसका पूरा क्षेत्रफल 550 गज की नाली के आकार का है। उन्होंने यह भी लिखा था कि केव्ज़ अजंता की सह्याद्री पहाड़ी, चट्टानों पर फैली हैं। उनकी कोई खास जगह नहीं हैं। केव नं. 8 सबसे नीचे मिलती है तो केव नं. 29 पहाड़ की चोटी पर स्थित है।

शाम घिर रही थी। केव्ज़ की जानकारी वहाँ तक जाने का रास्ता समझकर रॉबर्ट ने सोचा अब कल ही वह इस स्थान पर आएगा। लेकिन अजंता गाँव के जानकार लोगों का साथ जाना ज़रूरी होगा। हो सकता है वह जंगल में भटक ही जाए। अभी उसे जंगल का अंदाज़ा नहीं है कि कब शाम घिर आएगी और वह किस ओर निकल जाएगा।

शिमला भी तो वह ऐसे ही गया था। न उन लोगों को रास्तों का ज्ञान था, न ही चढ़ाई का अनुमान।

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आज उसे फ्लावरड्यू की बहुत याद आ रही थी। शिमला प्रवास ज्यों का त्यों उसके आँखों के समक्ष आ गया था।

अचानक ही सोच को विराम लगा जब उसने देखा कि वह अजंता ग्राम के उन मिट्टी के घरों के सामने है। जहाँ से कल कुछ लोग उसके पास आए थे। वह घोड़े से उतर गया। कोई ग्रामवासी दौड़ता हुआ लकड़ी की तिपाई लेकर आया। किसी ने उसे पानी दिया। वह तिपाई पर बैठ गया। उसने पाँच-छह ग्रामीणों को तैयार कर लिया कि कल वे उसके साथ उन गुफाओं की ओर चलें।

एक व्यक्ति चिल्ला पड़ा-‘‘अरे ओ हरी भाऊ... कल अजंता लेणी (गुफा-मराठी में लेणी कहते हैं) जाना है। और भी कौन चलेगा मुझे बता देना। पाँच छह लोग सहर्ष तैयार हो गए। रॉबर्ट की आँखें कल वाली लड़की को खोजने लगीं।

महादेव कोली जाट वह लेनापू गाँव का मुखिया है। इसकी बात सभी को माननी पड़ती है। यह खानाबदोश कहलाते हैं। महादेव कोली सीधे निज़ाम के पास सारी बातें पहुँचाता है।

निज़ाम हैदराबाद ही इनका राजा है। और वही निर्णय लेता है।

पता चला पारो इसी महादेव की बेटी है। यह समुदाय नौटंकी भी करता है। और कपड़ा रंगने का व्यवसाय भी। इनके पास बकरियां हैं, गायें हैं और मुर्गियां भी। कुछ परिवारों ने अपने मकान मिट्टी के बना लिए हैं और कुछ परिवारों ने टैन्ट (कपड़े से बने) लगाए हैं, उसी में रहते हैं। यहाँ पानी की व्यवस्था नहीं है। ये लोग वर्गुणा नदी में स्नान करने, कपड़े धोने जाते हैं। स्त्रियां सिर पर अनाज की गठरी रखकर उसे धोने भी ले जाती हैं। जैसे गेहूँ, ज्वार दूसरा अनाज आदि। सबसे पहले ये लोग बांस की टोकरी में अनाज डालकर धोती हैं। फिर धूप में सुखा देती है। तब तक कपड़े धूल जाते हैं। स्नान हो चुका होता है। यही पानी वाला अनाज जो काफी सूख चुका होता है, उसकी पोटली बांधकर घर ले जाती हैं और खाट (चारपाई) पर सुखा देती हैं। यहाँ पनचक्की में भी आटा पीसा जाता है। और कई परिवार आटा पीसने का भी कार्य करते हैं। अधिकतर यह कार्य स्त्रियां ही करती हैं। बाकी परिवार वहाँ अपना अनाज दे देते हैं और पीसने का कार्य हो जाता है। यह भी इन लोगों का एक व्यवसाय है।

रॉबर्ट ने जाना और समझा कि बड़े-बड़े पत्ते वाले पेड़ से पत्ते तोड़कर प्लेट की तरह पत्तल और कटोरे की तरह दोने बनाए जाते हैं। दोना-पत्तल साथ-साथ बेचे जाते हैं। यह पेड़ ढाक के पेड़ कहलाते हैं। कितना अच्छा है ना साफ-सुथरे पत्तों से प्लेट-कटोरी बनाना और फिर वॉश करने की ज़रूरत ही नहीं... खाकर फेंक दो।

ऐसे ही दोना-पत्तल में उसे कुछ खाने को दिया गया। सामने पारो खड़ी थी। वह हड़बड़ा गया। दोने में गुड़ के सेव थे। और पत्तल में कढ़ी-चावल और आलू की सब्जी। उसने थोड़ा-सा खाया। कढ़ी में उसे मजा आया। मद्रास में चावल का ज्Þयादा ज़ोर था। कलकत्ता में दूध की मिठाई और बर्मा में समुद्री मछली आदि। गुड़ के सेव का एक टुकड़ा उसने उठाकर खाया। उसे अच्छा नहीं लगा, परन्तु उसने कौर निगल लिया।

पारो को भरपूर नज़र से देखता हुआ वह घोड़े पर चढ़ा और अजंता ग्राम से दूर आ गया। फिर वह अपनी बारादरी की ओर आ गया। उसने देखा था कि पारो भी उसकी ओर देखकर कुछ शरमा-सी रही थी। शरमाना इंडियन औरतों का विशेष गुण है, जिसका उसे ज्ञान था।

जयकिशन ने रात के खाने की सारी तैयारी कर ली थी। वह आकर आरामकुर्सी पर बैठ गया। फिर सारे दिन के पसीने वाले कपड़े उतारकर जॉय के हाथ में पकड़ा दिए। ठंडे पानी से स्नान के पश्चात उसे राहत मिली। टेबिल पर शराब का पैग भरकर जयकिशन ने रखा और खाने-पीने की चीज़ें सजा दीं।


शराब का घूंट भरते हुए उसने देखा पेपरवेट के नीचे वह पत्र दबा है जो 1844 में रॉयल एशियाटिक सोसायटी द्वारा ईस्ट इंडिया कंपनी को भेजा गया था। उसने पत्र पुन: पढ़ा। पहली बार उसे अपने भाग्य पर गर्व हुआ। वह मेजर भी है और ईस्ट इंडिया कंपनी ने उस पर भरोसा भी किया है कि वह अजंता की पेन्टिंग, फोटोग्राफी का काम अच्छे से कर सकेंगा। उसका कला की ओर झुकाव की ही अनुशंसा की गई थी। उसने आँखें मूंद लीं। दिन भर की थकी हुई आँखों की जलन को ठंडक मिली। क्या फ्लावरड्यू यहाँ आएगी? बार-बार यह प्रश्न उसकी बंद और खुली आँखों के समक्ष आ खड़ा होता है। टैरेन्स भी अगर ड्यू के साथ यहाँ आ जाए। चारों तरफ लंबे-ऊंचे पेड़ों से अच्छादित यह बारादरी निश्चय ही टैरेन्स को पसंद आएगी। फ्लावर को क्या अच्छा लगेगा क्या नहीं वह सोच नहीं पा रहा है।

न जाने दिमाग कहां-कहां दौड़ रहा था। कुर्सी से टिके टिके उसे नींद आ गई।

पंद्रह-बीस मिनट की नींद से उसे ऊर्जा महसूस हुई। अप्रत्याशित खामोशी चारों ओर थी। दिन ढल चुका था। इसलिए हवा में और ज्Þयादा ठंडक थी। गाँव के कच्चे-पक्के घरों में पीली मद्धिम रोशनी थोड़ी ही देर में फैल जाएगी। आकाश में लौटते पक्षियों का कलरव उसके कानों से टकरा रहा था। वे सभी पंख फड़फड़ाकर अपने घौसलों की ओर जाने की उतावली में थे। कितना शोर है... पक्षी लौट रहे हैं... गाँव के हर घर में एक परिवार है, हंसी है वहाँ... वेदना है, दु:ख है। लेकिन उन्हें सबका साथ है। और वह? परिवार होते हुए निहायत अकेला है।

उसने टैरेन्स को एक लंबा-सा पत्र लिखा, साथ ही फ्लावरड्यू के लिए भी लिफाफा बनाया। लिफाफे उसने सेना के आॅफिस बॉम्बे भेज दिए। यथाशीघ्र उसे गंतव्य तक पहुँचाने की व्यवस्था की जाएगी। उसने फ्लावरड्यू से अनुरोध किया है कि वह अकेला महसूस कर रहा है। वह बच्चों के साथ यहाँ आ जाए। बारादरी अच्छी है। तुम्हें पसंद आएगी। जानती हो न मुझे इन भित्तिचित्रों की पेन्टिंग करके ग्रेट ब्रिटेन भेजना है। आ जाओ फ्लावर... तुम्हारा रॉबर्ट।

मद्रास की मुलाकातों से रॉबर्ट समझ गया था कि एनी उससे शिद्दत से जुड़ चुकी है। अचानक ही एक छोटी-सी सूचना उसे मिली थी कि एनी इंग्लैण्ड वापिस जा रही है। शायद निकल भी चुकी होगी। उसकी माँ बीमार है ऐसा पता चला है।

कल सुबह जल्दी ही वह गाँव वालों के साथ अजंता केव्ज़ की ओर निकल जाएगा उसने सोचा। जयकिशन ने बड़ी कांच का लैम्प, तिपाई पर लाकर रख दिया। पूरा कमरा रोशनी से भर उठा। लेकिन हर कोने की दीवार अंधेरी थी और उसमें लैम्प की लौ कांप-कांप कर अजीबो-गरीब आकृतियां बना रही थी।

’’’

रात का वही रूटीन... जयकिशन का तिपाई पर गिलास और खाने की चीज़ें रख देना। रेड वाईन, इंडियन नाश्ते... रात को सिर्फ बॉइल्ड चिकिन या अगर फ्राईड फिश शराब के साथ ले ली हो तो चिकिन स्किप... वही हुआ प्लेट भर फ्राईड फिश खाकर पेट भर गया। डिनर को नहीं में सिर हिलाकर रॉबर्ट सोने चला गया। सुबह जल्दी ही जाना होगा। भले ही हवा में ठंडक लगती हो लेकिन नौ-दस बजे तक धूप भी तेज़ और ठंडक खत्म।

बिस्तर पर लेट तो गया लेकिन नींद नहीं आ रही थी। खिड़की से झाँकते तारे... यह पूरा आकाश सभी देख रहे होंगे चाहेंं वह पृथ्वी के किसी भी कोने में हों। फ्लावर ड्यू, लीसा, एनी, टैरेन्स, एल्फिन। सभी अपने-अपने ढंग से आकाश देख रहे होंगे। वह भावुक तो नहीं था लेकिन उसमें रिश्तों के प्रति भावना थी। यदि भावुक होता तो वह इंग्लैण्ड छोड़ ही नहीं पाता।

उस दिन लीसा की आँखें सूखी थीं। जब वह उसके घर से जा रही थी। मि. ब्रोनी ने कहा था-‘‘बहुत यथार्थवादी हो तुम रॉबर्ट।’’ उनका कहने का मकसद होगा ‘‘बहुत दुनियादार इंसान हो तुम।’’ ग्रीनरूम की खिड़की से झाँकती उसकी चमकीली ब्राउन आँखें उसके साथ सारी ज़िंदगी यों रहेंगी उसने सोचा भी न था। वहीं आँखें जो कुछ ही पल में आँसुओं से डबाडब भर गई थीं। और उसकी दृष्टि को धुंधला रही थीं। मैंने अपने जीवन की आहुति दी है अपने कार्यों को प्राथमिकता देकर। लेकिन वह आज बहुत स्वार्थी होकर सोच रहा है कि हर इंसान चाहता है कि वह मृत्यु के पश्चात भी जीवित रहे। अपने कार्यों से... क्या उसने ऐसे कार्य किए हैं कि वह सदियों तक जीवित रहेगा। नींद की आगोश में जाती उसकी वह आँखें देख पा रही थीं... लीसा की वे आँखें... अगाथा की पत्थर होती आँखें, और जहाज पर चढ़ती फ्लावरड्यू की वे आँखें... रूठकर जाती फ्लावर ड्यू... उन आँखों में याचना थी कि रॉबर्ट दौड़ता हुआ आएगा और उसे जहाज से उतार लेगा। वह उसके पास वापिस लौटना चाहती थी। रॉबर्ट ने उन आँखों को पहचान लिया था। रॉबर्ट अब आँखों को पहचानता है। वे आँखें जो सब कुछ कह जाती हैं। क्या रॉबर्ट के भीतर गिल्ट थी... जहाज लंगर छोड़ चुका था। चाहकर भी रॉबर्ट कुछ नहीं कर सकता था। लहरें दूर ले जा रही थीं फ्लावरड्यू को।

हमेशा बहाव के विरुद्ध तैरा है रॉबर्ट... लेकिन अब थकान आने लगी है। लेकिन उसका अहं आज भी उसके साथ है। वह तैरता रहेगा बहाव के विरुद्ध। कभी बहाव के साथ किनारे पर नहीं लगेगा। यह तो हार होगी उसकी... और वह हारना नहीं जानता। चाहें वह ज़मीन पर लड़ा गया युद्ध हो या विचारों का युद्ध (वैचारिक युद्ध) सोचता हुआ वह नींद के आगोश में चला गया। जयकिशन ने लैम्प को आले में रखकर बत्ती धीमी कर दी। इतनी धीमी कि कोई आकृति न बने। उसने रॉबर्ट को चादर ओढाई और खुद सोने चला गया।

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सुबह सोकर उठा तो हवा ठंडी और तीखी थी। वह फरवरी का महीना था। ऐसी हवा न मद्रास में मिली और न बेंगलोर में। उसने रात के विचारों को झटका देना चाहा लेकिन वहाँ तो कोई विचार थे ही नहीं। वह वर्तमान में खड़ा था अपने कर्तव्यों के प्रति सजग...।

लंबे काले चमचमाते जूतों के अंदर उसने अपना ट्राउज़र भीतर खोंस लिया। झालर लगी सफेद शर्ट... लाल सफेद ठंडा कोट और कमीज़ पर काली बो। कमीज़ को उसने ट्राउजर के अंदर करके बैल्ट लगा लिया। सफेद रूमाल जो पॉकिट से झाँक रहा था। दूसरे पॉकिट में चेन से लगी लटकाने वाली गोल घड़ी। उसका कैप, एक राइटिंग पैड और काली पेंसिल... उसने कैमरा ले जाने को मना कर दिया था। रॉबर्ट ने भरपेट नाश्ता किया था। चार अंडों की सब्जी डाली हुई भुर्जी, दो रोटी जिसमें घी लगा हुआ था। जयकिशन उसे परोंठा बोलता था। गिलास भरके मेहनत से निकाला गया संतरे-मुसम्बी का जूस।

घोड़े पर बैठकर रॉबर्ट ने अपने आपको तरोताज़ा (फ्रेश) महसूस किया। अजिंठा ग्रामवासियों के पास जाकर वह खड़ा ही हुआ था कि महादेव कोली दौड़ता हुआ आया। ‘‘सरकार! हम तो आपके साथ नहीं जा सकेंगे। मेरी बेटी पारो को ताप चढ़ा है। लेकिन ये लोग जाएंगे। हरी भाऊ, शंकर जगदीप, गपाटभाऊ और ये छोरा कन्हैया। छोरे को सब मालूम है सरकार। लेणी तक कैसे जाना है। यह वहाँ जाया करता है झरने में नहाने अपने मित्रों के साथ। ’’

ठीक है महादेव। लेकिन तुम्हारी बेटी को कैसे ताप हो गया?’’

‘‘मालूम नहीं सरकार, लेकिन बहुत ताप में पड़ी है।’’ महादेव ने कहा।

‘‘ओह!’’ रॉबर्ट ने कहा।

घोड़े पर बैठा रॉबर्ट कभी आगे निकल जाता, फिर रुककर उनका इंतज़ार करता। कभी-कभी वे लोग साथ चलते। उन लोगों के पास ऐसा कुछ नहीं था कि रॉबर्ट के साथ-साथ जा सकें। अब वह जगह आ गई थी जहाँ से जॉन स्मिथ ने गुफाओं को पहली बार देखा था। सचमुच हॉर्स शू (नाल) जैसी वह घाटी थी। जहाँ से अजंता को देखा जा सकता था। अजिंठा ग्राम के नज़दीक लेकिन रॉबर्ट की बारादरी से निश्चय ही दूर।

वह घोड़े से नीचे उतर गया। कन्हैया ने घोड़े की लगाम पकड़ ली। सभी के साथ वह घाटी की ओर चल पड़ा। लेकिन ये लड़के अंग्रेज आॅफिसर से पीछे चल रहे थे। इतने सालों में जबसे अजंता की खोज हुई थी, न केवल कच्चा रास्ता बनाया गया था, बल्कि रास्ते के दोनों ओर की कंटीली झाड़ियां काट कर सफाई भी की गई थी। जंगल घना था। नदी में पानी पीने कोई भी जानवर कभी भी आ सकता था।

कन्हैया ने मशक से निकालकर ठंडा पानी रॉबर्ट को पिलाया। बाकी लड़के नदी में पानी पीने चले गए। और हाथ, पैर, चेहरे को भी धोने लगे। पानी ठंडा था। वे आपस में कहने लगे अंग्रेज साहब के साथ आए हैं तो जंगली जानवरों का डर नहीं है, उनके पास बंदूक है। जयशंकर ने उस दिन जब वह गाँव आया था, तब बताया था कि अंग्रेज साहब ने कितने तो, चीते, काले चितकबरे हिरन मारे हैं। एक बार जंगली गेंडे ने इन पर आक्रमण कर दिया था। लेकिन बड़ी बहादुरी से इन्होंने उसको मार डाला था। ये अपने अंग्रेज मित्र एल्फिन साहब के साथ कई बार शिकार पर गए हैं। कई बार वह भी साथ गया है। ये लोग रात भर मचान पर रहते थे। दूर पेड़ में बकरी का मेमना बांध दिया जाता था। जब उसकी आवाज़ सुनकर अपना शिकार खाने जंगली जानवर आता तो वे उसका शिकार करते। रॉबर्ट सर बहुत बहादुर हैं। वे पैदल भी जंगल में दूर-दूर तक निकल जाते हैं। अब गाँव वाले लैपर्ड का मतलब भी समझने लगे थे।

‘‘हां, भाऊ चीता को ही लैपर्ड कहते हैं ना, ये अंग्रेज साहब लोग?’’

‘‘हा! हां! जयकिशन समझाता। वह इतनी बातें बेंगलोर, मद्रास, बर्मा की बताता कि वे लोग आश्चर्य से सुनने लग जाते।

‘‘बच्ची, बच्चा नहीं हैं इनके?’’ ग्रामवासी पूछते।

‘‘अरे, चार-चार बच्चा हैं। एक बच्ची तो बर्मा में मर गई। अठमासी थी न... तब सर को हम पहली बार रोते देखे।’’ कितना कुछ बताता रहता है जयकिशन।

रॉबर्ट ग्रामवासियों के साथ केव नं. एक पर खड़ा था। केव वैसे तो कचरे से मुक्त थी। लेकिन सफाई के बाद दुबारा धूल और सूखी पत्तियां उसमें भर गईं थीं। वह केव के अंदर जाकर खड़ा हो गया। यह एक बड़ा हॉल था। उसने गिना यह बीस स्तंभों पर खड़ा था। स्तंभों पर सुंदर कलाकृतियां तराशी गई थीं। उसने इशारा किया। कन्हैया सामने था।

‘‘ए! कन्हाई इन पिलर्स को साफ करो।’’ उसने पिलर्स की ओर इशारा किया था। वह कंधे पर रखे गमछे से पिलर्स की धूल झटकारने लगा। रॉबर्ट दूर हट गया। धूल हटने के बाद वह चित्रों को देखने लगा। जातक कथाओं पर आधारित इसमें चित्र बने थे। जॉन स्मिथ ने खोजों के पश्चात यह लिखा था कि ये गॉडेस बुद्ध की पास्ट लाइफ (पिछले जन्मों) पर आधारित थीं। जिसे ये लोग पूजा स्थल कहते हैं। यहाँ गॉड बुद्ध की बहुत बड़ी मूर्ति है। जॉन स्मिथ ने जो लिखा था वह इस तरह था कि यह केवल एक मूर्ति नहीं है। जब सूर्य पूर्व में उदित होता है, तब जो रोशनी भीतर आती है वह दाहिने तरफ से आती है तो यह गॉड बुद्ध अति गंभीर भाव व्यक्त करते दिखाई देते हैं। और जब सूरज दोपहर की धूप में होता है तो मूर्ति के बायीं ओर उजाला हो जाता है तब ऐसा लगता है यहाँ के शब्दों में उनके चेहरे पर शांति लगती है। मानो वे तपस्या में लीन हैं।

‘मारा’ उस काल का (समय का) प्यार का देवता है। गुफा की बाहरी दीवार पर उसका चित्र है। मानो वह गॉडेस बुद्ध को रोक रहा है कि प्रेम करो पलायन नहीं। लेकिन इंडियन मायथॉलॉजी के हिसाब से बुद्ध ने पलायन किया था। अब राज-काज छोड़कर अपने प्रश्नों के उत्तर ढूंढ़ने, रॉबर्ट मुस्कुराया... क्या इस संन्यासी को अपने क्वेश्चन्स के आन्सर्स मिले होंगे? वैसे वह जानता है कि गॉडेस बुद्ध पूरी दुनिया में जाने जाते हैं, अपने विचारों और सिद्धांतों के कारण। जैसा कि यहाँ प्रचलित हैं यहाँ के पिलर्स में कोई न कोई कथा अंकित है। यहीं पर दूसरा चित्र है जिसमें बुद्ध की कई मुद्राएं देखने को मिलती हैं। बायीं ओर का जो हॉल है, उसमें शिबी की जातक कथा अंकित है। इसमें राजा शिबी कबूतर को बाज के चंगुल से बचाता नज़र आता है।

कितना सुंदर यथार्थ चित्र बन सकता है, उसने सोचा। रॉबर्ट ने कल्पना में अपने कैनवस पर रेखाएं बनाकर चित्र पूरा किया और उसमें रंग भी भर दिए।

कन्हैया जिसे रॉबर्ट कनाई कह रहा था ने बाकी पिलर्स पर से धूल झटकार दी। रॉबर्ट के मुँह से अपने लिए ‘कनाई’ शब्द सुनकर कन्हैया इतना खुश होता कि भाग-भागकर काम करता।

एक पिलर पर इंडियन मायथॉलॉजी के विवरण के अनुसार नागराज (नाग) के जन्म तथा महिला जो रथ पर बैठी हुई है, वह भी उस जगह का ही दृश्य है। जहाँ पूजा स्थल है, वहाँ की एक दीवार पर पदमपाणी की मुद्रा और उनके जीवन का चित्र खुदा है। गॉडेस बुद्ध के एक हाथ में लोटस (कमल) है जो शांति की निशानी माना जाता रहा है। पदमपाणी की आकृति के समीप एक नारी की आकृति भी चित्रित है। जिसके शरीर पर केवल आभूषण हैं।

यहाँ पर एक दरबार का दृश्य भी अंकित है, जिसमें विदेशी आगंतुक भारतीय राजाओं को कुछ ऐसा दे रहे हैं, जिसे उपहार कहा जा सकता है। बुद्ध की माता मायावती का स्नान करते हुए भी एक दृश्य अंकित है। छत पर जो चित्रकारी उकेरी गई है, उसमें अखाड़े पर लड़ते हुए जानवर दिखाई दे रहे हैं। कुछ पक्षी, फूलों, फलों के भी चित्र अंकित हैं। इनमें रानी अरूंधती झूला झूलती दिखाई दे रही हैं। यहाँ पर सांड की उकेरी गई अद्भुत कलाकृति देखकर रॉबर्ट आश्चर्यचकित रह गया। किसी भी कोने से देखो तो लगेगा कि यह हम पर आक्रमण कर देगा।

अभी वह पहली गुफा ही देख पा रहा था कि उसे लगा कि इनकी चित्रकारी को लेकर वह मंत्रमुग्ध हो रहा है।

‘‘वापिस लौटेंगे कनाई।’’ रॉबर्ट ने कहा।

कन्हैया फिर खुश... भागदौड़ करने लगा। उसने रॉबर्ट का घोड़ा थाम लिया और वे लोग अजंता से वापिस लौटने लगे। रॉबर्ट को मीलों पैदल चलने का अभ्यास था। उसे पैदल चलना अच्छा भी लगता था।

‘‘कनाई! ये महादेव कोली की लड़की बीमार है। क्या नाम है उसका?’’ रॉबर्ट याद करने की कोशिश करने लगा।

‘‘सर, पारो नाम है उसका।’’ कन्हैया ने जयकिशन के अंदाज में रॉबर्ट से कहा।

‘‘क्या करती है वह?’’ रॉबर्ट की उत्सुकता जाग उठी थी उसके बारे में जानने की।

‘‘सर, नाच करती है, गाने भी गाती है, लेकिन मराठी में। बहुत अच्छा नाचती है साहब। ये जो महादेव काका है न वह अपने कबीले का मुखिया है। पारो से छोटी एक बहन है। उन दोनों की आई (माँ) तो न जाने कबकी चल बसी। और साब इस कोली समाज का एक लड़का है अन्ना भाऊ का बेटा महावीर। बड़ा दबंग और लड़ाकू है। वह पारो से शादी करना चाहता है। महादेव काका भी चाहते हैं उसी से शादी हो। लेकिन पारो नहीं चाहती उससे शादी करना।’’

जब इतना बड़ा अंग्रेज साहब उससे बात कर रहा है तो कन्हैया सब कुछ उगलना (बता देना) चाहता है कि कैसा है उनका कोली समाज।

‘‘वह शादी महावीर से क्यों नहीं करना चाहती?’’ रॉबर्ट ने पूछा।

‘‘बड़ा मक्कार है साब।’’ फिर उसने होठों पर हाथ रख लिया। डर गया कि वह साहब से कैसे बात कर रहा है।

‘‘मक्कार क्यों कनाई?’’ उसने मक्कार शब्द सुनकर अपने होठों में आई हंसी दबाई।

‘‘सर, मक्कार इसलिए कि वह और भी लड़कियों के पीछे भागता है। वह मृदंग बजाता है। पारो अन्य सहेलियों के साथ नाचती है। और फिर वह उनकी खुली टाँगों को देखता है। सर जी ये लोग छह गज की साड़ी भी ऐसी पहनती हैं कि इनकी टाँगें दिखती रहती हैं।’’

रॉबर्ट ने कन्हैया के हाथ से घोड़े की लगाम ले ली और उस पर कूद कर बैठ कहा- ‘‘कल अजंता केव्ज़ जल्दी चलना है।’’

गाँव के घरों में पीली-पीली रोशनी के दिए और लालटेन टिमटिमाने लगे।

बहुत जल्दी शाम हो जाती है यहाँ, उसने सोचा।

..........

मद्रास में सूर्यास्त के बाद अपने कद से लंबी होती परछाई को देखकर वह सोचता कितनी देर से होती है यहाँ शाम। और जब दोईशाम (गोधूलि) (ळ६्र’्रॅँ३) मिले वह अपने बंगले में घुसता तो देखता कि लॉन में फ्लावर बच्चों के साथ बैठी है। बहुत अनिच्छा से उठकर वह उसके पास आती और कुर्सी से सिर टिकाकर हूँ... हां... में उत्तर देती... आँखें मूंद लेती।

............

बहुत अधिक शराब पी लेने के बाद रॉबर्ट की आँखें मुंदने लगी थीं। लेकिन जयकिशन का आग्रह होता कि ‘‘सर, खाली पेट नहीं सोएं। डिनर लेकर ही सोएं।’’

वह जॉय का कहना मान लेता। खाने के बाद उसे लगता उसे सचमुच भूख लगी ही थी। जॉय एक कटोरी में राई का तेल लेकर आता। और उसके तलवे पर मल देता। खिड़की से आती ठंडी हवा में रॉबर्ट गहरी नींद में सो जाता।

सुबह नींद खुली तो जॉय ने बताया कि कन्हैया आ चुका है। उसने घोड़े को नहलाकर चारा भी उसके सामने रख दिया है।

‘‘सर, शायद कन्हैया आपके पास बैटमेनी करना चाहता है। वैसे वह पूरे गाँव की जानकारी रखता है। यहाँ की बारिश, धूप, सर्दी के मौसम का मिजाज उसे पता है। वह यहाँ के जंगलों के रास्तों की जानकारी भी रखता है।

रॉबर्ट ने स्वीकृति में सिर हिलाया।

जयकिशन खुश हो गया। उसे भी कन्हैया पसंद था।

रॉबर्ट ने हैवी ब्रेकफास्ट लिया और बाहर निकला तो कन्हैया ने झुककर उसे गुडमार्निंग कहा। वह मुस्कुरा उठा। आज फेंटम शरीर से चमकीला और खुश दिख रहा था।

मशक में पानी भरकर घोड़े की गर्दन के पास लटका दिया गया था। रास्ते भर की हवा से यह पानी ठंडा हो जाता था।

हॉर्स शू पॉइन्ट के पास पहुँचकर रॉबर्ट घोड़े से उतरा और घोड़े की रस्सी कन्हैया को पकड़ाकर पूछा- ‘‘कैसी तबियत है पारो की?’’

‘‘बहुत ठीक है, सर जी। दरअसल उसे एक डास ने काटा है, इसीलिए ताप हो गया उसे।’’

रॉबर्ट की समझ में कुछ नहीं आया। फिर भी उसने कयास लगाया कि किसी कीड़े ने काटा होगा, तो वह बीमार है।

अजंता ग्राम के सामने से निकलते हुए कन्हैया ने ज़ोर से सीटी मारी तो बाकी लड़के भी अपनी थैली में खाना लेकर तुरन्त आ गए। थैलों में दूसरे कपड़ों के पैबंद लगे थे। बहुत गरीब है इंडिया तभी तो विदेशी अपनी हुकूमत करते आए हैं।

आज दूसरी गुफा के सामने रॉबर्ट खड़ा था। कुछ ही समय में लड़के भी वहाँ पहुँच गए। घोड़े को उतराई में बांध दिया गया था।

कन्हैया ने मशक उतारकर कंधे पर टाँग लिया। सभी ने अपनी खाने की थैलियां उतारकर झाड़ पर लटका दीं। गपाट भाऊ नदी की ओर चला गया। उसके हाथ में छोटी-सी मटकी थी, जो उसने पहले ही दिन यहाँ छोड़ दी थी। कन्हैया को कुछ कहने की ज़रूरत ही नहीं थी। वह एक के बाद एक गुफा की सफाई करता जाता। तब तक रॉबर्ट साफ की गई गुफा का अवलोकन करता।

‘‘ए रे लेणी नं. 2 की सफाई करो।’’ कन्हैया ने लड़कों से कहा। वे लोग दौड़-दौड़ कर काम करने लगे। उन्हें यह अंग्रेज साहब बहुत पसंद आया था। इन चारों कार्यरत मजदूरों को प्रति दिन का पैसा निज़ाम द्वारा दिया जाता। काम मिल जाने से ये लोग बहुत खुश थे।

महावीर को जब ये बात पता चली कि इन लोगों को प्रति दिन रुपए मिल रहे हैं तो वह बहुत दु:खी हुआ कि पहले ही महादेव काका की बात क्यों न मान ली। वाद्य बजाने में कौन-सी कमाई थी?

रॉबर्ट को अजंता ग्राम आए एक महीना हो चुका था। अभी दूसरी ही गुफा के समक्ष वह खड़ा था।

गुफा में प्रवेश करते ही रॉबर्ट इधर-उधर देखने लगा। इंडिया में जहाँ कहीं भी वह घूमा है गॉडेज बुद्ध के मंदिर बहुत देखे हैं। लेटे बुद्ध, विशाल मूर्ति बुद्ध की, उपदेश देते बुद्ध, बुद्ध के माता-पिता का वर्णन, उनकी पत्नी और एकमात्र बेटा जिसे वे छोड़कर जा रहे हैं। उसे गॉडेज बुद्ध की गाथा हमेशा ही रोचक लगी है। जब वह कलकत्ता से तक्षशिला की ओर गया था तब भी उसने वहाँ बुद्ध की संपूर्ण गाथा के स्थल देखे थे। जिसे तीर्थस्थल कहा जाता है।

उसने देखा कि गुफा के बायीं ओर हंस के जन्म की कथा दर्शायी गयी है। वह यह सब इसलिए भी समझ पा रहा था क्योंकि उसने जॉन स्मिथ द्वारा लिखा पूरा वर्णन अच्छे से पढ़ लिया था।

बुद्ध की माता अपने पति को अपना सपना सुना रही थी। यहाँ पर बुद्ध का जन्म और बुद्ध के माता-पिता उसे प्यार करते हुए पत्थर पर उकेरी गई चित्रकारी में स्पष्ट रूप से दृष्टिगत हो रहे हैं। उसी कमरे में बुद्ध की एक आकृति है, जिसकी छत पर हंसों का एक बड़ा समूह (ग्रुप) दिखाया गया है। जॉन स्मिथ ने यहाँ के विद्वानों से मिलकर, समझकर न केवल यहाँ दर्शाई गई कथाओं का जीवन्त वर्णन किया है, बल्कि उसकी चित्रकारी के लिए राह भी प्रशस्त कर दी है। अन्य चित्रों में (जो कि ईसा पूर्व बनाए गए थे) कुछ चित्र ऐसे भी हैं जिनमें आज की कुछ महत्वपूर्ण चीज़ें दिखाई देती हैं। जैसे गले में लपेटने वाला मफलर, एक ऐसी कोई आकृति जिसे बटुआ कहा जा सकता है। जिसमें पैसे रखे जाते हैं। और अन्य कुछ ज़रूरी पर्चियां, जिन्हें हमेशा पास रखना ज़रूरी होता है। पैरों में पहनने की चप्पलें, जो न चप्पलें दिख रही हैं, न खड़ाऊ। लेकिन पैर में पहनी जा सकती हैं। गॉडेज बुद्ध की आकृति जहाँ है उसे पूजा स्थल कहा जा सकता है। यहाँ अखाड़े जैसा आभास होता है। यहाँ गॉडेज बुद्ध की कई आकृतियां हैं। बाहर की ओर कई पिलर्स (स्तंभ) हैं। छत पर सुंदर पक्षियों की आकृति उकेरी गई है।

रॉबर्ट गुफा के बाहर बैठ गया। वह लगातार सिगार पीता रहा। कन्हैया उसके साथ था। उसने मशक से एक मिट्टी के लोटे में पानी निकालकर रॉबर्ट को दिया। उसने खाने की आज्ञा माँगी। रॉबर्ट के सिर हिलाते ही सभी पेड़ पर से अपने थैले उतारकर नदी की ओर भागे।

उसने कुछ खाया नहीं। वह गुफा नं. तीन के सामने खड़ा था। तब तक वे लोग चार नं. की गुफा साफ कर रहे थे। तीन नं. की गुफा में भी कुछ नहीं था। कन्हैया ने आकर बताया-‘‘सर, तीन नं. की लेणी अधूरी है। इसमें कुछ नहीं है।’’

रॉबर्ट भीतर गया। यह सचमुच अपूर्ण गुफा थी। लेकिन यहाँ ठंडक थी।

‘‘कनाई, थोड़ी देर यहाँ बैठूंगा। डिस्टर्ब नहीं करना।’’ भाषा भले ही कठिन लगे, लेकिन रॉबर्ट के नौकर बात को समझ लेते थे।

‘‘जी सर!’’ कन्हैया बाहर निकल गया।

रॉबर्ट ने खुरदुरी चट्टान से सिर टिकाया। चारों ओर शान्ति थी। झींगुरों की आवाज़ थी। जो दिन को भी आ रही थी।

दूर-दूर तक फैला जंगल भी शांत था। उसने आँखें मूंद लीं। पत्र पहुँच गया होगा टैरेन्स को। और फ्लावरड्यू को भी। फ्लावरड्यू आ जाए तो कितना ठीक होगा। उसे बच्चों की याद भी आ रही थी।

क्या फ्लावरड्यू नहीं सोचती होगी कि रॉबर्ट अकेला है। उसके पास जाना ज़रूरी है।

आज वह व्याकुल हो रहा था। वह स्तंभित भी था। कैसे -कैसे काम उसने अपने ऊपर ले लिए थे। शहर से दूर इस जंगली इलाके में आदिवासी (बंजारा) लोगों के बीच वह बारादरी में रहने आ गया।

चाहता तो इस प्रस्ताव को ठुकराकर वापिस लंदन लौट सकता था। रॉबर्ट हमेशा ही दो नावों पर सवार रहता है। जो डगमगाती रहती है। निर्णय तो हमेशा स्वयं ही लेता है। लेकिन फिर अधिकतर पछतावे में रहता है।

न जाने कब उसकी नींद लग गई।

जब कान के पास आकर मच्छरों ने गुनगुनाया तो वह हड़बड़ाकर उठ बैठा। जंगली इलाका और इस क्षेत्र की इतनी जानकारी भी नहीं और यहाँ मच्छरों का प्रकोप था।

कन्हैया बाहर ही बैठा था। रॉबर्ट के जागते ही सामने आकर खड़ा हो गया।

‘कनाई, चलते हैं। वरना रास्ते में ही रात हो जाएगी।’’ रॉबर्ट ने कहा।

‘‘जी सर, चीता भी आसपास ही कहीं घूम रहा है। परसों रात तो हम लोग जलती मशाल लेकर उसके पीछे दौड़े थे। मालूम नहीं कहां छुप गया।’’ कन्हैया ने कहा।

रॉबर्ट ने सोचा-यहाँ के लोग जंगली जानवरों से डरते नहीं हैं, बल्कि सभी मिलकर सामना करते हैं।

वे लोग लौटने लगे। ऊपर चढ़ाई पर हॉर्स शू व्यू से रॉबर्ट घोड़े से वापिस लौटता था।

आसमान में पक्षी झुंड के झुंड बनाकर वापिस लौट रहे थे। दूर पहाड़ की चोटियों पर बादल तैर रहे थे। काले पेड़, काले पहाड़ क्योंकि सूर्य दूसरी तरफ डूब रहा था। रॉबर्ट ने देखा गिलहरियां कोई फल अपने दोनों हाथों में पकड़कर कुतर रही थीं। कन्हैया ने बताया-‘‘ये गूलर के फूल हैं सर।’’

वह अपने कमरे में पहुँचा ही था कि देखा दरवाजे के पास लैम्प की रोशनी में एक लंबी परछाई डोल रही है। रॉबर्ट बाहर आया। उसी समय जयकिशन भी आया। सामने पारो खड़ी थी। उसके हाथ में बहुत बड़ा तरबूज था। वह रॉबर्ट को देखकर हड़बड़ा गई। तरबूज को जयकिशन के हाथ में देते हुए बोली-‘‘यह अंग्रेज साहब के लिए बाबा ने भिजवाया है।’’

‘‘हां, सर यहाँ के तरबूज बहुत मीठे और लाल होते हैं। यहाँ के सारे फल ही बहुत मीठे होते हैं।’’ जयकिशन ने कहा।

रॉबर्ट मुस्कुराया-‘‘सचमुच यहाँ के लोग भी बहुत स्वीट हैं।’’ समझने न समझने के बीच पारो मुस्कुरा दी।

पारो की मुस्कुराहट में एक खिलापन था। उसने बालों को कसकर जूड़ा बांधा था और उसमें शेवंती के फूलों की वेणी लगाई थी।

एक कंधा खुला था और खूब कसकर बांधा हुआ कपड़ा जो उसके स्तनों को ढके था। पैरों में धातु की पायलें। किसी भी कोण से देखो पारो सुंदर थी।

जयकिशन भी असमंजस में खड़ा था।

रॉबर्ट ने कहा-‘‘अपने बाबा को शुक्रिया कहना।’’ और वह पलटकर अपने कमरे में आ गया।

जयकिशन को न जाने क्यों लगा कि पारो अपनी इच्छा से आई है।

उसने पारो को जाने का इशारा किया।

‘‘मालूम है न, चीता घूम रहा है आजकल तुम्हारी बस्ती की तरफ।’’ जयकिशन ने कहा। रॉबर्ट को पारो की पायलों की गूंज दूर-दूर तक सुनाई देती रही।

’’’

नाश्ते की टेबिल पर लाल-लाल तरबूज चौकोर टुकड़ों में कटा रखा था। अनन्नास (पाइनएपिल) और अन्य फलों के साथ आलू के परोंठे और स्वादिष्ट चटनी, उबले करीने से काटे हुए अंडे। रॉबर्ट खाने बैठा तभी घोड़े की हिनहिनाने की आवाज़ सुनाई दी। कन्हैया आ गया था। घोड़े की पीठ पर तेल मलकर उसे नहला रहा था।

रॉबर्ट ने चम्मच से तीन-चार टुकड़े तरबूज के लेकर मुँह में रखे।

‘‘जॉय तरबूज तो बहुत मीठा है।’’

‘‘हां, सर यहाँ के सभी फलों में खूब मिठास है।’’ अभी जब मौसम आएगा तो यहाँ के और भी फल आपको अच्छे लगेंगे।

लेकिन मुझे तो तरबूज बहुत मीठा लगा। सोचकर रॉबर्ट मुस्कुराने लगा।

रॉबर्ट में यही कमी थी कि जो वह सोचता उसे तुरन्त पाने की चाहत रखता। भले ही गर्मी का मौसम था, लेकिन अजंता ग्राम ही नहीं, इस पूरे इलाके में ठंडक ही रहती थी।

कन्हैया ने झुककर ‘गुडमार्निंग’ कहा। रॉबर्ट घोड़े पर छलांग लगाकर चढ़ गया। और थोड़ी ही देर में घोड़ा और उस पर बैठा रॉबर्ट एक धब्बे के रूप में दिखाई देते रहे। न कोई रूप, न कोई रंग... कन्हैया कितना ही तेज़ चल ले तो भी वह इस अंग्रेज आॅफिसर से पहले नहीं पहुँच सकता। कंधे पर ठंडे पानी की मशक, उसका खाना खाने का थैला।

जब वह हॉर्स शू पॉइन्ट पर पहुँचा तो देखा गाँव के अन्य मजदूर वहाँ पहुँच चुके हैं।

रॉबर्ट एक ऊंचे पत्थर पर एक पैर रखकर अपनी दूरबीन से अजंता केव्ज़ और घाटी को निहार रहा था। हांफता हुआ कन्हैया भी जाकर खड़ा हो गया।

रॉबर्ट ने दूरबीन वापिस गले में लटकाई और नज़दीक आ गए मजदूरों से कहा-‘‘चलो केव्ज़ की ओर। आज काफी काम है।’’

आज गपाटभाऊ घोड़े को नीचे तराई की ओर एक बड़े पेड़ से बांध रहा था। कन्हैया और जगदीप गुफा नं. पाँच को साफ करने में जुट गए।

रॉबर्ट ने कहा-‘‘कल से तुम लोग यहाँ जल्दी पहुँचो। केव्ज़ साफ मिलनी चाहिए.’’

सभी ने ‘हां’ में सिर हिलाया।

यहाँ के पिलर्स साफ करते-करते बहुत समय लग गया। वैसे रॉबर्ट में बहुत अधिक धैर्य नहीं था। न ही अपने काम में वह आलस्य करता था।

वह ऊबकर केव्ज़ के बाहर टहलने लगा।

यह केव बहुत विशाल थी। यहाँ ढेर सारे पिलर्स हैं। वह बाहर टहलने लगा। जल्दी ही उसे यहाँ की रिपोर्ट भेजनी होगी।

कन्हैया ने बाहर आकर कहा-‘‘आइए सर।’’

वह अंदर गया। पिलर को हाथ लगाया ही था कि पायल की छन-छन उसे सुनाई दी। उसने पिलर को पुन: हाथ लगाया। फिर पायलों की छम-छम...। पारो ने उसकी ज़िंदगी में दस्तक दे दी थी। यह कल रात वाली आवाज़ थी।

इस केव में 28 पिलर्स हैं। अंदर घुसते ही केव के द्वार पर सुरक्षा कर्मचारी (सामान्य द्वारपाल) अंकित हैं। अंदर जिसको पूजा स्थल बोला जाता है, वहाँ गॉडेज बुद्ध की छह खड़ी मूर्तियां बनी हैं। जैसा कि जॉन स्मिथ ने अपनी रिसर्च में लिखा है यह मूर्तियां दुनिया के आठ भय से बचाती दिखाई देती हैं। यदि जॉन स्मिथ अपने रिसर्च पेपर्स नहीं भेजते तो रॉबर्ट को यह सब समझने में काफी दिक्कत महसूस होती। मि. जॉन स्मिथ ने अन्य पुरातत्वविदों से ली जानकारी के आधार पर यह पेपर्स लिखे थे। केव पाँच और छह भी उसने जल्दी-जल्दी देख डालीं। केव पाँच अधूरी बनी छोड़ी गई हैं और उसमें कुछ आकृतियां गॉडेस बुद्ध की ही हैं।

कन्हैया ने गुफा नं. छह भी साफ कर दी थी। उसने जब उस केव में प्रवेश किया तो उसने देखा कि यह केव काफी बड़ी है और इसमें दो मंजिलें हैं। बाहर सभा कक्ष है, जिसमें गॉड बुद्ध की पद्मासन मुद्रा में मूर्ति की आकृति है। दोनों हाथ अपनी पालथी पर रखे गॉड बुद्ध मेडीटेशन (ध्यान मुद्रा) में आँखें बंद किए बैठे हैं।

28 पिलर्स... और यह अलग ... इसका सभा कक्ष (मीटिंग हॉल) भी पिलर्स वाला है। इसके प्रवेश द्वार (मुख्य दरवाजे) पर मगरमच्छ और फूलों की सुंदर आकृतियां तराशी गईं हैं।

रॉबर्ट के दिमाग में सर्वप्रथम इन केव्ज़ के रेखाचित्र घूमे। फिर पेन्टिंग बनेगी, वह भी तैलीय चित्र। उसे लगा वह व्यर्थ ही अपना समय बर्बाद कर रहा है। क्या एक-एक केव्ज़ के रेखाचित्र पेन्टिंग बनाकर आगे नहीं बढ़ा जा सकता। लेकिन नहीं ऐसा ठीक नहीं है। उस सम्पूर्ण चित्रकारी की थीम बनानी होगी। समझना होगा कि करना क्या है।

आज उसे हल्की-सी भूख लगी। सभी कर्मचारी पहाड़ से गिरते झरने और नदी के पास खाना खाने चले गए। कन्हैया ने उसके हाथ में बॉइल्ड चिकन और एक पतली रोटी की प्लेट थमा दी। उसने रॉबर्ट के पास पानी भी रख दिया। और खाना खाने चला गया।

रॉबर्ट बाहर आकर खड़ा हो गया। घने पेड़ों की छाया में वह प्लेट हाथ में लेकर चिकन का पीस कुतरता रहा।

आज उसे कोई भी घटनाएं याद नहीं आ रही थीं। बस दिमाग में थी पायलों की गूंज और हाथ में तरबूज लिए खड़ी पारो।

प्लेट एक ओर रखकर वह वापिस केव में आ गया।

यह सातवें नंबर की केव थी।

यह गुफा अन्य गुफाओं से थोड़ी अलग है। रॉबर्ट ने देखा कि इसमें कोई हॉल जैसा नहीं बना है। हिन्दी में ये लोग इसे मंडप कहते हैं। अर्थात सिर्फ छत और पीछे की एक दीवार है। ऐसे दो छोटे मंडप हैं। एक छोटी पत्थर की बैठने की वेदी (चौकी) बनी हुई है। उस पर गॉडेज बुद्ध की बैठी हुई मूर्ति बनी हुई है। ठीक उनके पीछे की दीवार पर उनके सिर के पीछे उनका आभामंडल है, जिससे उनके तेज़स्वी होने का उनके ईश्वर होने का तथ्य स्पष्ट होता है।

रॉबर्ट ने ध्यान दिया कि इंडिया में गॉड की मूर्तियां या चित्रों में उनका आभामंडल ज़रूर होता है।

आठ नंबर की केव खाली पड़ी है।

इस बीच शाम ढल रही थी। लेकिन रॉबर्ट को अन्य दूसरी केव्ज़ देखनी थीं। धूल झटकारने का समय भी नहीं मिला और वह उसके भीतर चला गया।

यह नौंवीं आयताकार केव थी। रॉबर्ट ने जैसा कि सर जॉन स्मिथ के पेपर्स से स्पष्ट होता है, देखा कि यह एक ही शिलाखंड (चट्टान का एक बड़ा टुकड़ा) से अर्धगोलाकार स्तूप के रूप में निर्माण की गई है। इस गुफा की छत पर चित्रकारी दिखाई देती है। जो किसी समय स्पष्ट रही होगी। अभी अनुमान के अनुसार उतनी स्पष्ट नहीं दिख रही है।

फिर भी इन चित्रों में गॉडेज बुद्ध के विविध मुद्राओं में चित्र अंकित हैं।

सभा केव्ज़ में गॉडेज बुद्ध हैं और खंडित-खंडित उनकी जीवन-यात्रा है।

रॉबर्ट ने कल का दिन निश्चित किया था। औरंगाबाद के आसपास के क्षेत्रों में जाना है और गाँव लेनापू भी देखना है, जहाँ पारो रहती है। इन लोगों के काम के बारे में जानकारी भी लेनी है।

बारादरी से लौटकर उसने एक साथ बॉम्बे से आए तीन लिफाफों को खोला।

सर्वप्रथम सरकारी मोहर लगा लिफाफा खोला, जिसमें उसके कार्य की प्रगति और डेली डायरी तुरन्त भिजवाने का आदेश था। दूसरा पत्र टैरेन्स का था, जिसमें उसने लिखा था वह फ्लावरड्यू और बच्चों के साथ यथाशीघ्र आ रहा है। तीसरा पत्र फ्लावरड्यू का था-

माई लव, तुम्हारे फ्रेंड मि. टैरेन्स से बात हो चुकी है। मैं भी तुम्हारे बिना दूर नहीं रह पा रही हूँ। हमने प्रोग्राम बनाया है। जल्दी ही इंडिया आ रही हूँ। विलियम जॉन बहुत ही शरारती हो गया है। फ्रांसिस एलिज़ा कहती है-डैड इंडिया... लेकिन मन मारकर आ रही हूँ। तुम मुझे कितना अकेला छोड़ देते हो और हर समय काम में डूबे रहते हो। तुम बच्चों को भी समय नहीं दे पाते हो। तुम्हें इंडिया जाकर बहुत कुछ मिला होगा। लेकिन मुझे तो कुछ नहीं मिला। कितने नकली देश में तुम रहते हो। रहना चाहते हो। और हम हैं... कि अपनी खूबसूरत लाइफ को छोड़कर वहाँ जीना चाहते हैं। जहाँ सड़क के हर मोड़ पर ठग और चोर हैं... क्या स्लावाडोर ब्लेंको को छोड़ा ठगों ने? मिसिस ब्रेंको हाथी पर थीं। दोनों बच्चे भी हाथी पर सवार थे। अंग्रेज आॅफिसर घोड़े पर आगे निकल गए थे। तब मिसिस ब्रेंको और बच्चों के साथ क्या हुआ?

क्या हम सुरक्षित हैं, वहाँ?

बहरहाल मैं आ ही रही हूँ। तुमसे कुछ भी कहना निरर्थक है। तुम इंडिया में ही पैदा हुए होते तो ठीक था। लव... ड्यू।

अब ड्यू के संवाद उसे मथते नहीं। वह भी क्या करे? उसे यहाँ रहना पसंद नहीं।

तब तक रॉबर्ट ने तीन-चार पैग पी लिए थे। पाईप में नई तंबाखू डालकर जयकिशन ने उसे जला दिया था।

हाथ में टैरेन्स का पत्र था-

रॉबर्ट, क्या लिखूं? फ्लावरड्यू से पिछले दिनों बात हुई थी। वह आना नहीं चाहती। लेकिन वह आएगी... यों ही परिवार टूटे यह अंग्रेजों की फितरत नहीं। शायद उसके परिवार का दबाव भी होगा कि वह वापिस लौटे। हां! मैं तुम्हारा पुराना प्यानो और माउथ आॅर्गन लेता आऊँगा। जैसा तुमने पिछली बार लिखा था। वैसे भी अब मेरी तरक्की होगी तो प्लेस चेन्ज होगा। प्यानो डैड के बंगले पर पड़ा धूल ही खा रहा होगा। बंगलो पर मैं नहीं जाता। वहाँ माँ हैं... उनकी आँखों के प्रश्नों का उत्तर मैं कैसे दे पाऊंगा? इसलिए प्यानो लेने और कुछ अच्छी किताबें लेने जाऊँगा। माऊथ आर्गन तो नया ही खोजूंगा। पिछला तो तुमने शायद जालना या मद्रास में गुमा दिया है। तुम्हारे लिए अखबारों के बंडल रख लिये हैं। अर्जेन्टाइना की टोबैको भी तुम्हारे लिए ला रहा हूँ। किम अंकल से लाया था। एल्फिन को बता देना मैं आ रहा हूँ। वह भी आ जाएगा मिलने। रॉबर्ट मैं तुम्हें हर समय मिस करता हूँ। ...टैरेन्स।

फ्लावरड्यू को एक पत्र लिखने की उसकी इच्छा हुई।

फ्लावर,

क्यों अपने बनाए दायरे में कैद रहती हो। क्या ब्रिटेन में ऐसी घटनाएं नहीं होतीं? वहाँ क्या आम पब्लिक से पैसा चोरी करना, घरों में चोरी, रास्ते पर लूटपाट नहीं होती? हत्याएं नहीं होतीं? फिर एक अंग्रेज अफसर के साथ जो हुआ वह अकेली एक ही घटना थी। तुमने नहीं सुना होगा लेकिन 1824 में भारतीय सैनिकों के विद्रोह के समय इन्हीं इंडियन्स (इंडियन्स सोल्जर्स) के नेता ने कहा था- लड़ो, लेकिन अंग्रेज औरतों, बच्चों को कष्ट नहीं पहुँचना चाहिए। और उस समय हमारी छावनी में रह रहे परिवारों के हमारे बच्चे बिना डरे उन विद्रोही सैनिकों के पास जाते थे। उनके बच्चों से खेलते थे और सुरक्षित वापिस आते थे। हमारे देश की औरतें अपने बच्चों के साथ हाथी और घोड़े पर 30-40 दिन की यात्रा करके गंतव्य तक पहुँचती थीं और उनके साथ कभी कोई अनहोनी घटित नहीं हुई। सभी यूरोपीयन महिलाएं अकेली भी घूमती हैं। लेकिन जैसा कि मैंने कहा तुमने अपने आपको अपनी सोच के दायरे में कैद कर लिया है। यह सही है फ्लावर कि ये इंडियन्स हमारे जैसे सभ्य नहीं, परन्तु अपनी संस्कृति की हिफाज़त करना जानते हैं। यदि हमें यहाँ शासन करना है तो मानना होगा कि पेड़, पानी, पत्थर को पूजने वाले ये लोग न केवल भोले हैं, बल्कि बहुत सीधे और तुरन्त दूसरे पर विश्वास करने वाले होते हैं। शायद यही कारण है कि इन इंडियन्स पर सदियों से दूसरे मुल्क राज करते रहे। जब तक ये लोग कुछ समझते तब तक देर हो चुकी होती थी। फ्लावर काम की अधिकता प्राथमिकता तो है ही। लेकिन तुम क्या सोचती हो मुझे बच्चों की याद नहीं सताती। अगर उस दिन जहाज पानी की लहरों पर आगे नहीं बढ़ गया होता तो... मैं दौड़कर तुम्हें जहाज से उतार लेता। लेकिन तुम आगे बढ़ रही थीं और मैं तुमसे दूर होता जा रहा था।

कभी-कभी समझ में नहीं आता फ्लावर कि हम चाहते क्या हैं?

ज़िंदगी का हर पल मूल्यवान होता है फ्लावर... मृत्यु तक हमें जीना चाहिए... हम मृत्यु आने से पहले ही मरने लगते हैं। तुम आओ इस बार। हम ज़िंदादिली से जिएंगे। हो सकता है तुम्हें यह विलेज पसंद आए। यहाँ नाटक होते हैं, लोकनृत्य होते हैं। गीत गाए जाते हैं और भी बहुत कुछ। ये मेला लगाते हैं, जिसमें बहुत सारा सामान बिकने आता है। हां! यह सामान हमारे किसी काम का नहीं, न ही रूचिकर है। लेकिन तुम्हें देखकर अच्छा लगेगा। अजंता मेरी कर्मस्थली बन चुका है। इसके अलावा एलोरा, बीबी का मकबरा, दौलताबाद का किला सभी जगह घूमेंगे तो तुम्हें अलग ही एहसास होगा।

शीघ्र आओ प्रिये

रॉबर्ट

 

पत्र उसने एक लिफाफे में डाला। और कटोरी में रखे मिश्रण से चिपका दिया।

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