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तुम औरत हो !

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अब वह इस सबकी आदी हो चुकी है । लंबे बीस वर्ष किसी को भी किसी चीज़ का आदी बना सकते हैं । उसका यहाँ आना मानो इतिहास का एक अध्याय बन चुका है।बीस वर्ष पूर्व का इतिहास ! कितना बदलाव! मन से लेकर ऋतुओं तक में ! जीवन जीने और ढोने की स्थितियों में ! मानो बीस वर्ष नहीं एक युग पूरा हो गया हो ! पूरी ज़िंदगी नहीं बदल जाती क्या बीस वर्षों के अंतराल में?

यूँ तो पूरी ज़िंदगी कभी कभी इतनी जल्दी बदल जाती है जैसे उसकी बदली थी बीस वर्ष पूर्व ! हम मुँह खोले ताकते रह जाते हैं और ज़िंदगी एक झौंके में फुर्र हो जाती है, फिर अचानक रूप बदलकर हमारे समक्ष आ खड़ी होती है । हम सहज ही उसमें उतरते चले जाते हैं, चोला ही बदल जाता है।कभी-कभी ऐसा भी होता है आप खुद को ही नहीं पहचान पाते, आकार, प्रकार सभी में तो बदलाव आ जाता है, प्राण नहीं निकलते बस ! अटके रहते हैं । कहीं घर में, घर से जुड़े हुए मसलों में, जन्म दिए हुए बच्चों में, घर की चारदीवारी में, अपने से जुड़े हुए काम-धंधे में ---बस ---ज़िंदगी ही नहीं होती ! ज़िंदगी का नाम भर होता है जो लपेटे रहता है आदमी को चारों ओर से एक धुंध में ---धुंध, जो उड़ती रहती है यहाँ से वहाँ, वहाँ से यहाँ !उसके मन की धूल भारत से लंदन तक एक गर्द सी बनी उड़ती रही है पिछले बीस वर्षों से, वही गर्द अब धुंध बनकर उसके दिलोदिमाग पर छाई रहती है!

बीस वर्ष पूर्व जब वह पहली बार अकेली 'हिथ्रो'हवाई अड्डे पर उतरी थी, अपने चारों ओर का माहौल देखकर उसके मन में सन्नाटा भर उठा था, साँस लेना भूल गई थी वह !इतना बड़ा हवाईअड्डा ! कहाँ जाए ? किधर से जाए?घबराते हुए अपनी कामचलाऊ अंग्रेज़ी में उसने न जाने क्या पूछा था और न जाने उसे क्या उत्तर मिला था ? हाँ, वह इंगित दिशा की ओर चल पड़ी थी। इंगित दिशा सही है इस बात से स्पष्ट हो गई थी कि जहाँ वह अपना सामान लेने आई थी, वहीं गोल घेरे में बहुत से लोग खड़े थे जो शायद अपने सगे-संबंधियों को लेने आए थे जैसे उसका पति अमन उसे लेने आया था।

गोल घेरे की भीड़ में खड़े हुए अमन ने उसकी ओर हाथ हिलाया, वह आश्वस्त हो गई और आराम से अपना सामान आने की प्रतीक्षा करने लगी । उसकी चतुर बहन ने उसके बड़े से सूटकेस पर लाल रंग का साड़ी का टुकड़ा यह कहते हुए बांध दिया था -

"कितने ही लोगों के एक जैसे ही सूटकेस होते हैं । ये--- वो माता जी की चुंदड़ी है जो हम वैष्णव देवी से लाए थे, देख सुशी तुझे याद रहेगा न ?' बहन ने उसे लाल रंग का कपड़ा सूटकेस पर बाँधकर दिखाते हुए पूछा था।

सुशी यानि सुषमा अपना आँगन छोड़ने की कल्पना करके ही घबराहट से घिरी जा रही थी, उसके आँसू अनवरत बह रहे थे। दीदी थी कि न जाने कितने उपदेश दिए जा रही थीं जैसे वह कोई छोटी सी बच्ची हो और किसी के बहकावे में ज़रूर आने वाली हो । अब अगर इतनी ही बच्ची थी तो उसका ब्याह करने की भला क्या ज़रुरत थी वो भी सात समुन्दर पार ! पर पूरे घर पर एक नशा सा सवार हो गया था जैसे !

'बिटिया लंदन जाकर रहेगी तो समाज में उनके परिवार की नाक कितनी ऊँची हो जाएगी!' उसके मन में विदेश जाने की इच्छा है भी या नहीं ? क्या फर्क पड़ता था किसी को जानकर ? इतने कम समय में सब कुछ तय भी कर दिया और ब्याह भी कर डाला । पता नहीं 'एन.आर.आई' से ब्याह हो गया तो सुर्खाब के पर न लग गए हों जैसे।मिनटों के निर्णय ने उसकी ज़िंदगी बदल डाली थी ।

अमन ब्याह के तुरंत बाद ही लौट गए जैसे 'दर्शन दो घनश्याम'! घनश्याम आए, अपनी राधा --नहीं--रुक्मणी के साथ सात फेरे डाले और वापिस लौट गए ----। माँ, दीदी और सहेलियाँ चिढातीं ---

"अभी तो घनश्याम के दर्शन से हमारी राधा रानी की आँखें भी नहीं तृप्त नहीं हुईं---क्यों सुशी---?"हाँ. दीवानी तो राधा थी न !

ये क्या बात हुई भला ! अँखियों की प्यास दोनों ओर हो तभी तो बात बनती है ! ये क्या हुआ वह आरती का थाल सजाकर बैठी रहे और सामने वाला 'ब्लॉटिंग पेपर'सा अचानक उसके मन की प्यास सुखाकर चलता बने ! पर न ----जो कुछ है माँ के लिए और भी सबके लिए --बस उनका घनश्याम ही तो है, राधा तो नाम भर है । उसे बहुत कोफ़्त हो रही थी ऐसा भी क्या कि आज भी 'वह' तो 'बेचारी'ही बनी रहती है और बाहर से पधारने वाला 'वह' इतना महत्वपूर्ण हो जाता है कि उसके सामने मानो सब बौने पड़ जाते हैं ! बराबरी के दर्ज़े के हिमायती भी उस बाहर से आने वाले 'वह'की आरती उतारते थकते नहीं हैं ।और---अगर ऐसा नहीं था तो विवाह के लिए रखी गई 'संगीत -संध्या' में माँ ने यह ही क्यों गाया था --

'दर्शन दो घनश्याम नाथ मोरी अँखियाँ प्यासी रे---"

माँ उसकी ओर मुँह करके हँस रही थीं और दीदी के साथ सब लोग, उसकी सखियों सहित खिलखिल करने लगे थे। "क्यों दी राधा के लिए तुम्हारे घनश्याम की अँखियों में प्यास नहीं होती क्या? बस राधा के मन में ही दर्शन-प्यास भरी रहती है? "

सुशी को बड़बड़ करते हुए कितनी बार दीदी ने सुना और झिड़क भी दिया था। सबको पता था सुशी में बहुत बचपना है, वह अपनी सखी-सहेलियों को छोड़कर दूर सात समुन्दर पार जाकर खुश नहीं रह सकती !

पर उसे न किसी ने पूछा न राय ही ली । बस रिश्तेदारी में कहीं कोई लड़का उनके मन भा गया और बस हो गया भाग्य का निर्णय !, 

'हुंह--न कुछ जान, न पहचान ! न एक-दूसरे के स्वभाव से परिचय ---वैसे बनते हैं 'मॉर्डन'-- बस ब्याह हो गया तो माँ-बाप गंगा पार उतर गए।'---और बाहर से आने वाला 'वह' बंदा जैसे आँधी सा बनकर आया था वैसे ही तूफ़ान सा बनकर ब्याह के दूसरे दिन लौट भी गया। अब क्या फर्क पड़ता है!अपना ही माल है, कहाँ जाएगा ?' क्या ज़ोरदार तैयारियाँ हुईं थीं उसके देश छोड़ने की ।

अल्हड़ स्वभाव की सुशी बड़बड़ाती रही पर--क्या फर्क पड़ता था?ब्याह के बाद अमन के पीछे-पीछे लटकती हुई महीने भर बाद वह लंदन आ गई थी।फिर जैसे हिंदुस्तान और लंदन के बीच एक तार बंध गया और वह लगभग हर वर्ष उस तार से लटकती हुई सी यहाँ से वहाँ, वहाँ से यहाँ का सफर तय करती रही !

अब तो कहानी में न जाने कितने मोड़ आ चुके थे। अपना कुछ दिखाई ही नहीं देता था बस पति और बच्चे!उनका खाना, उनका पीना, उनकी तीमारदारी, उनका भविष्य? और वह स्वयं कहाँ थी? काम पर जाना उसके हिस्से में भी आया था। हिन्दुस्तानी पति ! कहीं भी रहे, रहना तो रौब मारकर ही है, खाना भी तला-भुना ही है, फिर चाहे उसकी बीबी को नौकरी से लौटकर तेल से भरे हुए बरतनों की चिकास निकालने में पसीने क्यों न छूट जाएं ! वह तो 'सिटिंग रूम' में बैठकर उसके लज़ीज़ खाने की प्रशंसा करके बीबी को बेवकूफ बनाता ही रहेगा !

अमन पत्नी को पुचकारकर रखता।सच्ची --, सदा उसकी काम पर से आने की, उसके सोकर उठने की प्रतीक्षा करता रहता है --वह सोचती बचपना था शादी के समय ! अब सुखी तो है ! कितना ध्यान रखते हैं अमन ! हर वर्ष भारत जाती है, आसान थोड़ी होता है हर वर्ष इतना पैसा खर्च करना?बेशक वह स्वयं भी कमाती हो, जूझती रहती हो गोरों के बीच । जब तक वह काम पर से वापिस नहीं आ जाती तब तक चाय के बिना बैठे रहते हैं, वह आती है तभी दोनों मिलकर चाय पीते हैं, बेशक वह थकी मांदी स्वयं ही चाय बनाकर लाए और अमन बेशक उससे पहले ही पहुंच गए हों घर ---पर हर समय उसके आने की राह तकते रहते हैं !

"कितना काम करती हो ---चलो इस शनिवार को तुम आराम कर लेना । मैं घर भर की, वॉशरूम की ---बाक़ी सब चीज़ों की भी सफाई कर लूँगा।"

सुशी बीस वर्षों से यह सुनती आ रही थी । भारतीय बेटी, भारतीय पत्नी--कहाँ पति से काम करवाने की शिक्षा प्राप्त करती है, बेशक मर भी क्यों न रही हो !

तीन दिन से सुशी का बदन दर्द था । शरीर है --कभी तो थकेगा --छुट्टी लेनी पड़ी । दोनों बेटे अब बड़े हो चुके थे और अपने खाने-पीने का इंतज़ाम खुद कर लेते थे । ऐसा भी कहा जा सकता है कि वे रात को केवल सोने ही घर आते थे । बुखार में भी वह अमन के आने के समय चेतन हो जाती और चाय बनाकर साथ पीने की बाट जोहती।

" अरे ! इस शनिवार को तुम आराम कर लेना, सारा काम मैं करूंगा ।"

उसने कुछ उत्तर नहीं दिया।अगले ही दिन शनिवार था । वह चुपचाप इस आस में लेटी रही कि अमन उसके लिए अभी चाय लेकर आएँगे । आखिर वे एक लंबे अरसे से साथ ही चाय पी रहे थे, खाना खा रहे थे, एक दूसरे की प्रतीक्षा कर रहे थे ---'दर्शन दो घनश्याम'वाली संवेदना दोनों ओर थी । उसका अंतस पति के हाथ की चाय पीने के कोमल खयालात से लरज रहा था ।

" ये क्या है -----कोई ऐसे वॉशरूम को कैसे यूज़ कर सकता है?"

अमन के चिल्लाने की आवाज़ से भौंचक हो उसका अमन के साथ बैठकर उसकी बनाई हुई चाय पीने का कोमल, सुन्दर स्वप्न टूट गया।दोनों बेटे भी दो दिन से बाहर थे, वह बुखार में भी सब काम कर रही थी । कल अमन ही ने तो कहा था, वह सब कर लेगा ---तबियत खराब होने के कारण वह कल भी 'वॉशरूम' साफ़ नहीं कर पाई थी । पर निश्चिन्त थी, आज छुट्टी थी अमन सब संभल लेंगे ।

बामुश्किल पलंग से उठकर वह 'वॉशरूम' की ओर गई ।

" क्या हुआ ---?"

"क्या हुआ ---देखो -- क्या हालत है ? ऐसे में ---"

" --आपको पता है मेरी तबियत ठीक नहीं है फिर----आपने ही तो कहा था--सब काम कर लेंगे---मैं तो चाय का इंतज़ार कर रही थी, मुझे लगा आप चाय बनाकर ला रहे हैं ।"

" ओह! तो तुम्हें क्या लगता है मैं 'वॉशरूम्स' साफ़ करूँगा ?"

" मतलब ---?"

" अरे ! इसमें मतलब क्या हुआ ? ब्राह्मण का बेटा हूँ । मैं यह काम करने के लिए पैदा हुआ हूँ क्या?"

वह जैसे आसमानों में से उड़ती हुई ज़मीन पर गिर गई, उसके पर मानो अचानक ही किसी ने काट दिए थे।उसकी कल्पना की उड़ान डगमगा गई थी।वह क्या और कौन थी?प्रश्न ने सिर उठा ही तो लिया ।

" तो मैं ---मैं किसकी बेटी हूँ----ब्राह्मण की नहीं हूँ क्या?"

" तो क्या ---तुम औरत हो ----"

 

डॉ .प्रणव भारती