Robert Gill ki Paro - 20 - Last Part books and stories free download online pdf in Hindi

रॉबर्ट गिल की पारो - 20 - अंतिम भाग

भाग 20

अचानक हवा का एक झोंका आया और दरवाजा खुल गया। बाहर भी अंधेरा था। रॉबर्ट ने देखा कि दरवाजे की ओट लेकर पारो झाँक रही है। वह खुश हो उठा।

‘पारो को भीतर बुला लो टैरेन्स वह बारिश में भीग चुकी है।’ रॉबर्ट तेज बुखार में था।

टैरेन्स सिहर उठा। वह उठा और दरवाजा बंद कर दिया। पर्दे की ओट लेकर रोया-रोया सा जयकिशन खड़ा था।

पारो... रॉबर्ट ने पुकारा। नहीं कोई नहीं था। केवल अंधेरा। हवा में पत्ते सरसरा रहे थे।

समय रॉबर्ट का पीछा नहीं छोड़ रहा था। पसीने से लथपथ हो चुका था रॉबर्ट अर्थात बुखार उतर रहा था।

एनी ने गीले टॉवेल से उसका स्पंज किया। टेरेंन्स वहाँ से हट गया।

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रॉबर्ट ने सूप पिया। फूली रोटी की पतली मुलायम परत खाई और एनी का हाथ पकड़कर गहरी नींद में सो गया।

एनी ने धीमे से हाथ छुड़ाया और वहाँ से हट गई। उसने टैरेन्स को डिनर के लिए बुलाया लेकिन दोनों खा नहीं पाए। एक दूसरे की तरफ देखते हुए अपनी आँखों को छुपाते रहे। एक खामोश रुलाई ने एनी को जकड़ लिया। वह हिचक-हिचक कर रोने लगी। टैरेन्स ने उसे रोने दिया। शांत हुई तो उसने बताया - ‘टैरेन्स, रॉबर्ट ने मुझे ज़िंदगी जीना सिखाया। तब जब मैं छोटी थी... शायद 20 बरस की... मेरे हाथों में था मुलायम चिकनी मिट्टी का लौंदा... हाथों से आकर दे रही थी और वह मिट्टी का लौंदा मेरे प्रिय की मूर्ति बनता जा रहा था। कभी-कभी मैं सोचती हूँ टैरेन्स फ्लावरड्यू क्यों बार-बार भागती रही रॉबर्ट के पास से... जो अनंत प्रेम से भरा है। और जब मैं मुंबई में मिली थी और मध्य प्रदेश जाने वाली थी तब रॉबर्ट ने मेरा हाथ पकड़ कर कहा था, मत जाओ। मैं किसी का जाना बर्दाश्त नहीं कर सकता। कहकर वह रोने लगी और जब मैं डैड के साथ इंग्लैंड लौट रही थी, तब भी रॉबर्ट ने मुझे रोकना चाहा था। हाँ, तब फ्लावरड्यू चली गई थी। और रॉबर्ट की ज़िंदगी में पारो थी। रॉबर्ट ने कहा था कि तुम्हें ज़िंदगी जीने के लिए जो कुछ चाहिए मैं तुम्हें दूंगा। तुम अपने देश जाने को भी स्वतंत्र होगी। लेकिन अभी मत जाओ। यह कैसी पुकार थी रॉबर्ट की? मैं उससे लिपट गई थी। वह बाम्बे का पोर्ट था - गेटवे आॅफ इंडिया।

मैंने रॉबर्ट से पूछा था, ‘क्या तुम उस इंडियन लेडी से प्रेम करते हो?’

‘हाँ’

‘और मुझसे?’

‘बहुत सारा प्रेम...’ रॉबर्ट ने कहा।

‘कैसे कर लेते हो यह सब?’

मेरे हृदय के कई कोने हैं। सब एक दूसरे से अछूते, प्रेम से भरे। जब तुमसे प्रेम करता हूँ तो तुम ही मेरे हृदय में होती हो। रॉबर्ट ने कहा।

उसे बुरा नहीं लगा। वह जानती है रॉबर्ट इंग्लैण्ड में बहुत कुछ पीछे छोड़ आया है। पत्नी है उसकी और इंडियन मिस्ट्रेस। लेकिन मैं सिर्फ़ तुम्हें प्रेम करती हूँ रॉबर्ट इसलिए बुरा नहीं मानती ... उसने रॉबर्ट का हाथ पकड़ लिया।

जानता था रॉबर्ट समुद्र किनारे मिली यह लड़की ...मूर्ति बनाते उसे एक टक निहारती लड़की ... सब जानता था रॉबर्ट... मैं भी जानती थी कि उसके भीतर एक प्यार भरा दिल धड़कता है।

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जय किशन का हाथ चूल्हे की लपट में जल गया। वह कहीं खो गया था। वह अपने हाथ को लपट के नजदीक लाकर सेंकने लगा। लेकिन जलन असहनीय थी। वह सब के लिए चाय बनाने लगा। सामने टैरेन्स बैठा है। रॉबर्ट कहता है- ‘टैरेन्स, सब कुछ मेरा ‘मैं’ में बदलने लगा है। मेरी हर चाहत जैसे कोई लंबा सफर हो। एक धार्मिक यात्रा ..... एक दुर्गम चढ़ाई ...जिसमें हर पत्थर, हर मोड़, हर बाधा इस ‘मैं’ का गवाह हो जाता है। याद करो जब लीसा का नाटक ‘मैं’ देखने गया था। तुम भी साथ गए थे। ग्रीन रूम की खिड़की से झाँकती आँखें। तुम्हारे साथ शहर भर में भटकना ... तब लीसा और डोरा ही दो नाम थे जो हमारे ‘मैं’ के सामने थे। अब ‘मैं’ किसी गुफा के छोर पर बैठा केवल उसका एक कोना रह गया हूँ। अपनी ही भटकती परछाई को टटोलता। बुखार में तप रहा था रॉबर्ट... पता नहीं कौन-से ज़िंदगी के चित्र उसे उद्वेलित (हाँट) कर रहे थे। एनी उसे सुलाने का प्रयत्न करती है - ‘सो जाओ रॉबर्ट’ एनी ने कहा।

रॉबर्ट मुस्कुरा दिया। एक ऐसी रहस्यमयी खोखली हँसी ... जैसे अंधेरे कोने से रोशनी को टटोलती कोई पुकार। ‘टैरेन्स, मेरी ज़िंदगी एक ठहरी हुई झील है। बहुत कुछ पाया मैंने ज़िंदगी से ...लेकिन खोया भी बहुत कुछ। टप ...टप... टप। देखो टैरेन्स तुम्हारे बंगले की छत पर कैसी बर्फ की गांठ बन गई हैं। पेड़ नंगे हैं कोई पत्ती नहीं। पतझड़ बीत चुका है।’ रॉबर्ट फिर बेहोशी के आगोश में जकड़ा जा रहा था।

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‘मैं अब ठीक हूँ’ रॉबर्ट ने कहा। वह अप्रैल की 10 तारीख थी। बहुत अधिक थकान महसूस कर रहा था रॉबर्ट। यदि वह आँखें बंद करता तो हथेलियां खुल जातीं।

‘खिड़की खोल दो जॉय।’ जबकि उसके कमरे की सभी खिड़कियाँ खुली हुई थीं। खिड़की से अप्रैल महीने की हवा जो (बादलों के कारण गरम नहीं थी) आ रही थी। रॉबर्ट के बालों पर सुनहरी धूप के टुकड़े बार-बार आ जा रहे थे। जो उसके शरीर को भी सुनहरी आभा प्रदान कर रहे थे।

रॉबर्ट के तलवे ठंडे हो रहे थे, जबकि मौसम गर्म था। बाहर बैठा सेवक तेज -तेज पंखे की डोर खींच रहा था।

नाटक की मुख्य पात्र पारो ...कभी राजा हरिश्चंद्र नाटक, कभी संयोगिता बनी, रामलीला में सीता बनी पारो, शरद पूर्णिमा पर कृष्ण के साथ बनी राधा। और नाटक देखने को कपड़े के मोटे पर्दे से झाँकते लोग।

मैं मरना नहीं चाहता... लीसा का डरपोक प्रेमी लोहे की जंजीरों में जकड़ा हुआ ...पर्दा गिरता है।

‘फ्लावर से कह देना टैरेन्स मैं उसके बिना भी मर सकता हूँ।’

कितना लंबा रेगिस्तान है। मेरे भीतर एक अथाह गहरा सागर भी था। नदी की ध्वनि थी और चट्टानों से गिरती सहस्त्रधारा भी। उसने आँखें बंद कर लीं। दूर समुद्र में तैरता वह है अपने आप को देखने लगा। शंख सीपियां बटोरती लीसा समुद्र किनारे थी ...नदी की लहरों में गीली होती पारो ...कल- कल ध्वनि में उछलती पारो... और केव्ज़ में से झाँकती पारो ...और भव्य महल में राजकुमारी सी खड़ी फ्लावर... यह कैसा रेगिस्तान था उसके भीतर। उसने तब केव्ज़ से झाँकती गीली पारो का चित्र बनाया था।

‘देखो, टैरेन्स रेत के हर ढूह पर मेरी एक- एक पेंटिंग जल रही है। अब अजंता में रहा ही क्या? पारो... पेंटिंग फोटो सभी कुछ हथेली से भुरभुरी रेत की मानिंद फिसल गया। देखो टैरेन्स एकदम अकेला हूँ मैं। तुम अभी नहीं जाना ...

देखो, एनी जा रही है, उसे रोको, मैं उसके बगैर नहीं रह पाऊंगा।

एनी ने आगे बढ़कर रॉबर्ट का हाथ पकड़ लिया। बनी पलंग पकड़े खड़ा था। टैरेंन्स ने कसकर रॉबर्ट का हाथ पकड़ लिया। जयकिशन जल्दी-जल्दी रॉबर्ट के तलवे सहला रहा था। जो ठंडे हो चुके थे। रॉबर्ट की आँखें खुली थीं....... पत्थर जैसी।

एनी का हाथ छूटा रॉबर्ट से और एक ओर लटक गया।

एनी बदहवास सी रॉबर्ट के सीने से लिपट गई। टैरेन्स ने रॉबर्ट की आँखें बंद कीं। जयकिशन ने अपना सिर पलंग से टिका दिया।

यात्रा का अंत था। दुनिया के सामने अजंता गुफाओं को चित्रों के माध्यम से लाने वाला चित्रकार अंतहीन यात्रा पर जा रहा था। टैरेन्स, एनी और जयशंकर उसकी संपूर्ण ज़िंदगी के साझेदार साथ थे। न जाने कैसी यह यात्रा थी कि भुसावल में कार्यरत अंग्रेज सैन्य अधिकारी और जो रॉबर्ट को व्यक्तिगत रूप से जानते भी नहीं थे, वे भी इस यात्रा में शामिल थे। डॉक्टर्स का पूरा समूह शामिल था। जो रॉबर्ट की देखभाल में कार्यरत थे।

भुसावल के यूरोपीय ईसाई कैथोलिक कब्रगाह में रॉबर्ट का अंतिम संस्कार किया गया। एनी, टैरेन्स इतने शांत थे, मानो अब कभी बोल ही नहीं सकेंंगे। जयशंकर ने अपनी पूरी ज़िंदगी रॉबर्ट के साथ बिताई थी ....... वह सूनी आँखों से खड़ा था। सभी वापिस लौट गए। लेकिन, वह वहीं बैठ गया। बहुत देर कब्र को देखता रहा। फिर फूट-फूट कर रोने लगा।

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‘कुछ दिन रुकना है जॉय, फिर मैं बनी को लेकर टैरेन्स के साथ इंग्लैंड वापस लौट जाऊंगी।’ एनी ने कहा। पत्थर की मूर्ति की तरह जयकिशन खड़ा रहा।

‘देखो जॉय, तुम बारादरी जाना। जो भी सामान तुम्हें चाहिए या सभी सामान ले लेना। जो चाहो वह करना। रॉबर्ट की पेंटिंग, फोटोग्राफ आदि मैं ले जा रही हूँ।’

अब रो पड़ा जयकिशन।

‘मैडम, मेरा तो कोई घर ही नहीं है मैं सामान का क्या करूंगा? मेरे लिए तो सर ही सब कुछ थे। पचास वर्षों से उनके साथ हूँ। क्या पता कितना जीना है? मुझे बारादरी नहीं जाना है।’

‘जॉय, तुम बारादरी जाओ। तुम्हें ज़िंदगी जीने के लिए जो चाहिए ले लेना। बाकी गांव में बांट देना। रॉबर्ट के सामान को दीमक खाएं यह भी तो ठीक नहीं है।’ टैरेन्स ने कहा।

‘यस सर।’ जयकिशन बोला।

‘लेकिन सर, मैं रुकूंगा। हमारे देश में मृत्यु के तेरह दिन कहीं नहीं जाते हैं।’

‘हाँ! हम भी टिकट आने तक रुकेंगे।’ एनी ने कहा।

जयकिशन ने सोचा... अपनी सारी ज़िंदगी भारत को देने वाले फौजी की मैं गया जा कर पूजा करूंगा। वैसे भी बिहार के छोटा नागपुर में उसे जाना ही है। देखें कौन पहचान का जीवित व्यक्ति उसे मिलेगा।

आज उसे बुआ बहुत याद आई।

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जय किशन ने आज किसी से इजाजत नहीं ली। वह गेस्ट हाउस के बाहर लगे बरगद के पेड़ के नीचे बांसुरी लेकर बैठ गया और आधी रात तक बांसुरी पर मृत्यु गीत बजाता रहा।

 

.................... समाप्त ..................