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योग वशिष्ठ रामायण-राधारमण बोहरे

आनन्द के सागर में डुबोने वाली योग वशिष्ठ रामायण

राम गोपाल भावुक
मो. 9425715707
पं.राधारमण बोहरे के चिन्तन -मनन के परिणाम स्वरूप योग वशिष्ठ रामायण को जीवन में पहली बार पढ़ने का अवसर हाथ आया है। यह प्रंसंग तो पौराणिक आख्यान पर आधारित है लेकिन बोहरे जी ने हम जैसे सामान्य जनों के लिये अपने अनुभवों के आधार पर इस कठिन विषय को सरल भाषा में अनुदित कर प्रस्तुत किया है। बोहरे जी दिनरात अपने चिन्तन -मनन में डूबे रहने वाले साधक हैं।
इस कृति को पहली बार पलटते समय लगता रहा-तराजू के एक पलड़े में श्रीमद्भगवत गीता रख दी जावे और दूसरी पलड़े मंव योग वशिष्ठ रामाष्यण तो कौनसी कृति श्रेष्ठ है यह निर्णय कर पाना मेरे जैसे सामान्य जन के लिये सम्भव नहीं हैं।
मित्रो, यह कृति पृष्ठ पलटने के लिये नहीं है वल्कि जीवन में उतारने के लिये है। इसका एक मंत्र भी जीवन में उतर गया तो इसकी अन्य बाते स्वयम् ही जीवन में उतरते चलीं जायेंगी।
बोहरे जी ने ऐसे कल्याण कारी ग्रंथ का अनुवाद कर हम सब के समक्ष रखा है वह इस भावना से कि इस ग्रंथ से उनका ही नहीं वल्कि सारे विश्व का कल्याण हो सके।
इस गंथ में मेरे बड़े भ्राता सम परम श्रद्धेय राधरमण बोहरे जी ने अपनी साधना की मणिकाओं का समन्वय करके इसे और अधिक कल्याण कारी बना दिया है। ज्ञानी भक्त साधक निष्चय ही इससे लाभान्वित होंगे।
इस गंथ का पहला अध्याय वैराग्य प्रकरण है- इसमें परमात्मा स्वरूप श्री राम जी के विरक्त होनें पर वशिष्ठ जी ने जो उपदेष दिये है। इस गहन चिन्तन का विवरण इस कृति में प्रष्न उत्तर के माध्यम सें दिया गया है।
दूसरा प्रकरण है मुमुक्ष प्रकरण-भोग वासना को मिटाना ही मोक्ष है। इस प्रकरण में भी वशिष्ठ जी ने श्री राम जी को समझाने का प्रयास किया है। इस प्रकरण में शमः, विचार, संतोष और साधु संग सत्संग के विषय में विस्तृत चर्चा की है।
कति के तृतीय उत्पत्ति प्रकरण में-जैसे निद्रा में स्वप्न सृष्टि की उत्पत्ति हो ती है वैसे ही अविद्या से जगत की उत्पत्ति होती हैं।
इस कृति के चतुर्थ स्थिति प्रकरण में- इसकी स्थिति मन के संकल्प से है। इससे जगत की सत्यता जाती रहती हैं।
इस कृति का पंचम सोपान है उपषम प्रकरण- स्वप्न से जागने पर जिस तरह वासना जाती रहती है, वासना के नष्ट होने से मन उपषम हो जाता है जब देखने मात्र से उसकी चेष्ट होती है। मन में पदार्थ की इच्छा नहीं रहती और इच्छा रहित मन निर्माण प्राप्त कर लेता है।
इसका छटवा सोपान है- निर्वाण प्रकरण इसके भी कृति में दो भाग किये गष्ये हैं। 1-निर्वाण प्रकरण पूर्वाद्ध 2-निर्वाण प्रकरण उत्तरार्द्ध
1-निर्वाण प्रकरण पूर्वार्द्ध- इसमें भूमिका चित्त के ठहरने को कहते हैं। भूकिा तुरियातीत है। इस अवस्था के व
बाद ही निर्वाण पद की प्राप्ति हो सकती हैं। इसमें प्रथम तीन अवस्थायें जाग्रत की हैं। इनमें मनुष्य चिनतन मनन करता हैं।
चतुर्थ अवस्था स्वप्न वत हैं। उसमें संसार की सत्ता नहीं होती।
पंचम अवस्था सुषुप्ति की हैं। इसमें जीव आनन्द घन में स्थित होता हैं।
पंचम भूमिका सुषुप्ति की है। इसमें जीव आनन्द घन में स्थित रहता हैं।
छटी भूमिका तुरीयातीत है जासे जाग्रत, स्वप्न ओर सुषुप्ति की साक्षी है।
सप्तम् भूमिका तुरीयतीत पाद की है। यही निर्माण पद है।
2-निर्वाण प्रकरण उत्तरार्द्ध-आत्म निराकार एवं निष्कीय है।, इस अकारण और अकर्मक से सृष्टि कैसे हो सकती है। उपदेश के लिये उसके अर्थ आरोपित हैं और कुछ है ही नहीं। आत्मा सदा अद्वैत रूप है।
इस तरह के गहन निष्कर्षें से इसे पुष्ट किया गया है।
मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूं कि योग वशिष्ठ रामायण को श्रीमद् भगवत गीता का इसे पूर्व रूप कहा जाये तो अतिषयोक्ति नहीं होगी। इस दर्शन का लम्बे समय तक बने रहने के पष्चात ही परिपक्व रूप गीता के रूप में भगवान श्री कृष्ण ने अर्जन के समक्ष प्रकट किया है।
पं.राधारमण बोहरे की सबसे पहली कृति वंषवृक्ष है। जो अपने परिजनों के वर्णन के साथ, अनुभव में संजोये सुभाषित वाक्यों एवं गीत, कविताओं तथा विचारों का संकलन मात्र है। कृति पठनीय है। यह कृति परिवार, रिस्तदारों तथा मित्रों द्वारा संजोकर रखी जायेगी, इसमें सन्देह नहीं हैं।
इस समय पं.राधारमण बोहरे की कृति महार्षि नारद भक्ति सूत्र की चर्चा और करना चाहता हूं। उनकी यह कृति पुजारी बाबा श्री 108 श्री वनखण्डी दास राम- जानकी मन्दिर गिजुर्रा की भक्ति एवं सेवा से कुछ प्राप्त हुआ हैं उसी के संस्कार स्वरूप इनमें आध्यात्मिक भावना के अंकुर जन्मे थे। महार्षि नारद भक्ति सूत्र कृति इसी का परिणाम है।
महार्षि नारद भक्ति सूत्र के चैरासी सूत्र है। कृति साहज सरल है एवं पठनीय है। पाठकों को इन सूत्रों को सरल भाषा में समझाने का प्रयास किया गया है जिससे पाठक इन सूत्रों को पकड़कर, उनका मनन कर सकें और भक्ति मार्ग पर चलकर अपने को इस संसार सागर से पार ले जा सकें।
इस कृति के सभी सूत्रों में भक्ति का महत्व समझाने का प्रयास किया गया है।

इस कृति के चैदहवे सूत्र में कहा गया है कि किसी भी स्थिति में भक्त कों अपने स्वा्रर्थ के लिये भगवान को कष्ट नहीं देना चाहिए।
इस प्रसंग में एक कथा है कि एक वार अर्जुन को गर्व हो गया कि वह श्री कृष्ण का परम भक्त है। श्री कृष्ण अर्जुन को लेकर भ्रमण करने के लिये निकले। एक झोपड़ीमें एक वृद्धा तपस्वनी बैठी थी और उसके बगल में तलवार रखी थी। यह देखकर अर्जुन आष्चर्य में पड़ गये। उस वृद्धा से जाकर अर्जुन पूछा-तपस्वनी हो तलवार को रखी हैं।
वे बोलीं -मैंने दुष्टा द्रोपदी और स्वार्थी अर्जुनल को मारने के लिये तलवार रखी है।
अर्जुन ने पूछा-उन्होंने ऐसा क्या बिगाड़ा आपका?’
वे बोलीं- मेरे गिरधर को उसने भारी कष्ट दिया। उसने अपनी रक्षा में उन्हें बुलाया। वे भोजन के लिये परोसी थाली छोड़कर भागे गये।
द्रोपदी ने यह नहीं सोचा कि रजस्वला है। अपवित्र है। श्रीकृष्ण को उसका बस्त्र बनना पड़ा और अर्जुन का सिर इसलिये काटना चाहती हूं उसने मेरे गिरधर को अपने स्वार्थ के लिये उन्हें अपना सारथी बना कर रखा था। अरे वह युद्ध हार जाता तो क्य फर्क पड़ता मेरे बांके विहारी को रथ चलाने का कष्ट तो न उठाना पड़ता।
यह कृति ऐसे सहज सरल प्रसंगों से भरी पड़ी है। जिससे भक्त इस कृति के किसी एक सूत्र को पकड़कर चल पड़े तो वह स्वयम् ही पार लग जायेगा।
पं.राधारमण बोहरे जन कल्याण की दृष्टि से अपनी पेंशन से खर्च करके इसी कृतियां सुधी पाठकों तक पहुंचाने का प्रयास कर रहे हैं। वे अपने कल्यांण की कामना में तो लगे ही हैं दूसरों के कल्याण की भावना भी उनके ह्रदय में बसी हैं। हमारी प्रभू से कामना है प्रभु ऐसे सुह्रदयी जन का कल्यांण करें। धन्यवाद।
सम्र्पक हेतु पं.राधारमण बोहरे का मोवाइल-942511 4647।
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नाम- योग वशिष्ठ रामायण
कृतिकार का नाम- पं.राधारमण बोहरे
प्रकाशन वर्ष-2022
प्रकाशिक-तेज कुमार बुक डिपो प्रा. लि. लखनऊ मो0-9425114647
मुल्य-स्वाअध्याय
समीक्षक- राम गोपाल भावुक। मो0 9425715707