Param Bhagwat Prahlad ji - 22 books and stories free download online pdf in Hindi

परम भागवत प्रह्लाद जी - भाग22 - भक्तवत्सल भगवान् का दर्शन

[प्रह्लाद को वरदान, चतुर्थ बार राजसभा में प्रह्लाद की परीक्षा, प्रह्लाद के प्रति पिता का प्रेम]

प्रह्लादजी इस बार गुरुकुल में राजनीति की शिक्षा पाने लगे और उनके सहपाठी दैत्यबालक भगवद्भक्ति के रहस्यों की शिक्षा में लीन होने लगे। गुरुओं को राजकुमार की बुद्धि प्रखरता देख, बड़ी प्रसन्नता हुई। उन लोगों ने समझा कि अब ये राजनीति के चक्कर में पड़कर भक्ति-भावना को भूल गये हैं। जब-जब गुरुवरों ने प्रह्लाद की परीक्षा ली तब-तब उन्हें राजनीति में पूरा पण्डित पाया। अतएव षण्ड और अमर्क अब फूले नहीं समाते थे। उन लोगों ने समझा कि इस बार राजकुमार के पिताजी से हमको पूरा-पूरा पारितोषिक मिलेगा। इसी आनन्द में एक दिन दोनों राजपुरोहित प्रह्लाद को साथ लेकर राजदरबार में जा पहुँचे। उस समय की राजसभा का वर्णन पुराणों में बड़ा ही मनोहर और विस्तृत किया गया है। सभा की शोभा, उसके अङ्गोपाङ्ग-स्वरूप उपवनों, सरोवरों, निर्झरनों और उनमें विहार करने वाले तरह-तरह के पक्षियों एवं पालतू वनचरों की शोभा, सभा भवन की सजावट उसके उपकरणों की सुषमा तथा सभासदों एवं सभा में बैठे हुए असुर वीरों का ऐसा सुंदर वर्णन किया गया है कि जिसको यहाँ पर सविस्तार पूर्णरीत्या उद्धृत करने का अवकाश नहीं है किन्तु इतना ही लिख देना पर्याप्त है कि जिस दैत्यराज के अधीन तीनों लोक और चौदहों भुवन हों, जिसके सामने आठों सिद्धि और नवनिधि हाथ जोड़े खड़ी रहती हों तथा जिसके कारागार में देवराज इन्द्र एवं धनपति कुबेर आदि दिक्पाल बन्दी बन रहे हों, उसके ऐश्वर्य तथा उसकी सभा की शोभा का वर्णन करना ही व्यर्थ है। पुराणों में जो वर्णन किया गया है वह भी अधूरा ही होगा। पूरा-पूरा वर्णन करना तो असंभव ही है। (सबसे अधिक सभा की शोभा का वर्णन हरिवंश में पाया जाता है)

राजसभा ठसाठस भरी हुई थी। उसी समय राजकुमार सहित दोनों राजपुरोहित वहाँ जा पहुँचे। राजकुमार के सहित पुरोहितों को देख सारी सभा आनन्दित हो उठी और उनके स्वागत में सब सभासद सहसा उठ खड़े हुए। राजकुमार ने दैत्यराज के चरणों में विनीत भाव से साष्टांग प्रणाम किया तथा अन्यान्य सभासदों के प्रति भी यथोचित सम्मान प्रदर्शित किया। हिरण्यकशिपु ने राज-पुरोहितों को सादर प्रणाम कर, उच्च स्थान पर बिठा, पुत्र प्रह्लाद को अपने समीप बैठाया। प्रहलाद की शान्तिमयी मूर्ति को देख तथा पुरोहितों की भी प्रसन्नता देखकर दैत्यराज मन-ही-मन बड़े ही प्रसन्न हुए। उन्होंने समझा कि राजकुमार अब ठीक मार्ग पर आ गया है और इसकी भक्ति-भावना की सनक मिट गयी प्रतीत होती है। इसी प्रसन्नता में दैत्यराज ने कहा— “हे बेटा प्रह्लाद! हे देवताओं के नाशक राजकुमार! तुम अज्ञान की खानि बाल्यावस्था से छूटकर अब कुमार अवस्था को प्राप्त हुए हो, यह बड़ी प्रसन्नता की बात है। बेटा! देखो, इस समय तुम वैसे ही शोभायमान हो रहे हो जैसे घनान्धकार से निकलने वाले भगवान् भास्कर प्रकाशित होते हैं। बालपने की अज्ञानता से मुक्त, तुम आज राजनीति-विशारद राजकुमार के रूप में दिखलायी दे रहे हो। इससे हमारा मन आनन्दमग्न हो रहा है। बेटा! अब राज्यभार को सँभालने की योग्यता वाले तुमको निष्कण्टक राज्यभार सौंपकर हम तुम्हारी राज्यलक्ष्मी को देख-देखकर प्रसन्न होंगे। जो पिता अपने पुत्र की प्रशंसा सुनता है उसके मन की सारी व्यथा दूर हो जाती और वह परम आनन्द को प्राप्त होता है। प्रहलाद! तुम्हारी नीति-निपुणता की तुम्हारे गुरुवर बड़ी प्रशंसा करते हैं। अतएव हमारे कान तुम्हारे मुख से नीति-चर्चा सुनना चाहते हैं।”

दैत्यराज के वचनों को सुन कर निःशंक हो प्रह्लाद ने कहा कि “महाराज! आपने सत्य ही कहा है कि पुत्र के सुन्दर वचन सभी के कान सुनना चाहते हैं, किन्तु जिन वचनों में कुछ वास्तविक सार हो वे ही वचन सुन्दर कहने और सुनने योग्य होते हैं। जिन वचनों में सांसारिक दुःख समूहरूपी बन्धन को जलाकर भस्म कर देने वाले भगवान् विष्णु के गुण गाये जाते हैं उन्हीं में सार है। अन्य तो सभी निःसार हैं। जिन वचनों में भगवान् के गुणानुवाद हैं वे ही वचन कथा हैं, वे ही श्रवण करने योग्य हैं और वे ही वचन श्रवणीय काव्य हैं, हे पिताजी! जिस शास्त्र में भक्तों के वांछित फल देने वाले भगवान् विष्णु की स्तुति की जाती है वही शास्त्र है, अन्यान्य सांसारिक प्रपंचों से रचे गये अर्थशास्त्र, शास्त्र कहलाने योग्य नहीं हैं। जिस नीति-शास्त्र में साम, दाम, दण्ड, और भेद नीति की शिक्षा दी जाती है, जिसमें एक भाई दूसरे भाई का शत्रु माना जाता है और जिसमें अपने भाईयों पर तरह-तरह के पापमय अत्याचार करने की शिक्षा दी जाती है, उसमें बहुत बड़ा भय है। उस शास्त्र से आत्मा ही मारा जाता है। क्योंकि विष्णुभगवान् के विश्वरूप में सभी आत्मा उनके रूप हैं। यदि किसी आत्मा को आप मारेंगे, सतावेंगे, जीतेंगे और कष्ट देंगे तो अपने विष्णुभगवान् के विश्वरूप को ही मारेंगे, सतावेंगे, जीतेंगे और कष्ट देंगे। अतएव जिस नीति-शास्त्र को गुरुवरों ने मुझे पढ़ाया है वह विवेकशून्य पापमूलक है। इसी कारण से मैं उसको आपके सामने कहने की इच्छा नहीं करता। अतएव मैं एकमात्र वैष्णव-धर्म की इस उदार नीति को, कि सभी प्राणियों में परमात्मा को मानों और समता के भाव से सबके आत्मा को अपने आत्मा के समान समझो एवं 'आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां समाचरेत्' को मान कर अनन्यभाव से उस सर्वव्यापी सर्वभूतमय परमपिता परमात्मा विष्णु की आराधना करो– कहता हूँ।”
देवा मनुष्याः पशवः पक्षिवृक्षसरीसृपाः।
रूपमेतदनन्तस्य विष्णोर्भिनमिव स्थितम्॥
एतद्विजानता सर्वं जगत् स्थावरजङ्गमम्।
द्रष्टव्यमात्मवद्विष्णुर्यतोऽयं विश्वरूपधृक्॥
एवं ज्ञाते स भगवाननादिः परमेश्वरः।
प्रसीदत्यच्युतस्तस्मिन् प्रसन्ने क्लेशसङ्क्षयः॥ ( विष्णु० १९ ४७-४९ )
अर्थात्– “देवता, मनुष्य, पशु, पक्षी, वृक्ष और सरीसृप ये सभी विष्णु के रूप से भिन्न की भाँति स्थित होने पर भी वास्तव में श्रीअनन्त के ही रूप हैं, ऐसा जानने वाले पुरुष को चाहिए कि समस्त चराचर जगत् को आत्मवत् देखे क्योंकि भगवान् विष्णु ने ही विश्वरूप धारण कर रखा है। इस प्रकार जानने पर भगवान् अनादि अच्युत परमात्मा उसके प्रति प्रसन्न होते हैं और उनकी प्रसन्नता से समस्त क्लेशों का नाश हो जाता है।”

प्रह्लादजी के इन वचनों को सुनकर दैत्यराज आपे से बाहर हो गया। उसकी सारी आशालताएँ मुरझा गयीं और उसने क्रोध के आवेश में तड़क कर कहा कि “हे असुर-वीरो! इस बालक की दुष्टता पराकाष्ठा को पहुँच चुकी है। अब इस पर दया करना पाप है। इसको तुरन्त ले जाओ, और नागपाश में बाँधकर समुद्र के प्रबल वेग में डुबा दो एवं ऊपर से पत्थरों के ढेर लगा दो, जिससे फिर इसके जीवित रहने की कोई सम्भावना ही न रहे।” दैत्यराज की आज्ञा पाते ही असुरगण अपनी आसुरी प्रकृति के अनुसार प्रसन्नता प्रकट करते हुए शान्तमूर्ति प्रह्लादजी की ओर झपटे और चारों ओर से उनको पकड़ कर ले चले। मार्ग में तरह-तरह के भय दिखलाते और अपनी वीरता का बखान करते हुए वे उन्हें समुद्रतट पर ले गये। समुद्र की असीम जलराशि उत्ताल तरंगों में उछल रही थी। उसकी गर्जना के साथ-साथ प्रचण्ड वायु के सर्राटों से दसों दिशाएँ प्रतिध्वनित हो भयावनी बन रही थीं। आकाश को घहरा देने वाली भयंकर गर्जना करते हुए असुरगण प्रह्लाद को लेकर वहाँ जा पहुँचे। मूर्ख निर्दय असुरों ने प्रह्लाद को खूब कसकर नागपाश में बाँधा तदनन्तर समुद्र की उछलती हुई जलराशि के बीच उनको डुबो दिया और ऊपर से पत्थरों के ढेर से मानों पहाड़ों की रचना कर दी। इतना ही नहीं, अगणित वृक्षों को उखाड़ उखाड़ कर उस पहाड़ पर ऐसा ढेर लगा दिया मानों समुद्र के बीच में पहाड़ पर घना जंगल तैयार हो गया है। यह सब कुछ करके असुरगण बड़े ही प्रसन्न हुए। राजधानी में लौटकर अपनी सफलता का समाचार दैत्यराज को सुनाया।

इधर असुरगण और दैत्यराज हिरण्यकशिपु अपनी सफलता के आनन्द में रात बिता रहे थे और उधर इस समाचार को सुनकर महारानी कयाधू प्रबल शोकसागर में डूब रही थीं। सारे अन्तःपुर में रातभर पुत्र शोक से व्याकुल महारानी कयाधू के आर्तक्रन्दन से कुहराम मचा रहा। हिरण्यपुर में जहाँ-तहाँ शोक से व्याकुल बालक रो तो रहे थे साथ ही भक्तवत्सल भगवान् के गुणानुवाद भी गा रहे थे। क्योंकि उन लोगों को प्रह्लादजी के मृत्यु-संवाद पर विश्वास नहीं था। कहीं-कहीं असुरों में प्रह्लाद के मारे जाने की बात पर खुशी मनायी जा रही थी तथा लोग दैत्यराज के साहस और उन असुरों के कौशल की प्रशंसा कर रहे थे, जिन्होंने प्रह्लादजी को समुद्र में डुबोया था। इधर तो इस प्रकार सारे-के-सारे हिरण्यपुर वासी अपनी-अपनी भावना के अनुसार आनन्द तथा शोक में जागरण कर रहे थे और उधर भक्तवर प्रह्लादजी की बड़ी ही विलक्षण स्थिति थी। ज्यों ही प्रह्लादजी नागपाश में बाँधे जाने लगे, त्यों ही वे ध्यानावस्थित हो भगवान् के दर्शन करने लगे थे। जिस समय वे अगाध समुद्र में डुबोये गये उस समय भी वे ध्यानमग्न थे। उन्हें भगवदर्शनानन्द के गम्भीर सागर में निमग्न रहने के कारण किसी भी बात का पता नहीं था। प्रह्लाद ध्यानमग्न स्तुति कर रहे थे—
नमस्ते पुण्डरीकाक्ष नमस्ते पुरुषोत्तम ।
नमस्ते सर्वलोकात्मन्नमस्ते तिग्मचक्रिणे ॥
नमो ब्रह्मण्यदेवाय गोब्राह्मणहिताय च।
जगद्धिताय कृष्णाय गोविन्दाय नमो नमः ॥
ब्रह्मत्वे सृजते विश्वं स्थितौ पालयते पुनः।
रुद्ररूपाय कल्पान्ते नमस्तुभ्यं त्रिमूर्तये ॥ –(विष्णु० 1 19 64-66 )
मय्यन्यत्र तथाशेषभूतेषु भुवनेषु च।
तवैव व्याप्तिरैश्वर्यगुणसंसूचिका प्रभो॥ –( विष्णु० 1 19 72 )
सर्वभूतेषु सर्वात्मन् या शक्तिरपरा तव।
गुणाश्रया नमस्तस्यै शाश्वतायै सुरेश्वर॥
यातीतगोचरा वाचां मनसां चाविशेषणा।
ज्ञानिज्ञानपरिच्छेद्या तां वन्दे चेश्वरीं पराम्॥ –( विष्णु० १६ ७६, ७७ )
नमोऽस्तु विष्णवे तस्मै यस्याभिन्नमिदं जगत् ।
ध्येयः स जगतामाद्यः प्रसीदतु ममाव्ययः॥
यत्रोतमेतत् प्रोतं च विश्वमक्षरमव्ययम्।
आधारभूतः सर्वस्य स प्रसदितु मे हरिः॥
नमोऽस्तु विष्णवे तस्मै नमस्तस्मै पुनः पुनः।
यत्र सर्वं यतः सर्वं यः सर्वं सर्वसंश्रयः॥
सर्वगत्वादनन्तस्य एवाहमवस्थितः।
मत्तः सर्वमहं सर्व मयि सर्वं सनातने॥
अहमेवाक्षयो नित्यः परमात्मात्मसंश्रयः।
ब्रह्मसंज्ञोऽहमेवाग्रे तथान्ते च परः पुमान्॥ –( विष्णु० १९ ८२-८६ )

अर्थात् "हे कमलनयन! आपको नमस्कार है। हे पुरुषोत्तम! आपको नमस्कार है। हे सर्वलोकात्मन्! आपको नमस्कार है। हे तीक्ष्णचक्रधारी प्रभो! आपको बारम्बार नमस्कार है। गो-ब्राह्मण हितकारी ब्रह्मण्यदेव भगवान् कृष्ण को नमस्कार है। जगत्-हितकारी श्रीगोविन्द को बारम्बार नमस्कार है। जो सृष्टि के आदि में ब्रह्मा के रूप से सबको उत्पन्न करते हैं, जो स्थितिकाल में विष्णुरूप से पालन करते हैं और जो कल्पान्त-समय में रुद्ररूप से संहार करते हैं, उन त्रिमूर्तिधारी आपको मेरा नमस्कार है। मुझमें तथा अन्य सभी भूत-प्राणियों में और सारे भुवन में आपके ऐश्वर्य और गुण को सूचित करने वाली आपकी ही व्याप्ति दिखलायी देती है। हे सर्वात्मन्! आपकी गुणाश्रया जो अपराशक्ति समस्त प्राणियों में शाश्वतरूप से विद्यमान है, हे सुरेश्वर! उसको मेरा नमस्कार है। जो गोचरातीत है अर्थात् इन्द्रियों के द्वारा देखी सुनी नहीं जा सकती, वचन एवं मन से जो कही और जानी नहीं जा सकती तथा जो ज्ञानियों के ज्ञान द्वारा परिच्छेद्य है, उस परमेश्वरी को मेरा नमस्कार है। यह जगत् जिससे अभिन्न है, उस विष्णु को मेरा नमस्कार है वह जगत् के आदि-कारण अविनाशी ध्यान करने योग्य भगवान् मुझ पर प्रसन्न हों। जो अक्षय और अव्यय हैं, यह सारा विश्व जिनमें ओतप्रोत है, जो सबके आधार हैं, वह हरि मुझ पर प्रसन्न हो। जिनके विराटरूप के भीतर सब संसार है, जिनसे सब उत्पन्न हुए हैं, जो स्वयं सब हैं, जो सबके आश्रय हैं, जिनमें सब लीन होते हैं, उन विष्णुभगवान् को मेरा नमस्कार है। बारम्बार नमस्कार है। उन अनन्त की सर्वव्यापकता के कारण वह मैं ही हूँ। सब मुझसे ही उत्पन्न हैं, मैं ही सर्वरूप से वर्तमान हूँ एवं सनातनरूप मुझमें ही सब लीन होंगे। वह अक्षय मैं ही हूँ, मैं ही नित्य हूँ, आत्मसंश्रय ब्रह्म नामक परमात्मा मैं ही हूँ और सृष्टि के आदि-अन्त में परमपुरुष भी मैं ही हूँ।”

इस प्रकार अभेदबुद्धि से स्तुति करते-करते प्रह्लाद जी तन्मय हो गये और अपने को ही अच्युत समझने लगे। इसके सिवा अन्य सब कुछ भूल गये। ऐसी भावना के उत्पन्न होते ही उनके सारे कर्मजनित पाप नष्ट हो गये और उनके शुद्ध अन्तःकरण में भगवान् विष्णु का आविर्भाव हो गया। प्रह्लाद के योगप्रभाव से जैसे ही भगवान् विष्णु का साक्षात्कार होने ही को था वैसे ही अगाध समुद्र में एक ऐसी वेग की लहर आयी कि प्रह्लादजी के ऊपर फेंके हुए पहाड़ और जंगल न जाने कहाँ जा गिरे और प्रह्लाद जी समुद्र तट पर आ विराजे। प्रह्लादजी के नागपाशों को भगवान् के वाहन गरुड़जी ने छिन्न-भिन्न कर दिया। भक्त की महिमा देख समुद्र ने उनको भाँति-भाँति के रत्नों की भेंट दी, एवं भगवद्भक्त और भगवान् में अभेदबुद्धि रख, उनकी स्तुति की। समुद्र के अन्तर्धान हो जाने पर उसके उपदेशानुसार भगवान् के दर्शन के लिये प्रह्लादजी स्तुति करने लगे। स्तुति करते-करते ही वे अधीर होकर भूमि पर गिर पड़े। उन्होंने सोचा कि, बड़े-बड़े वेदान्ती अपने तपोबल से भी जिनके दर्शन नहीं पाते और सदा लालायित रहते हैं, उन भगवान् विष्णु के दर्शन मुझ जैसे दैत्यकुल के दोषागार बालक को कैसे मिल सकते हैं ? जिनकी छाया ब्रह्मादि देवता बड़ी-बड़ी स्तुतियों द्वारा कठिनता से पकड़ पाते हैं और कभी-कभी दर्शन पाते हैं, उनकी दिव्य माधुरी-मूर्ति के दर्शन की आशा करना मेरे लिये धृष्टता की बात है। हा! मैं तो उनके दर्शन के सर्वथा अयोग्य हूँ।

जैसे ही अधीर हो प्रह्लादजी मूर्छित दशा में भूमि पर गिरे वैसे ही सर्वव्यापी भगवान् विष्णु ने प्रकट हो अपने परम भक्त प्रह्लाद को चारों भुजाओं से उठाकर अपने हृदय से लगा लिया। भगवान् के स्पर्श से प्रह्लाद की मूर्छा जाती रही। जैसे ही प्रह्लाद की आँखें खुली, उन्होंने देखा कि शंख, चक्र, गदा, पद्मधारी भगवान् विष्णु, जिनका वे सदा ध्यान करते थे, उन्हें अपनी गोद में लिये बैठे हैं, वे थर-थर काँपने लगे। उन्होंने सोचा कि मैं यह स्वप्न देख रहा हूँ और इसी भावना में वे आनन्द-मग्न हो फिर अचेत से हो गये। मूर्छित प्रह्लाद प्रभु की गोद में पड़े हैं और भगवान् अपने कर-कमल से उनके मुख पर मानों पंखा झल रहे हैं। बारम्बार प्रेमवश उनके मुख को चूमते हुए अपनी भक्तवत्सलता की महिमा दिखला रहे हैं। कुछ ही समय में प्रह्लाद ने अपनी आँखें फिर खोलीं। प्रह्लादजी ने देखा कि शेष-शय्या एवं महालक्ष्मी की गोद में शयन करने वाले भगवान् अपनी अहैतुकी कृपा से मुझे गोद में लिये हुए भूमि पर बैठे और अपने कर-पल्लव से मेरे मुख पर हवा कर रहे हैं। प्रह्लाद गोद से सहसा उठकर अलग खड़े हो गये और प्रणाम करने के लिये पुनः भूमि पर गिर पड़े। आनन्दविह्वलता के कारण उनके मुख से कोई शब्द नहीं निकलते हैं। वे अवाक पड़े हैं। प्रह्लादजी की यह दशा देख भक्तवत्सल भगवान् ने अपने हाथों से उनको उठाया। प्रह्लादजी भगवान् के करस्पर्श के आह्लाद से आनन्दाश्रु बहाते और काँपते हुए चित्रलिखे से रह गये। विष्णुभगवान् ने हँसते हुए कहा “हे वत्स! सब प्रकार के भय और भ्रम को छोड़ो, हमारे भक्तों में तुम्हारे समान प्रिय हमको दूसरा कोई नहीं है, अब तुम हमको अपने ही अधीन समझकर जो कुछ 'वर' माँगना हो, माँग लो।”
प्रह्लाद– “भगवन्! यह वरदान का समय नहीं है, आप सदा प्रसन्न रहें। मुझे आपके चरणों के दर्शनामृत के सिवा दूसरा कोई वर अभीष्ट नहीं है। ब्रह्मादि देवताओं को बड़ी कठिनाई से मिलने वाला दर्शन आप, अपनी अहैतुकी कृपा से मुझे दे रहे हैं, इससे जैसी मेरी तृप्ति हुई है वैसी तृप्ति लाखों कल्प-कल्पान्तरों में किसी भी वर से नहीं हो सकती।”
भगवान् विष्णु– “वत्स! ठीक है, तुमको हमारे दर्शनों से अधिक प्रिय और कुछ नहीं है किन्तु हमारी इच्छा है कि हम तुमको कुछ दें। अतएव हमारे अनुरोध से ही तुम इस समय कुछ माँगो।”
प्रह्लाद– “नाथ! यदि आप देना ही चाहते हैं, तो मुझे यह वर दें कि मैं जन्म-जन्मान्तर में कहीं भी क्यों न उत्पन्न होऊँ, सदा ही आपके चरणों का अनन्य दास बना रहूँ।”
भगवान् विष्णु – “प्रह्लाद! तुमने जो कुछ माँगा उसे तो हमने दिया, किन्तु अभी हमारा हृदय सन्तुष्ट नहीं है तुम और कुछ माँगो।” प्रह्लाद ने भगवान् विष्णु के बारम्बार आज्ञा देने पर अपने पूर्व वर को दुहराते हुए कहा कि
नाथ योनिसहस्रेषु येषु येषु व्रजाम्यहम्।
तेषु तेष्वच्युता भक्तिरच्युतास्तु सदा त्वाय॥
प्रीतिर विवेकानां विषयष्वनपायिनी।
या त्वामनुस्मरतः सा मे हृदयान्मापसर्पतु॥
अर्थात्– “हे भगवन्! मैं जिस-जिस योनि में सहस्रों जन्म तक जाऊँ, उस उस योनि में मेरे हृदय में हे अच्युत! सदा आपकी अच्युता भक्ति अनन्य भक्ति बनी रहे। अविवेकियों के हृदय में जो विषयों में अनपायिनी प्रीति होती है वही अनपायिनी प्रीति आपके चरणारविन्द को स्मरण करते हुए मेरे हृदय से कभी न जाय।”
विष्णुभगवान्– “वत्स! यह भी हमने तुमको दिया अब और क्या चाहते हो सो माँगो।”
प्रह्लाद– “भगवन्! आपके इस अव्यभिचारिणी भक्ति के दान से मैं कृतकृत्य हो गया। अब मुझे क्या चाहिये?” क्योंकि
धर्मार्थकामैः किं तस्य मुक्तिस्तस्य करे स्थिता।
समस्तजगतां मूले यस्य भक्तिः स्थिरा त्वयि॥
अर्थात्– धर्म, अर्थ एवं काम की प्राप्ति से क्या अधिक लाभ हो सकता है? जिसके हृदय में समस्त जगत् के मूलभूत आपके चरणारविन्द की भक्ति स्थिर है। जिसके हृदय में भगवद्भक्ति है उसी के हाथ में मुक्ति है, इसमें सन्देह नहीं। परन्तु आपकी ऐसी ही आज्ञा है तो मैं एक वर और माँगता हूँ।

मयि द्वेषानुबन्धोऽभूत्संस्तुतावुद्यते तव।
मपितुस्तकृतं पापं देवं तस्य प्रणश्यतु ॥
शस्त्राणि पातितान्यङ्गे क्षिप्तो यच्चाग्निसंहतौ ।
दंशितश्चोरगैर्दत्तं यद्विषं मम भोजने ॥
बद्ध्वा समुद्रे यत् क्षिप्तो यच्चितोऽस्मि शिलोच्चयैः।
अन्यानि चाप्यसाधूनि यानि यानि कृतानि मे ॥
त्वयि भक्तिमतो द्वेषादघं तत्सम्भवं च यत्।
त्वत्प्रसादात्प्रभो सद्यस्तेन मुच्येत मे पिता ॥

अर्थात्– “हे प्रभो ! मेरे पिताजी ने आपकी स्तुति करने के कारण मुझ पर द्वेष करके जो पाप किये हैं, वे नष्ट हो जायँ, हे देव! मेरे अङ्गों में जो शस्त्र चलाये गये हैं, मैं जो अग्नि की चिता में फेंका गया हूँ, सर्पों से कटाया गया हूँ, मुझे भोजन में जो विष दिया गया है, नागपाश में बाँधकर मैं जो समुद्र में डुबाया गया हूँ, ऊँचे पहाड़ पर से गिराया गया हूँ और आपके भक्त होने के कारण मेरे प्रति अन्यान्य असाधु-व्यवहार करके पिताजी ने जो आपका अपराध किया है, उन सब पापों से, हे नाथ! मेरे पिताजी शीघ्र ही मुक्त हों।”

धन्य, प्रह्लाद, तुम सरीखे भक्त ही ऐसा वर माँग सकते हैं।

भक्तराज प्रह्लाद के इस अद्भुत वर को सुन भगवान् विष्णु ने मुसकुराते हुए ‘एवमस्तु' कहा। तदनन्तर भगवान् अन्तर्धान हो गये। भगवान् के अन्तर्धान होते ही प्रह्लाद व्याकुल हो उठे। जैसे मणि के छिन जाने पर सर्प व्याकुल हो जाता है, वैसी ही दशा प्रह्लाद की हो गयी। “हा नाथ! कहाँ गये? हा नाथ! कहाँ गये?” कहकर छटपटाते हुए प्रह्लाद को आकाश से एक शब्द सुनायी पड़ा “हे प्रह्लाद! हमारे पुनः दर्शन के लिये शोक मत करो! इस रूप में तो इस समय अब तुमको दर्शन नहीं होगा, पर शीघ्र ही नरहरि रूप से हम तुम्हें दर्शन देंगे और दैत्यों के अत्याचार का अन्त करेंगे।” आकाशवाणी सुन कर प्रह्लाद का चित्त शान्त हुआ और इधर रात्रि का भी अन्त हो गया। प्रातःकाल हो जाने पर प्रह्लाद जी पुनः अपने घर की ओर चले और थोड़ी ही देर में वे सुदूर अपने नगर हिरण्यपुर में अनायास ही जा पहुँचे और राजसभा में जाकर पितृचरणों में साष्टाङ्ग प्रणाम किया।

साष्टाङ्ग प्रणाम करते हुए पुत्र को हिरण्यकशिपु ने दौड़कर सस्नेह गोद में उठा लिया और सिर का आघ्राण करते हुए आशीर्वाद दिया। दैत्यराज का गला प्रेमवश भर गया और पुत्र वात्सल्य के भाव से नेत्रों से आँसू की धारा बहने लगी। दैत्यराज ने कहा “बेटा! तुम जीते हो, यह परम आनन्द की बात है।” उस समय विष्णुभगवान् के वर प्रभाव से निष्पाप दैत्यराज की बुद्धि शुद्ध थी और प्रह्लाद के प्रति उसकी प्रीति उमड़ रही थी, प्रह्लाद के वर-प्रभाव से मानों अब कोई शत्रुता न रही। पिता की आज्ञा से प्रह्लाद जी पुनः अपने आचार्यों की सेवा में गुरुकुल भेजे गये और पूर्ववत् अध्ययन करने लगे।