Param Bhagwat Prahlad ji - 24 books and stories free download online pdf in Hindi

परम भागवत प्रह्लाद जी - भाग24 - प्रह्लादजी और देवताओं के द्वारा भगवान् की स्तुतियाँ

[भक्तवात्सल्य रस का चमत्कार]
भगवान् ने देखा कि प्रिय बालक प्रह्लाद चरणों पर पड़ा साष्टाङ्ग प्रणाम कर रहा है किन्तु हमारे प्रभाव से उसकी वाणी रुक रही है, वह भयभीत नहीं, किन्तु आनन्दमुग्ध हो रहा हैं, अतएव उन्होंने उसको अपने भक्तभयहारी भुजदण्डों से उठा कर अपनी गोद में बैठा लिया और कालरूपी सर्प के भय से भीत चित्तवाले लोगों को अभय प्रदान करने वाला अपना करकमल वे प्रह्लाद के सिर पर फेरने लगे। भगवान् का कोप शान्त हुआ और उनके हृदय में दया की बाढ़-सी आ गयी। भगवान् के करकमलों का मधुर स्पर्श होते ही प्रह्लाद की सारी किंकर्त्तव्यविमूढ़ता जाती रही, उनका शरीर असीम हर्ष से रोमाञ्चित हो गया, नेत्रों से आनन्दाश्रुओं की धारा बहने लगी और उसी क्षण उनके हृदय में अपूर्व ब्रह्मज्ञान उत्पन्न हो गया। प्रह्लाद परमानन्द को प्राप्त होकर भगवान् के चरण-कमलों के ध्यान में शरीर की सुध-बुध भूल गये। भगवान् ने स्नेहमयी जननी की भाँति प्रह्लाद का मस्तक सूँघते हुए बड़े ही कोमल वचनों में संकुचित होते हुए से कहा—
क्वेदं वपुः क्व च वयः सुकुमारमेतत्क्वै ताः प्रमत्तकृतदारुणयातनास्ते।
आलोचितं विषयमेतदभूतपूर्वै क्षन्तव्यमड्प़ग यदि मे समये विलम्बः॥
“बेटा प्रह्लाद! कहाँ तो तेरा कोमल शरीर और तेरी सुकुमार अवस्था और कहाँ उस उन्मत्त के द्वारा की हुई तुझ पर दारुण यातनाएँ। ओह! यह कैसा अभूतपूर्व प्रसंग देखने में आया। प्रिय वत्स ! मुझे आने में यदि देर हो गयी हो तो तू मुझ पर क्षमा कर।” धन्य भक्तवत्सलता!

भगवान् के स्नेह-सने वचन सुन कर प्रह्लाद आनन्दविह्वल हो गये! फिर वे मन-ही-मन सोचने लगे—
“जिन उग्र नृसिंहरूप भगवान् की आराधना और स्तुति करने में ब्रह्मादि देवतागण, मुनिगण और सत्त्वगुण में जिनकी अपार बुद्धि है वे सिद्धगण भी जब समर्थ नहीं हुए, तब इस प्रकार का साहस करना मेरे लिये कैसे सम्भव है? फिर भी इन्हीं की कृपा से मैं करूँगा। ऐश्वर्य, उत्तम कुल का जन्म, सौन्दर्य, पाण्डित्य, इन्द्रियों की निपुणता, कान्ति, प्रताप, बल, उद्यम, बुद्धि, तपस्या एवं अष्टाङ्गयोग— ये मनुष्यों के बारह गुण हैं, किन्तु परब्रह्म परमात्मा की आराधना के लिये ये गुणमात्र ही पर्याप्त नहीं हैं। उसके लिये तो एकमात्र भक्ति ही पर्याप्त है। अतएव इन बारह गुण के न होने पर भी शरणागति भक्ति के द्वारा भगवान् ने गजराज का उद्धार किया था। भगवान् पद्मनाभ के पादारविन्द की भक्ति से विमुख ज्ञान, सत्य, दम, श्रुत, अमात्सर्य, ह्री, तितिक्षा, अनसूया, यज्ञ, दान, धृति एवं शम– इन बारह गुणों से युक्त ब्राह्मण की अपेक्षा मैं उस भगवद्भक्त श्वपच को, जिसने अपना मन, वचन आदि सब कुछ भगवान् के चरणारविन्द में अर्पण कर दिया है, श्रेष्ठ मानता हूँ । क्योंकि भगवत्शरणागत श्वपच अपने समस्त कुल को पवित्र कर देता है किन्तु वह भगवद्विमुख ब्राह्मण स्वयं अपना भी उद्धार नहीं कर सकता। भगवान् अपनी भक्ति अथवा अपना मान, अपने लाभ के लिये नहीं चाहते, प्रत्युत कर्ता ही के लाभ के लिये चाहते हैं, जैसे तिलकादि के धारण करने से धर्मपालन के साथ ही अपने मुख की शोभा भी बढ़ती है वैसे ही भगवान् का मान करने से अपना ही मान बढ़ता है। यद्यपि मैं दैत्य–जैसे नीच कुल में उत्पन्न हुआ हूँ और संसार की नीचप्रवृत्ति के वशवर्ती हूँ, तथापि अपनी बुद्धि के अनुसार भगवान् की स्तुति करूँगा। क्योंकि भगवान् की स्तुति करने से इस मायाग्रसित संसार के बन्धन से मुक्त और पवित्र होकर लोग आनन्द प्राप्त करते हैं । इन बातों को सोच-विचार कर प्रह्लादजी स्तुति करने लगे—

{स्तुति का मर्मांश}
“हे नाथ! ये समस्त ब्रह्मादि देवतागण, जो आपके क्रोध से भयभीत हो रहे हैं, आपके सत्त्वमूर्ति ही के आज्ञाकारी, उपासक एवं भक्त हैं— दूसरे कोई नहीं हैं। ये देवगण, हम असुरों के समान वैरभाव से विरक्त भक्त नहीं हैं, ये तो आपके रुचिर अवतार की लीलाओं को विश्व के कल्याण के लिये श्रद्धापूर्वक देखते हैं, संसार को भय दिलाने के लिये नहीं। अतः इन देवताओं के भय-निवृत्त्यर्थ हे भगवन्! आप अपने क्रोध को शान्त करें। जिस असुर के मारने के लिये यह क्रोध था, वह तो मारा गया। अब क्रोध का क्या प्रयोजन है? अतएव इसे त्यागने की कृपा कीजिये। आपके द्वारा असुर के मारे जाने से सज्जनों को उसी प्रकार सन्तोष हुआ है, जिस प्रकार दूसरे प्राणियों को कष्ट देनेवाले विषपूर्ण बिच्छू और सर्प के वध से साधुजन भी प्रसन्न होते हैं। आपने अपने क्रोध से संसार-भयकारी असुर का वध करके लोगों के भय को दूर किया है। अतएव अब इस क्रोध को भयहारी मान कर भी धारण करने की आवश्यकता नहीं। आपके इस नृसिंह रूप का स्मरण ही लोगों की भय निवृत्ति के हेतु पर्याप्त है। अतः क्रोध शान्त कर इन ब्रह्मादि देवताओं के भय को दूर कीजिये। हे भगवन्! हे अजित! मैं आपके अतिभयानक मुख, विद्युत् के समान लपलपाती हुई जीभ, प्रचण्ड सूर्य के समान नेत्र, कुटिल भृकुटी और उग्र डाढ़ों को देख कर भयभीत नहीं हूँ। दैत्यराज की आँतों की इस रुधिराक्त माला के धारण से, रुधिर से भीगे हुए बालों से, खड़े हुए कानों से, दिग्दिगन्त को कम्पायमान करने वाले आपके गर्जन-तर्जन से तथा शैल-शिखरों के विदारने योग्य भयंकर नखों से मुझे नाममात्र का भय नहीं है। हे कृपावत्सल! मैं तो इस दुःसह संसाररूपी क्रूर चक्र के भय से भयभीत हूँ। संसार का असह्य दुःख मुझसे सहन नहीं हो रहा है, भगवन्! इस संसार में जहाँ देखता हूँ वहीं चारों ओर हिंसक जीवों ने डेरा डाल रखा है। मैं अपने कर्मों के बन्धन में बँधा हुआ भी आपसे विनय करता हूँ कि हे श्रेष्ठतम! आप अपने चरणों की शरणागतिरूपी मोक्ष देकर मुझे अपने समीप कब बुलावेंगे? इस संसार में प्रिय के वियोग और अप्रिय के संयोग अर्थात् जन्म-मरणादि शोकरूपी अग्नि से जलता हुआ मैं नाना योनियों में भ्रमण करने के दुःख से बचने के लिये ही आपके दास्य-योग को चाहता हूँ। हे भूमन्! मुझे अपनाइये। हे नाथ! आपके दास्य-योग को प्राप्त कर लेने पर ये सांसारिक विघ्न मेरा कुछ नहीं कर सकेंगे। ब्रह्मादि देवताओं द्वारा कीर्तित आपकी कृपा से आपके दास्य-योग द्वारा मैं उन समस्त विघ्न-बाधाओं को तर जाऊँगा। यदि आप कहें कि ‘संसार के दुःखों को मिटाने के लिये संसार ही में उपाय भी तो हैं, फिर तुम दास्य-योग क्यों चाहते हो,’ तो मेरी विनती यही है कि, सांसारिक दुःखों को मिटाने के उपाय संसार में आत्यन्तिक नहीं हैं, जो हैं वे क्षणिक हैं अथवा मिथ्या-भासमात्र हैं। बालकों के रक्षक उनके माता-पिताओं के होते हुए भी बालक दुःखी देखे जाते हैं। इतना ही नहीं, कहीं-कहीं तो अजीगर्त के समान पिता ही वधिक भी देखे जाते हैं। रोगियों के लिये ओषधियाँ दुःखनिवारक मानी जाती हैं, किन्तु वस्तुतः वे भी कुछ नहीं हैं। क्योंकि भाँति-भाँति की ओषधि करने पर भी रोगियों की मृत्यु होती हुई देखी जाती है। मनुष्यों को समुद्र में नौका, जहाज वस्तुतः शरण हैं किन्तु नौका और जहाज के साथ भी मनुष्य डूबते हुए देखे जाते हैं। अतएव हे नाथ! ये सांसारिक उपाय क्षणिक हैं और अनिश्चित हैं। आपकी शरणागति, आपका दास्य योग दृढ़ और आत्यन्तिक उपाय है। हे भगवन्! कदाचित् कहीं किसी कारणवश यदि कोई रक्षक के रूप से दिखायी पड़ता है तो वह आपसे भिन्न कोई दूसरा नहीं है। पिता आदि अर्वाचीन अथवा ब्रह्मा आदि प्राचीन कर्ता के रूप में जो दिखलायी पड़ते हैं, वे आप के ही स्वरूप हैं, रूपान्तरमात्र हैं। जिसमें, जिस निमित्त से, जिसके द्वारा, जिसके लिये, जिस हेतु से, जो कुछ कार्य, पुरुष करता है वह सब आप ही का स्वरूप है, इसमें सन्देह नहीं। हे अज! आपकी अनुमति से हो आपके अंश, पुरुष के मन को आपकी माया उत्पन्न करती है । आपकी माया, कालचक्र से प्रेरित होकर ही मन को उत्पन्न करती हैं। वह मन कर्ममय, बलवान्, दुर्जय और वेदोक्त कर्मप्रधान माया के वशीभूत होकर उसके भोग के लिये षोडशविकाररूपी आरोंवाला संसार चक्रात्मक है और बड़ा ही दुस्तर है अतएव आपसे पृथक् रहकर अर्थात् आपको न भजते हुए— दास्यभाव से रहित उस बली मन को कौन नियन्त्रित कर सकता है? अर्थात् कोई नहीं। हे नाथ! आप अपने परम धाम की चित्ररूपी शक्ति से सदा विजयी हैं। आपने अपने बुद्धिगुण को विजय किया है और मायाप्रेरित काल के कार्यों को अपने वश में रक्खा है। अतएव जैसे ईख पेरते समय किसान उसको खींचता है उसी प्रकार आप मुझको अपनी ओर खींचें। यदि आप कहें कि संसार से क्यों इतना घबराते हो, अपने पिता का राज्य भोगो और लोकपालों के भोगों का भोग करो, तो यह ठीक नहीं। मैंने देखा है कि जिन लोकपालों के ऐश्वर्य, सम्पदा, वैभव, आयु आदि मेरे पिता के प्रसन्न होने से बनते और क्रोध करने से क्षणभर में बिगड़ते थे, उनके भोग कुछ भी नहीं हैं। जिन हमारे पिताजी के ये सब अधीन थे, आपने क्षणभर में ही उनको नष्ट कर दिया है। अतएव मैं सब जानबूझ कर भी उस काल-कवलित ब्रह्मादि देवताओं से लेकर साधारण जन के भोगों को भी नहीं चाहता। मैं तो केवल आपकी दासता चाहता हूँ। कृपया आप मुझे समीप बुलाइये। कहा तो कानों को सुख देनेवाले मृगतृष्णा के समान आशीर्वचन और कहाँ अशेष रोगों का उद्भव स्थान यह शरीर। फिर भी बड़े-बड़े विद्वान् भी इस संसार में कामना से विरत नहीं होते। यह भी आपकी माया का जाल ही है। बड़े-बड़े विद्वान् कामरूपी दावानल को नाममात्र के सुखविन्दु से शमन करने में व्यग्र हैं और आपकी शरणागति के लिये अवकाश नहीं पाते। यह भी एक आश्चर्यमयी आपकी माया ही है और कुछ नहीं।
हे नाथ! कहाँ रजोगुण से इस तामसप्रधान असुरकुल में मेरा जन्म और कहाँ आपकी यह परम कृपा? जिस करकमल को आपने ब्रह्माजी के सिर पर कभी नहीं रक्खा, महादेवजी के सिर पर भी नहीं रक्खा और न जगन्माता साक्षात् रमा के ही मस्तक पर रखा है, उसी करकमल को प्रसन्नतापूर्वक आप मेरे सिर पर फेरते हैं, इससे अधिक कृपा और क्या हो सकती है?
यद्यपि अपने-पराये की बुद्धि जैसी मनुष्यों में होती है वैसी आपमें नहीं है । आप तो सारे संसार के अहैतुक हितू हैं, तथापि आप पर-अवर-बुद्धि से नहीं, कल्पवृक्ष के समान सेवा के अनुसार शुभ फल देते हैं, इसमें सन्देह नहीं। हे भगवन्! आपके परम भक्त महर्षि नारदजी ने संसाररूपी महासर्प से ग्रसित भव-कूप में परितप्त मुझको अपनी कृपा से कृतार्थ किया है– अपनाया है, फिर मैं कैसे आपके दासों की सेवा का परित्याग करूँ? हे अनन्त! आपने अपने भक्त नारदजी के वचनों को सत्य करने के लिये पिताजी को मारकर मेरे प्राणों की रक्षा की है। जिस समय असाधु-बुद्धि से मेरे पिताजी ने तलवार लेकर मुझसे कहा कि बतला, तेरी रक्षा करने वाला मेरे अतिरिक्त कौन ईश्वर है? यदि नहीं बतलावेगा तो अभी तेरा सिर काट लेता हूँ उसी समय आपने उनको मार कर मेरे प्राणों की रक्षा की है। मेरे ही क्या, इस सारे जगत् के एकमात्र आप ही रक्षक हैं, इसके आदि में उत्पन्न करने वाले, अन्त में नाश करने वाले और मध्य में रक्षा करने वाले एकमात्र आप ही हैं। आप ही अपनी माया से इस विश्व को रच कर, इसके गुणों से प्रतीत होते हैं और उसके पश्चात् इसके एक-एक अंश में भी आप ही प्रविष्ट हैं। हे ईश्वर! जगत् में सत् आप हैं और असत् भी आप ही हैं। अपनी और परायी वस्तुओं की बुद्धि जिस समय उत्पन्न होती है, उस समय आप ही की माया की लीला रहती है। विश्व की उत्पत्ति, स्थिति एवं नाश आपकी लीला है। जिस प्रकार सभी वस्तुओं के उत्पन्न होने के समय बीज से वृक्ष और वृक्ष से बीज की उत्पत्ति अन्योन्याश्रयरूप से होती है, उसी प्रकार संसाररूपी वृक्ष के बीजरूप और आपके विराटरूप का यह संसार बीजरूप है। जिस समय महाप्रलयकाल आता है, आप उस समय इस विश्व को जल में रख कर योगदृष्टि से नेत्रों को बन्द कर शयन द्वारा आनन्द का अनुभव करते हैं। तुरीयावस्था में प्राप्त होकर सारे गुणों का संसर्ग छोड़ शयन करते हैं। हे स्वामिन्! उसी समय अपनी माया-शक्ति से प्रेरित आपके इस लीलामय शरीर से आत्मा में छिपे हुए कणुका के समान वट-सदृश महा कमल की उत्पत्ति हुई और आप शयन से जागे। उसी कमल से ब्रह्माजी हुए और उन्होंने उस समय आपके अतिरिक्त वहाँ कुछ नहीं देखा। वे सौ वर्षों तक इस बात की चिन्ता करते रहे कि यह कमल कैसे उत्पन्न हुआ? बिना बीज का यह वृक्ष कहाँ से आया? ब्रह्माजी ने विस्मय को त्याग कर तप किया और तीव्र तप के प्रभाव से उनको ज्ञान प्राप्त हुआ एवं उनके हृदय के भाव शुद्ध हुए। भाव की शुद्धि होते ही जैसे भूमि में सुगन्धि उत्पन्न हो जाती है वैसे ही ब्रह्माजी को अपने आत्मा में ही अति सूक्ष्मभूत इन्द्रिय —अन्तःकरण में ईश्वर के दर्शन हुए। भगवान् का विराट् रूप ब्रह्माजी ने देखा, जिसके हजारों सिर, हजारों चरण, हजारों हाथ, हजारों उरु और हजारों मुख, नाक, कान, आभरण एवं आयुध दिखलायी पड़े। ऐसे मायामय स्वरूप को, जो साधुओं को योगदृष्टि से देख पड़ता है, ब्रह्माजी ने आपकी कृपा से देखा और वे परम आनन्द को प्राप्त हुए। इतना ही नहीं, आपने ब्रह्माजी पर यह भी अनुग्रह किया कि हयग्रीव-अवतार धारणकर वेदद्रोही महाबलवान् मधु-कैटभ नामक दैत्यों को मार कर वेदों को लाकर ब्रह्माजी को दिया। उस समय सत्त्व, रज, तम-प्रिय आपके शरीर के प्रति सब लोगों ने प्रणाम किया था। इसी प्रकार मनुष्य, पशु, ऋषि, देवता तथा जलचर के शरीर में अवतार धारण कर समय-समय पर आप जगत् के नाश करने वाले असुरों और मनुष्यों को मारते हैं। हे महापुरुष! आप सदैव सनातनधर्म की और कलि प्रभाव से लुप्तप्राय धर्म की रक्षा करते हैं तथा युग-युग में सदा सत्वावच्छिन्नरूप धारण करते हैं। हे बैकुण्ठनाथ ! यह पापी, दुष्ट, असाधु एवं तीव्र गतिवाला चञ्चल मन, आपकी कथा में कभी लगता नहीं । कामातुर हो हर्ष, शोक, भय आदि की दृष्टि से सदा दुःखी रहता है। ऐसे मन से मुझ जैसा नादान पुरुष आपकी गति को कैसे जाने? हे अच्युत! रस विषय में लीन यह जिह्वा सदैव अतृप्त रहती हुई मुझे न जाने कहाँ खींचे ले जा रही है। शिश्न विषय की ओर खींचता है, त्वचा अपनी ओर ले जा रही है, उदर न जाने कहाँ ले जा रहा है, कान शब्द की ओर, नाक घ्राण विषय की ओर और दृष्टि सुन्दर रूप की ओर खींच रही है। सभी कर्म-शक्तियाँ जीव को अपनी-अपनी ओर खींच रही हैं। जिस प्रकार अनेक स्त्रीवाले पुरुष को सब स्त्रियाँ सौतियाडाह से अपनी-अपनी इच्छा पूर्ति के लिये कष्ट देती हैं, उसी प्रकार इस जीव को ये सारी इन्द्रियाँ सताती हैं। इस प्रकार अपने कर्मों से संसाररूपी वैतरणी नदी में पड़ा हुआ यह जीव, अनेक जन्म लेता, मरता, खाता, डरता, डराता एवं अपने पराये से मैत्री-वैर करता हुआ, मूढ़ता को प्राप्त हो रहा है। ऐसे इस मूढ़ जीव का हे भगवन् ! यदि आप ही उद्धार करें, तो हो सकता है। संसार की उत्पत्ति, पालन एवं नाश के आप ही कारण हैं। अतएव आपको इस मूढ़ जीव के उद्धार करने में अधिक परिश्रम नहीं हो सकता। हे आर्तबन्धो! आप तो सदा ही मूढ़ों पर, भोले-भाले जीवों पर बड़ी ही कृपा करते हैं, फिर जो आपकी सदा सेवा करते हैं, आपके भक्त हैं उनपर कृपा करें तो कौन सी आश्चर्य की बात है? हे परमेश्वर ! आपके चरित्रगानरूपी महाअमृत में मग्न मैं अपने लिये इस दुरत्यय वैतरणी से नहीं डरता, किन्तु जो मनुष्य आपके चरणारविन्द से विमुख हैं और माया-मोहित हो इन्द्रियों के सुख के लिये सांसारिक भार उठा रहे हैं, उन मूढ़ों के लिये मैं सोच करता हूँ। हे भगवन् ! यदि आप कहें कि तू अपनी मुक्ति को ग्रहण कर, इन सब सांसारिक प्राणियों को तत्त्वज्ञ मुनि लोग उपदेश देकर मुक्त करावेंगे सो ठीक नहीं। क्योंकि प्रायः देखा जाता है कि मुनिगण मुक्ति प्राप्त करने के लिये निर्जन वन में जाकर मौनव्रत धारण करते हैं और दूसरे पुरुषों को उपदेश द्वारा उद्धार करने की निष्ठा नहीं रखते। अतएव इन मूढ़ प्राणियों के उद्धार के लिये आपके अतिरिक्त कोई दूसरा शरण नहीं है। इनको छोड़ कर मैं अकेला मोक्ष नहीं चाहता। यदि आप कहें कि ये सांसारिक प्राणी स्त्री सुखादि से सुखी हैं, दुखी और कृपण नहीं हैं तो भी ठीक नहीं है। क्योंकि जिस प्रकार एक हाथ की खुजली को दूसरे हाथ से खुजलाने से वह और भी बढ़त है घटती नहीं, उसी प्रकार ये मैथुनादि सुख गृहस्थों के लिये तृप्तिकारक नहीं, लिप्तकारक हैं, अतएव ये सांसारिक जीव सुखी नहीं, कृपण और दुःखी हैं। कामादि सुख को खुजली के समान ही लोग-विद्वान् लोग सेवन से बढ़ने वाला रोग जानते हैं।
हे नाथ! मौनव्रत, श्रुत, तप, अध्ययन, स्वधर्म, धर्मव्याख्या, एकान्त में ध्यान, जप और समाधि—ये सभी कर्म मोक्ष के साधन हैं। किन्तु इन सत्कर्मों के करने वालों की अजितेन्द्रिय लोग हसी करते हैं । दम्भी लोग उनकी नकल करते हैं और अच्छे लोग उनकी प्रशंसा करते हैं। आपके अरूपी सत् और असत् रूप, वेद के द्वारा रचे गये हैं और बीजांकुर के समान अन्योन्याश्रय हैं । योगिजन दोनों ही रूपों को ढूँढ़ते हैं और योगदृष्टि से प्रत्यक्ष देखते हैं। जिस प्रकार वे अरणिका से अग्नि निकालते हैं उसी प्रकार आपमें आपको प्रकट करके देखते हैं। हे भूमन्! वायु, अग्नि, पृथ्वी, आकाश, जल —ये पञ्च महातत्त्व और इनकी मात्राएँ, प्राण, इन्द्रियाँ, हृदय, चित् और अनुग्रह यह जो कुछ सगुण-निर्गुण है तथा मन-वचन द्वारा जो कुछ जाना एवं कहा जा सकता है, वह सब आप ही हैं—आपसे भिन्न संसार में कुछ भी नहीं है । हे उरुकाय ! ये सब गुण-अवगुण एवं महदादि तथा मनु से लेकर देव, मनुष्यपर्यन्त सब आपही को मानते हैं, इसी विचार से बुद्धिमान् जन, शब्दमात्र के उच्चारण से केवल शास्त्रज्ञान से विराम को प्राप्त होते हैं। हे पूज्यतम! इसी कारण आपको नमस्कार, आपकी स्तुति, आपकी पूजा, आपका स्मरण, आपकी कथा का श्रवण और आपको आत्मसमर्पण इस षडङ्गभक्ति बिना उत्तम गति की प्राप्ति नहीं हो सकती। इसलिये परमहंस की गति में ही लोग इस परमोत्तम भक्ति को प्राप्त होते हैं।

प्रह्लादजी की स्तुति के अन्तिम भाग का वर्णन स्व० बा० बान्धवेश महाराज रघुराजसिंहजी ने कविता में किया है—
{छन्द चौपैया}
नभ अनल समीरा धरनी तीरा इंद्रिय मन अरु प्राना।
गुण बिगुणहु जेते मन बचनेते सबमें तुम भगवाना॥
सुर नर मुनि जेते विनशहिं तेते जनमहि पुनि जग माहीं।
विधि आदि सुरेशा शेष महेशा तुमको जानत नाहीं॥
यह गुनि मन संता बैठि एकता तजहिं तुरत संसारै।
करि भक्तिहि रीती तुव पद प्रीती तुव पुर आशु सिधारै।
यह सरल उपाई अति सुखदाई केहु के मन नहिं आवै।
ताते जग जीवा लाह दुख सीवा मंगल कतहु न पावै॥
प्रभु तुव पदबंदन सब दुख-द्वंद्वन अस्तुति तुव सुखदाई।
पूजनहु तिहारो अति अघहारो पद शुचिप्रद शुचिताई॥
तव कथा सुहावनि प्रीति बढ़ावनि काल-कलमष की हरनी।
भव पारावारा अतिहि अपारा ताकी तारन तरनी॥

{दोहा}
ये षट्विधि सेवन बिना, कैसेहु भक्ति न होइ।
ताते कीजे मोहि निज, दास दुरित सब धोइ॥
इस प्रकार अपने भक्त प्रह्लादजी की विस्तृत स्तुति सुनकर भगवान् नृसिंहजी ने अपना तेजोमय विकराल रूप सौम्य एवं मनोहर कर लिया और बारम्बार की घोर गर्जना को बन्द कर मधुर वाणी से कहा– 'हे प्रह्लाद! हे भद्र! तुम्हारा कल्याण हो। मैं तुमसे अत्यन्त प्रसन्न हूँ। हे असुरोत्तम! तुमको जो अभीष्ट हो वही 'वर' माँगो। मैं तुम्हारा मनोरथ पूर्ण करूँगा।' भगवान् के इस प्रकार कहने पर भी परम भागवत प्रह्लाद ने कोई वर नहीं
माँगा। उन्होंने कहा– 'भगवन्! मैंने कामनाओं से पिण्ड छुड़ाने ही के लिये आपके चरणों की शरणागति की है। फिर भी आप मुझे उसी कामना के बन्धन में बाँधना चाहते हैं, यह बड़े अचरज की बात है। अवश्य ही आप मेरी परीक्षा ले रहे हैं किन्तु वस्तुतः आप ऐसा कभी करेंगे नहीं, क्योंकि आप दयानिधि हैं। आप अवश्य ही मुझ पर दया करेंगे और इस कामनामय संसार के बन्धन से मुझे छुड़ावेंगे। हे नाथ! जो दास अपने स्वामी से सेवा का बदला चाहता है वह दास, दास नहीं, पूरा बनिया है और जो स्वामी अपने दास से सेवा करवा कर उसको कुछ देकर टालने की इच्छा करता है, वह स्वामी भी स्वामी कहलाने योग्य नहीं है। भगवन्! —
अहं त्वकामस्त्वद्भक्तस्त्वं च स्वाम्यनपाश्रयः।
नान्यथेहावयोरर्थो राजसेवकयोरिव॥
{दोहा}
तुम अकाम मम नाथ हौ, मैं अकाम तव दास।
लोभी चाकर स्वामि सम, मैं तुम नहिं युत आस।।
इतने पर भी यदि आप मुझको वर माँगने की ही आज्ञा देते हैं, तो मैं आपकी इस आज्ञा का पालन करता हूँ, इस दशा में मैं आपसे यही वर माँगता हूँ कि 'कामानां हृद्यसंरोहं भवतस्तु वृणे वरम्' हे नाथ! मेरे हृदय में कभी किसी वस्तु की कामना का अंकुर ही पैदा न हो। क्योंकि जैसे ही मन में कामना उत्पन्न होती है, वैसे ही इन्द्रियाँ, मन, प्राण, आत्मा, धर्म, धृति, मति, लज्जा, श्री, तेज, स्मृति और सत्य नष्ट हो जाते हैं और जैसे ही कामना को मनुष्य अपने मन से निकाल फेंकता है वैसे ही वह भगवान् की कृपा से अमृतत्व को प्राप्त हो जाता है। अतः मैं आपसे यही वर माँगता हूँ कि मेरे मन में कभी वर की इच्छा ही उत्पन्न न हो!
नमो भगवते तुभ्यं पुरुषाय महात्मने ।
हरयेऽद्भुतसिंहाय ब्रह्मणे परमात्मने ॥
अर्थात्– 'हे भगवन्! आपको मेरा नमस्कार है। परब्रह्म परमात्मा को मेरा नमस्कार है। आपके इस अद्भुत सिंहरूपी मूर्ति को और इस महापुरुष स्वरूप को मेरा बारम्बार नमस्कार है।'
प्रह्लादजी ने इतना सब कुछ कहने के पश्चात् भगवान् के बारम्बार कहने पर एक वर माँगा, वह यह कि 'हे नाथ! मेरे पिताजी ने आपको अपने भाई के मारने वाला कहकर जो आपका अपमान किया है, आपके ईश्वरत्व तेज की जो निन्दा की है और मुझे आपके भक्त होने के कारण जो सताया है, इन सब पापों से मेरे पूज्यपाद पिताजी को आप मुक्त कर दें।'

प्रह्लादजी के वचनों को सुन कर भगवान् नृसिंहजी
बड़े ही प्रसन्न हुए और कहने लगे कि 'तुम-जैसे परमभागवत के लिये कामनारहित होना ही ठीक है। इसीसे तुम कोई वर नहीं माँगते। किन्तु मैं तुमको अपनी ओर से यह वर देता हूँ कि इस चाक्षुष मनु के समय तक तुम अक्षय राज-सुख भोगो और अन्त में मेरे पद को प्राप्त होओ। अपने पिताजी के विषय में तो तुमको सन्देह ही न करना चाहिए। क्योंकि तुम जैसे परमभागवत जिस कुल में उत्पन्न होते हैं, उस कुल के इक्कीस पुरुष पवित्र हो जाते हैं। फिर तुम्हारे पिता की तो बात ही क्या है। वे तो मेरे हाथों मृत्यु को प्राप्त हुए हैं।'
भगवान् श्रीनृसिंहजी को प्रसन्न जान महालक्ष्मी जी भी उनके निकट जा विराजीं। तदनन्तर देवता, यक्ष, गन्धर्व आदि सभी लोग उनकी स्तुति करने लगे। सबसे पहले ब्रह्माजी ने कहा कि — 'भगवन्! आपका यह अद्भुत रूप हम लोगों ने कभी नहीं देखा था। हम लोग इस रूप को देखकर स्तम्भित हो गये थे। नाथ! प्रह्लाद के सम्बन्ध से देवताओं के प्रबल शत्रु दैत्यराज का आपने वध कर संसार में सुख-शान्ति की स्थापना की है। अतः यह समय बड़े आनन्द का है। भगवन्! आपके चरणों में बारम्बार हमारा प्रणाम है।'
शिवजी– 'स्वामिन् ! आज तो आपने पूरा प्रलय-काल सा दृश्य ही उपस्थित कर दिया था। दैत्यराज का नाश कर आपने जो देवताओं का संकट काटा है उसका सबसे अधिक श्रेय परमभागवत प्रह्लाद ही को है। अतः हम उनको अन्तःकरण से आशीर्वाद देते हैं।'
देवराज इन्द्र– 'दीनबन्धो! अशरण-शरण! नाथ ! आपने प्रबल प्रतापी असुर हिरण्यकशिपु का वध करके हम देवताओं की रक्षा की है। इसके लिये आपके चरणों में मेरा बारम्बार साष्टाङ्ग प्रणाम है। भगवन्! दैत्यराज के वध में प्रह्लाद की अविचल भक्ति ही मुख्य कारण है।'
महर्षि नारद– 'हे भक्तवत्सल! आपने दैत्यराज को मार कर 'परमभागवत प्रह्लाद तथा अन्यान्य भागवतों के धर्म और प्राणों की रक्षा की है। इसके लिये आपके चरणों में मेरा सादर प्रणाम है।'
प्रजापति– 'हे नाथ! हम लोगों ने आपकी आज्ञा से जो सृष्टि की थी, उसको नष्ट-भ्रष्ट करनेवाला दैत्यराज आज आपकी कृपा से स्वयं नष्ट हो गया है। यह बड़े आनन्द की बात है।'
गन्धर्व– 'हे विभो ! हम लोगों को जो दैत्यराज बलात् अपने अधीन रख नचाता-गवाता तथा तंग किया करता था, उसकी आपने यह दशा की। इसके लिये हम लोग आपके चरणकमलों में कोटिशः साष्टाङ्ग प्रणाम करते हैं।'
पितर– 'हे नरहरि ! जिस दैत्यराज ने अपने बल से सारे
संसार के पुत्रों के दिये हुए पिण्डदान और तिलांजलि को अपने पेट में भर लिया करता था, उसका आपने पेट फाड़ डाला है। इस कारण हम लोगों को बड़ा आनन्द है। अतएव आपके चरणों में हम बारम्बार प्रणाम करते हैं।'
नाग– 'भगवन्! जिस पापी दैत्य ने हमारी स्त्रियों और रत्नों को हर लिया था, आज उसका हृदय विदीर्ण करके आपने जो हम लोगों को आनन्द प्रदान किया है इसके लिये आपको हम बारम्बार प्रणाम करते हैं।'
इसी प्रकार ऋषिगण, सिद्धगण, विद्याधरगण, मनु, चारणगण, यक्षगण, किंपुरुष, वैतालिक, किन्नरगण तथा विष्णुपार्षदों ने भी भगवान् की स्तुति की और परमभागवत प्रह्लादजी को आशीर्वादपूर्वक मनोवाञ्छित वर अर्थात् भगवान् की अविचल भक्ति सदा बनी रहने का वर प्रदान किया। भगवान् नृसिंहजी महाराज की आज्ञा से ब्रह्मादि देवताओं ने तथा महर्षियों ने प्रह्लादजी को दैत्यराज के राजसिंहासन पर अभिषिक्त कर उनको दैत्यों का अधीश्वर बनाया।
पद्मपुराण में कहा है कि
ततो देवगणैः सार्द्धं सर्वेशो भक्तवत्सलः।
प्रह्लादं सर्वेदैत्यानां चक्रे राजानमव्ययम्॥
आश्वास्य भक्तं प्रह्लादमभिषिच्य सुरोत्तमैः।
ददौ तस्मै वरानिष्टान् भक्ति चाव्याभिचारिणीम्॥
अर्थात् 'स्तुतियों के पश्चात् देवगणसहित भक्तवत्सल भगवान् ने अनेक ज्येष्ठ भ्राताओं के होते हुए भी समस्त दैत्यसाम्राज्य के राजसिंहासन का स्वामी प्रह्लाद ही को बनाया और उनको आश्वासन देकर उनका राज्याभिषेक भी किया तथा अनेक वरों के सहित उनकी मनोवाञ्छित अपने चरणों की अविचल भक्ति भी दी।'

इतना सब हो जाने पर भगवान् नृसिंहजी ने ब्रह्माजी से कहा 'आप अब भविष्य में कभी किसी दैत्य को ऐसा वर न दें। क्योंकि सर्प को दूध पिलाने से विष ही तो बढ़ता है।' ब्रह्माजी ने यह आज्ञा शिरोधार्य की और भक्तवत्सल भगवान् अपने वात्सल्यरस की महिमा दिखलाकर अन्तर्धान हो गये। इसी कथा के प्रसङ्ग का माहात्म्य श्रीमद्भागवत में इस प्रकार लिखा है—
य एतत्पुण्यमाख्यानं विष्णोर्वीर्योपबृंहितम् ।
कीर्तयेच्छ्रद्धया श्रुत्वा कर्मपाशाद्विमुच्यते॥
एतद्य आदिपुरुषस्य मृगेन्द्रलीलां दैत्येन्द्रयूथपवधं प्रयतः पठेत।
दैत्यात्मजस्य च सतां प्रवरस्य पुण्यं श्रुत्वानुभावमकुतोभयमेति लोकम्॥
अर्थात्– 'जो मनुष्य भगवान् विष्णु की प्रभुतापूर्ण इस पुण्य कथा को सुनते अथवा कहते हैं वे संसार के कर्मरूपी बन्धन से मुक्त हो जाते हैं। इस आदिपुरुष भगवान् नृसिंहजी की लीला को तथा दैत्यराज के वध की कथा को जो मनुष्य नित्य पढ़ते हैं और परमभागवत प्रह्लादजी के पुण्यप्रद उपाख्यान को सुनते हैं उनको लोक में किसी प्रकार का कोई भय नहीं रहता।'