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आत्महत्या

आत्महत्या

 

                  उन दिनों मैं एक शहर के विद्यालय में कार्यरत था, जहां अक्सर उन अभिभावकों के बच्चे पढ़ने आते थे, जो सच पूछिए तो शायद अभिभावक की भूमिका निभाने में असमर्थ थे या लापरवाह थे या जागरूक ना थे और आर्थिक रूप से बहुत कमजोर थे। शहर में जरा सा जागरूक कोई भी व्यक्ति अपने परिवार की न्यूनतम आवश्यकता रोटी, कपड़ा और मकान की भी पूर्ति कर पाता था, तो वह अपने बच्चों का सरकारी स्कूल में दाखिला नहीं करवाता था। समाज में एक आम धारणा किसी महामारी की तरह व्याप्त थी कि सरकारी विद्यालयों में पढ़ाई नाम- मात्र की ही होती है और गरीबों के बच्चे वहां मिड- डे- मील खाने हेतु जाते हैं। हमारा शिक्षक समाज भी इस धारणा को पक्की करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ रहा था। विद्यालय के पास ही एक कच्ची बस्ती थी और सड़क के उस पार भी एक कॉलोनी थी, जिसमें गरीब तबके के कुछ लोग छोटे-मोटे मकान, टीनशैड, टपरी बनाकर रहते थे । मेरे विद्यालय में प्राय: इन्हीं दो बस्तियों के विद्यार्थी पढ़ने आया करते थे । यूं तो विद्यालय एक अच्छी खासी यू.आई.टी. की कॉलोनी में स्थित था । पास ही और भी कई अच्छी कॉलोनियां थी। मगर वहां से कोई विद्यार्थी विद्यालय में पढ़ने के लिए नहीं आता था, छुट्टी के बाद उन सभ्य-सभ्रांत परिवारों के बच्चे खेलने विद्यालय परिसर में आते थे, जो कई असभ्य बातें विद्यालय भवन की दीवारों पर चाक से, पत्थर से उकेर जाते थे, जो हमें विद्यालय पहुंचने पर चिढाती हुई सी प्रतीत होती थी।

                 आज मेरा विद्यालय में दूसरा ही दिन था । मेरी नजर प्रार्थना में देरी से आए उन 3 बच्चों पर पड़ी जिनकी शक्ल एक- दूसरे से काफी मिलती थी, जिन्होंने काफी पुरानी, मगर साफ-सुथरी विद्यालय की पोशाक पहन रखी थी और घर में सिले हुए कपड़े के थैले में कॉपी किताबें रखी थी। चेहरे-मोहरे से किसी संभ्रांत परिवार के लगते थे । मैंने रवि जो उनमें सबसे बड़ा था, से पूछा,- " कौन सी कक्षा में पढ़ते हो?"

         " सर कक्षा 9 में।"

          " देरी से क्यों आए हो ?"

         "सर, मम्मी ने रात को ड्रेस धो दी थी, लेकिन सुखी नहीं, सुबह दो बार उसकी प्रेस की तब जाकर पहनने लायक हुई और निशी और राकेश भी मेरे साथ ही आते हैं, छोटे हैं ना साहब, इसलिए इनको भी देर हो गई ।"

          "यह कौन सी कक्षा में पढ़ते हैं ?"

           " सर निशी कक्षा 6 में और राकेश चौथी में पढ़ता है ।"

           "किंतु तुम्हें ब्रहस्पतिवार की छूट है ना, दूसरी ड्रेस पहनने की आज तो शुक्रवार है, तुम्हें कल दिन में ही ड्रेस धुलवानी चाहिए थी ना।"

           " साहब, मम्मी को दिन में समय नहीं मिला और वैसे भी मेरे पास दूसरी ड्रेस नहीं है ।"

            मैं निरुत्तर था, क्या कहता ,- "अच्छा बेटे, विद्यालय समय पर आने की आदत डालो और उसी हिसाब से अपनी चीजें मैनेज किया करो ।"

            "जी साहब ।"

            उसके बाद मैं कार्यालय में आ गया और सोचने लगा कि वह विद्यार्थी क्या मैनेज करें और कैसे ? विश्राम काल में मैंने देखा कि वे तीनों बच्चे एक साथ बैठकर मिड-डे-मील खा रहे थे, जबकि विद्यालय में कक्षा 1 से 8 तक के विद्यार्थियों के लिए ही मिड-डे-मील का नियम था ।मुझसे रहा ना गया,- " रवि तुम कक्षा नौ में पढ़ते हो , फिर मिड डे मील ...?"

           रवि कुछ सकपका सा गया , हाथ का निवाला हाथ में ही रह गया, जैसे कोई अपराध करता हुआ पकड़ा गया था, उसके मुंह से कोई शब्द नहीं निकल पाया जैसे उसको पूर्ण अपराध बोध हो । पास ही खड़े अध्यापक ने बताया,- " साहब , यह तीनों बहन- भाई मिड-डे-मील लेते हैं, मजबूर हैं , वैसे भी काफी मिड-डे-मील बचता है अपने विद्यालय में, तो कई बड़ी कक्षा के बच्चे भी खा लेते हैं, इन बच्चों का परिवार अच्छा खाता- पीता था, एक हादसे ने इनके जीवन को झकझोर कर रख दिया।"

            "क्या हुआ ?"

            " रवि के पापा ने आत्महत्या कर ली ।"

            "क्यों .....? कैसे.......?"

            " सुना है सर, कोई सट्टे में या शेयर बाजार में बड़ा घाटा हो गया...!"

            "अच्छा ठीक है ।" कहकर मैं आगे बढ़ा और रवि अन्यमनस्क भाव से पुनः खाना खाने लगा, किंतु आज शायद उसको खाने में स्वाद नहीं आ रहा था। मैं छुपी हुई नजरों से उसको देख रहा था, वह जैसे पेट भरने के लिए निवाले निगल रहा था, स्वाद के लिए नहीं। अब से पहले मुझे लगता था कि मिड-डे-मील विद्यालयों के हित में एक अच्छी व्यवस्था नहीं है, किंतु आज मुझे इसके महत्व का बोध हुआ कि एक भूखे और बेबस विद्यार्थी के लिए इसका क्या महत्व है । मैं रोज विद्यालय में आने वाले उन विद्यार्थियों को बड़े गौर से देखता था, जिनके लिए पढ़ाई से भी ज्यादा अभिप्राय शायद उस दोपहर के भोजन का था, जिसे देखते ही उनके चेहरे खिल जाते थे और सूने उदास चेहरों पर चमक लौट आती थी । वे टिम-टिमाते दीपक शायद अपनी जिंदगी को रोशन करने की जद्दोजहद में फड़फड़ा रहे थे । वे किस मुकाम पर पहुंचेंगे , इसका उनको और शायद मुझे भी कोई भान नहीं था, बस यूं ही है जिंदगी के सफर में रेंगते जा रहे थे और मैं जैसे अपनी ड्यूटी करने की औपचारिकता का निर्वहन कर रहा था । मैं कई बार सोचता था कि ऐसा क्या करूं ? कैसे करूं ? कि कुछ की ही सही, जिंदगी रोशन हो जाए । मैं पूर्ण तनम्यता से पढ़ाता था, बहुत प्रेरित करता, लेकिन परिणाम इच्छा अनुसार नहीं आता । शायद उनके परिवेश में इतने काटे थे कि उनकी चुभन, दर्द महसूस करने के अलावा कुछ करने ही नहीं देती थी या मानो ऐसा माहौल ही उनको नहीं मिलता था कि वह कुछ बदल पाएं । उनमें दिमाग कम न था, अध्ययन में ही उसका उपयोग करने का उनको अवसर नहीं मिलता था । आज भी मेरे देश में न जाने कितने रवि यूंही रोजाना अस्त होते हैं , यूं ही अपनी जिंदगी के गृहणों से लड़ रहे हैं , आज भी कितनी ही ऐसे परिंदे हैं जो आकाश में दूर तक उड़ान भरना चाहते हैं , किंतु भगवान ने उनके आकाश को इतना छोटा कर दिया है कि उसमें वे अपने पैर भी भलीभांति से सीधा नहीं कर सकते , अपने पंख भी नहीं फैला सकते , कहां है इनका भगवान ? कई के पिता रोज शराब पीते हैं, तो कई अपाहिज हैं , कई बीमार हैं, तो कई किसी बुरी लत के आदी हैं, कई के पिता- माता है ही नहीं , तो कई न के बराबर हैं । आखिर कोई माता-पिता इतना लापरवाह कैसे हो सकता है ...?कई की मां मजदूरी करती हैं और जैसे- तैसे बच्चों का पेट भरती हैं । सरकारी योजनाओं का ढिंढोरा भी यहां झूंठा सा दिखाई पड़ता है।

              रवि और उसकी छोटे भाई- बहनों के मासूम से चेहरों ने जैसे मेरे दिमाग पर कोई चित्र सा खींच दिया था । कभी मैं सोचता था कि उनका और उन जैसे बच्चों का गुनाह क्या है ...? वह अपने कर्मों का या पूर्व जन्मों के कर्मों का फल भोग रहे हैं या किसी अन्य के गुनाहों की सजा काट रहे हैं .. ? कहते हैं, ईश्वर के यहां सभी के कर्मों का लेखा- जोखा है, लेकिन इनको देखकर बुद्धि चकरा जाती है कि यह कैसा लेखा-जोखा है...? रवि जब स्कूल से घर लौटता था तो शाम को किसी कपड़े वाले की दुकान पर 3-4 घंटे काम करने जाया करता था, फिर रात में लौट कर कुछ पढ़ाई का काम करता।

         " मां, खाना दे दो बहुत भूख लगी है ।" रवि दुकान से लौटते ही बोला।

        " हां बेटा, राकेश, निशी ने भी नहीं खाया है, कह रहे थे, भैया के आने पर साथ ही खाएंगे ।"

         मां ने कुछ रोटियां और दाल सभी को परोस दी। दाल जिसमें शायद दाल नाम मात्र की ही थी, पानी ही दिखता था। " मां आप भी खा लो ना ..!" "अरे बेटा तुम लोग खा लो, मैं बाद में खाऊंगी।" रवि जानता था कि मम्मी उनके साथ खाना क्यों नहीं खा रही है, जिससे कि पहले उन तीनों भाई- बहनों का पेट भर जाए । उसने जिद की तो मम्मी भी उनके साथ खाना खाने बैठ गई। सभी ने चुपचाप खाना खाया , किसी को खाने से, दाल से , कोई शिकायत नहीं । वैसे भी उनके घर में खाना सायं को ही बनता था । सुबह दादी- बाबा के लिए पानी में थोड़ा दलिया बनाकर खिला जाती थी, बच्चे विद्यालय में खा लेते, खुद किसी के घर चौका- बर्तन करने जाती, वहां कोई चाय पिला देता, तो कोई कहीं कोई बची- खुची रोटी सब्जी भी खा लेती, कई बार तो किसी के यहां की बची हुई सब्जी, घर भी लेकर आ जाती, जिससे शाम का काम चल जाता था । जिंदगी की बेबसी भी बच्चों को इतनी इतना जल्दी बड़ा कर देती है कि बड़े आदमियों की समझ, दिल की उदारता उनकी सामने बोनी लगने लगती है, तीनो भाई -बहन बहुत जल्द समझ में बड़े हो रहे थे, तंग हालात ने उनको जीवन के गूढ़ तथ्य सिखा दिए थे, एक- दूसरे के प्रति अगाध स्नेह और त्याग की भावना थी । शायद ऐसी स्थिति में यही उनके पास एक बड़ी ताकत थी और जरूरत भी , अन्यथा वे कबके बिखर गए होते।

          सोचता हूं, सच में , ये लोग कितने मजबूत हैं और लड़ रहे हैं खड़े होने के लिए। लेकिन क्या ऐसे हादसों से गुजरने वाले सभी लोग इतना संघर्ष कर पाते होंगे.......?

          आज रवि की मम्मी को किसी मालकिन ने एक पुराना स्वेटर दिया, जो शायद रवि की नाप का था । मम्मी बोली,- " रवि देख तो तेरे यह ठीक आएगा क्या..?"

          रवि की आंखें एक पल के लिए चमक उठी, फिर उसने शरीर पर लगाकर देखा और झूठे ही कह दिया,- " मां थोड़ा छोटा लग रहा है, निशी के आएगा , वैसे भी इसको ज्यादा ही ठंड लगती है, सुबह नहाती भी नहीं है , स्कूल जाने में देरी कर देती है ।"उसके अंतर्मन में बहन के प्रति चिंता- सुरक्षा की भावना चल रही थी ।

       "नहीं भैया, यह मेरे बड़ा है और वैसे भी यह लड़कों का है , तुम तो शाम को भी ठंड में काम करने जाते हो, तुम ही पहन लो ।"

       "अरे पगली, आजकल ढीले कपड़ों का फैशन है और लड़के- लड़कियों के स्वेटर में तो कोई अंतर है ही नहीं, सभी एक जैसे पहनते हैं ।"

        उनका अपनापन देखकर मां की आंखें छलक आई। उसको जीने का सहारा उन बच्चों को देखकर ही मिलता था, उसकी निर्जीव काया में जान आ जाती थी और अगले दिन लड़ने के लिए वह उठ खड़ी होती थी। यह जिंदगी की कैसी कहानियां लिखता है विधाता......? कुछ लोग हैं कि लाखों रुपए कुछ निवालों पर खर्च कर देते हैं और कुछ लोग हैं कि कुछ निवालों के लिए लाखों दरों पर भटकते हैं।                                                                                                                                                  इसी बीच दीपावली का त्यौहार आ गया और हर त्यौहार की तरह रवि की मम्मी का जी का क्लेश। जब हर गरीब- अमीर आदमी ऐसे त्योहारों पर खुशियों के मौके ढूंढता है, तब उसके मम्मी को दिल में कोई घाव सा दे जाता था, क्योंकि उनके पास ऐसी खुशियां मनाने के लिए तिनके भर भी सहारा नहीं होता था। लोग व उनके बच्चे नए कपड़े- जूते पहनते, अपने घरों की रंगाई- पुताई करते, रंग- बिरंगी रोशनियों से सजाते, मिठाईयां- उपहार खरीदते, यहां घर सजाने की बात तो दूर , इनके घर में तो दीपक टिम-टिमाने के लिए कड़वा तेल का प्रबंध भी करना मुश्किल था, मिठाइयां -उपहार खरीदने की बात तो दूर, बच्चों को एक जोड़ी कपड़े खरीदने तक का जुगाड़ न था। बाउजी का कुर्ता कितनी जगह से हाथ में सुई- धागा लेकर सील रखा था, मगर कमबख्त पता नहीं कपड़ा ही कैसा था कि एक जगह से मजामत करती और दूसरी जगह से फट जाता। अब उन्हें कपड़ा कैसे समझाए कि उसकी भी एक उम्र है उसकी भी एक मियाद है।                                                                                                                         रवि की मम्मी को सबसे ज्यादा सदमा इस बात से लगता था कि औरों को देखकर बच्चों में कितनी हीन भावना आ जाएगी। उनके अधपके दिमाग पर क्या असर होगा, कोमल हृदय कितनी वेदनाओं को सहता होगा । वह मन ही मन सोच रही थी,- " मिठाई तो जिनके यहां काम करती हूं वहां से कुछ तो दे ही देंगे, उन्हीं से काम चल जाएगा फिर खाने- पीने की बात दो -एक दिन में आई गई हो जाती है । वह ऐसा करेगी कि जिन तीन- चार घरों में चौका- बर्तन करती है, मालकिनों से एक महीने की पगार अग्रिम देने की विनती करेगी। बच्चों के लिए एक- एक जोड़ी कपड़े तो चाहिए ही, फिर वह एक जोड़ी नई स्कूल की पोशाक ही दिलवा देगी, वैसे भी उनकी पोशाकें कई जगह से घिस- फट गई हैं और बाबूजी के लिए एक कुर्ता पायजामा जरूर लाएगी, बेचारे सोच- समझकर कभी कहते नहीं है । अम्मा के लिए सांस की दवा लेने वाला है उपकरण (इनहेलर) जरूर लाएगी, कितने महीनों से धो-धोकर उसे काम में ले रही है। मरे सरकारी अस्पताल वाले लेने के कैप्सूल तो दे देते हैं, किंतु उपकरण नहीं देते, बाहर दवाई की दुकानों से पैसे देकर लेना पड़ता है । एक बाल्टी डिसटम्बर लाकर घर की सड़क के सामने वाली मुख्य दरवाजे वाली दीवार को रवि के साथ मिलकर पोत देगी , बाहर से तो नया सा दिखने लग जाएगा। किंतु इस सब में बहुत खर्चा हो जाएगा । पूरी पगार खत्म हो जाएगी, फिर अगले महीने भूखों मरने की नौबत आ जाएगी और अध-पेट भर जो भी रूखा-सूखा मिल पाता है , उसका जुगाड़ भी दूभर हो जाएगा । लाला पड़चून वाला मरा, दो पैसे की उधार भी तो नहीं देता है फिर.........? एक काम हो सकता है, बच्चों की केवल पेंट ही खरीद लेगी , वही मरी जल्दी फटती है और दादा जी के लिए केवल कुर्ता ही ले लेगी, वैसे भी पायजामा कहां दिखता है , कुर्ते के नीचे आ जाता है, उससे कुछ तो बच ही जाएंगे ।" ऐसी ही उधेड़-बुन में रवि की मम्मी की कई रातें दीपावली और हर त्योहार से पहले गुजरा करती थी।

          कई महीने गुजर गए इस बीच मेरे बेटा- बेटी का एक अच्छे से इंजीनियरिंग कॉलेज में दाखिला हो गया । प्रवेश की प्रक्रिया हेतु में उनका स्वास्थ्य प्रमाण- पत्र बनवाने शहर के बड़े राजकीय चिकित्सालय में गया था । डॉक्टर ने मुझे कुछ देर इंतजार करने के लिए कहा‌।  मेरी मुलाकात रवि के परिवार से हो गई । रवि जो शायद दादा जी को सरकारी व्हीलचेयर पर बैठाए खींच रहा था और उसकी दादी मां जिसको शायद उसकी मम्मी सहारा देकर ला रही थी ।

     "अरे रवि कैसे हो भाई ?"

       "मैं ठीक हूं साहब , दादा जी और दादी जी को हर हफ्ता - दस दिन में लाना पड़ता है, जांच के लिए।"

      " क्या तकलीफ है ?"

      "दादा जी को लकवा का अटैक आया था और अम्मा को सांस की तकलीफ है, दमा कहते हैं ना साहब , यहां डॉक्टर साहब इनके मुंह पर मास्क लगाकर मशीन से दवा देते हैं , तो कई दिन तक ठीक भी रहती है, दादाजी तो अभी मुश्किल से ही शौचालय में बैठ पाते हैं , वह भी कुर्सी पर।"

     "दादा जी को कब हुआ अटैक?"

     " चौथा महीना है साहब, सब तकदीर का खेल है साहब , विपदाएं आती है तो अकेले थोड़े ही आती हैं, जैसे ही रवि के पापा गए , एक के बाद एक, अनहोनी ने हमारा जीवन दूभर कर दिया है साहब ।"- उसकी मम्मी बोली जो शायद समझ गई थी कि मैं रवि की स्कूल का प्रिंसिपल था।

     "हां जी , ईश्वर कभी-कभी बड़ी परीक्षा लेता है ।"

      "यह कैसी परीक्षा है साहब, जो खत्म ही नहीं होती, जीवन ही छोटा पड़ जाएगा। "

        बातों ही बातों में रवि और उसकी मम्मी ने बताया कि उनका परिवार बहुत खुशहाल था । रवि के बाबा किसी प्राइवेट बैंक में मैनेजर थे। रवि के पापा ने कोई नौकरी नहीं की थी । अनाज मंडी में गल्ला (जींस ) क्रय- विक्रय का काम करते थे । रवि के बाबा जब रिटायर हुए तो सारी पूंजी लगाकर मंडी में खुद की आढत की दुकान खरीद ली थी । पहले जींस का यूं ही व्यापार करते थे। उनको अच्छी समझ थी इस व्यापार में । लेकिन पता नहीं वह शेयर बाजार में भी रुचि रखते थे और पैसे लगाने लगे थे । धीरे-धीरे कभी-कभी सट्टा बाजार में भी रकम लगाने लग गए थे । शेयर बाजार में थोड़ा घाटा हुआ, तो फिर उस घाटे को पूरा करने के लिए बड़ा दांव लगाने लगे, फिर और बड़ा घाटा हुआ, फिर और बड़ा दांव लगाने लगे और उस घाटे को पूरे करने के चक्कर में, कि आज पूरा हो जाएगा, आज पूरा हो जाएगा, इतने डूब गए कि औरों से उधार लेकर भी शेयर और सट्टा बाजार में उन्होंने बड़ी रकम लगा दी थी। उन दिनों ग्वार- सीड के दामों में बहुत बढ़ोतरी हुई थी । उन्होंने इस वर्ष ग्वार का बड़ा स्टॉक क्रय कर लिया था, जिसके भाव ऐसे गिरे कि कई वर्षों तक उठे ही नहीं । उनको लाखों का घाटा हुआ, उधारी चुकाने के लिए स्टॉक घाटे में बेचना पड़ा । शेयर बाजार भी औंधे मुंह पड़ा हुआ था । दुर्भाग्य से शेयरों में लगाई गई पूंजी, बाजार टूटने से आधी से भी कम रह गई और उनको भी आनन-फानन में ओने- पौने दामों में बेचना पड़ा, लेकिन उधारी अभी भी बहुत बाकी थी, व्यापार के लिए रकम भी नहीं थी और अन्य लोगों ने उधार देने से भी मना कर दिया। काम ठप हो गया। रवि के बाबा को तो पेंशन भी नहीं मिलती थी। रवि के पापा की दिमागी हालत खराब हो गई। उधार मांगने वाले लोग घर तक आ जाते थे ।उनके ब्याज की रकम भी बढ़ती गई और आखिर में उनको दुकान बेचनी पड़ी, किंतु उधारी अभी भी पूर्ण चुकता नहीं हुई । घर पर भी किसी बैंक से ऋण ले लिया था। कई रिश्तेदारों से मदद लेने की कोशिश की, लेकिन आज की दुनिया में रिश्ते हैं कहां ? और आखिर उस इंसान ने जिंदगी से हार मान ली और एक दिन सुबह उनके कमरे में उनका निश्चल शरीर पड़ा रह गया। उसने खुद की जीवन लीला समाप्त कर दुनिया को अलविदा कह दिया, बिना यह सोचे समझे कि उसके पीछे उसके परिवार का क्या होगा। यह सब बातें बताते हुए रवि की मम्मी का गला रुंध गया । दादा की आंखों से अविरल धाराएं बह रही थी । इतने में ही डॉक्टर के चेंबर से रवि के दादा का नाम पुकारा गया। रवि दादा जी को डॉक्टर के चेंबर में लेकर गया। मम्मी उसकी दादी के पास ही खड़ी थी।

         मैं उसको किस तरह दिलासा दूं ?क्या कहूं ?दिमाग सुन्न हो गया,-" रवि की मम्मी धैर्य तो रखना ही पड़ेगा एक दिन सब ठीक हो जाएगा।"

         "एक दिन कब आएगा साहब  ? कहां तक धैर्य रखूं ? सुबह से चार घरों के चौके- बर्तन करती हूं, तब कहीं जाकर हमारा पेट भरता है, बच्चों के पास सर्दी का एक कपड़ा तक नहीं है , फटी रजाई में सिकुड़-सिकुड़ कर रात काटते हैं , ऊपर से दादाजी और अम्मा की सेहत भी सही नहीं रहती। इनकी देखभाल भी कहां हो पाती है ।"

        "अरे बेटी कितना चिंता करोगी, उम्र हो गई है हमारी और कितना जिएंगे और तू जो कर रही है, कौन कर सकता है।"कहती हुए रवि की दादी बिलख पड़ी । उनकी आंखों में कितनी वेदना थी, फिर भी बहू का हौसला अफजाई कर रही थी ।

      "थक गई हूं साहब, कई बार मरना चाहती हूं, लेकिन बूढ़े मां- बाप और बच्चों को देखकर हिम्मत नहीं जुटा पाती, मैं इतनी साहसी नहीं ।"

       "यह साहस नहीं कायरता है रवि की मम्मी। जब रवि के पापा के आत्महत्या करने पर तुम्हारा यह हाल हो गया, तो तुम्हारे बाद क्या होगा, सोच सकती हो.......!"

       वह निशब्द रहकर भी अपनी आंखों की गहराइयों से बहुत कुछ कह रही थी। समझ नहीं आ रहा था कि वे टुकड़ों में जी रहे थे या कतरा- कतरा मर रहे थे ।उस शख्स ने आत्महत्या की थी या इन छः व्यक्तियों की हत्या......! उसने खुद जिंदगी से मुक्ति पाई थी या इनको बीच भंवर में डूबने के लिए छोड़ गया था.......! ईश्वर की यह कैसी परीक्षा है ? इंसान कई बार जीने की कोशिश करता हुआ भी मर जाता है और एक हादसा किस प्रकार जिंदगी के मायने बदल देता है । जब हम जिंदगी के थपेड़ों से इस तरह टूट कर बहुत दूर चले जाना चाहते हैं, तो क्या हमारी आत्मा को मरने के बाद भी सकून मिलता होगा .....? क्या दुनिया ऐसे व्यक्तियों को मरने के बाद भी, कहां मरने देती है ? हर पल बुद्धिमानी दिखाते हुए उसको कोसती है, बच्चों को हर कदम पर न जाने कितने ताने- उलाहने सुनने पड़ते हैं और क्या वास्तव में ऐसे व्यक्ति की आत्मा को मुक्ति पाने का हक है .........? और ईश्वर उससे क्या इस बारे में सवाल नहीं करता होगा कि मेरे पास आते वक्त भी तू कई लोगों की हत्या का अपराध करके आया है .....? वह व्यक्ति चाहे किसी का बाप हो या जवान बेटा- बेटी , पीछे वाले लोगों को तो मरना ही पड़ता है । मैं वेदना के किसी अथाह सागर में कहीं खो गया था। उनसे बातें बढ़ाने की हिम्मत ही नहीं हुई। वहीं बेंच पर बैठा हुआ पता नहीं किस सोच में डूब गया । उन्होंने सोचा होगा कि शायद मेरी रूचि ने जवाब दे दिया होगा । वे लोग दिखाकर जा चुके थे । मुझे ध्यान ही नहीं रहा । फिर चपरासी ने बेटा- बेटी के स्वास्थ्य प्रमाण पत्र हाथ में लिए हुए नाम पुकारा, तो मैं हड़बड़ा कर खड़ा हुआ ,- "हां जी, हां जी, मुझे दे दो।"

        अब भी रवि और उसके भाई-बहन कई बार देरी से विद्यालय आते थे , किंतु फिर कभी उनसे कारण पूछने की हिम्मत नहीं हुई । आज फिर अखबार में खबर पढ़ी की आई.आई.टी. परीक्षा की तैयारी करते हुए कोटा की किसी कोचिंग के छात्र ने आत्महत्या की। फिर दिल दहल उठा , उसके मां- बाप के बारे में कल्पना कर आत्मा सिहर उठती थी । काश ! हे ईश्वर ! कभी ऐसा होगा कि ऐसी खबरें अखबार में नहीं छपेंगी....!