Tum door chale jana - 14 - Last part books and stories free download online pdf in Hindi

तुम दूर चले जाना - 14 - अंतिम भाग

तृतीय परिच्छेद

बहुत दिनों के पश्चात.

एक अर्सा गुज़र गया। ऋतुएँ समाप्त हो गयीं। तारीखें बढकर, हफ़्तों, महीनों और वर्षों में बीत गयीं। समय की पतों में सबकुछ दब गया। बहुत कुछ समाप्त-सा हो चला। दीनापुर का रेलवे स्टेशन बनकर पूर्णत: तैयार हो गया है। वीनस ने इस रेलवे-लाइन को बिछाने में अपने परिश्रम और सूझबूझ का परिचय दिया । … इस प्रकार कि उसकी पदोन्नति हो गयी है।

यादों के सिलसिले में बात आयी-गयी हो गयी। प्यार की बातें करनेवाले आगे बढ़ गये। बहुत कुछ भूल भी गये- हालांकि वही दीनापुर है। दीनापुर का वही छोटा-सा गाँव भी है। गाँव में अभी तक वही पुराने लोग हैं। कुछेक चल भी बसे हैं। खेतों की हरियाली में अभी तक वही गीत हैं। यहाँ के वृक्षों और शाखाओं की वही सुगन्ध है।

लोग सूरज को भूल गये हैं। उसकी सम्पत्ति, खेत, घर-वार को उसके दूर के रिश्तेदार सँभाले हुए हैं। लहरी भी लाठी पकड़कर चलने लगा है। अब वह अपने ही घर में रहता है। अपने बच्चों के साथ। सूरज के घर पर उसका कार्य समाप्त हो चुका है। दीनापुर के इस नये निर्मित रेलवे स्टेशन का उदृघाटन करने के लिए स्टेशन को हर प्रकार से सजाया गया है। फूल-पत्तियों से उसे संवार दिया गया है। रेलवे बोर्ड के ही कोई उच्च-पदाधिकारी आज इसका उदृघाटन करनेवाले हैं। केले के तनों से उनके स्वागत हेतु ऊँचा द्वार बना दिया गया है। नये निर्मित स्टेशन के कारण दीनापुर गाँव में भी उल्लास है। बच्चों के मुखों पर उमंगें है। गाँव के अधिकांश लोग अपना काम-काज छोड़कर सुबह से ही स्टेशन के प्लेटफॉर्म पर आ जमे हैं। मनुष्यों की भीड़ बढती जा रही है और जो पहली ट्रेन यहां से रवाना होने को थी, उसे भी खूब नयी-नवेली दुल्हन के समान सजा-संवार दिया है। यह ट्रेन सीधी यहाँ से मथुरा जा रही है। इस रेलवे स्टेशन के बनने से यहां की जनता को काफी सुविधा हो जायेगी।

मनुष्यों की इन्हीं भीड़ में, ट्रेन के एक केबिन में किरण भी बैठी हुई है- चुपचाप। उदासियों की रूपरेखा बनी हुई। उसका पति वीनस अपने साथी अधिकारियों के मध्य अधिक व्यस्त है, चूँकि आज इस नवीन रेलवे स्टेशन का उदृघाटन होने को है। इसी कारण वीनस अपनी पत्नी किरण को भी ले आया था और किरण अभी तक चुपचाप बैठी थी- बहुत उदास। आंखों में अपने अतीत का कोई दर्द समेटे हुए- सूरज उसे आज रह-रहकर याद आ रहा था। बार-बार वह उसकी स्मृति-मात्र से ही विचलित हो जाती थी। आँखें स्वत: ही गीली हो जाती थीं। उसके जी में बार-बार यही आ रहा था कि वह कहीं भी एकान्त में जाकर खूब रो ले। खूब ही तड़प ले और अपना सारा दर्द बहा दे, परन्तु परिस्थिति को अनुकूल न पाकर वह अपने दु:ख-दर्द को भीतर-ही-भीतर दबाये हुए थी। सूरज को उसने अपने पास से दूर चले जाने को कहा था। उसे क्या ज्ञात था कि वह इस भरे संसार से ही चला जायेगा। अपने मार्ग में आने के लिए उसने मना किया था। वह क्या जानती थी कि वह इस संसार से ही उठ जायेगा। प्यार का खेल उसने खेला नहीं था। वह तो उसे चाहता रहा था। दिल में बसाये हुए उसको प्यार किये हुए था, परन्तु उसने उसकी इन बातों की कोई परवाह नहीं की थी- परवा करना तो दूर, उसे इतनी पुरी तरह निराश कर बैठी कि वह अपने जीवन को ही समाप्त कर बैठा। यही वह गम था- यही वह सदमा था और यही पश्चाताप था कि आज वह उसके अभाव में रो रही थी। आंसू बहा रही थी। बार-बार, एक टीस-सी उसके कलेजे में उठकर रह जाती थी, परन्तु आज कोई भी उसके इस दु:ख को बाँटनेवाला नहीं था। स्वयं वीनस से भी वह इस विषय में कुछ कह नहीं सकती थी।

…. अचानक ही तालियों की गड़गड़ाहट के मध्य ट्रेन चलने लगी, तो बैठी हुई किरण के विचारों की श्रंखला अपने आप ही टूट गयी। उदृघाटन हो चुका था। ट्रेन चलना आरम्भ हो गयी थी . . . अपनी ही गति में- धीरे-धीरे वह गति पकड़ती जा रही थी। दीनापुर के अधिकांश स्त्री-पुरुष और बच्चों ने आकर माहौल को और भी अधिक मोहक बना दिया था। सारा प्लेटफॉर्म ही झण्डियों और फूल-पत्तियों से सजा हुआ था। स्टेशन की हर वस्तु में एक रौनक थी।

ट्रेन चली जा रही थी… और बैठी हुई किरण की आँखें भी किसी को खोज रही थीं। किसी की तलाश में वह टकटकी लगाये ट्रेन की खिड़की से बराबर बाहर निहार रही थी- वीनस अपने साथियों के साथ अन्य केबिन में था। धीरे-धीरे ट्रेन ने गति पकड़ ली। इस प्रकार कि मार्ग के वृक्ष, खेत, टेलिफोन के तारों के खम्भे ज़ल्दी-जल्दी पीछे भागने लगे। फिर भी ट्रेन अन्य ट्रेनों के अनुपात में धीमे ही चलायी जा रही थी। किरण अभी तक वैसी ही बैठी हुई थी। दीनापुर गाँव पीछे छूट गया था। बच्चे अभी भी शोर मचा रहे थे, तभी अचानक ही एक शिलालेख उसकी दृष्टि के सामने से गुजर गया- किरण ने तुरन्त पीछे की ओर देखा- देखा तो पढ़कर तड़प गयी। अभिलेख बिलकुल रेलवे-लाइन की पटरी के किनारे ही, सटा हुआ-सा लगा था। उस पर मोटे-मोटे अक्षरों में लिखा हुआ था कि, 'तुम दूर चले जाना'- किरण ने पढ़ा तो स्वत: ही उसकी आँखों से आँसुओं की कुछेक बूंदें बहकर नीचे गिर पडीं । उसे समझते देर नहीं लगी कि जिस ट्रेन में वह बैठी है, वह उसके प्यार करनेवाले की छाती पर से होकर ही गुजरी थी. पीछे छूट गये शिलालेख का शायद यही अर्थ था ? रेलवे बोर्ड के कर्मचारी सूरज के बारे में जब कुछ अधिक ज्ञात नहीं कर सके और उसके परिवार तथा रिश्तेदारों की और से जब कोई विशेष आपत्ति नहीं उठायी गयी, तो उन्होंने रेलवे-लाइन को यथास्थान ही रखा था- केवल, फिर भी मरनेवाले के सम्मान में उन्होंने उसकी मजार का शिलालेख अवश्य ही ऊँचा कर दिया था और अभिलेख के लिखे शब्दों को जैसे-का-तैसा लिख भी दिया था।

सूरज, जो प्यार का एक मामूली व्यक्ति बनकर किरण के पास आया था, अब उसके मन-मन्दिर का देवता बनकर सदा के लिए उससे दूर भी चला गया था… । इतनी दूर … कि जहाँ से वह अब कभी भी लौटकर नहीं आ सकेगा- आयेंगी तो केवल उसकी वे यादें, जिन्हें दोहराने के लिए वह छोड़ गया था। जब कभी, कोई भी ट्रेन इस दीनापुर गाँव से गुजरेगी, तो जैसे हमेशा मृत्यु की नींद में सोये हुए सूरज के दिल का हाल भी पूछती जाया करेगी … और यहां से ट्रेन के द्वारा जानेवाला हरेक मुसाफिर दूर ही चला जाया करेगा। बिलकुल किसी सफर में जाते हुए किसी यात्री की स्मृतियों के साथ। जैसे एक दिन सूरज किरण के पास से बहुत निराश और उदास होकर चला गया था। इसी प्रकार जब भी कोई यहाँ से गुजरेगा, तो स्वयं ही उसकी दृष्टि इस शिलालेख पर टिक जाया करेगी। फिर वह सोचा करेगा, पढ़ा करेगा- 'तुम दूर चले जाना'- लेकिन इसके पीछे छिपी हुई उसकी दु:खभरी कहानी को शायद कोई नहीं जान पायेगा? कोई भी इस अभिलेख के लिखे हुए एक-एक शब्द का अर्थ ! उनकी वेदना ! किसी टूटे हुए दिल की आहों और सिसकियों को महसूस नहीं कर पायेगा। कुछ जान नहीं पायेगा… जो जानेगा, वह कभी भी जाहिर नहीं कर पायेगा … किसी को बता भी नहीं सकेगा।

हर प्यार करनेवाले के केवल दो ही अंजाम हुआ करते हैं- वे बहुत करीब आ जाते हैं या सदा-सदा के लिए बहुत दूर चले जाया करते हैं। गुजरे हुए वक्त के समान ही, जो कभी भी जाकर दुबारा वापस नहीं आया करता है। यदि ऐसा हो जाया करता, तो टूटे हुए दिलों का दर्द और असफ़ल प्यार की दर्दभरी कहानियों को लिखने के लिए, शायद किसी भी लेखक की कलम नहीं चलती?

-समाप्त.