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अपना आकाश - 4 - तू कितनी भोली है? 

अनुच्छेद-४
तू कितनी भोली है?

सायंकाल मंगल खाना खाकर बैठे। भँवरी से बताया कि बोरिंग और पंपसेट की व्यवस्था बैंक से हो जाएगी। अलग से कुछ नहीं देना पड़ेगा। मड़हा की थूनी से टंगी लालटेन जल रही थी। 'बोरिंग और मशीन का खर्चा तो ज्यादा होगा ?' भँवरी जिज्ञासु की तरह पूछ बैठी ।
'बहुत ज्यादा नहीं, कुल बाईस हजार लगेगा।'
'इतना तुमको ज्यादा नहीं लगता वीरू के बाबू?" भँवरी को आश्चर्य हो रहा था। एक साड़ी का डेढ़ सौ रूपया दाम तुम्हें ज्यादा लगता है और यह बाईस हजार. ।' 'पर इससे हमारे पास सिंचाई का साधन हो जायगा। सबसे बड़ी बात यह है कि हमें कुछ देना नहीं पड़ रहा है। इसी के सहारे हमारी आमदनी बढ़ जायगी। तब हम डेढ़ सौ की नहीं, पाँच सौ की साड़ी खरीद सकेंगे।'
'पर वीरू के बाबू हमरी समझ में कुछ आ नहीं रहा है।' 'जब आमदनी होने लगेगी तो समझ में आएगा। अभी सब कुछ दूर है इसलिए... क्या तुम्हारी इच्छा नहीं होती कि पांच सौ की साड़ी पहनें ?"
'होती क्यों नहीं? लेकिन कर्ज लेकर नहीं।'
'तुम भी कुछ पढ़ी हो। गुणाभाग कर लेती हो। तन्नी और वीरू को पढ़ाना है, शादी-विवाह करना है। कुछ कमाया नहीं जाएगा तो यह सब कैसे हो सकेगा? तन्नी बी.एस.सी. करना चाहती है। उसमें खर्च लगेगा।' 'खर्च तो लगेगा लेकिन कर्ज़ से न जाने क्यों मुझे बहुत डर लगता है। राघव राम का ट्रेक्टर कम्पनी वाले खींच ले गए कि नहीं? खेत भी नीलामी पर चढ़ गया।' 'पर वे ट्रैक्टर तो चलाते रहे पर एक किस्त के अलावा और जमा ही नहीं किया। तब यहीं होना ही था । हम पहले कर्ज चुका देंगे तब कुछ और करेंगे।'
'कर्ज़ माँगने कोई दरवाजे पर न आवे, वीरू के बापू', कहते हुए भँवरी की आँखों में आँसू आ गए। 'जब हम पहले ही चुका देंगें तो कोई कर्ज माँगने दरवाजे पर क्यों आएगा?"
"अभी सिर उठा कर चल रहे हो। कर्ज़ सिर पर हो जाएगा तो....।'
“तब भी सिर उठाकर ही चलेंगे। कर्ज चुकते देर नहीं लगेगी। एक पैसा भी इधर-उधर खर्च नहीं करूँगा। जो कर्ज़ लेकर चुकाते नहीं उनकी मूँछ नीची होती है। जो समय से चुका देते हैं उनकी इज्जत पर कोई आँच नहीं आती।' ‘हमारी समझ में तो तभी आएगा जब हम चुकता कर उबर जाएंगे।' 'तू कितनी भोली है वीरू की माई?" कहते हुए मंगल ने भँवरी का हाथ अपने हाथ में ले लिया ।
'अभी दोनों लौटे नहीं ।' भँवरी ने चिन्ता जताई। 'कब गए हैं?" 'चार बजे तन्नी और वीरू दोनों तरन्ती के यहाँ फिल्म देखने गए हैं।'
"अब तक आ जाना चाहिए। कहो तो मैं जाकर देखूं ।'
तब तक कुछ आहट हुई । तन्नी और वीरू आ गए। 'कौन सी फिल्म देखी बेटे ?' मंगल ने पूछा। 'कौन सी फिल्म थी दीदी?" वीरू नेतन्नी से पूछा ।
'ममता की छाँव ।'
'फिल्म तो अच्छी रही होगी।'
"हाँ ठीक थी। एक अच्छी पारिवारिक फिल्म ।
"अच्छा हाथ मुँह धोओ। चलो खाना खाओ।' भँवरी ने निर्देश दिया। दोनों अंदर चले गए। कपड़ा बदला । नल पर गए, हाथ मुँह धोया।
भँवरी उटी । रसोई की ढिबरी बुझी देखकर लालटेन को लेकर अन्दर गई। तीन थालियों में खाना परोसा और तीनों बैठ कर खाने लगे। 'तुम लोगों ने बहुत देर लगा दिया।' भँवरी ने कहा।
' फिल्म में विज्ञापन बहुत रहते हैं। इसीलिए दो घण्टे की फिल्म में तीन घण्टे लग जाते हैं।’ तन्नी ने समझाया।
'तो चले आते।'
"बीच में ही छोड़कर ?'
"क्या हुआ ?"
'मन उसी में लगा रहता।'
'फिल्म का इतना नशा होता है?" भँवरी के इस वाक्य को सुनकर तन्नी हँस पड़ी ।
'जब मन बराबर उसी में लगा रहे तो नशा नहीं हुआ ! नशा और किसे कहते हैं? अभी इस तरह का नशा करने की ज़रूरत नहीं है। अपनी किताब-कापी देखो। उसी में मन लगाओ। तुम्हारे बापू परेशान थे कि अभी तक दोनों लौटे नहीं।'
"बापू बहुत जल्दी परेशान हो जाते हैं।' तन्नी बोल पड़ी। 'होना ही चाहिए।' भँवरी ने जवाब दिया ।

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