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अपना आकाश - 10 - कुछ करना तो ईमानदारी से

अनुच्छेद- 10
कुछ करना तो ईमानदारी से

वत्सला अपनी माँ अंजलीधर को साथ ले आईं। उन्हें दमे की शिकायत है। कभी कभी दमा बढ़ जाता और खाँसते खाँसते उनका दम निकलने लगता । ऐसा पूरी जिन्दगी में तीन बार ही हुआ है। पर जब दमा उभरा, उन्हें दो-तीन सप्ताह दवा करनी पड़ी। आज रविवार हैं। वत्सला ने दो कप चाय बनाया। एक कप माँ को देकर दूसरा कप हाथ में ले वे सोफे पर बैठ गईं। वे स्कूल चली जातीं तो माँ अकेली हो जाती। अंजलीधर बराबर कहतीं, बेटे तुम चिन्ता न करो, हम रह लेंगे। दिन में कोई दिक्कत न होगी। मैं दवा ले लूँगी। अभी हाथ- पाव चलाने में बहुत कठिनाई नहीं है।
अंजलीधर और वत्सला की चिन्ताएँ अलग अलग हैं। माँ यह चाहती है कि बेटी को एक परियों वाला सामाजिक राजकुमार मिल जाए। उसका क्या? कुछ दिन और रहेगी । पर्वाना आते ही ऊपर जाना होगा। बेटी की तो पूरी ज़िन्दगी पड़ी है। कभी कभी वे वत्सला से उसकी रुचि जानना चाहतीं जिससे उस राजकुमार को ढूँढ़ने में परेशानी न हो। पर राजकुमार न जाने कहाँ छिपा बैठा है, जल्दी दिखता ही नहीं। पिता होते तो दौड़ धूप कर लेते पर अंजली कहाँ दौड़े। इन्टरनेट और अखबार शादी के विज्ञापनों से भरे रहते पर पारम्परिक मन इन उड़ानों में ज्यादा विश्वास नहीं कर पाता। वैसे भी विज्ञापन तो अर्द्धसत्य ही हुआ करते हैं।
वत्सला भी शादी के बारे में सोचतीं पर मन माँ की देखभाल को लेकर अटक जाता। पता नहीं पति मेरी माँ का साथ रहना पसन्द करे या नहीं। माँ को छोड़कर अलग रहने की बात वह सोच नहीं पाती। माँ कहती भी- मैं कैसे भी रह लूँगी, तू अपनी चिन्ता कर। पर बेटी वृद्ध माँ को कैसे छोड़ दे ? माँ के साथ वह इतनी जुड़ी अनुभव करती है कि अलग रहने के बारे में सोच नहीं पाती।
तन और मन का द्वन्द्व निरन्तर चला करता। मन की उड़ान में तन कभी विद्रोह कर देता। पूरा शरीर अकड़ जाता। माँ का स्पर्श और चुम्बन उसे राहत देता। मनोविश्लेषक मन की गुत्थियों को कितना समझ पाए हैं? केवल समुद्र में बूँद जैसा । वत्सलाधर के अन्तर्द्वन्द्व उसे विचलित करते। माँ बाल गोपाल की पूजा में घंटी बजाने को कहती तो बजा देती। भावी जीवन के बारे में विचारती रहती। हर्बर्ट स्पेन्सर की तरह वह विवाह के पक्ष और विपक्ष में तर्कों का जोड़-घटाव तो नहीं करती पर किसी विकल्प पर पहुँचना इतना आसान नहीं होता। पारम्परिक विवाह जन्म जन्मान्तर का सम्बन्ध बताने वाले मिल ही जाते। कोई कह देता जिसके साथ जोड़ा बनना होगा बनेगा ही। बहुत छटपटाने से कुछ होना नहीं। कोई पुरुष विवाह के लिए दौड़ धूप करने वाला न होने से लोगों के कहे हुए ये शब्द थोड़ी राहत देते ।
खुलेपन के बाद भी सामान्य लड़की परम्परा की ओर अधिक झुक जाती है। वत्सला भी स्वयं पहल करके शादी तय कर ले ऐसा अभी तक नहीं हो पाया। ऐसा भी नहीं कि वत्सला की ओर लड़कों के हाथ नहीं बढ़ते । पर माँ और बेटी की दृष्टि में कोई न कोई ऐसी बात ज़रूर आड़े आ जाती जिससे चलती गाड़ी अचानक ठहर जाती । प्रायः यह होता रहता। पात्र बदलते, स्थितियाँ, अवरोध के कारण भी बदल जाते । वत्सला जी तीस पार कर रही हैं पर शरीर ठनठनाता हुआ।
अंजलीधर एक लड़के के बारे में बात करती हुई बोल पड़ीं, 'सुना है माँ का स्वभाव तीखा है। बहुत कंजूस भी है वह । ऐसे घर में कैसे रह पाएगी बेटी?' वत्सला ने चाय पीते हुए माँ की टिप्पणी सुनी। विवाह भी एक तरह से अंधेरे में छलांग ही है पर कोई बिना कुछ जाने समझे बेटी का हाथ किसी को कैसे दे दे। माँ बोलती रही। 'बेटी दवा निकाल दे।' वत्सला ने दवा की गोलियाँ और एक गिलास पानी लाकर रखा। दवा खिला पानी पिला वे तौलिया लेकर स्नानगृह में जा रही थीं कि दरवाजे की घंटी बज गई। झाँका । तन्नी को देखकर दरवाजा खोला। कहा 'माँ आ गई हैं। उनके साथ बैठो, मैं नहा लूँ ।' तन्नी माँ से परिचित थी। जाकर उनका पैर छुआ। ’तन्नी तुम?’ माँ खुश हो गई।
'जी', कहकर बैठ गई।
माँ अपना पैर धीरे-धीरे सहला रही थी। तन्नी उठी, रसोई में रखी बोतल से एक कटोरी में कडुवा तेल निकाला। लाकर माँ के पैरों में धीरे-धीरे मालिश करने लगी। माँ को थोड़ा आराम मिला।
"तू जिस घर में रहेगी, स्वर्ग बना देगी बेटी ।'
माँ के मुख से निकला ।
तन्नी संकोच से दबी, मालिश करती रही। पैरों की मालिश के बाद हाथों में भी तेल लगा दूँ माँ जी ? तन्नी हाथों की भी मालिश करने लगी। माँ आँखें बन्द करके जैसे उसके लिए प्रार्थना कर रही हों। हाथ की मालिश की। उंगलियाँ चटकाई । माँ को जैसे कुछ याद आया। पूछ बैठी, 'कैसे आई तन्नी ?' 'बहिन जी कोचिंग की कहीं व्यवस्था कर देंगी। इसी की जानकारी करने आई हूँ माँ जी।' तन्नी ने माँ जी के बालों में कंघी करते हुए उत्तर दिया।
'कैसा समय आ गया है बेटी ? बिना कोचिंग के काम ही नहीं चल पाता। हमने भी गणित और विज्ञान पढ़ाया। कक्षा में इतना पढ़ा देते थे कि ट्यूशन की ज़रूरत ही नहीं पड़ती थी। कभी किसी बच्चे को कुछ पूछना हुआ तो बिना कुछ लिए उसे पढ़ा दिया। पर आज.......?' कहते हुए उनकी आँखें दीवार पर टँगे चित्र पर अटक गईं।
"यह चित्र वत्सला के पिताजी का है बेटे। वे कहा करते थे बच्चों के साथ विश्वासघात न करना। पूरी शक्ति भर पढ़ाना। मुझे संतोष है कि मैं उनके निर्देशों का पालन कर सकी। यही मैं वत्सला से भी कहती रहती हूँ | तू भी कुछ करना तो ईमानदारी से करना बेटे' माँ बोलती रही और तन्नी उनके सिर को दबाते हुए बालों को सँवारती रही। सिर दबा चुकी तो उसने जूड़े को बड़ी कुशलता से बाँध दिया। अंजली का स्नेह उमड़ पड़ा। तन्नी के गाल पर एक पप्पी जड़ दिया। तन्नी के चेहरे पर लज्जा और उत्फुल्लता का मिला जुला भाव उमड़ आया । तन्नी के पैरों को देखकर अंजली ने कहा, 'पैर साबुन से खूब साफ किया करो बेटी। नारियों की पहचान चेहरे से नहीं पैरों से होती है।' । "अच्छा माँ जी, धूल में ही हम लोगों को चलना होता है......।' तन्नी कह ही रही थी कि बाथरूम का दरवाजा खुला । तौलिया लपेटे वत्सलाधर निकलीं । बाल भीगे, निखरा रूप । तन्नी दौड़ कर बड़ी कंघी ले आई। वत्सला कंघी से बालों को साधते कमरे में चली आई। मैक्सी पहन बालों को काढ़ते हुए निकलीं । तन्नी ने तौलिया लेकर सूखने के लिए डाल दिया ।
'क्या खाओगी माँ?' वत्सला ने पूछा।' आज इतवार है केले का कोफ्ता बन जाए।' माँ ने वत्सला को देखते हुए कहा ।
'तू कोफ्ता बना लेती है तन्नी ?' 'नहीं माँ जी, आप बनवाएँगी तो सीख लूँगी ।'
'ठीक है, आज तू ही बना ।'
तन्नी ने टोंटी खोल पैरों को मल कर धोया।
केले को उबलने के लिए कुकर में रख दिया।