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अपना आकाश - 11 - सपने अँखुआए

अनुच्छेद- 11
सपने अँखुआए

तन्नी ने कोचिंग में जाना शुरू किया। वत्सलाधर का घर ही उसका अड्डा था। माँ जी की सेवा करती, बतियाती, पढ़ती और घर लौटती । भँवरी को भी लगा कि तन्नी गाँव का नाम करेगी। गाँव की किसी भी लड़की ने बी. एस-सी नहीं किया है। तन्नी नया इतिहास बनाएगी।
मंगल को सरकारी गोदाम में फिर खाद नहीं मिल सकी। उन्होंने गुप्ता की दूकान से ही खाद लिया। दाम अधिक देना पड़ा पर मिल तो गई। उन्होंने लहसुन बोया । सुतिन बाबू भी बहुत दौड़े। मंगल को भी दौड़ाया और बोरिंग हुई। मंगल ने कर्जे की फाइल पर हस्ताक्षर किया। पंपसेट भी आ गया। जिस दिन धरती चीर कर पानी की धार निकली, भँवरी ने पूड़ी बनाकर सुतिन और रामदयाल को भी खिलाया। ये छोटे छोटे अवसर भी कितना सुख दे जाते हैं ।
जब लहसुन अँखुआया, भँवरी का परिवार आनन्द से भर उठा। दिन निकलते ही एक बार तन्नी भी खेत को झाँक आती। भँवरी मोथा निकालने के लिए डटी रहती । घास निकालकर जब पहला पानी दिया गया, भँवरी स्वयं पूरा परिवार मंगल तन्नी, वीरू सभी दिन भर खेत में ही रहे। भरुआ मिर्चा, रोटी और छाछ खेत पर ही खाया। चारो कीचड़ से लथपथ जब शाम को खेत सींच कर घर लौटे, शरीर चूर-चूर होते हुए भी मन आकाश में उड़ चला।
लहसुन के अँखुए के साथ परिवार की आकांक्षाएँ भी बढ़ती रहीं। हर पानी के बाद निराई में पूरा परिवार जुट जाता। माघ में जब चौथा पानी दिया गया, खेत लहसुन के पत्तियों की हरियाली से कस गया था। जो भी देखता, देखता ही रह जाता। मंगल का ज्यादा समय खेत पर ही बीतता । भैंस को दुहने और भोजन के लिए उन्हें घर जाना पड़ता। 'लहसुन की खेती' पुस्तिका उनके हाथ लग गई थी। वे उसे पढ़कर हर तरह की सावधानी बरत रहे थे। पानी था ही, चबेना और गुड़ भी वे खेत पर रखते। लोग आते खेत को देखते। एक टुकड़ा गुड़ खाकर पानी पीते। कहते,' खेती हो तो ऐसी' मंगल का हृदय गद्गद् हो उठता। उन्हें लगता कि उन्होंने कर्ज लेने का जो जोखिम उठाया है, उसके सुखदायी परिणाम होंगे।
धीरे-धीरे फागुन आ गया। फगुनहट कहते हैं उत्तेजना और उदासी साथ-साथ लाती है। बसन्ती बयार मन को उद्वेलित कर देती। होली नजदीक आने को हुई तो चौताल, डेढ़ताल का रंग जमने लगा। बसन्त पंचमी से ही लोग शाम को ढोल मंजीरा, हारमोनियम के साथ चौताल गाते ।
एक दिन राम दयाल खेत पर आए। मंगल से कहा खेत पर ही चौताल का कार्यक्रम हो जाय। 'तुम्हारी इच्छा है तो हो जाय' मंगल ने उत्तर दिया। अगले ही दिन शाम को बोरिंग के पास ही दरी बिछ गई। ढोल-मंजीरा, हारमोनियम था ही, नगड़ची भी आ गया। होरी गाने वाले इकट्ठा हुए। मंगल और रामदयाल अगवानी में लगे रहे। कड़कड़ धम की आवाज सुनते ही कुछ लोग आ गए। रामजस 'नादान' बहुत अच्छा गाते हैं। उसने पदमाकर के एक छन्द को जैसे टेरा-
फागु की भीर अभीरन में
गहि गोविन्द लै गई भीतर गोरी ।

रामदयाल चहके, 'फिर क्या हुआ ?"
'नादान' ने यही पंक्तियाँ फिर दुहरा दी। लोगों की उत्सुकता चरम पर फिर जोड़ा-
भाइ करी मन की पदमाकर
ऊपर नाइ अबीर की झोरी ।
छीनि पितम्बर कम्मर तें
सुविदा दई मीड़ि कपोलन रोरी ।
नैन नचाय कह्यो मुस्काय
लला फिर आइयो खेलन होरी ।

साजवालों ने पूरा साथ दिया। श्रोता मंत्र-मुग्ध 'नादान' का भी उत्साह बढ़ा। वे गा उठे-
ब्रज में हरि होरी मचाई।
इतते आवत कुँवरि राधिका
उतते कुँवर कन्हाई ।
हिलि मिलि फाग परस्पर खेलत
शोभा बरनि न जाई।
घर घर बजत बधाई ।
उड़त गुलाल लाल भए बादर
रहत सकल ब्रज छाई ।
मानो मेघवा झरि लाई ।
राधे सैन दियो सखियन को
झुण्ड झुण्ड होइ थाई ।
लपटि झपटि गई श्याम सुनर को
कर थरि पकरि मँगाई ।
कुँवर जी को नारि बनाई ।
छीनि धरयो मुख मुरली पितम्बर
सिर से चुनरी ओढ़ाई ।
बेंदी भाल, नयन बिच काजर
नकबेसर पहिराई ।
श्याम जी को नाच नचाई।
का सुसकत मुँह मोरिमोरिकै
काह भई चतुराई ।
काह भयो तोरे नन्द बाबा को
कहवा जसोमति माई ।
‌ कुँवर जी को लेउ न छुड़ाई
होरी खेले बिना जाइ न देहों
करिहौ कोटि उपाई ।
लिहों चुकाइ कसकि सब दिन को
बहु दधि माखन खाई।

एक के बाद एक सुन्दर बोल और 'नादान' के दल का समवेत स्वर । रात एक बजे तक गायन होता रहा । 'होरी' या फाग समवेत स्वर में गाया जाता है। ‘नादान' मंडली ने सभी का मनमोह लिया। गेहूँ के आटे को भूनकर, शकर मिलाकर भँवरी ने पंजीरी का प्रसाद तैयार किया । तन्नी ने मूंगफली भूना, लाई में मिलाकर नमकीन बनाया। चाय बनाई। सभी लोगों ने प्रसाद खा पानी पिया। वीरू दौड़कर सबको पानी पिलाता रहा। नमकीन और चाय लेकर तन्नी आई। सभी ने चाय-नमकीन का स्वाद लिया। राम राम कर सभी विदा हुए। राम दयाल सबसे अन्त में गए। उनका एक बीघा आलू भी तैयार होने के करीब था। खुश थे कुछ न कुछ मिल ही जाएगा। वे भी अगले साल 'लहसुन' को आज़माना चाहते हैं।