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अपना आकाश - 8 - सीखो प्रताप सीखो

अनुच्छेद- 8
सीखो प्रताप सीखो

तन्नी ने स्ववित्त पोषित महाविद्यालय में प्रवेश लिया। एक दिन वह तरन्ती को लेकर महाविद्यालय गई। प्रयोगशाला का नाम भर था न कोई सामान, न कोई प्रयोग कराने वाला। तन्नी ने सोचा प्राचार्य जी से मिलकर महाविद्यालय की कार्य पद्धति के बारे में जाना जाय उसने एक बाबूनुमा व्यक्ति से पूछा, 'प्राचार्य जी कब मिलेंगे?' 'क्या काम है?' उसने पूछा । 'पढाई-लिखाई परीक्षा के बारे में बात करती।'
'प्रवेश ले लिया है न?
‘हाॅं’,
'तो सारी शंकाओ का समाधान यहाँ प्रबन्धक जी करते हैं। वह ऊपर वाले कमरे में बैठे हैं। वे नहीं होते हैं तो प्रताप जी यह कार्य करते हैं।' 'क्या प्राचार्य नहीं हैं?' 'हैं क्यों नहीं? परीक्षा के समय मिलेंगे। पर जुगाड़ प्राचार्य नहीं, प्रबन्धक जी, प्रताप जी करते हैं। आप उन्हीं से मिल लें।' किसी जुगाड़ के बारे में नहीं, पढ़ाई के बारे में बात करना चाहती हूँ।' 'उस सब के बारे में बताएँगे।'
तन्नी और तरन्ती सीढ़ियों से ऊपर गईं।
प्रबन्धक का कमरा सामने ही था। फर्श पर कालीन बिछा, दरवाजे के पास दो गनर बैठे थे। 'क्या मैं अन्दर आ सकती हूँ? तन्नी ने पूछा 'हाँ, हाँ आइए।' उत्तर मिला।
तन्नी और तरन्ती दोनों अन्दर गई। फर्श पर बढ़िया कालीन, आरामदायक कुर्सियां बगल में एक सोफा प्रबन्धक महोदय सोफे पर बैठे थे। उनके सामने ही प्रताप जी ।
'क्या समस्या है?' प्रबन्धक जी ने पूछा । 'पढ़ाई-लिखाई के बारे में जानना चाहती हूँ।' तन्नी ने धीरे से कहा। 'प्रवेश ले लिया है?"
'जी' ।
'तो एक सप्ताह बाद आकर परीक्षा फार्म भर देना।'
"और पढ़ाई?"
'तुम रोज आ पाओगी?"
"रोज आना तो मुश्किल होगा?"
'तब हमारा क्या दोष? हम अध्यापक रखें और तुम लोग न आओ तो अध्यापक महोदय क्या करेंगे? आज किराया में कितना खर्च किया है?"
'पन्द्रह रुपये।'
'जाने में भी पन्द्रह लगेगा। यानी तीस रुपये रोज अगर पच्चीस दिन भी कालेज खुले तो सात सौ पचास रुपये। कालेज आओगे तो चार-छह रुपये रोज और भी खर्च होगा। चाय-पान हेनतेन में। पाँच ही औसत लगा लो तो पच्चीस दिन का एक सौ पच्चीस रुपये। दोनों जोड़ दीजिए तो कितना हुआ? 'आठ सौ पचहत्तर', तन्नी बोल पड़ी। 'शाबास! लड़की होशियार लगती है, क्यों प्रताप ?" "जी सर।' 'अब इसी आठ सौ पचहत्तर को हर महीने किसी कोचिंग में जमाकर पढ़ाई कर लो। आने जाने के झंझट से भी मुक्ति । आम के आम गुठलियों के दाम । वैसे रोज आने की गारन्टी करो तो हम अध्यापक बुलवा दें। क्यों प्रताप ठीक है न?"
' पर प्रयोगात्मक कार्य?' तन्नी भी जैसे सब कुछ जान लेने के लिए उत्सुक है।
'भई यहाँ प्रवेश लिया है तो इतना इत्मीनान रखो कि प्रयोगात्मक में नब्बे प्रतिशत से अधिक ही मिलेगा।' 'मैं चाहती थी कि कुछ सीख भी लेती।'
'लड़की बहुत सोच विचार करने वाली है। ऐसी लड़कियाँ कम ही आती हैं। क्यों प्रताप ?' 'जी सर ।'
"जो प्रयोगात्मक कराया जाता है वही परीक्षा में पूछ लिया जाता है। है न अच्छी बात?"
न चाहते हुए भी तन्नी के मुख से निकल ही गया 'जी।" तो बस पढ़ाई में जुट जाओ । उपस्थिति, परीक्षा आदि की चिन्ता छोड़ो। और कोई जिज्ञासा?” “नहीं सर ।' कहकर तन्नी और तरन्ती बाहर निकलीं। टपटप सीढ़ियों से उतर गईं।
'देखा । कितनी चालाक लड़कियाँ आ जाती हैं?"
'सर, आपने ऐसा जवाब दिया कि पानी हो गईं।' 'सीखो प्रताप सीखो। तुम्हें ही यह सब करना पड़ेगा।' 'जी सर ।'
'देखो अब कुछ काम की बात हो जाय।'
'जी सर ।'
'बी. एड. का प्रवेश कल से प्रारम्भ हो जायेगा। फीस एक ही बार में सत्तर हजार ली जाएगी। छह कालेजों में छह सौ लड़कों को प्रवेश देना है। मैं आज की शाम से अन्तर्धान होता हूँ । मेरे सभी मोबाइल स्विच आफ रहेंगे। मैं केवल तुम्हारे मोबाइल पर बात कर निर्देश दूँगा । यहाँ रहने पर फीस में रियायत कराने के लिए लोग दौड़ेंगे। यदि कोई पूछता है तो उत्तर देना है कि प्रबन्धक जी दिल्ली गए हैं। समझ गए न?'
"जी सर ।
'प्रबन्धक जी उठे, साथ में प्रताप जी और दो गनर - एक सरकारी और एक प्रबन्धक जी का व्यक्तिगत सरकारी गनर पाने के लिए कभी कभी प्रबन्धक जी को कुछ जुगाड़ करना पड़ता है। वे जुगाड़ शास्त्र के विशेषज्ञ हैं । जिले के अधिकारियों को वे आश्वस्त करते रहते हैं कि उनके जीवन पर खतरा मँडरा रहा है। शासन के आदेश से कभी यदि सरकारी गनर छिन जाता है तो वे अपने ही घर पर अपने ही आदमियों से रात में आक्रमण करा देते हैं । अखबार के पन्ने रंगवा देते हैं और फिर सरकारी गनर मिल ही जाता है। सरकारी गनर का जलवा ही कुछ और होता है। उनका व्यक्तिगत गनर भी अच्छा शूटर है पर सरकारी गनर से प्रतिष्ठा बढ़ती है। वैसे प्रबन्धक जी विधायक या सांसद बनने के जुगाड़ में हैं। अगर बन गए तब तो उनके जान-माल की सुरक्षा का जिम्मा सरकार ले ही लेगी।
विधायकों और सांसदों का रोब- दाब उनकी सुविधाएँ..... देख उनके मुँह में पानी आता रहता है। वे जुगाड़ में हैं। संस्थाएं उन्होंने पहले ही बना रखी हैं। सार्वजनिक निधियों को व्यक्तिगत सम्पत्ति में बदलने का कितना नायाब तरीका निकाल लिया है लोगों ने।
पारले का दो रुपये वाला बिस्कुट पैक तरन्ती ने झोले से निकाला, तन्नी ने नल चलाया। दोनों ने पानी पिया। सड़क पर आ गई। टैक्सियां भरी हुई । भीड़ को देखकर दोनों बैठने का साहस नहीं जुटा पाईं। एक निजी टाटा आई उसमें कुछ साँस थी, दोनों चढ़ गई। सड़क पर गढ्डों की भरमार किसी प्रकार वे....... एक घण्टे बाद शहर पहुँचीं।
वत्सलाधर के यहाँ ही साइकिलें रखी थीं। उनसे मिलकर स्थिति की जानकारी भी देनी थी। तरन्ती और तन्नी पैदल ही बहिन जी के घर पहुँचीं । वे कालेज से आ चुकी थीं। कुछ क्षण सुस्ताने के लिए लेट गई थीं। घंटी बजी। वे उठीं, झाँक कर देखा । तन्नी तरन्ती को देखकर उनकी थकान उड़न छू हो गई। 'आ जाओ कहते हुए उन्होंने दरवाजा खोला। दोनों ने आकर प्रणाम किया।
तन्नी ने जग में पानी भरा। तीन गिलास उठाया। छोटी मेज पर रखा। तब तक वत्सलाधर ने तिलगट्टियों का एक पैकेट खोला। छह तिलगट्रियां निकालकर एक प्लेट में रखा। सोफे पर बैठते हुए एक तिलगट्टी स्वयं उठाया । तन्नी और तरन्ती ने भी एक एक लिया।
'कालेज हो आई' वत्सलाधर ने पानी पीते हुए पूछा। 'बहिन जी, कालेज में प्रवेश हो गया। परीक्षा हो जाएगी। बस ।' तन्नी ने बताया ।
'और पढ़ाई लिखाई ? "
बहिन जी कालेज में प्राचार्य नहीं, प्रबन्धक बैठे मिले ।'
'अधिकांश स्ववित्त विद्यालयों/महाविद्यालयों में प्राचार्य का पद अपनी गरिमा खो चुका है।... प्राचार्य नियुक्त हो जाते है। कार्य प्रबन्धक ही देखता है। संवैधानिक बाध्यता न हो तो लोग उसकी नियुक्ति ही न करें। शिक्षा संस्थाएं धन कमाने का स्रोत हो गई हैं। पर क्या कहा उन्होंन?
'कोचिंग में पढ़ो, यहाँ परीक्षा हो जाएगी।'
'मुझे अनुमान था, यही उत्तर मिलेगा।'
'बहिन जी, कोचिंग के बारे में कुछ जानती नहीं। कभी किसी कोचिंग में पढ़ नहीं पाई। अब आप ही ।’
"ठीक है। मैं देखती हूँ । चार-छह दिन बाद आना, तब तक मैं जानकारी कर लूँगी। बी.एस-सी की पढ़ाई करना आसान नहीं होता । खैर, चिन्ता न करो...... कुछ प्रबन्ध किया जाएगा।'