Apna Aakash - 1 books and stories free download online pdf in Hindi

अपना आकाश - 1

'क' से कथा ?

उपन्यास समाज का यथार्थ बिम्ब है विविधता से भरा एवं चुनौतीपूर्ण । उपन्यास लिखना इसीलिए समाज को विश्लेषित करना है। 'कंचनमृग', 'शाकुनपाँखी', ‘कोमल की डायरी' एवं 'मनस्वी' के पश्चात् 'अपना आकाश' मेरा पाँचवाँ उपन्यास है। कथा साहित्य ने एक लम्बी यात्रा तय की है। यह यात्रा विविधतापूर्ण एवं जटिल है। उपन्यासों ने मन की गहन गुत्थियों के साथ समाज के अन्तर्द्वन्द्रों को भी गहराई से उजागर किया है।
उत्तर प्रदेश के मध्य एवं पूर्वीक्षेत्र में बसाव छिटके हुए हैं। एक ही ग्राम पंचायत में अनेक पुरवे होते हैं। यद्यपि कुछ बड़े गाँव भी हैं पर उनकी संख्या कम है। गाँवों की दशा एवं दिशा में काफी बदलाव हुआ है। आबादी बढ़ी, प्रति व्यक्ति भूमि का क्षेत्रफल घटा। कभी-कभी पूरे पुरवे में सभी के पास प्रति घर एक-आध एकड़ ही खेत होते हैं। कुछ घरों के पास केवल एक दो बिस्वा ही । गाँवों और शहरों की सुविधाओं में काफी अन्तर दिखता है खासकर बिजली उपलब्धता में। इस अन्तर ने भी शहरों की आबादी को बढ़ाने में मदद की है। गाँव का विकास कैसे हो, यह एक बड़ा प्रश्न है। खेती के साथ अन्य सहयोगी धन्धों का जाल नहीं बन पाया। यद्यपि धन्धे की तलाश में बहुतों को घर छोड़ना पड़ता है पर इन पुरवों के बच्चों को अकुशल श्रम के रूप में भाग कर जीविका तलाश करनी पड़ती है। गाँवों के लिए महात्मा गाँधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारन्टी योजना चलाई गई पर उसकी कुछ कमियाँ अपेक्षित परिणाम नहीं दे पाई ।
प्रश्न विकास के प्रारूप एवं ग्रामीणों को विकास के अवसर उपलब्ध कराने तथा आपदाओं से बचाने का है। यह बहुत दुखद है कि पिछले कुछ वर्षों में भारत में किसानों ने आत्म हत्याएँ की । इसमें बहुत से ऐसे थे जिन्होंने अच्छी उपज लेने के लिए श्रम किया पर भाव गिर जाने से कर्ज में डूब कर अवसाद से घिर गए । कृषि उपज की लागत बढ़ रही है और उपज होने पर भी भावों का उतार चढ़ाव उनकी रीढ़ तोड़ देता है। क्या होगा इसका निदान ? भविष्य में खेती कौन करेगा? जब ढाँचे में कोई कमी होती है तो पूरी मेहनत के बाद भी किसान अवसाद से घिर सकता है। किसान प्राकृतिक ही नहीं, मानवीय आपदा का भी शिकार होता है। हमें इसके लिए सार्थक विकल्प की तलाश करनी होगी। नहीं तो किसान बाज़ार के शिकार हो, अवसाद से घिरते रहेंगे।
'अपना आकाश' एक छोटे से पुरवे की कथा है जिसके लोग छलांग लगाना चाहते हैं। छलांग लगाते भी हैं पर बाज़ार का शिकार हो पुनः उठने का प्रयास करते हैं। पर अवरोध क्या कम हैं? यह केवल एक पुरवे की कथा नहीं है, पूर्वांचल के पुरवों की कथा है? छलांग में आने वाली बाधाओं को पार करने की कथा है। इक्कीसवीं सदी में अपना आकाश तलाशने की कथा है। इसमें पुरवों का वर्तमान-सम्भावनाओं और सीमाओं के साथ उपस्थित है। उपन्यास की कथा से आपकी संवेदना जुड़ सकेगी इसी आशा के साथ यह रचना आपको सौंप रहा हूँ........।







अनुच्छेद-एक
यदि प्रवेश न मिला तो ?

सायं का समय। मंगलराम खाना खाकर बैठे तो तन्नी की माँ भँवरी भी आकर बगल में बैठ गई। पति से कहा, 'तन्नी बी. एस. सी करना चाहती है।' 'ठीक ही सोच रही', मंगल ने हामी भरी। पर खर्च का इन्तजाम कैसे होगा? गेहूँ बेचकर पढ़ाई का खर्च क्या दे मिलेगा?' 'पढ़ाई तो करानी है। कोई न कोई जुगाड़ करना ही होगा।' 'आखिर क्या होगा जुगाड़ ? कुछ बताओ तो ।' ‘नकदी फसल लगाने पर कुछ पैसे बन सकते हैं। मेहनत कुछ ज्यादा करनी पड़ेगी।' 'कर लिया जायेगा। बच्चे पढ़ जाएँगे तो....।' 'ठीक कहती हो। बी. डी. ओ. साहब भी कह रहे थे कुछ नकदी फसल उगाओ।' तन्नी लालटेन लेकर पढ़ने बैठ गई । इण्टरमीडिएट की जो पुस्तकें उसके पास थीं उन्हें ही दुहराने लगी। और पुस्तकें उसके पास थीं नहीं। गाँव में न कोई पुस्तकालय, न किसी के पास पुस्तकों का कोई संग्रह । बैटरी से चलने वाला टी. वी. ही चार घरों में आ गया। तन्नी की सहेली तुरन्ती के घर भी टी० वी० है । उसके भाई की शादी में मिला है। तन्नी भी कभी कभी उसी के घर टी.वी. देख लेती है ।

तन्नी पढ़ना चाहती है। इण्टरमीडिएट उसने भौतिकी, रसायन और गणित लेकर किया। गाँव से स्कूल जाना स्कूल से ही जो प्राप्त हो जाता उसी को दुहराना, याद रखना। गणित की अध्यापिका वत्सला धर का सहयोग उसे आगे बढ़ाने में सहायक बना। पर वह द्वितीय श्रेणी में ही इण्टरमीडिएट उत्तीर्ण हो पाई। माता-पिता ने इसे घर की उपलब्धि माना पर तन्नी जानती है कि यह उपलब्धि गर्व करने लायक नहीं है। तन्नी के माता-पिता स्कूल की फीस दे पाएँ यही बहुत है। एक एकड़ की खेती में खाना-पहनना, नाते-रिश्ते को निबटाना और पढ़ाई का भी खर्च देना!
तन्नी ने अपने छोटे भाई वीरेश को पुकारा, 'वीरू'। वीरेश आया तो तन्नी ने उसे किताब लाकर पढ़ने के लिए कहा। वीरेश भी अपना बस्ता लाकर पढ़ने के लिए बैठ गया। दोनों लालटेन के सहारे पढ़ते रहे। थोड़ी देर बाद लालटेन भुक-भुक करने लगी। तन्नी ने लालटेन बुझा दी। पुराने कपड़े के टुकड़े से कल्ले को साफ किया। बत्ती को कैंची से काटा। फिर जलाकर दोनों बैठे। पर थोड़ी ही देर बाद फिर वही 'भुक-भुक' । तन्नी ने लालटेन बुझा दी। दीवाल घड़ी में देखा, साढ़े नौ बज रहे थे। 'कल्ले को कल दिन में साफ किया जायगा । चलो सो जाओ।' तन्नी ने वीरेश से कहा। वीरेश उठा। बस्ता उठाकर खूँटी में टाँगा अपनी छोटी चारपाई पर दरी बिछाई और लेट गया। तन्नी अन्दर की कोटरी में कथरी बिछाकर लेट गई। वीरेश तो लेटते ही सो गया पर तन्नी को जल्दी नींद नहीं आई। उसका मस्तिष्क सोच-विचार में उलझा रहा। बी.एस.सी. गणित का कोर्स काफी ज्यादा है। क्या तुम अपने सीमित साधनों से इसे पूरा कर पाओगी? एक मन कहता हाँ, दूसरा तुरन्त ही कहता नहीं । इसी हाँ, न मे उसका मन देर तक घड़ी के पेन्डुलम की तरह डोलता रहा। 'कितनी भी मेहनत करनी हो?" उसने अपने को तैयार किया। नींद जैसे इसी ताक में थी, चट आ गई।
सबेरे तन्नी तैयार हुई । तरन्ती भी आ गई। दोनों डिग्री कालेज की राह आवेदन लेने के लिए। 'मेरे बाबू जी शादी खोजने लगे हैं तन्नी ।' तरन्ती ने साइकिल बढ़ाते हुए कहा । 'तो पढ़ाई कैसे पूरी करोगी?" तन्नी ने भी अपनी साइकिल बढ़ा दी।
'यही तो मुश्किल है तन्नी। बाबू जी कहते हैं तरन्ती ज्यादा पढ़ जायेगी तो लड़का नहीं मिलेगा। मैं चाहती हूँ कि तेरे साथ बी.एस.सी. कर लूँ।'
'तूने अपने बाबूजी से नहीं कहा?"
'अभी तो नहीं।'
'मन ही में बात रखोगी तो बाबूजी कैसे समझेंगे?"
'माई से कहो। वे बाबूजी से बात करेंगी। बाबू जी से भी कहने में कोई हर्ज नहीं है।'
'ठीक है । कहूँगी। लड़कियाँ एवरेस्ट की चोटी पर पहुँच रही हैं तो क्या हम ....?'
'हम भी विकास की चोटी पर चढ़ेंगे तरन्ती । ठोकर खाकर गिरेंगे, उठेंगे.....फिर चढ़ेंगे।'
दोनों बात करते साइकिल चलाते हुए डिग्रीकालेज पहुँचीं। कालेज में लड़कियाँ और लड़के आवेदन ले रहे थे। कुछ लड़के लड़कियाँ छोटे-बड़े समूहों में अलग-अलग खड़े थे।
एक लड़का आया। उसने पूछा, 'आप आवेदन लेने आई हैं?'
'हाँ', तन्नी ने कहा। वह लड़का दोनों लड़कियों को आवेदन मिलने वाली खिड़की तक ले गया। सौ रुपये में आवेदन। दोनों ने आवेदन लिया। एक नज़र कालेज भवन और परिसर पर डाली। मार्ग दर्शन करने वाले लड़के ने आवदेन लेकर भरने के लिए जरूरी बातें बताई। उसने अपना नाम बताकर हाथ जोड़ लिया।
तन्नी और तरन्ती परिसर से बाहर आईं। अपनी साइकिल उठाई और घर की ओर चल पड़ीं। एक दूकान से कलम खरीदी।
'कालेज तो अच्छा है', तन्नी ने कहा।
'हाँ, देखने में तो बहुत अच्छा लगता है।'
'लड़के भी ठीक लगते हैं, बहुत शिष्ट ।'
'हम लोगों को कोई दिक्कत नहीं हुई।'
'बालिका इण्टर कालेज में हम लोग पढ़ते थे तो कई लड़के गेट के इर्द गिर्द मँडराया करते । व्यंग्य करते, कभी कभी साइकिल को धक्का देने की कोशिश करते। यहाँ लड़कों की शिष्टता देखकर अच्छा लगा।'
'पहला दिन था हम लोगों का।'
'हाँ, पहले दिन थोड़ा संकोच होता ही है।'
'लेकिन उस लड़के ने अपना नाम क्यों बताया?" ठीक ही किया उसने अपना नाम बताकर। कोई पूछता कि जिस लड़के ने आपका मार्ग दर्शन किया उसका नाम क्या था, तो हम क्या उत्तर देते?"
'कोई क्यों पूछेगा तरन्ती ? हमें लगता है यह छात्र संघ का चुनाव लड़ना चाहता है । इसीलिए यह सेवा कर रहा है।"
"यह तो अच्छी बात है। छात्रसंघ के लोगों को इस तरह का काम करना ही चाहिए। सुना है विश्वविद्यालयों में छात्र संघ छात्रों की काफी मदद करते हैं।'
दोनों साइकिल चलाते हुए बालिका इंटर कालेज से गुजरीं। कुछ लड़के गेट के आसपास मँडराते दिखे।
'बालिका इंटर कालेजों के आस-पास ही क्यों?" तरन्ती बोल पड़ी। 'जिन विद्यालयों में बालिकाएँ बालक साथ पढ़ते हैं वहाँ इस तरह की स्थिति नहीं है। वहाँ बालिकाओं को देखने, उनसे बात करने में कोई बाधा नहीं है। इसीलिए गेट पर इस तरह व्यंग्य कसने वाले भी नहीं होते।' 'तेरा कहना ठीक है। जितना ही प्रतिबन्ध लगाओ लोग उतना ही...........।’ कहकर तरन्ती ने पैडिल पर दबाव बढ़ाया। साइकिल बढ़ चली। तन्नी ने भी साइकिल की रफ्तार बढ़ाई ।
शाम को तरन्ती ने माई फूलमती से कहा, 'मुझे पढ़ लेने दो माई | शादी कर दोगी तो पढ़ाई छूट जायगी।' 'शादी के बाद भी पढ़ सकती हो।' फूलमती ने कहा । 'उम्र ज्यादा हो जाने पर लड़का कहाँ मिलता है ?" एक क्षण के लिए तरन्ती चुप हो गई। माई अपनी बात कहती रही, 'सत्रह पार कर गई हो। तेरे बाबू को दौड़ते दम निकल रहा। अभी तक कोई घर वर हाथ नहीं लगा। कुछ दिन बाद तो हजार संकट होंगे।'
फूलमती बोलती जा रही और तरन्ती चुप । केवल सुनती रही वह । उसके पिता केशव के पास सवा एकड़ खेत। वे निजी कम्पनी में दो हजार रुपये पर सेवारत थे। सुबह आठ ही बजे निकल जाते, शाम नौ-दस बजे तक घर आते । खेती से खाने के लिए अनाज हो जाता। माई कुछ साग सब्जी भी उगाती । लौकी, प्याज, गोभी माई की मेहनत से ही उगते । तरन्ती भी मौका पाकर मदद करती ।
तरन्ती के भाई बलवीर की शादी में एक छोटा टीवी मिल गया था। उसने अब घर में पैठ बना ली है। बैटरी से उसे एक-दो घण्टे चला लिया जाता। पर इतने में ही न जाने कितनी सपनों की फसल उगा देता। नए कपड़ों, नए रहन-सहन की चाह पैदा कर देता। पर आर्थिक स्थिति उन सपनों के क्रियान्वयन में बाधक बनती। लोगों में स्थिति बदलने के लिए सात्विक आक्रोश के बदले निरीहता का भाव पैदा हो जाता। एक हूक सी जरूर उठती पर.......। जिन दृश्यों को देखकर तरन्ती की माई का सिर पहले शर्म से लाल हो जाता था, अब नहीं होता। माई को लगता कि टी वी अब ज़रूरी सदस्य बन गया है। घर की राय बनाने में वह दखल देने लगा है। कभी कभी तो वह तानाशाह की भूमिका में आ जाता है। बाकी सब की राय उसके आगे बासी लगती। उसने यह भी एहसास करा दिया कि दुनिया कितना आगे है और तरन्ती का घर, गाँव कितना पीछे ?
तरन्ती का भाई दिल्ली चला गया है। वहाँ सदर बाजार में एक दूकान पर काम मिल गया है। गाँव के कई लोग दिल्ली में छोटा मोटा काम करते हैं। बलवीर की पत्नी राधा कभी मैके रहती कभी ससुराल। सातवें तक पढ़ी है । हमेशा प्रसन्न रहती है। शादी में जो कपड़े मिले हैं अभी उससे काम चल जाता है। मेहनती है। खाना बनाने, बर्तन साफ करने, झाडू बुहारी करने में वह रुचि लेती। फूलमती को और क्या चाहिए? कभी-कभी फूलमती का पैर भी दबा देती। तरन्ती से उसकी खूब बनती। दोनों घण्टों बतियाती रहतीं। सावन लगते ही राधा के पिता उसे ले गए। सावन में लड़कियों के मैके आने की परम्परा थी। सावन के उल्लास भरे वातावरण में झूले पड़ जाते। लड़कियाँ सावन गातीं, झूला झूलतीं, नवबधुओं को झुलातीं। पहले गाँव में पाकड़, आम के पेड़ होते । दूर से देखने पर गाँव के घर नहीं पेड़ों की हरियाली दीखती, पेड़ों में झूले पड़ जाते। पर बड़े पेड़ कम हुए हैं तो झूले भी कम ही पड़ते हैं। थोड़े में प्रसन्न रहने की परम्परा जैसे खत्म हो रही है। वैश्वीकरण और खुले समाज ने लोगों में हीनता बोध तो करा ही दिया है।
तन्नी आज तरन्ती के घर नौ बजे ही आ गई। दोनों को आवेदन जमा करने के लिए कालेज जाना है! तरन्ती भी तैयार हुई। तन्नी इण्टर कालेज के लिए बनवाए गए ड्रेस ही पहनकर आई थी। उसके पास कपड़े के दो सेट थे। एक वह घर पर पहनती दूसरा कालेज जाने के काम आता। उसे ही वह किसी उत्सव आदि में भी पहनती। साथ पढ़ने वाली लड़कियाँ अनेक मानक वस्त्रों की चर्चा करतीं, कभी कभी ड्रेस के बदले उन्हें पहन कर आतीं। पर तन्नी के लिए यह संभव नहीं था। कालेज का ड्रेस ही उसके लिए सबसे उत्तम था। अभाव के बीच भी वह प्रसन्न रहती। देश-दुनिया के बारे में सोचती विचारती । तरन्ती के पास कपड़े का एक सेट और था। उसके पिता ने उसके लिए बलवीर की शादी में बनवाया था। उसमें चमक ज्यादा थी पर तरन्ती ने भी कालेज ड्रेस ही पहना दोनों कालेज के लिए चल पड़ीं।
'तन्नी, माँ तो जैसे शादी के लिए तुली हुई हैं।' तरन्ती ने साइकिल बढ़ाते हुए कहा।
'तब?"
'तब क्या ? माँ के खिलाफ कैसे जा सकती हूँ’
'हूँ', तन्नी ने हुँकारी भरते हुए कहा, 'समस्या तो है। माई को समझाना कठिन हैं। तेरी इच्छा क्या है? क्या शादी के लिए मन ललक रहा है?"
'सच कहूँ?"
'तो क्या झूठ कहोगी ?"
'टी वी पर नाचते गाते जोड़ों को देखकर कभी-कभी मन करता है।'
'यह कहो शरीर और मन भी।' 'कह सकती हो।'
'यदि मन नियंत्रित होने में कठिनाई हो तो शादी कर लेना ही ठीक है।'
'किसी काम में लग जाने पर मन पर नियंत्रण अपने आप हो जाता है यदि बी. एस. सी. करने का लक्ष्य सामने रहेगा तो मन बहकने की गुंजाइश नहीं रहेगी। अब तो बहुत सी पढ़ी-लिखी लड़कियाँ अविवाहित भी रहने लगी हैं।'
“हाँ, कुछ करने के लिए कुछ छोड़ना पड़ता है।'
'यह तो है ही।'
सड़क पर कुछ भीड़ बढ़ गई। दोनों तेज गति से साइकिल चलाती हुई। भीड़ में बचाकर चलना भी मुश्किल। तरन्ती एक तेज भागती जीप की चपेट में आते आते बची। चोट तो उसे नहीं लगी पर तेज वाहनों का भय ज़रूर मन में कहीं बैठ गया। एक पेड़ के नीचे दोनों रुक गईं कुछ क्षण पश्चात पुनः साइकिल पर बैठीं और चल पड़ीं।
आज डिग्री कालेज में लड़के-लड़कियों की भीड़ थी। आवेदन जमा करने में सभी व्यस्त । वरिष्ठ छात्र मदद की मुद्रा में खड़े या दौड़ धूप करते हुए। अध्यापक भी दो-चार आते जाते दिखे। प्राचार्य कक्ष बन्द था। दोनों ने स्टैण्ड पर साइकिल खड़ी की। अन्दर गईं। वह लड़का आज फिर दिखा जिसने आवेदन खरीदने में मदद की थी। उसने भी दोनों को पहचान लिया। दोनों के आवेदन को उलट-पलट कर देखा। एक जगह हस्ताक्षर छूटा हुआ था । हस्ताक्षर कराया, कहा, 'ठीक है'। संकेत कर दिया। दोनों जमा करने के लिए बढ़ गई। आज लाइन लग गई थी, लड़कों और लड़कियों की अलग-अलग । एक घण्टे के बाद तन्नी और तरन्ती का नम्बर आया। दोनों आवेदन जमा कर बाहर आ गईं। माथे पर पसीना चुह चुहा रहा था। रूमाल निकाल कर दोनों ने माथा पोछा । तभी वह लड़का जिसे लोग पिन्टू कह रहे थे पुनः आ गया। 'और कोई सेवा ?"
'नहीं धन्यवाद', तन्नी ने कहा ।
'पिन्टू को याद रखियेगा', कहकर वह अपने गोल में शामिल हो गया ।
तन्नी और तरन्ती कुछ डरीं भी । पिन्टू को याद रखने की ज़रूरत क्यों पड़ेगी? दोनों सोचती रहीं तब तक अनुष्का दिख गई। वह इन दोनों से वरिष्ठ थी। बी.एस.सी. भाग एक की परीक्षा दे चुकी है। तन्नी तरन्ती को साहस प्रदान करते हुए उसने कहा, 'छात्रसंघ का चुनाव लड़ने के इच्छुक छात्र इस समय सेवा करते दिखेंगे। उनके व्यवहार से चिन्तित होने की आवश्यकता नहीं ।' तन्नी और तरन्ती के चेहरे पर भय की जगह मुस्कान तैर गई। तीनों कुछ देर गपशप करती रहीं। अनुष्का से ही पता चला कि सामान्य द्वितीय श्रेणी के बच्चों का प्रवेश कुछ मुश्किल ज़रूर है। तन्नी चिन्तित हो उठी। यदि उसका प्रवेश नहीं हुआ तो.....? अनुष्का शहर में ही रहती। उसके पिता इंटर कालेज में गणित प्रवक्ता हैं। अनुष्का जिस तेजी से आई थी उसी तेजी से निकली। अपनी स्कूटी पर बैठी और फुर्र.........। तन्नी और तरन्ती ने अपनी साइकिल निकाली और घर की ओर चल पड़ीं।
'अगर प्रवेश नहीं मिला तो ?' तन्नी ने तरन्ती से पूछा । 'तो क्या? शादी कर लो, चूल्हा चक्की देखो।' तरन्ती ने लापरवाही से कहा । 'लेकिन मैं बी. एस. सी. करना चाहती हूँ ।'
'बाबा, कौन कहता है न करो। पर प्रवेश मिलेगा तभी तो ।' तरन्ती उसी लापरवाही से बोलती गई। दोनों साइकिल चलाती बढ़ती रहीं । तन्नी की चिन्ता कम नहीं हो रही थी। बार-बार वही प्रश्न उभरता, 'यदि प्रवेश नहीं मिला तो ?”