Shri Chaitanya Mahaprabhu - 8 books and stories free download online pdf in Hindi

श्री चैतन्य महाप्रभु - 8

जगाइ-माधाइ का उद्धार
एक दिन प्रभु श्रीगौरसुन्दर ने श्रीहरिदास ठाकुर एवं श्रीमन् नित्यानन्द प्रभु को घर-घर जाकर लोगों को कृष्ण नाम करने का उपदेश प्रदान करने का आदेश दिया। प्रभु के आदेश को शिरोधार्य कर वे दोनों आनन्द से कृष्ण नाम का प्रचार करने के लिए चल पड़े। प्रचार करते-करते एक दिन उन्होंने एक स्थान पर मार्ग में दो शराबियों को शराब पीकर नशे में धुत्त देखा। कभी वे एक-दूसरे को गाली-गलौज कर रहे थे, कभी एक दूसरे से मारपीट कर रहे थे, तो कभी एक दूसरे का आलिङ्गन कर रहे थे। इस दृश्य को देखकर जब नित्यानन्द प्रभु ने आस - पास के लोगों से उन दोनों के विषय में पूछा, तो लोगों ने उन्हें बताया कि ये दोनों जाति के ब्राह्मण हैं । इनका कुल बहुत ही पवित्र और उज्ज्वल था। पूरे नवद्वीप शहर में इनके पूर्वजों का नाम प्रसिद्ध था। परन्तु दुष्टों का सङ्ग करने के कारण ये दोनों चरित्र से भ्रष्ट हो गये। दुष्टों का साथ मिलकर इन्होंने शराब पीना, जुआ खेलना, मांस खाना तथा इसके अतिरिक्त जितने प्रकार के पाप कर्म हो सकते हैं, उन सभी को करना आरम्भ कर दिया। आज ऐसी अवस्था है कि इनका नाम सुनकर यहाँ का बच्चा-बच्चा भयभीत रहता है। ये कभी भी किसी के भी घरमें आग लगा देते हैं, घर को लूट लेते हैं, स्त्रियोंका अपहरण कर लेते हैं। जिस स्थान पर ये लोग अपना डेरा डाल देते हैं, उस मार्ग से स्त्रियाँ एवं सज्जन पुरुष भूलकर भी नहीं जाते। सन्ध्या पश्चात् कोई अपने घर से बाहर नहीं निकलता। यदि किसी कारण वश निकलना भी पड़े, तो लोग दल बनाकर बाहर निकलते हैं।

यह सुनकर तथा उन दोनों की दुर्दशा देखकर श्रीमन् नित्यानन्द प्रभु का हृदय द्रवित हो गया। उन्होंने मन-ही-मन विचार किया कि मेरे प्रभु का नाम पतितपावन है और इनसे बड़ा पतित भला दूसरा कौन हो सकता है? यदि मेरे प्रभु इन दोनों का उद्धार कर कृष्ण-प्रेम में मत्तकर इन्हें नचा दें, तभी मेरे प्रभु का पतितपावन नाम सार्थक होगा
और जो लोग मेरे प्रभु की निन्दा करते हैं, वे लोग भी मेरे प्रभु की महिमा को जान जायेंगे। ऐसा विचारकर उन्होंने श्री हरिदास ठाकुर से कहा— “हरिदासजी ! प्रभु का आदेश है कि सभी को कृष्ण नाम का उपदेश प्रदान करो। मैं देख रहा हूँ कि सामने जो दो शराबी नशे में धुत्त होकर पागलों जैसी हरकतें कर रहे हैं, ये ही हरिनाम के उपदेश के वास्तविक अधिकारी हैं। सज्जन पुरुषों को यदि उपदेश प्रदान कर उनके मुख से कृष्ण-नाम निकलवा दिया, तो इसका कोई विशेष महत्त्व नहीं है। महत्त्व तो तब है, जब आचरण से भ्रष्ट एवं पशु के समान व्यक्ति के मुख से कृष्ण नाम निकलवा दिया जाय। अतः चलिये, हम इन्हें प्रभु का उपदेश सुनावें।

ऐसा निश्चयकर वे दोनों जगाइ-माधाइ की ओर जाने लगे। उन्हें उस ओर जाते देखकर भले लोगों ने उन्हें समझाया— “महात्माजी ! आप कृपा करके उस ओर मत जाइये। वे दोनों अच्छे लोग नहीं हैं। उन्हें साधु और असाधु का ज्ञान नहीं है। बल्कि वे साधुओं को देखकर खूब चिढ़ते हैं। यदि आप वहाँ गये, तो हो सकता है कि वे आप पर अत्याचार करें। परन्तु परम दयालु श्रीमन् नित्यानन्द प्रभु लोगों के समझाने पर भी नहीं माने, क्योंकि उन्होंने मनमें ठान लिया था कि किसी भी प्रकारसे इन दोनों का उद्धार करना है। साधुओं का स्वभाव ऐसा ही होता है। दूसरों का कल्याण करने के लिए वे अपने हित-अहित का भी विचार नहीं करते। अतः जगाइ-माधाइ के स्वभाव को जानते हुए भी वे दोनों उनके निकट पहुँच ही गये। वहाँ पहुँचकर श्रीमन् नित्यानन्द प्रभु ने बहुत ही मधुर एवं विनम्र स्वर से कहा— “भाइयो! आप लोग ‘कृष्ण कृष्ण’ कहिये।” इतना सुनते ही उन दोनों ने उनकी ओर सिर उठाकर देखा। नित्यानन्द प्रभु तथा हरिदास ठाकुर को अपने सामने देखकर क्रोध से आँखों से अङ्गारे बरसने लगे। वे क्रोध से काँपते हुए और पकड़ो-पकड़ो कहते हुए इनकी ओर दौड़े। उन्हें अपनी ओर आते हुए देखकर श्रीमन् नित्यानन्द प्रभु और श्रीहरिदास ठाकुर वहाँ से भाग खड़े हुए। जगाइ और माधाइ भी वहाँ पर रुके नहीं, बल्कि उन्हें पकड़ने के लिए उनके पीछे-पीछे दौड़ पड़े। शराब के नशे में धुत्त होने के कारण वे दोनों लड़खड़ाते हुए दौड़ रहे थे। अतः कुछ दूर
जाकर वे रुक गये श्रीमन् नित्यानन्द प्रभु और श्रीहरिदास ठाकुर भागते-भागते श्री महाप्रभु के पास पहुँच गये। श्रीहरिदास ठाकुर ने सारी घटना प्रभु को कह सुनायी कि इस नित्यानन्द के कारण आज मेरे भी प्राण जाते-जाते किसी प्रकार से बच गये। आपने मुझे इस अवधूत (पागल) के साथ भेज दिया और आज यह चल दिया, दो शराबियों को उपदेश देने के लिए। फलस्वरूप कहाँ तो उनका उद्धार होता, ऐसा न होकर बड़ी कठिनता से हमारे ही प्राण बचे।

प्रभु क्रोधित होकर कहने लगे— “मैं उन दोनों को जानता हूँ। यदि वे यहाँ आ गये, तो मैं उनका वध कर दूँगा।

यह सुनते ही श्रीमन् नित्यानन्द प्रभु बोले— “आप उनका वध कीजिये या कुछ भी कीजिये, परन्तु जब तक वे यहाँ रहेंगे, हम प्रचार करने नहीं जायेंगे।”

प्रभु उनके मन की बात जानकर मुसकराते हुए बोले— “श्रीपाद ! जब आपको उनके उद्धार की चिन्ता हो गयी है, तो उनका उद्धार तो हो ही गया। कुछ दिन बाद उन दोनों (जगाइ-माधाइ) ने प्रभु के घर के समीप ही गङ्गा के किनारे अपना डेरा जमा लिया।

एक दिन श्रीमन् नित्यानन्द प्रभु जान-बूझकर उसी मार्ग से आ रहे थे, जहाँ पर उन दोनों ने अपना डेरा जमाया हुआ था। जब वे उनके निकट से गुजर रहे थे, तो उन्होंने पूछा— “तू कौन है रे ?”

श्रीमन् नित्यानन्द प्रभु बाल्यभावमें आविष्ट होकर बोले— “मैं अवधूत (पागल) हूँ।”
इतना सुनते ही दोनों गरजते हुए कहने लगे— “तेरा इतना साहस कि तू हमसे मजाक करता है? हमारा नाम सुनकर सारा नवद्वीप काँपता है। तुझे अभी इसका मजा चखाते हैं।” ऐसा कहकर माधाइ ने शराब का घड़ा खींचकर श्रीमन् नित्यानन्द प्रभु के मस्तक पर दे मारा, जिससे श्रीमन् नित्यानन्द प्रभु का मस्तक फट गया तथा उससे रक्त की धारा बहने लगी।

आस-पास के लोग जो इस घटना को देख रहे थे, वे दौड़कर गये तथा श्रीमन् महाप्रभु को सारी बात बतायी। महाप्रभु तुरन्त ही अपने परिकरों के साथ दौड़ते हुए वहाँ पर आ पहुँचे। जैसे ही उन्होंने श्रीमन् नित्यानन्द प्रभु के मस्तक से रक्त की धारा बहते हुए देखी, वे धैर्य खो बैठे तथा ‘चक्र चक्र’ कहकर अपने चक्र को बुलाने लगे। उसी समय चक्र प्रभु के हाथों में आ पहुँचा, जिसे केवल जगाइ-माधाइ एवं प्रभु के परिकरों ने ही देखा। चक्र को देखते ही जगाइ-मधाइ भयभीत होकर काँपने लगे। उसी समय श्रीमन् नित्यानन्द प्रभु ने श्रीगौरसुन्दर से प्रार्थना की— “प्रभु! आपने प्रतिज्ञा की है कि इस अवतार में आप किसी को प्राणों से नहीं मारेंगे, बल्कि कृष्ण नाम प्रदान कर पापियों का भी उद्धार करेंगे, और फिर जगाइ ने तो मेरी रक्षा की है।

यह सुनते ही महाप्रभु ने जगाइ को आलिङ्गन कर लिया और बोले— “तुमने मेरे प्रिय श्रीमन् नित्यानन्द की रक्षा की। मैं तुम्हारे हाथों बिक गया। महाप्रभु के आलिङ्गन से जगाइ रोते-रोते हरि नाम करने लगा।

जगाइ के ऊपर महाप्रभु की कृपा देखकर मधाइ का हृदय भी परिवर्तित हो गया। वह भी महाप्रभु के चरणों में गिरकर कहने लगा— “हे प्रभु! पाप तो हम दोनों ने एक साथ ही किये हैं। फिर जगाइ के ऊपर आप कृपा कर रहे हैं, मेरे ऊपर क्यों नहीं? शास्त्रों में ऐसे अनेक प्रमाण हैं कि जिन असुरों ने आपके साथ शत्रुता की, आपके ऊपर प्रहार किया, आपने उनका भी उद्धार किया। अतः आप मेरा भी उद्धार कीजिये।

यह सुनकर प्रभु क्रोधित होकर कहने लगे— “रे दुष्ट ! उन असुरों ने मुझ पर प्रहार किया और तूने मेरे प्राणों से भी अधिक प्रिय श्रीमन् नित्यानन्द के मस्तक से रक्त की धारा बहायी है। तू नहीं जानता है कि मेरे भक्त मुझे अपने प्राणों से भी प्रिय हैं। अतः मैं तुझे क्षमा नहीं कर सकता। काँटा जहाँ गड़ता है, वहीं से निकलता है। यदि श्री नित्यानन्द तुझे क्षमा कर दें, तभी तेरे प्राण बच सकते हैं, अन्यथा कोई उपाय नहीं।

यह सुनकर माधाइ श्रीमन् नित्यानन्द प्रभु के चरणों में गिर पड़ा। नित्यानन्द प्रभु ने मुसकराते हुए उसे अपने हृदय से लगा लिया तथा कहने लगे— “प्रभो ! मैंने माधाइ का अपराध लिया ही नहीं। यदि मैंने किसी भी जन्म में कुछ भी सुकृति की हो, तो मैं उसे माधाइ को देता हूँ। अतः आप इस पर अपनी निष्कपट कृपा कीजिये।

यह सुनकर श्रीमन् महाप्रभु जगाइ मधाइ से कहने लगे— “तुम दोनों ने आज तक जितने पाप किये थे, वे सब मैंने ले लिये। परन्तु अब तुम लोग कान पकड़ लो कि कभी भी किसी भी प्रकार का पाप नहीं करोगे। इस प्रकार तुम मेरे अत्यन्त प्रिय रहोगे तथा मैं तुम दोनों के मुख से ही भोजन करूँगा।

प्रभु की ऐसी परम दयालुता देखकर जगाइ-मधाइ भाव-विभोर होकर रोते-रोते मूच्छित हो गये। तब प्रभु अपने परिकरों से कहने लगे अब ये दोनों पापी नहीं रहे। इनसे कोई भी व्यक्ति घृणा मत करना। आज तक किसी पर इनकी परछाई पड़ने पर वह व्यक्ति अपने आपको अपवित्र मानकर गङ्गा स्नान करता था, परन्तु आज से इन दोनों का दर्शन करके ही उसे गङ्गास्नान का फल प्राप्त होगा। कुछ क्षण पश्चात् जब जगाइ-मधाइ की मूर्च्छा दूर हुई, तो प्रभु कहने लगे तुम दोनों मेरे दास बन गये हो। तुम्हारे जितने भी पाप थे, सब मैंने ले लिये। आज से तुम लोग सदाचार सम्पन्न होकर निरन्तर हरिनाम करना। कलियुग का साधन-भजन हरिनाम सङ्कीर्त्तन है। वह हरिनाम है—
हरे कृष्ण, हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण हरे हरे।
हरे राम, हरे राम, राम राम हरे हरे।
तब प्रभु ने अपने भक्तों को आदेश दिया कि तुम सब लोग मिलकर कीर्त्तन करो। सभी भक्त कीर्त्तन करने लगे। वे दोनों रोते-रोते प्रभु के चरणोंमें गिरकर प्रार्थना करने लगे— “हे प्रभो ! आज तक हम दोनों ने बहुत-से लोगों को कष्ट पहुँचाया है, जिसकी कोई गिनती नहीं है। अतः आप कृपापूर्वक कोई ऐसा उपाय बताइये जिससे कि हमारे अपराध नष्ट हो जाएँ।

प्रभु मुसकराते हुए बोले— “तुम दोनों प्रतिदिन प्रातः काल गङ्गाजी के घाट पर जाना। घाट की सफाई करना तथा घाट पर स्नान करने के लिए जितने भी लोग आयेंगे, उनकी चरणधूलि को अपने मस्तक पर धारण करना तथा उनसे निवेदन करना कि यदि ज्ञात अथवा अज्ञात में हमसे आपके चरणों में कोई अपराध हुआ हो, तो आप कृपापूर्वक क्षमा करें तथा हम पर प्रसन्न हो जायें। तब से वे दोनों यत्नपूर्वक प्रभु का आदेश पालन करने लगे। जिस घाट पर वे लोग सफाई करते तथा लोगों से अपने अपराधों के लिए क्षमा माँगते, वह घाट उनके नाम के अनुसार ही ‘जगाइ-माधाइ घाट’ के नाम से प्रसिद्ध हो गया। जगाइ-मधाइ की ऐसी परिवर्तित अवस्था को देखकर सभी लोग प्रभु का गुणगान करने लगे।

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