Hanuman Prasad Poddar ji - 36 in Hindi Biography by Shrishti Kelkar books and stories PDF | हनुमान प्रसाद पोद्दार जी (श्रीभाई जी) - 36

Featured Books
Categories
Share

हनुमान प्रसाद पोद्दार जी (श्रीभाई जी) - 36


महात्मा गाँधी के साथ प्यार का सम्बन्ध

[श्रीभाईजीके शब्दोंमें]
“बापू के साथ मेरा बहुत अधिक सम्पर्क रहा है और मैंने उनको बहुत निकट से देखने के सुअवसर प्राप्त किये हैं। उनसे परिचय तो मेरा बहुत पुराना (सन् 1915 से) था और निकटका था; पर जब मैं बम्बईमें रहता था, तब महात्माजी साबरमती आश्रम, अहमदाबादमे निवास करते थे। उस समय मैं बीच-बीचमें कई बार आश्रममें भी जाया करता था। वे जब बम्बई पधारते, तब स्वर्गीय भाई जमनालाल जी बजाज के साथ व्यावसायिक कार्य करने के कारण उनकी ओर से महात्माजी के सारे आतिथ्य का काम मेरे ही जिम्मे रहता था। महात्माजी बम्बईमें मेरे घरपर भी कई बार पधारे थे। उनका मेरे साथ सम्बन्ध प्रायः वैसा ही कौटुम्बिक था, जैसा उनके पुत्र भाई देवदास के साथ था।”

बापूके सम्बन्ध की अनेक मधुर स्मृतियाँ हैं। कुछ यहाँ दी जा रही हैं–

१- “गाँधीजी बम्बई पधारे हुए थे और जुहूमें ठहरे थे। उस समय वे कुछ बीमार थे। मैं और शान्तिदेवी बहिन गाँधीजी से मिलनेके लिये गये। उन दिनों गाँधीजी का एक पत्र 'नवजीवन' गुजरातीमें निकलता था। जब हमलोग जुहू जा रहे थे, तब रास्ते में हमें 'नवजीवन' की प्रति मिली। उसमें छपा था 'गाँधीजी बीमार हैं, उनसे मिलनेके लिये कोई न जाय।' हमलोग उस समय जुहूके समीप पहुँच गये थे। मनमें आया 'समीप पहुँच गये हैं, बँगले तक हो आयें; फिर लौट जायेंगे, मिलेंगे नहीं।' गाँधीजीके निवासपर पहुँचनेपर भाई देवदास हमें नीचे मिले। हमलोगों ने उनसे बापूके स्वास्थ्य के विषयमें पूछा और लौटने लगे। भाई देवदास ने कहा 'आपलोग आये हैं, बापूको खबर तो दे दूँ। उतनी देरतक ठहरिये, लौटते क्यों हैं ?' भाई देवदास ऊपर गये और लौटकर बोले 'आप लोगों को बापूने ऊपर बुलाया है।' अब तो हमलोग विवश थे। हमलोग ऊपर गये और बापूको प्रणाम किया। वे हँसकर डाँटते हुए बोले 'लौट क्यों रहे थे?' मैंने कहा “बापू! 'नवजीवन' में छपा है, इसलिये लौट रहा था।” बापू बोले 'यह घरवालों के लिये छपा है क्या? देवदास यहाँ नहीं रहेगा क्या ?' फिर उन्होंने समझाया 'देखो, यह तो उन लोगों के लिये है, जो यहाँ आयें और शिष्टाचार के नाते उनसे मुझे बोलना ही पड़े चाहे मुझे बोलनेमें कष्ट ही हो। मैं यदि उनसे न बोलूँ तो उनको कष्ट हो, दुःख हो। इसलिये उनलोगों को आने से रोक दिया है। तुम आओ, तुमसे मैं एक शब्द भी न बोलूँ। तुम बैठे रहो; तुमसे न बोलूँ तो तुम्हें उसमें तनिक भी विचार नहीं होगा। अतएव तुम्हारे आनेमें मुझे क्या संकोच है ? आये हो, कुछ देर बैठो।' 'हमलोग कुछ देर बैठे, फिर लौट आये।'

२- 'बापू बम्बई पधारे थे, लेबरनम रोडपर ठहरे थे। उस समय मेरे साथ बालूराम जी नामके एक सज्जन, जो राजस्थानके थे और 'रामनामके आढ़तिया' कहलाते थे, ठहरे हुए थे। श्रीजमनालाल जी बजाज भी बम्बईमें थे। मैं, जमनालालजी बजाज तथा रामनामके अढ़तिया तीनों गाँधीजी के पास गये। गाँधीजी ने पण्डित जी का पूरा परिचय पूछा। बालूरामजी ने अपनी बही खोलकर सामने रख दी और बोले- 'इस पर सही करो और नाम-जप करो।' वे ऐसे ही बोलते थे। हमलोगों ने गाँधीजी को सब बात बतायी। वे बड़े प्रसन्न हुए। बोले- 'देखिये, आप कहें तो मैं सही कर दूँ। पर एक बात है – जब मैं अफ्रीकामें था, तब संख्या से नाम-जप करता था; पर अब तो मेरा दिन भर नाम जप चलता है। जब उसकी संख्या नहीं है, तब उसको संख्या में क्यों बाँधते हैं ?' इसपर जमनालाल जी ने कहा 'बापू ! आपको सही करने की आवश्यकता नहीं है।' बापूने सही नहीं की।

३- 'कल्याण' का 'भगवन्नामांक' निकलनेवाला था। सेठ जमनालालजी को साथ लेकर बापूके पास गया, रामनामपर कुछ लिखवाने के लिये। बापू ने हँसकर कहा- 'जमनालाल जी को साथ क्यों लाये हो। क्या मैं इनकी सिफारिश मानकर लिख दूँगा? तुम अकेले ही क्यों नहीं आये?' सेठजी मुस्कराये। मैंने कहा- 'बापूजी, बात तो सच है, मैं इनको इसीलिये लाया था कि आप लिख ही दें।' बापू हँसकर बोले, 'अच्छा, इस बार माफ करता हूँ, आइन्दा ऐसा अविश्वास मत करना। फिर कलम उठायी और तुरंत नीचे संदेश लिख दिया– “नाम की महिमा के बारेमें तुलसीदास जी ने कुछ भी कहने को बाकी नहीं रक्खा है। द्वादश मन्त्र, अष्टाक्षर मंत्र इत्यादि सब इस मोहजालमें फँसे हुए मनुष्य के लिये शान्तिप्रद है। इसमें कुछ भी शंका नहीं है। जिससे जिसको शान्ति मिले, उस मन्त्रपर वह निर्भर रहे। परंतु जिसको शांति का अनुभव नहीं है और जो शान्ति की खोजमें है, उसको तो अवश्य राम-नाम पारसमणि बन सकता है। ईश्वर के सहस्र नाम कहे जाते हैं, इसका अर्थ यह है कि उसके नाम अनन्त हैं, गुण अनन्त हैं। इसी कारण ईश्वर नामातीत और गुणातीत भी है। परंतु देहधारी के लिये नामका सहारा अत्यावश्यक है और इस युगमें मूढ़ और निरक्षर भी रामनामरूपी एकाक्षर मन्त्रका सहारा ले सकता है। वस्तुतः 'राम' उच्चारण की दृष्टि से एकाक्षर ही है और ओंकारमें और राममें कोई फर्क नहीं है। परंतु नाम-महिमा बुद्धिवाद से सिद्ध नहीं हो सकी है, श्रद्धा से अनुभवसाध्य है।”

संदेश लिखकर मुस्कुराते हुए बापू बोले 'तुम मुझसे ही संदेश लेने आये हो जगत् को उपदेश देने के लिये या खुद भी कुछ करते हो? रोज नाम-जपका नियम लो तो तुम्हें संदेश मिलेगा, नहीं तो मैं नहीं दूँगा।' मैंने कहा 'बापू, मैं जप तो रोज करता ही हूँ, अब कुछ और बढ़ा दूँगा।' बापूने यह कहकर कि 'भाई, बिना कीमत ऐसी कीमती चीज थोड़े ही दी जाती है।' मुझे संदेश दे दिया। सेठजी को कुछ बातें करनी थीं। वे ठहर गये। मैंने चरणस्पर्श किया और आज्ञा प्राप्त करके लौट आया।'

4- 'गोरखपुर आने (अर्थात् अगस्त, 1927) के पश्चात् किसी कामसे मैं बम्बई गया था और वहाँसे रतनगढ़ जा रहा था। उस समय अहमदाबाद होकर गाड़ी जाती थी। बम्बईसे चलकर जब गाड़ी बदलनेके लिये मैं अहमदाबाद उतरा, तब गाँधीजी के दर्शनार्थ उनके आश्रमपर गया। अहमदाबाद के निकट ही गाँधीजी का आश्रम था। मैं आश्रमपर पहुँचा। मेरे हाथमें 'कल्याण' का अंक था। संयोग की बात, उस अंकमें 'भगवन्नाम-जप' की प्रार्थना छपी थी। गाँधीजीने 'कल्याण' का अंक अपने हाथमें ले लिया और देखने लगे। ‘भगवन्नाम–जपके लिये विनीत प्रार्थना' लेख देखकर पूछने लगे--'यह क्या है?' मैंने बताया कि किस प्रकार 'हरे राम, हरे राम, राम राम हरे हरे। हरे कृष्ण, हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण हरे हरे । भगवान् के इस षोडश नाम-मन्त्र-जपके लिये प्रतिवर्ष 'कल्याण' में प्रार्थना प्रकाशित की जाती है। और किस प्रकार पाठक-पाठिकाएँ बड़े उत्साह से नाम-जप करती हैं। इतना सुनते ही पूछने लगे–'कितना जप हो जाता है?' मैंने कहा– 'कई करोड़।' इसपर वे प्रसन्न हुए और बोले– 'तुम बड़ा अच्छा करते हो। इसमें ੧੦-੧੫ व्यक्ति भी यदि सच्चे भाव से जप करते होंगे तो उनका उद्धार हो जायगा।' फिर बोले– 'देखों मैं भी नाम-जप करता हूँ, और उन्होंने गोल तकिये के नीचे तुलसी की माला निकाली और दिखाते हुए बोले—इसी के सहारे रात्रि का जप करता हूँ।' संयोग से उनकी वह माला टूट गयी थी और मेरी जेबमें तुलसी की एक माला थी। मेरे मनमें आया 'इनकी टूटी मालाकी जगह नयी माला बदल दूँ।' मैंने बापूसे प्रार्थना की– 'बापू ! आपकी यह माला तो टूट गयी है, इसे आप मुझे दे दीजिये और आप नयी माला ले लीजिये।' और मैंने अपनी जेबसे नयी माला निकालकर उनकी ओर बढ़ायी। बापू बड़े विनोदी थे; उन्होंने बड़ा प्रेमभरा विनोद किया; बोले– 'तुम मुझे माला देने आये हो? अर्थात् मुझे चेला बनाने आये हो?' मैं तथा पास बैठे सबलोग हँस पड़े। मैंने कहा– 'बापू ! माला टूट गयी है, इससे बदलना चाहता था; आपको माला मैं क्या दूँगा।' मेरे उत्तर से वह बड़े प्रसन्न हुए, फिर बोले– मुझे नयी माला दोगे तो तुम्हें साथमें कुछ दक्षिणा भी देनी होगी। दान के साथ दक्षिणा भी होती है। मैंने कहा– 'आपकी कृपा है; बोलिये तो क्या देना पड़ेगा ?' तब उन्होंने गम्भीर होकर कहा– 'तुम अभी जितना नाम-जप करते हो, उसके सिवा एक माला जप और अधिक कर लिया करो। तब हम तुम्हारी माला लेंगे।' मैंने कहा-'क्या हर्ज है।' बापूने प्रसन्नतापूर्वक नयी माला रख ली। उस दिनसे मैं अपने जपके अतिरिक्त एक माला जप और करता हूँ। आज तक वह नियम अक्षुण्णरूपसे निभता चला आता है।'

५– 'सन 1932 की बात है। भाई देवदास गाँधी गोरखपुर जेलमें कैद थे। जेलमें वे बीमार हो गये। टाइफायड हो गया था उनको। जेल अधिकारी भाई देवदास की सँभाल ठीक से न कर सके। बापूको पता चला। उन्होंने मुझे लिखा– 'देवदास गोरखपुर जेलमें बीमार हैं। उसकी देखभाल, चिकित्सा आदि का सारा भार तुमपर है।'

बापू उस समय यरवदा जेलमें थे। बापूका आदेश प्राप्त होते ही मैं भाई देवदास की सेवामें लग गया। कानूनन जेलमें प्रतिदिन जाकर मिलना सम्भव नहीं था, पर मेरे प्रति यहाँ के अधिकारियों की सदा से ही बड़ी सद्भावना रही है। उन्होंने मुझे प्रतिदिन भाई देवदास से मिलनेकी अनुमति दे दी। कुछ दिनोंमें भाई देवदास ठीक हो गये और जेलसे छोड़ दिये गये। मैं उन्हें पहुँचाने वाराणसीतक साथ गया था।

मैं तार-पत्रद्वारा बापूको बराबर भाई देवदासकी स्थितिका परिचय कराता रहता था। बापू मेरी इस तुच्छ सेवासे इतने मुग्ध हो गये कि उन्होंने एक पत्रमें लिखा-

यरवदा मंदिर, 21-7-32
भाई हनुमानप्रसाद,
आपका पत्र मिला और आज तार भी। देवदासके लिये चिन्ता नहीं करूँगा; क्योंकि आप वहाँ हैं और देवदास ने मुझको भी लिखा है कि आपने उससे बड़ा प्रेम किया था। आपके पत्र की आजकल हमेशा प्रतीक्षा करता रहूँगा।
बापूके आशीर्वाद

६- 'कल्याण' के साथ बापूकी स्मृति जुडी हुई है। 'कल्याण' में बाहरी विज्ञापन न छापने और पुस्तकोंकी समालोचना न करने का सिद्धान्त उन्हीं की सम्मतिसे स्वीकार किया गया था, जो अबतक भगवत्कृपा से चल रहा है।'