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अपना आकाश - 29 - देख लूँगा सबको

अनुच्छेद- 29
देख लूँगा सबको

मंगल की मौत का प्रकरण अभी जीवित होने से कोतवाल वंशीधर परेशान रहते । उनका स्थानान्तरण चन्दौली हो गया किन्तु वे बराबर इस सम्बन्ध में जानकारी इकट्ठी करते रहते। शासकीय सेवा में कब कहाँ आफ़त आ जाए क्या ठिकाना? उन्हें जब पता चला कि मंगल की मौत में मानवाधिकार आयोग भी रुचि ले रहा है, वे चौंके। उन्होंने अपने सामने लाश जलवाया था । कोई सुबूत नहीं छोड़ा था। फिर मानवाधिकार आयोग ? अपने एक सिपाही को उन्होंने पता करने के लिए आयोग के कार्यालय भेजा था। आज जब लौटकर उसने भँवरी तथा अन्य की ओर से दाखिल प्रार्थना-पत्रकी फोटो प्रति को कोतवाल साहब के सामने रखा, उन्हें झटका सा लगा। बृजलाल का शपथ पत्र डरावना लगा। एक एक पंक्ति नाग के बच्चे की तरह फुफकारती दिखीं। उन्हें अन्दाज़ नहीं था कि बात इतनी बढ़ जाएगी।
सत्ता के अन्दर बैठे सहकर्मियों से बात की। उन लोगों ने बताया कि बात आगे बढ़ चुकी है। मानवाधिकार आयोग निरन्तर दबाव बनाए हुए है ।
कोतवाल वंशीधर दुखी हुए। इतना सब हो गया और उन्हें भनक तक न लगी। फिर उनका क्रोध उभर आया, 'देख लूँगा सालों को । इतनी दूर नक्सलियों के जाल काटने में न लगे होते तो एक एक को पानी पिला देते।' हाथ मूँछों पर चला गया। पाँच कदम चलकर वे अपनी कुर्सी पर बैठ गए। उनके सामने मेज़। एक तरफ दो कुर्सियाँ आगन्तुकों के लिए। वैसे थाने में किसी को कुर्सी पर बिठाने का रिवाज़ कम ही होता है। पंडित चिन्ताहरण हाथ में मोबाइल कन्धे पर एक झोला लटकाए आ गए। कोतवाल साहब को चिन्तित मुद्रा में देखकर वे उन्हीं की ओर आशीष वचन उचारते बढ़ गए। कुर्सी पर बैठते हुए कहा, 'साहब आपके चेहरे पर चिन्ता की रेखाएँ ?' 'आप कुछ उपाय नहीं करेंगे तो चिन्ता की रेखाएँ उभरेंगी ही।' कोतवाल साहब कुछ ढीले पड़े । 'हुक्म हो......मेरा तो नाम ही चिन्ताहरण है।' कहते हुए उन्होंने पंचाग निकाल लिया। कोतवाल साहब का राशिफल देखते हुए कहा, अनिष्ट ग्रह परेशान किए हुए हैं।' 'इन ग्रहों से क्या होगा पंडित जी ?"
'ये कर तो बहुत कुछ सकते हैं पर करने थोड़े पाएँगे। मैं हूँ न?"
'इनका उपचार क्या होगा पंडित जी ?"
'बस और कुछ नहीं । महामृत्युंजय मंत्र का सवा लाख जाप हो जाय....फिर देखो, किसी की हिम्मत नहीं कि आपकी ओर आँख उठा सके।'
'और ग्रह?"
'ग्रहों की शान्ति के लिए ही तो बता रहा हूँ।'
'सवालाख जाप तो मुश्किल काम है।'
'पाँच शुद्ध उच्चारण करने वाले ब्राह्मण पाँच दिन तक नियमित पाठ करेंगे
तभी...।'
'खर्च कितना आएगा पंडित जी ?"
'पन्द्रह हजार तो लगेगा ही। पर आप निश्चिन्त हो जाएँगे। कोई बाल भी बाँका नहीं कर सकेगा।’
'मुझे क्या करना होगा?"
'आप संकल्प लेकर पाठ शुरू करा दीजिएगा। शेष काम में देख लूँगा । अन्तिम दिन आप आकर समापन करा दीजिएगा।'
'मुझे बैठकर पाठ तो नहीं करना होगा ?"
'नहीं साहब, हम लोग किसलिए हैं?"
'हूँ', कोतवाल वंशीधर के मुख से निकला ।
पन्द्रहवें दिन शुभ नक्षत्र में पाठ शुरू करने की योजना बनी। पाठ भी बनारस के एक मंदिर में करने का निश्चय हुआ ।
पंडित चिन्ताहरण के जाने के बाद वंशीधर का दिमाग चलने लगा। 'साले नागेश लाल का काम है यह।' उनके मुख से निकला। नागेश लाल का फोन नंबर खोजा। मिलाया। उधर से नागेश लाल की आवाज- 'हुजूर प्रणाम।'
'तुम्हारे अगल बगल कोई है तो नहीं।'
'नहीं हुजूर, कोई नहीं है। मैं छत पर बैठा हूँ।'
'तो सुनो मंगल का जिन्न पीछा नहीं छोड़ रहा है।'
'सुना है सरकार ।'
‘एक पंडित जी के निर्देशन में इसी की शान्ति के लिए महामृत्युंजय मंत्र का जाप कराना है । पन्द्रहवें दिन सुबह बनारस आ जाओ। पचीस हजार रुपये के साथ।'
'सरकार आपका हुक्म है तो आना ही पड़ेगा। पर यहाँ तो इससे कम में भी. ....I'
'हुँह...बनारस का मामला है......कहाँ की बात कर रहे हो। पाँच दिन पाठ होगा.....सवालाख का जाप कोई खेल है....हुँ ह...…।’
"ठीक है सरकार, आऊँगा ।'
“आना ही होगा। संकल्प में भाग लेना होगा।"
कोतवाल साहब ने फोन काट दिया।
उनके मुख से निकला 'हूँ। कोतवाल हूँ। कोतवाल कोतवाल होता है। अपने क्षेत्र का मालिक है वह.....हूँ।..... वंशीधर जहाँ भी रहते हैं उनका हुक्म चलता है। हवा भी उनके इशारे पर चलती है।' बुदबुदाते हुए वे उठे। पुकारा, 'दीवान जी' ।
दीवान जी लपकते हुए आए। प्रणाम कर खड़े हो गए।
'क्षेत्र के लिए मेरी रवानगी दिखा दो।' कहते हुए कोतवाल साहब जीप की ओर बढ़ गए। उनके बैठते ही सिपाही पीछे बैठे । जीप भन्नाती हुई चल पड़ी।