Sabka Ujala in Hindi Short Stories by Ashok Gupta books and stories PDF | सबका उजाला

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सबका उजाला

सबका उजाला
' हबीब चिक वाला '
सामने बोर्ड देख कर अनीस ने रिक्शा रुकवा लिया.उस कस्बे में सुबह बस अंगडाई ले ही रही थी.सर्दी ज़बरदस्त तो नहीं थी, लेकिन उसकी हाजिरी बखूबी साफ़ थी. धूप फैलनी शुरू हो गई थी. हबीब चिक वाले के घर के सामने कोई झाड़ू लगा रहा था जिस से धूल का गुबार एक धुएँ की तरह उठ गिर रहा था. पेड़ की टहनियों से छन कर आती हुई तिरछी धूप ने उस गुबार को एक पेंटिंग सा सलीका दे दिया था. फिर भी उसकी परदेदारी में यह साफ़ नहीं था कि झाड़ू कौन लगा रहा था.
अनीस हंसा..... वाकई यह चिक वाले का घर है, तभी कुदरत की चिक सबसे पहले उसी की ड्योढी पर नमूदार है.
रिक्शे वाला समझदार था. रुकते ही उसने घंटी बजाई. उसके साथ ही एक तेरह चौदह बरस की लड़की झाड़ू लेकर रिक्शे के पास आ खड़ी हुई.
अनीस ने सवाल किया, ' हबीब...', बस एक शब्द सुन कर वह लड़की पलट कर भागी और उसने गुहार लगाईं, ' बड़े अब्बू, सुनो...'
मिनट भर में एक अधेड़ सा शख्स सामने से आता नज़र आया. उसके हाथ में दातून थी जिसे वह मुंह में दाब कर घुमाने की कवायद कर रहा था. पास आ कर उस आदमी ने मुंह से दातून निकाल कर एक ओर थूका और फिर अनीस के सामने आ खड़ा हुआ.
हाँ, बताइये आप किसे तलाश रहे हैं ?'
एकदम साफ़, शहूर भरे लहजे में कहा गया जुमला अनीस को चौंका गया.
जी, वो, इमाम मोमबत्ती वाले..'
उस शख्स ने तब तक अपनी हथेलियों से रगड़ कर अपना चेहरा बदल लिया और फिर पूरे भरोसे से अपना जवाब दिया,
अमां, कब की बात कर रहे हैं आप..इमाम भाई को तो फुरसती हुए अरसा हो गया..आप उनके छोटे भाई हुसैनी को पूछ रहे हैं क्या..?'
हुसैनी.. हाँ हाँ जनाब, वही' अनीस उत्साह में आ गया.
तो फिर हुसैनी पूछेये न.. यही पहले पूछते तो नन्ही ही आपको साथ जा कर वहां पंहुचा आती. अब इमाम का ज़माना कहाँ रहा..'
अनीस के चेहरे पर हंसी तिर आई.. ' आप हबीब हैं..?' उसने सवाल किया.
अरे नहीं, हबीब मेरा बेटा है और चिक के काम में मुझसे ज्यादा हुनरमंद है. तभी तो उसने मुझे भी इमाम की तरह फुरसती बना दिया है..'
कहाँ चचा जान, आप तो कतई फुरसती नहीं लगते. देखिये, अलसुबह आप चौकस हैं, जबकि सारा क़स्बा मुर्गे को अंगूठा दिखाए घर में घुसा हुआ है. बताइए, क्या मैं गलत हूँ ?'
हूँ, इंसान तो दिलचस्प हो दोस्त..'
अब कहा आपने. अनीस मेरा नाम है. दोस्त मैं आपका भी बन गया, हुसैनी का तो हूँ ही..अब बताइए, हुसैनी का घर किधर हुआ ?'
बस, अगली गली में दाहिने घूमोगे तो सामने मुसद्दी हकीम का बोर्ड है. मुसद्दी के ठीक सामने नीली चिक वाले दरवाज़े की घंटी बजाना, भीतर से 'कौन है..' की आवाज़ इमाम भाई की आएगी, लेकिन दरवाज़ा हुसैनी ही खोलेगा.
अनीस इस नए दोस्त को पाकर चुहल के मूड में आ गया और पूछ बैठा,
वहां कोई बोर्ड नहीं लगा है क्या..?'
अनीस की हंसी बता गई की यह सवाल नहीं एक मज़ाक का रंग है. इस पर उस शख्स ने उतनी ही गर्माहट भरा जवाब दिया,
क्या बात करते हो यार, जिस दरवाज़े पर मेरे हाथ की नीली चिक अभी तक बरकरार है, उसे किसी बोर्ड की क्या दरकार ? वह चिक ही बोलती है की यह फिरोज़ के यार का घर है. इस पूरे कस्बे में सिर्फ तीन घर हैं जिनकी ड्योढी पर मैं बा-निशान चौबीस घंटे बना रहता हूँ'.
फिरोज़.. आपका नाम भी आपकी उम्र की गवाही नहीं देता..सचमुच, हम दोस्त बन गए हैं तो ठहाके छूटेंगे...अच्छा अब चलता हूँ, आदाब.'
कुछ दिन रुकोगे..?'
इरादा तो है, देखिये ..'
और तभी अनीस का रिक्शा आगे बढ़ चला. ज़ाहिर है की रिक्शेवाला भी कहीं इस बातचीत से सूखा नहीं छूटा था..

***

हुसैनी और अनीस तो आमने सामने जमे ही थे, उनके साथ इमाम भाई भी आ कर बैठ गए थे. शायद यह अनीस के मुंह से फिरोज़ का मान सुन लेने का जादुई असर था..
हुसैनी और इमाम सगे भाई थे ज़रूर, लेकिन उनके बीच सत्रह बरस और तीन संतानों का फर्क था.हुसैनी की दो बहनें ब्याही जा चुकी थीं, उन दोनों के बीच का एक भाई सूरत में अपना कपडों की छपाई का काम कर रहा था. पुश्तैनी घर अब हुसैनी और इमाम के पास था. घर पुराना तो था, लेकिन बड़ा और हवादार था. एक छोटी सी बगिया थी उसमे. नीचे के रिहायशी हिस्से के अलावा ऊपर इमाम ने एक शेड डाल कर किसी ज़माने में 'इमाम कैंडिल वर्क्स' लगाया था. उस वक्त इमाम के साथ उसका बीच वाला भाई भी लगा हुआ था, काम अच्छा चल रहा था, लेकिन बाद में शादी के बाद वह भाई सूरत निकाल गया. इमाम भाई अकेले तो पड़े ही, हालत भी कुछ बिगड़े और काम सुस्त होते होते एकदम थम गया.
अभी हुसैनी पढ़ कर लौटा है. उसके सिर पर इल्म इतना चढ़ा है कि उम्र भर उतरने का नाम नहीं लेगा. इस के बावजूद, उसके सामने बड़े भाई इमाम का सच भी है. इमाम की बीवी ने हुसैनी को भाभी होने के अलावा, मां बन कर बच्चे की तरह पाला भी है. इसी नाते हुसैनी उनके इस कहे पर राजी हुआ है कि वह बड़े भाई के मोमबत्ती के काम को, उसके साथ मिल कर फिर चालू करेगा. अनीस और हुसैनी की दोस्ती उस समय हुई थी जब डिग्री कालेज में बी ए के पहले साल में दोनों का दाखिला एक ही दिन हुआ था. दोनों ही जने अपने अपने छोटे कस्बे से पहली बार बाहर निकले थे. दोनों के ही अपने अपने परिवार इस सोच वाले थे कि हॉस्टल में खर्चा भी ज्यादा है और वहां लड़कों के बिगड़ जने का भी अंदेशा बड़ा है. इस नाते दोनों लोगों ने कालेज के पास एक कमरा साझा किया और उसमे पांच साल तक साथ बने रहे... तीन साल बी ए , फिर उसके बाद दो साल अंग्रेजी में एम् ए. उसके बाद हुसैनी ने पत्रकारिता का एक साल का कोर्स शुरू किया और अनीस हिंदी में एम् ए करने बनारस निकाल गया. बी ए में उर्दू दोनों ही दोस्तों का विषय था. इस नाते अनीस हिंदी, अंग्रेजी और उर्दू का माहिर बन निकला और हुसैनी भाषा के साथ पत्रकारिता का आदमी बना.
एक बरस के अंतराल के बाद अनीस आज फिर हुसैनी के साथ था. उसके बस्ते में हुसैनी का ख़त भी था जो उससे मनोबल की मांग कर रहा था, और मशविरे की भी. उसी बस्ते में अनीस की अपनी किताब की पाण्डुलिपि भी थी जिसे वह फाइनल कर के छपने देने के मूड में था. इस काम के लिए इस कस्बे की शांत जगह से बेहतर ठौर और क्या हो सकता था, जहाँ यार भी हो और सुकून भरी फुरसत भी. अनीस का कदम सही पड़ा था और उसे एक के साथ एक यार फ्री मिल गया था, फिरोज़. शुरुआत अच्छी थी लेकिन अब बीच में आ टपकी मोमबत्ती. लेकिन वह भी ठीक है.. फिरोज़ ने हुसैनी की पीठ पर हाथ रख कर कहा कि, मोमबत्ती से शुरू करो बरखुरदार,सूरज फिर कहाँ दूर है. यह बात हुसैनी के जेहन में तो अपनी जगह बना गई, अनीस भी इस से अछूता नहीं रहा.. एक दमदार चुनौती यह भी थी.

अनीस और हुसैनी सिर से सिर जोड़ कर बात, बहस और चुहल करते नज़र आने लगे. उनकी काम से जुडी योजना भी साथ ही साथ आकर ले रही थी. साफ़ था कि मोमबत्ती और पत्रकारिता दोनों साथ साथ चलेंगे. इमाम भाई मोमबत्ती का कारोबार सम्हालेंगे और हुसैनी अपने साप्ताहिक अखबार का, जो हिंदी में निकलेगा. अनीस दोनों के साथ बना रहेगा. इस दौर में इमाम की बेटी का भी जोश अनदेखा किया जाने वाला नहीं था, वह भले ही अभी बस दसवां पास थी लेकिन हिसाब में उसकी चौकसी हैरत में डालने वाली थी. जुम्मेदारियों के बटवारे में फिरोज़ ने भी अपनी हथेली आगे बढ़ाई थी जिसमे तजुर्बे के साथ भरोसे की गर्माहट भी थी.
सोच विचार का नतीजा सामने आया. मोमबत्ती के कारोबार का नाम दिया गया 'सबका उजाला' इस नाम पर सबकी तुरत रजामंदी हो गयी. यह नाम अनीस ने चुना था भले ही उसे तब तक मोमबत्ती के कारोबार के नाम से जुड़ी किसी कहानी का पता नहीं था. फिरोज़ ने सुझाव दिया था कि अखबार का नाम भी यही, यानि, 'सबका उजाला' रखा जाय. सबको यह बात भी ठीक लगी थी.

हफ्ते भर के अन्दर 'सबका उजाला' इश्तेहार और पर्चों की शक्ल में कस्बे भर में अपने आने की खबर बाँट आया था. हिंदी, अंग्रेजी और उर्दू में लिखे गए यह इश्तेहार बहुत काफी थे जो कस्बे में इंतज़ार और जोश का माहौल भरपूर छा गया.

इस नई हलचल ने सबसे ज्यादा जिसको अपनी हद में लिया वह इमाम थे, हालाँकि, अनीस और हुसैनी की बहुत सी बातें उनकी पकड़ के बाहर छूट जाती थीं. बाज़ार में इमाम की स्कूल मास्टर से बात ने इसका एक ख़ास ही ढंग से खुलासा किया.
इमाम भाई ने पता नहीं किस धुन में अपनी बात कही थी,
एक अरसे की गैरहाजिरी के बाद फिर मेरी मोमबत्तियां इस कस्बे में घर घर पहुँचने वाली हैं. खुदा का शुक्र है कि बिजली की बदहाली के दिन अभी भी उतने ही जबर हैं, जितने तब थे...'
इस बात का जवाब कस्बे के स्कूल मास्टर ने दिया था..
अखबार शुरू हो जाने के बाद ये हालत भी ज़रूर बदलेंगे इमाम, इसी बदलाव में 'सबका उजाला' की कामयाबी है. ज़माने की किल्लत के दम पर कारोबार चलाना तो अँधेरे का कारोबार हुआ, यह हुसैनी और अनीस का मंसूबा थोड़ी है..'
स्कूल मास्टर की बात में एक बारीक सी चेतावनी के साथ एक सच की संभावना भी साफ़ थी, और यह उम्मीद की राह पर एक ऐसे आदमी के कदम थे, जो न कुनबे के दायरे में आता है और न यारी के दायरे में.. वह स्कूल मास्टर तो मज़हब की भी फर्क पहचान रखने वाला हिन्दू है, लेकिन जो उजाला सबका हो, वह इन दायरों को कहाँ मानता है भला, इसलिए उस कस्बे में मोमबत्ती और अखबार आने के पहले ही उजाले की दस्तक सुनाई पड़ने लगी थी
दरअसल, उजाला कभी इतना दूर होता भी नहीं, जितना अँधेरा उसके होने की अफवाह बना कर रखता है.

कस्बे में बँटे हिंदी, अंग्रेजी और उर्दू के इश्तेहार और पोस्टरों की धमक शहर तक जा पहुँची. उसका असर यह हुआ की शहर में पंडित शिव दयाल शर्मा की मेज़ पर उन पर्चों का बण्डल उनके मार्गदर्शक कृपाचार्य ने एक छोटी सी पर्ची के साथ ला पटकवाया,

'यह सब क्या है पंडित जी..?'

पंडित शिव दयाल के औघड़ सपने उस कस्बे की रोटी पर फफूंद बन कर उगने के पल रहे थे. दरअसल वह सपने भी उनके कृपाचार्य ने ही उनके भीतर बोए थे. उस फफूंद के ज़रिये कृपाचार्य के ज्यादा बड़े सपने उनके सामने थे, जिनमे पंडित शिव दयाल शर्मा को सीढ़ी की भूमिका निभानी थी. साफ़ है, वह पर्चे और इश्तेहार इस समीकरण के चौपट हो जाने की वजह बन सकते थे.... सावधान कृपाचार्य उर्फ़ चाणक्य चतुर्वेदी, एम् पी, यानी महापापी.. लगाम खींचो, शिव दयाल शर्मा को, बिना उसकी आँख की पट्टी खोले कोंचो कि वह इस उजाला टाइप बवाल को तुरत चलता करे...

कृपाचार्य ने अपनी शिखा ढीली की और चक्कर चला दिया. पंडित शिव दयाल की हिंदी ठीक ठाक थी लेकिन अंग्रेजी और उर्दू एक दम सिफर होनी ही थी. वह चुप चाप उन पर्चों को ताकते रहे. कृपाचार्य ने उन्हें फोन पर धमकाया भी था. हमेशा की तरह फोन वार्ता में धमक ज्यादा थी, कोई ऐसी बात एकदम जीरो, जिसे शिव दयाल सीधे सीधे दोहरा सकें. शिव दयाल जरूरत का मोहरा तो थे, काम के इसलिए भी थे कि उनका दिमाग लम्बी दौड़ आसानी से नहीं पकड़ता था. इस नाते चाणक्य चतुर्वेदी कोई ऐसी बात कहने से परहेज़ बरतते थे, जिसे उनके नाम से जोड़ कर दोहराया जाना जोखिम भरा हो. उन्हें मीडिया की मार, उसकी नियत और उसके लुढ़कन चरित्र का बखूबी पता है और वह अपने मौके पर उसका फायदा भी उठाते है. इसलिए उनकी मार्फ़त शिव दयाल के पास केवल धमकी गई थी, कोई सन्देश नहीं.

चतुर्वेदी का पासा सही पड़ा. लगाम के झटके से उन्होंने अगले ही दिन वह पर्चे के बण्डल समेटे और उस कस्बे में पहुँच गए जहाँ मोमबत्ती का टिमटिमाना अभी शुरू होने वाला था और सूरज भी अपने घोड़ों की जीन कस रहा था.

पंडित शिव दयाल शर्मा ने अपना एक जजमान उस कस्बे में तलाश किया और उसी के डेरे पर पहुँच गए. वह जजमान कस्बे में अपनी राशन की दुकान चलता था. राशन की दुकान के एक ज़रूरी डिपार्टमेन्ट की तरह उसकी एक परचून की दुकान भी थी जिस पर उसका बेटा हरद्वारी बैठता था. दोनों दुकानें मिल जुल कर रकम बना रहीं थीं. शिव दयाल ने अपने जजमान से एक कमरे का इंतज़ाम कराया, जो दरअसल, उन दोनों दुकानों का साझा खुफिया गोदाम था. कमरा हाथ आते ही पंडित शिव दयाल को एक ठीहा मिला और हरद्वारी को अपने गोदाम पर एक मजबूत ढक्कन जो खुफिया ठिकाने को कोई फर्क नाम दे.
पहले ही दिन पंडित शिव दयाल ने अपनी अकल का इस्तेमाल करते हुए वहां एक बोर्ड लगा दिया,
शिव परामर्श केंद्र ' और मेज़ कुर्सी जमा कर बैठ गए. उनका इरादा था कि दुःख मुसीबत के मारे लोग उनके पास आयेंगे और वह उनसे बातचीत के बहाने मोमबत्ती अखबार के अन्दर की खबर लेता रहेगा.

पंडित शिव दयाल के बिना कहे परचून की दुकान वाला हरद्वारी शाम को वहीँ आ कर उनके साथ बैठने लगा. शिव दयाल को भी एक से दो हो जाना बुरा नहीं लगा. वैसे भी उनके पास कोई ऐसी ठोस योजना तो थी नहीं.

अगले ही दिन पंडित जी ने उस बण्डल से अंग्रेजी और उर्दू के पैम्फलेट निकाल कर हरद्वारी के सामने रख दिए. दोनों पर्च देख कर उसने अपने हाथ खड़े कर दिए और सलाह दे डाली कि किसी ऐसे को खोजो जो अंग्रेजी और उर्दू का जानकार हो.

' यहाँ कोई मिलेगा ? ' पंडित जी को संशय हुआ.

'क्यों नहीं मिलेगा..आप चिंता मत करो, मैं जुगाड़ करता हूँ.' और हरद्वारी ने तुंरत ही चाक से पंडित शिव दयाल शर्मा के बोर्ड पर लिख दिया,

“हिंदी, अंग्रेजी और उर्दू का जानकार चाहिए. उचित मेहेनताना दिया जाएगा.”

उसी दिन यह खबर भी कस्बे के दूसरे छोर तक पहुँच गयी. अनीस तक भी इस खबर को पहुंचना ही था और अपनी तैयारी के बाद अनीस पंडित शिव दयाल शर्मा के परामर्श केंद्र पर सुबह सुबह ही पहुँच गया.
फिरोज़ ने अपने चेलों से यह सुराग जुटाया था कि यह शिव दयाल शर्मा, वल्द सारस्वत शर्मा उसी खेत की मूली हैं, जिनके किसी हमराही ने इमाम की मोमबत्ती के खिलाफ कस्बे के लोगों को भड़काया था. हिन्दू के घर में भला मुसलमान मोमबत्ती का क्या काम ? इस से तो लक्ष्मी भाग जायेगी और उल्लू घर में घुस आएगा. उस सयाने इन्सान को उसी बरस मोम का बड़ा कोटा हाथ लग गया था और उसके भाई का इरादा अपना कारखाना लगाने का था, जो लगाया भी गया, लेकिन कुछ ही बरस इंतज़ार के बाद उस लड़के को इलाके के एम् पी चाणक्य चतुर्वेदी के दम पर शहर में अंग्रेजी शराब का ठेका मिल गया तो वह मोमबत्ती के काम को एक मुसलमान को ही बेच कर फुर्र हो गया. लेकिन तब तक देर हो चुकी थी और इमाम हौसला हार चुके थे.

अनीस जब शिव दयाल शर्मा के परामर्श केंद्र पर पहुंचे थे तब वह दूसरी बहुत सी जानकारी के साथ इस खबर से भी लैस थे.

यहाँ एक इत्तेफाक ने भी अपनी भूमिका अदा की. अनीस जब बनारस पहुंचे थे और उन्होंने हिंदी में एम् ए शुरू किया था तभी उन्होंने शिव उपनाम से हिंदी में लिखना शुरू कर दिया था. यह स्वतंत्र लेख अनीस की किताब का हिस्सा भी थे इसलिए वह अनीस के बस्ते में ही रखे थे और जरूरत पड़ने पर उन्हें पंडित जी को दिखाया जा सकता था.
अनीस शिव दयाल जी के परामर्श केंद्र पर सुबह सुबह ही पहुँच गए. वहां अभी ताला लगा था. कुछ देर ठहरने पर अनीस को दूर से एक आकृति पास आती नज़र आई. वह पंडित जी ही थे जो हिलते डुलते चले आ रहे थे. वृद्ध तो नहीं, लेकिन पचास की ओर बढ़ती उनकी उम्र थी. शरीर कुछ भारी हो चला था. बालों और दाढ़ी को शायद सायास जटा जूट सा दिखने का रूप दिया गया था. उस दिन वह बालक जो उन्हें बस अड्डे से अपनी साईकिल पर ढो कर लाता था गैर हाज़िर हो गया था और रिक्शे पर पैसे लुटाना पंडित जी की तवियत से मेल नहीं खाता था. बस, वह अपना झोला एक हाथ से दूसरे हाथ बदलते चले आ रहे थे. जब वह साईकिल वाले मुंडू के साथ आते थे तब उनके मुंह से हरे राम हरे राम निकलता था, लेकिन पैदल आते आते उनके मुंह से सिर्फ गालियाँ निकाल रही थीं जब कि कुल दूरी हद से हद दो सौ गज रही होगी.
अनीस ने देखा तो आगे बढ़ कर पंडित जी को प्रणाम किया और अपना हाथ बढ़ दिया. परामर्श केंद्र मुसलमानों कि बस्ती में था इसलिए पंडित जी बिना बताये भी इस अजनबी के मुसलमान होने का अनुमान लगा सकते थे. फिर भी अनीस के बढे हुए हाथ में उन्होंने अपना झोला थमाया और साथ चल पड़े.

कमरे में पहुँच कर पंडित जी ने अनीस के हाथ से अपना थैला लिया और उसे मेज़ पर रख कर कुर्सी पर बैठ गए. उसके बाद ही उन्होंने अनीस के चेहरे पर नज़र मरी और अपना संवाद दिया,

' जरा बाहर ठहरो, मैं बुलाता हूँ.'

अनीस उठ कर बाहर आ गया. पहले फिरोज़ से फिर और कुछ दूसरे लोगों से वह पंडित जी का पूरा इतिहास भूगोल जान चुका था. उसे इस बात की भी जानकारी मिल चुकी थी कि नाम कमाने की ललक उनकी कमजोरी बन रही है भले ही उन्हें इस राह के गुर का छदाम भर भी हुनर नहीं है. चालाक वह हैं नहीं और सीधे सरल बन कर पेश आना उनकी आदत में नहीं है, इसलिए बिना बात की उनकी ऐंठ उन्हें कहीं का नहीं रहने देती. अभी वह चाणक्य चतुर्वेदी के चलाये चल रहे हैं, यह अनीस को पता चल गया था, और चतुर्वेदी ने उन्हें बताया था कि उस इलाके में बहुमत हिन्दुओं का है, लेकिन मुसलमान भी कम नहीं हैं, इसलिए उन्हें पनपने देना भी ठीक नहीं है. वो लोग दो जून कि आधी तीही खा कर सो रहें बस इतना काफी है, न मरें न मुटाएं.. अनीस के पास चतुर्वेदी के बारे में भी काफी जानकारी इकठ्ठा हो गयी थी और वह सारी करीब करीब कच्चे चिट्ठे में दर्ज करने लायक थी.

पंडित शिव दयाल ने दो मिनट कुर्सी पर बैठ कर काया को विश्राम दिया. फिर डस्टर से मेज़ को पोछ कर उस पर से बीता हुआ दिन बुहारा और नए दिन की अगरबत्ती जला कर आले में रख दी, जहाँ उन्होंने छोटी सी एक शंकर की बटिया पहले दिन से ला रखी थी. अब जरा चेतन हो कर उन्होंने अनीस को आवाज़ दी, ' आ जाओ'
अनीस भीतर आया. उसने पंडित जी को फिर प्रणाम किया, बाकायदा प्रणाम शब्द उच्चारित करते हुए. पंडित जी ने उसे हाथ उठा कर आर्शीवाद दिया और कहा,

' बताओ क्या समस्या है ?'

समस्या कोई नहीं है, हिंदी, अंग्रेजी और उर्दू जानता हूँ..

पंडित शिव दयाल शर्मा जरा चौकन्ने हुए.

'अच्छा अच्छा, क्या पास किया है.?'

' जी, पहले अंग्रेजी में एम् ए किया, फिर बनारस जा कर हिंदी में भी एम् ए कर लिया..'
अच्छा, बनारस में कहाँ से ?'
खास यूनीवर्सिटी में, आर्ट्स कालेज से, बिरला हास्टल में था दो बरस '
पंडित शिव दयाल की बांछें खिल गईं. उनका भी पढना वहीँ हुआ था. उन्हीं दिनों को याद कर के उन्होंने अगला सवाल किया,
कुछ लिखते विखते भी रहे क्या..?'
जी हाँ..' और अनीस ने अपने थैले से अपना पुलिंदा बाहर निकाल कर रख दिया. उसमे बहुत सी सामग्री थी और सबमें उसका नाम छपा था, अनीस शिव

अनेक विषयों पर अनीस का लेखन देख कर पंडित जी विस्मित रह गए. उस पर से, उपनाम शिव. पूछे बिना नहीं रहा गया,
यह शिव उपनाम कैसे लिखते हो ?'
शिव ने मुझे प्रभावित किया, बस इसलिए..बनारस तो वैसे ही शिव भक्तों का शहर है, मैं भी हो गया.'

'क्या बात करते हो, मुसलमान हो तो शिव के भक्त कैसे हो सकते हो ?'

अनीस फार्म में आ गया. वह बात को ऐसे ही मोड़ पर लाना चाहता था.

'पंडित जी, यह बताइए कि मुझे शिव का भक्त नहीं होना चाहिए या शिव ही मेरी भक्ति स्वीकार नहीं करेंगे.. इसमें कौन सी बात ठीक है ?'

शिव दयाल इस बात पर चुप रह गये. अनीस ने फिर कहना शुरू किया.

' पंडित जी देखें, राम तो शिव के भक्त थे ही, रावण भी शिव का उतना ही पक्का भक्त था, और शिव ने दोनों की भक्ति स्वीकार की, दोनों को ही वरदान दिया. अब यह शिव से ज्यादा और कौन जानता था कि दोनों को एक दूसरे के शत्रु की भूमिका निभानी है.. तो फिर ? क्या मुसलमान असुर राक्षसों से भी गये गुजरे हैं.. बताइए ?

' नहीं नहीं, ' यकायक शिव दयाल को कृपाचार्य का रटाया हुआ पाठ याद आ गया.

'तो फिर ? शिव तो आप भी हैं, आप मेरी भक्ति को क्यों परे करते हैं.. कहिये न , तथास्तु.. "

अनीस के इस तर्क ने पंडित जी को अभिभूत कर दिया. अनीस में विद्वत्व तो है ही, भक्ति भाव भी है. बस, उन्होंने उसके सिर पर हाथ रखा और बोल उठे, तथास्तु.

'हाँ, तो अब परीक्षा भी ले लीजिये, बताइए क्या पढ़ कर दिखाऊँ..?' अनीस ने अब बात को पटरी पर लाने की कोशिश की, और पंडित जी ने तुंरत उर्दू का पर्चा निकाल कर उसके सामने रख दिया.

अनीस मुस्काया. यह उसका ही लिखा हुआ मज़मून था. और उसका अक्षरशः अनुवाद हिंदी और अंग्रेजी के पर्चों में था.

अनीस ने उर्दू का पर्चा पढ़ कर सुना दिया फिर तनिक रुक कर कहा,

'ऐसा ही एक हिंदी का पर्चा ही तो आपके पास होगा, निकालिए उसे और मिलाइए उसे मेरे बताए से.'

पंडित जी ने सिर हिला कर इस बात की पुष्टि की. अब अनीस ने आगे कहा,
यह सिर्फ जानकारी देता हुआ पर्चा है कि कस्बे में मोमबत्ती बनाने का काम शुरू हो रहा है. साथ ही एक हिंदी का हफ्तावार अखबार भी निकलने कि तैयारी में है. इन दोनों कामों का नाम एक ही है, ' सबका उजाला '. बस यह पर्चा इतना ही कहता है.'

'अखबार में क्या होगा..?'

'वही, जो अखबारों में होता है. लेकिन अमरीका इंग्लॅण्ड की खबर पढ़ कर कस्बे को क्या मिलेगा ? तो यह अखबार गाँव, कस्बे और अपने शहर की खबरें देगा जिस से सबको फायदा होगा.

'जैसे ?'

'जैसे, मंडी में फल सब्जी अनाज के भाव, जिला हाकिम और उसका कोई नया कानून, सरकार की तरफ से जारी कोई रियायत, छूट, कोई नई तरह की खाद, बीज.. और क्या..'

'...और कुछ ?'

'..और आपके परामर्श केंद्र की खबर, आपका कोई अच्छा सा लेख, आपके ज्ञान अनुभव के बारे में सूचना...'

' अरे नहीं..! '

' मजाक नहीं, सचमुच हाँ..आपका फोटो ले रहा हूँ, परामर्श केंद्र और आपका परिचय तो पहले अंक में ही आजायेगा. .और बताइए..' बात पूरी करते करते अनीस का मोबाइल क्लिक कर गया.

अनीस अपना काम कर के चुप बैठ गया. पंडित जी को सहज होने में कुछ समय लगा. आज के लिए इतना काफी था. अनीस अपनी बात की तह लगा चुका था और उठने की भूमिका बना रहा था.. चलते चलते अनीस ने अपनी एक और बात कहने की भूमिका रची,
इन पर्चों कि चिंता मत करिए पंडित जी, चाणक्य चतुर्वेदी को यही सब बता कर बात परे करिए.

अनीस की बात के इस टुकड़े से पंडित शिवदयाल कुछ चौंके लेकिन खुद को जज्ब वही कर गये,

' अरे नहीं, कृपाचार्य की क्या चिंता है ..?'

' अगर नहीं है तो कृपाचार्य की चिंता करिए प्रभुवर, वह किस दावं के खिलाडी हैं उसे गहराई से समझिये वरना.. '

अनीस ने अपना वाकया अधुरा छोड़ कर अपना बसता उठा लिया.
अब चलता हूँ पंडित जी, कल तो नहीं, परसों शाम को चक्कर लग सकता है.. अच्छा प्रणाम '

अनीस अपनी बात कह कर निकल आया. उसे पूरा पता था कि वह पंडित जी के चित्त में क्या बीज बो कर आया है. एक चुटकी आशंका, चाणक्य चतुर्वेदी की तरफ से, उतना ही संशय सबका उजाला को लेकर, और अंजुरी भर आशा का उजास, कि इस कस्बे में उनका नाम कहीं अपना ठौर बनाएगा... लेकिन अनीस से अगली भेंट के बीच करीब छत्तीस घंटे थे, इस अवधि में क्या कुछ घट सकता है, इसका भान भी पंडित जी को था. खैर...
अगले दिन सुबह ही उन्हें अपने एक बालक से खबर मिली कि चाणक्य चतुर्वेदी प्रान्त की राजधानी निकले हुए हैं और तीन दिन से पहले नहीं लौटेंगे... लेकिन उन्होंने यह भी जाना कि वह अपना इस बार का ठिकाना और मोबाइल नंबर रामाधार को दे कर गये हैं, इस हिदायत के साथ कि उसे कहीं दायें बाएँ नहीं होने देना है.

पंडित शिव दयाल शर्मा के लिए यह एक झटका था. इसे झेल पाना उनके लिए तनिक और कठिन होता अगर उनकी भेंट अनीस से न हो चुकी होती. इस खबर के साथ ही उनके दिमाग में अनीस के शब्द गूँजने लगे,

'.. कृपाचार्य की चिंता नहीं है तो चिंता करो प्रभुवर..'
अनीस से अगली भेंट पर पंडित जी की खास आतुरता उस से चाणक्य चतुर्वेदी के ही बारे में और बात करने की थी और पंडित जी इतने चतुर नहीं थे कि अपने उतावलेपन को दीगर शब्दों को ढांप कर अपनी बात अनीस के सामने रखें, वह तो बस मिलते ही इसी विषय पर चालू हो गये,

'हाँ तो शिव, उस दिन तुम चाणक्य चतुर्वेदी के बारे में क्या कह रहे थे..?'

अनीस हंसा.
मैं सिर्फ इतना कह रहा था पंडित जी कि आपके कृपाचार्य जी जिस दावं के खिलाडी हैं उसे समझिये.. उन्हें जो अपने लिए साधना होता है उसे वह इस ढब से साधते हैं जैसे वह किसी और के लिए निष्काम धर्म निभा रहे हों, जब कि उनका हर एक दावं अपने लिए और सिर्फ अपने लिए होता है. क्या आप को इस बात का अंदाज़ है ? '

' बिलकुल है..' पंडित जी ने इस बार एकदम खुल कर अपनी बात कही.

'कैसे..?'

'मैं बरसों से उन्हें देख रहा हूँ शिव...'

'..तो फिर आप क्यों खुद को उनके कांटे का चारा बनने दे रहे हैं.. सिर्फ इस आस में कि वह आपको इस उस कस्बे का महंत बना देंगे ? चलो अगर उन्होंने ऐसा कर भी दिया तो तो वह आपके क्षेत्र से, आप के दम पर हिन्दू वोट खींचेंगे और किसी दूसरे इलाके से जहाँ दलित वोट खींचने होंगे, वहां के लोगों के कान में आप के खिलाफ ज़हर भर देंगे. वह मुसलमानों की बस्ती में इफ्तार में भी जायेंगे, जब कि आप सांप छछूंदर की गति लिए एक खूंटे से बंधे रहोगे और मन मार के उनके गुण भी गाओगे. वह एम् पी हैं और आप अभी तक कहीं प्रधान शधान भी नहीं हो, तो सोचो, कौन किसकी सीढ़ी बनेगा.. वह आपकी या आप उनकी ? उनसे तो अदला बदली का खेल भी नहीं खेल सकते आप. क्यों, क्या गलत कहा..?'

पंडित जी इस वृतांत से बेचैन हो गये. बस, इतना ही उनके मुहं से फूटा,

' तो फिर..?'

'तो फिर क्या, इसी कस्बे मैं अपने पैर जमाइए. सबको ऐसा परामर्श दीजिये जो उसके हित में हो और वह दुआ दे.. क्या दुआ भी हिन्दू मुसलमान होती है..?

'अरे नहीं..'

' फिर सोचना क्या है, बस ईमानदारी की राह चुनिए.. याद है, एक वो थे कृपाचार्य के लटक, जो इमाम की मोमबत्ती से मुसलमान रोशनी की बात कर करते हुए यह बता रहे थे कि उस से लक्ष्मी भागेगी और उल्लू घर में घुस आएगा. बाद में वही श्रीमान दारू का ठेका बगल में दबा कर मोमबत्ती का कोटा एक मुसलमान को ही थमा गये. जानते हैं क्यों ?'
पंडित जी का सिर नहीं में हिला.

'क्योंकि उन्हें कृपाचार्य ने ऐसा ही हुकुम दिया था और कृपाचार्य को अपने आला कमान के लिए ज़मीन बनानी थी कि वह एक ख़ास पार्टी से गठबंधन कर सकें. कृपाचार्य का तो दावं चल गया लेकिन क्या वह ब्राह्मण देवता कभी इस कस्बे में सिर उठा कर दुबारा आ सकते हैं.. बताइए..'

' कस्बे के लोगों को पता है यह कहानी ?' पंडित शिव दयाल ने अपना आतुर प्रश्न किया.

' सब पता है प्रभुवर, गाँव कस्बे का माहौल अब बदल रहा है श्रीमन, लोग जागरूक हो रहे हैं. उन्हें बहकाया जाना अब उतना आसन नहीं हैं और दिनोदिन यह कठिन ही होता जाएगा, जबकि अब तक राजनीति केवल लोगों को बहका कर ही होती आई है...'
इस पर पंडित शिव दयाल जरा हँसे,

' तो क्या जनता के जागरूक होने से राजनीति थम जाएगी'

' नहीं थमेगी तो नहीं, या तो नज़रिया बदल कर कदम बढ़ाएगी या नजरिया बदल कर आने वाले लोगों के हाथ धकिया कर हाशिये पर ला पटकी जायेगी. बीच राह में क्या कोई थम कर वहीँ बना रह सकता है ? राजनीति का यही ढब होगा, आगे चलो नहीं तो कुचले जाओ. सोच में बदलाव लाना तो बेहद जरूरी है.'

'किस तरह का बदलाव ?'

'एकदम उलट नीति.... जनता को जागरूक करो. जो बात लोगों को खुद ब खुद कल पता चलनी है, उसे आज ही आप खोल कर सबको बता दो आप कहाँ पहुंचोगे उनकी नज़र में..! बात एकदम साफ़ है.'

यकायक कुर्सी से उठ खड़े हुए पंडित शिव दयाल शर्मा..

'क्या हुआ?' अनीस चौंका.

'उजाला.. मेरे भीतर का अँधेरा और भ्रम दोनों छंट गये अनीस.स्फूर्ति आई भीतर.. आनंद आया और सदविचार मन में जागने लगे . अब लिखूँगा सबका उजाला के लिए.'

'तो फिर चलें कस्बे की ओर.. कहीं ढंग की चाय पियें और आपका इलाका देखना शुरू करें.'

' ठीक कहते हो' पंडित जी ने बात पर स्वीकृति की मोहर लगाई और दोनों जन केंद्र से परिधि की ओर चल पड़े.