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बूकमार्क

‘कहाँ जा रही हो ? किस के पास जायेगी ?’ –न जाने क्युं, मेरे अपने खुद के दिल से भी मुझे ऐसे सवाल आज ऊठे ही नहि ! आज जब कि मै धैर्य के पास जा रही हूँ; तो भी नहि ! मैं तो पहले से ही ऐसी हूँ, बिलकुल निर्दम्भ व निर्लेप ! धैर्य तो शायद मुझे निष्ठुर भी कहेता होगा । लेकिन क्या करु ? मैं हूँ ही ऐसी तो !

जैसे जैसे घर के करीब पहूँचती हूँ तो दिल और तेज गति से धड़कने लगता है । पहले तो कभी ऐसा हुआ नहि । ये घर मेरे लिए अपरिचित थोड़े ही है क्या ? मेरा ही ही तो है ये घर, मेरा ही बसा-बसाया हुआ ! और ईस घर से दूर हुए भी कुछ ज्यादा समय तो नहि गुजरा ।

‘स्वीटहोम’ का दरवाजा बंद था । लीव-ईन पेपर्स में दस्तखत करने के बाद जब पहेली बार मैंने ईस घर में प्रवेश किया था तब मेरे हाथ में घर की एक चाबी रखते हुए धैर्य ने कहा था, ‘सीमा, हमारे ईस घर में हम अपनी नई जींदग़ी साथ-साथ शुरु करें । गृहप्रवेश एक साथ करेंगे । मैं एक कदम भी आगे निकल जाऊँ या तुम एक कदम पीछे रह जाओ ये बात मुझे पसंद नहि आयेगी ।’

हालाकि मैंने एक शर्त ये भी रखी थी कि घर की एक-एक चाबी हम दोनों के पास रहे, ताकि लीव-ईन की शर्तो के मुताबिक दोनों स्वतंत्र भी रह सके । चाहे तब तक साथ निभाकर रहे, और पसंद न आये तो जब चाहे तब बिना किसी भी तरह की फोर्मालिटी की जफा में पडे ही एक-दूसरे से अलग हो जाना !

काफी कुछ समय का साथ तो रहा होगा । धैर्य बहोत सेन्सेटीव आदमी । एक पल भी मेरे बिना कभी चैन से न बैठे । मोडलींग के कामकाज मैं कुछ ज्यादा हे व्यस्त रहती, तो वो बेहद अधीर हो जाता । मेरे काम के सेशन बढते तो गिन्ना उठता धैर्य तो कहता, ‘सीमा, मुझे निरंतर तेरा ही साथ चाहिए । तेरे काम में ये समय की अनिश्चितता मुझे बहोत तडपाती है । मैं तो बिना रुकावट बस तेरा ही सांन्निध्य चाहता हूँ । हमारे बीच कोई मुसीबत मैं सहन नहि कर सकता ।’

अपनी संवेदना के हिसाब से वह गलत भी कहाँ था ? लेकिन अपनी उसी संवेदना पर वो काबु रखना उसे नहि आता था । सेन्सेटीव होने के कारण वह बेहद अधीरा भी हो जाता था । एक वजह ये भी शायद हो सकती थी कि हमने शादी नहि की थी । मैं हमेशा के लिए उसकी बीवी बन के रहना पसंद नहि करती थी । शादीशुदा जीवन में जीवनसाथी हमें छोड के यूं जा तो सकता नहि, ईसी बात की शांति होती है । जब कि लीव-ईन रीलेशन्स में हमारा साथी कल भी हमारा ही होगा कि नहि, पता नहि होता । ईस लिए अकेले पड़ जाने का ड़र हमेशा साये की तरह सताता रहता है । वो ही डर धैर्य को अधीर और व्याकुल बना देता है ।

दूसरी ओर मेरा बोस मुझे कहा करता, ‘नो..नो, सीमा, आजकल तेरा परफोर्मन्स कितना बिगड़ रहा है ! व्हॉट हेपन्ड वीथ यू सीमा ? ध्यान कहा रहता है तुम्हारा ? आई वोन्ट परफेक्ट एक्सप्रेशन्स... रीयल एक्सप्रेशन्स । जो तुझ में है, बाहर आने दे उसे ।कम ऑन, यू केन डू ईट । डोन्ट माइन्ड सीमा, मुझे लगता है कि लीव-ईन के बाद तेरा मन जरा डायवर्ट हुआ है । मेइक श्योर सीमा; तुम लीव-ईन में हो या शादी कर ली है ? ईज इट लीव-ईन या प्योर टीपीकल इन्डियन मेरेज ? अरे कम ऑन यार, तुम समजती हो न कि मेरे अकेले के नहि बल्कि कई लोगो के पैसे हमारे काम पर लगे हुए है ? और तुम हो कि किसी एक ही आदमी से जुडकर हम सब के काम, समय और पैसे बर्बाद कर रही हो ! नाउ टेल मी, अगर तुम दिल से ये काम नहि कर सकती तो बिना संकोच रखे बोल सकती हो, यू नॉ, ओप्शन्स आर ओल्वेइज़ धेर !’

मैं सुन लेती, लेकिन काम छोड देने की बात कभी न कर सकती ।

मैं तो हूँ ही ऐसी, निर्लेप व निर्दंभ । शायद निष्ठुर भी !

फिर और कडी मेहनत से काम में ध्यान रखने की कोशिश करती । आखिर मेरा काम ही तो मेरा पहला प्रेम है । धैर्य को प्रेक्टेकल बनने के लिए समझाती, लेकिन वह तो अपनी वो ही घिसीपिटी ‘निरंतर सांन्निध्य’ वाली बात को और तीक्ष्ण बनाकर कहता, उसकी तीक्ष्णता मुझे गहराई तक दिल में चुभ जाती, फिर भी ।

काफी कोशिश के बावजूद भी मैं धैर्य को न्याय नहि दे पाती हूँ ऐसा वह सोचता रहता, और मुझे भी ईस बात का एहसास दिलाता रहता । आदत तो नहि थी फिर भी मैं काफी बारिकी से धैर्य के मनोव्यवहारो का निरीक्षण कर लेती तो उसके अंदर छिपे पुरुष को महसूस करती । हालाकि ईसमें उसका क्या दोष हो सकता है ?

...फिर भी जिस क्षण मुझे ऐसा लगा कि धैर्य में ‘मित्र’ की जगह ‘पति’ प्रवेश कर रहा है, उसी क्षण घर छोड देने का मेरा निर्णय मैंने उसे बता दिया । कुछ तनाव जरुर आया उसके चेहरे पर, कुछ दुःखी भी हुआ, लेकिन मेरा निर्णय अडिग था । तो ज्यादा माथापच्ची में गिरे बिना ही उसने मेरा निर्णय स्वीकार कर ही लिया ।

-मेरे पास जो रहती थे उस चाबी से मैं घर का दरवाजा खोलती हूँ तो भीतर घुमराती हवा के झोंकें जल्दी में बाहर निकलती है और मुझे भी धक्के दे रही है । शायद ये हवाएँ भी मेरे साथ वापस संवाद जोड़ना चाहती है । या फिर ऐसी तूफानी हवा मुझे मेरे ईस घर में वापस आने की वजह पूछ रही है, क्या पता ?

घर तो सूमसाम लगता है । धैर्य कहां होगा ? मै नहि होती तो उसे क्या फिकर हो सकती है ? पड़ा होगा कही भी । ड्रोइंगरूम में खास उजाला नहि है । मैं खिड़की खोलती हूँ तो केलेन्डर के पन्नों को और मेज पर पडे अखबारो को फडफडाने के बहाने लेकर वोही तूफानी हवा वापस आ पहूँचती है ! अखबार तो काफे पुराना-सा लगता है । केलेन्डर भी वोही पुराना ? लापरवा धैर्य ने केलेन्डर भी नहि बदला । ध्यान से देखती हूँ तो पता चलता है कि मैं घर छोडकर चली गई थी उसी दिन की तारीख केलेन्डर दिखा रहा है ! और अखबार भी उसी दिन का ? धैर्य ईतना केर लैस हो गया होगा क्या ?

फडफडाते अखबार के पन्ने पर मेरी नजरें अटकती है । टाउनहॉल में प्रवचन के समचार देखते ही मैंने अखबार हाथ में लिया, तुरन्त ही वो दिन याद आ गया; सुबह सुबह अखबार देखकर ही उत्साह में आकर धैर्य ने कहा था, ‘सीमा, आज शाम हम दोनों टाउनहॉल में गुणवंत शाह का प्रवचन सुनने जायेंगे । तुम जल्दी आ जाना, आज का ये मौका जाने न पाये ।’

‘अरे नहि, मै नहि आ सकती, धैर्य । मुझे कुछ पेकिंग बाकी है । वैसे भी मेरा मन नहि ।’ मईने मना किया, ‘जैसे कि कल हमारी बात हो चुकी है, मैं आज जा रही हूँ ।’

‘ओह... तो तुम अपनी जीद पे अड़ी रही ?’ उसने कहा ।

‘तुम जीद समजते हो, तुम्हारी मरजी । लेकिन तुम ये बात भूल जाते हो कि लीव-ईन में वो ही लोग रहना पसंद करते है जिन्हें किसी प्रकार के बंधन पसंद नहि होते !’ मैणे कहा ।

‘बंधन ? कौन-से बंधन ?’ धैर्य ने अखबार रखते हुए पूछा ।

‘एकविधता.. म्झे रूटिन में जीना ही पसंद नहि । मुझे ही क्युं, आज की किसी भी लडकी को एकविधता हमेशा रास नहि आती । चाहे वो एकविधता किसी का प्यार ही क्युं न हो, तो भी ! देख धैर्य, चाहत एषणा बन जाये, और वो एषणा बंधन बन जाये उससे पहले उसे अपने बस में कर लेना चाहिए ऐसा तुम्हें नहि लगता क्या ?

‘मतलब कि मेरी चाहत ही बंधन हो गई है क्या ? सीमा, मैं तुम्हें कोई लालच देकर रोकने की कोशिश नहि करूंगा, लीव-ईन के कायदे न हो तो भी तुम निश्चिन्त रह सकती है । अपने निर्णय लेने तुम स्वतन्त्र ही हो ।’ फिर जरा रुककर बोला, ‘...क्या वाकई तुम्हारा ये आखरी फैसला है ?’

मैंने कहा, ‘हा, बॅग तैयार कर ली है, शाम को ही चली जाऊँगी ।’

‘खुशी से जाओ, पर शाम की कॉफी हम साथ पीयेंगे, फिर तुम चली जाना ।’ कहते हुए उसने बाकी रहा अखबार पढे बिना ही मेज पर रख दिया ।

-हां, वोही अखबार अभी तक मेज पर कैसे हो सकता है ? हां.. उस दिन जिस मग में हम दोनों ने साथ कॉफी पी थी; कमरे की धूल जमा कर के वोही मग आज भी उसी हाल में मेज पर पडा है..!

घर में संध्या का अँधकार लगा तो मैने सारी लाईटे जला दी । हर तरफ प्रकाश फैल गया । मैं फुर्ति से बेडरुम में जाती हूँ ।

माय ग्गोड.. कामचोर धैर्य ने बेडशीट भी नहि बदला ? उसे ऐसी एकविधता ही रास आती है ! ओह.. बेडशीट में बनी वो सिलवटें भी... नोटी.. उस दिन कितना रोमेन्टिक हो गया था; सब कुछ तो अभी तक मुझे बराबर याद है; जैसे मेरी आँखो के सामनेः

‘छोड़ अब मुझे, कहती हूँ छोड़ दे मुझे धैर्य, तेरे लिए कॉफी बनानी है, फिर बहोत देर हो जायेगी । और देख ये नयावाला बेडशीट भी खराब हो जायेगा ।’ कहते हुए जबरन ही मै उसकी पकड से मुक्त हो गई । बेड से उतरते ही वो भी अचनक देखता है कि बेडशीट पर दिल के आकार में सिलवटें ऊभर आई थी । खुशी से छलांगे लगाते हुए वो मुझे बताता है, ‘देख देख सीमा, हमारे प्यार के संकेत बेडशीट पर भी ऊभर आया... अब ये बेडशीट मै ऐसे ही रखूँगा । कभी नहि चेन्ज करुँगा ।’

-याह.. अभी भी वोही दिल आकार की सिलवटें बेडशीट पर वैसे ही बनी हुई है, लेकिन ये देखकर मुझे कोई अचरज नहि हो रहा । धैर्य यादों कों भी पुरतन अवशेषो की भाँति संजो के रखता है । उसकी आदत है, वो कभी प्रेक्टीकल हो ही नहिं सकता । है ही ऐसा वो कभी सुधरेगा नहि ।

बेडारुम में ज्यादा देर रहना अच्छा न लगा तो मैं तुरन्त ही बाहर आ गई । कोई भले ही मुझे निष्ठुर कहे, पर मैं हूँ ही ऐसी, निर्लेप व निर्दम्भ !

अब मैं लायब्रेरी मैं आ गई । सब से आगे रखी एक किताब हाथ में लेकर बाल्कनी में कुर्सी पर बैठकर पन्ने पलटने लगी । अरे, ये तो वोही पुस्तक है, ‘रजकण सूरज थवाने शमणे’ –जो हम दोनो ने साथ ही पढना शुरु किया था । मैं पढती और वो सुनता, कभी वो पढ के सुनाता । धैर्य का ईरादा ऐसा रहता कि जो भी कुछ अच्छा पढे, साथ-साथ ही पढे। जीवन के किसी भी क्षेत्र में दोनो का आगे-पीछे हो जाना उसे पसंद नहि ।

बदकिस्मती से वो पुस्तक हम खतम नहि कर पाये थे । ओह.. ये बूकमार्क भी अभी तक उसी पन्ने पर है, जहाँ तक हम दोनो ने साथ पढा था । धैर्य ने शायद आगे ये पुस्तक पढा ही नहि ! हां, प्रेक्टीकल बनना उसे कहा आता है भला ?

यकायक गौर किया तो मेरी नजर उस बूकमार्क पर कुछ लिखा हुआ देखती है । धैर्य ने ही कुछ लिखा है, पढती हूँ, ‘सीमा, मुझे यकीन था कि कभी न कभी तो वापस आयेगी ही, और तब ये बूकमार्क भी जरुर देखेगी । सीमा, हम जहाँ रुके थे वहाँ से आगे पढना मुझ से हो नहि सका । जीवन के जिस पडाव पर मुझे छोडकर तुम गई थी, उसी पडाव पर तेरा ईंतजार करता आज भी मैं खडा हूँ । ईस घर में तेरे बिना जीवन को आगे बढाने का मेरा हौसला भी कैसे हो सकता है ? बस, जैसे ही तुम आओ, तुरन्त ही मुझे बुला लेना, प्लीज । हम अपने ईस बूकमार्क को साथ-साथ फिर से आगे बढ़ायेंगे ।’

उफ.. क्या हो सकता है ईस सेन्सेटिव आदमी का ? अरे धैर्य, मेरे पुनरागमन की अपेक्षा ही किस लिए ? मैं तो मेरे पास रहनेवाली घर की चाबी तुझे लौटाने आई हूँ ।

धैर्य, कैसे समझाऊँ कि लवस्टोरी को बचाने लीव-ईन की शरण में लोग जा सकते है, लेकिन लीव-ईन को बचाने लवस्टोरी की शरण में कभी नहि जाया जा सकता ! रिश्तों को हर हाल में अगर टिकाने ही होते तो शादी ही सब से बेहतर विकल्प होता है । शादी को बनाये रखने के कायदे अनेक मिल जाते है तो लीव-ईन को तोडने के हर रास्ते कानून में ईसी लिए बने है । शादी में ईन्सान गौण हो जाता है और रिश्ता केन्द्र में रहता है । जब कि लीव-ईन में ईन्सान केन्द्र में रहता है, ईन्सान की अपनी पसंद-नापसंद का महत्व होता है, और रिश्ता हरगिज नहि !

लेकिन मैं पिघलनेवाली नहि हूँ । मैं तो निष्ठुर हूँ । धैर्य, तुम घर में कैद कर के रखी संवेदनाओं की ईन तूफानी हवाओं को कह दो, ये मुझे रोकने की कोशिश न करे, क्युं कि ये चाहे कुछ भी करे, मुझ से मेरे जीवन का कोई हिसाब मांग नहि सकती । पुराना केलेन्डर ना बदलने से समय रुकनेवाला नहि । बेडशीट की सिलवटें यूं ही रहने दोगे तो उसमे धूल के सिवा क्या जमा कर सकेगा तू ? कुछ फर्क नहि पडनेवाला मुझे ।

और ये बूकमार्क ? बूकमार्क ये नहि बताता कि हम किस मुकाम पर पहूँचे है, बूकमार्क ये दिखाता है कि हम अभी कितने पीछे है ! पर रहने दो, तुम नहि सुधरोगे । तु कब प्रेक्टीकल हो सका है ? हां ?

धैर्य को ईस बंधन से मुझे आजाद करना ही होगा ! –मैंने सोच लिया ।

किताब में से बूकमार्क ऊठाकर उसके टूकडे टूकडे कर दिये, और कब से मुझे घिर रही बाल्कनी की तूफानी हवा में ऊडा देती हूँ । बूकमार्क की जगह घर की चाबी रखकर उतनी ही फुर्ति से घर से बाहर निकल जाती हूँ ।

क्युं कि मैं तो हूँ ही ऐसी..!

-अजय ओझा (मोबाइल-०९८२५२५२८११)

५८, मीरा पार्क, ‘आस्था’, अखिलेश सर्कल,

भावनगर(गुजरात)३६४००१