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भाग-२ - पंचतंत्र

पंचतंत्र

भाग — 02



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पंचतंत्र

बुद्धिमान कौन

चालाक खरगोश और हाथी

चापलूस मंडली

शरारती बंदर

दुष्ट सर्प

बुद्धिमान कौन

एक ताल में मछलियां तो बहुत—सी रहती थीं, पर दो मछलियां ऐसी थीं जिनका नाम उनकी बुद्धि के लिए पूरे ताल में फैला हुआ था।

इनमें एक को शतबुद्धि और दूसरे को सहस्रबुद्धि कहा जाता था, क्योंकि एक अक्ल के मामले में सौ के बराबर थी तो दूसरी हजार के बराबर। उनकी दोस्ती एकबुद्धि नाम के एक मेंढक से हो गई थी, जो अक्ल के मामले में उनसे बहुत ही कम बुद्धिमान था।

वे तीनों घड़ी—दो घड़ी के लिए तालाब के किनारे बैठकर कुछ कथा—कहानी सुनते—सुनाते और फिर पानी में डुबकी लगा जाते।

हुआ यह कि जिस समय इनकी बैठक चल रही थी, उसी समय कुछ मछुआरे सिर पर मछलियां लादे उधर से निकले। उन्होंने उस ताल को देखकर सोचा कि इसमें मछलियां तो बहुत अधिक हैं, पर पानी बहुत अधिक नहीं है। उन्होंने तय किया कि अगले दिन सुबह आकर वे इस ताल में मछलियां मारेंगे।

उनकी बातें सुनकर सहस्रबुद्धि ने हंसकर कहा— श्दोस्त, घबराने की कोई बात नहीं। किसी की बातों से ही डर जाना क्या ठीक है? इसलिए जी कड़ा रखो। यदि सांपों, बदमाशों और लफंगों का बस चले तो यह दुनिया रहने ही न पाए। तुम देख लेना, इनमें से कोई यहां आने वाला नहीं है।

मान लो आ भी गए तो तुम मेरी बुद्धि का कमाल देखना। मैं तैरने और डुबकी लगाने की इतनी चालें जानता हूं कि अपना बचाव तो कर ही लूंगा, तुम्हें भी बचा लूंगा।

शतबुद्धि को बात जंची। बोला— आपको जो सहस्रबुद्धि कहा जाता है, वह कुछ गलत तो है नहीं। बुद्धिमान लोग तो झट वहां भी पहुंच जाते हैं जहां न वायु जा सकती है, न सूरज की किरणें। मुझे आप पर पूरा भरोसा है। किसी की धमकी से ही बाप—दादों के समय से चला आ रहा यह निवास जो हमारा जन्मस्थान भी है, छोड़ा तो जा नहीं सकता। जन्मभूमि क्या कोई मामूली चीज है।

कहते हैं कि यदि किसी का जन्म किसी खराब जगह में हुआ है तो भी उसे वहां जितना सुख मिल सकता है, वह तो स्वर्ग में अप्सराओं के स्पर्श से भी नहीं मिल सकता। इसलिए हमें अपनी मातृभूमि को नहीं छोड़ना चाहिए, फिर कुछ अक्ल तो मेरे पास भी है ही। वह ऐसे ही दिनों के लिए तो है।

शतबुद्धि की इस बात को सुनकर मेंढक बोला— भाई, तुम लोगों के पास जितनी अक्ल है उतनी तो मेरे पास है नहीं, मैं ठहरा इकलौती बुद्धि का प्राणी। इसलिए मैं आज ही रात को किसी दूसरे ताल—पोखर में चला जाना चाहता हूं।'' और वह उसी रात किसी दूसरे ताल में चला गया।

अगले दिन मछुआरों को तो आना ही था। उन्होंने जाल डालकर छोटी—बड़ी सभी तरह की मछलियों, मेंढकों और केकड़ों को पकड़ लिया। शतबुद्धि और सहस्रबुद्धि अपनी अक्ल से जिस—जिस तरह बचकर भागना और निकलना संभव था, उसका प्रयोग करते हुए मछुआरों को कुछ देर तक छकाते रहे, पर अंत में वे भी जाल में आ ही गए।

शाम ढलने को आ गई थी। मछुआरे बहुत खुश थे। दूसरी मछलियों को तो उन्होंने टोकरे में भर लिया था, पर सहस्रबुद्धि और शतबुद्धि कुछ बड़े और भारी थे इसलिए शतबुद्धि को तो एक ने अपने सिर पर डाल रखा था और दूसरे ने सहस्रबुद्धि को लटका रखा था।

जब मछुआरे उस ताल के पास से जा रहे थे, जिसमें एकबुद्धि चला गया था तो उसने अपनी पत्नी से कहा— प्रिये, तमाशा तो देखो। वह जो सिर पर टंगा जा रहा है वह शतबुद्धि है और जिसे मछुआरे ने लटका रखा है वह सहस्रबुद्धि है।

अब इधर मैं हूं, एकबुद्धि, जो इस निर्मल जल में कूद—फांद रहा हूं। तो आप जो कह रहे थे कि बुद्धि बड़ी है, विद्या उसके आगे कुछ नहीं है, वह भी ठीक नहीं है। कभी—कभी अपने को तीस मारखां समझने वाले भी गच्चा खा जाते हैं।

सीख— कभी भी अपनी अक्ल पर जरूरत से ज्यादा घमंड नहीं करना चाहिए।

चालाक खरगोश और हाथी

एक वन में हाथियों का एक झुंड रहता था। झुंड के सरदार को गजराज कहते थे। वो विशालकाय, लम्बी सूंड तथा लम्बे मोटे दांतों वाला था। खंभे के समान उसके मोटे—मोटे पैर थे। जब वो चिंघाड़ता था तो सारा वन गूंज उठता था।

गजराज अपने झुंड के हाथियों से बड़ा प्यार करता था। स्वयं कष्ट उठा लेता था, पर झुंड के किसी भी हाथी को कष्ट में नहीं पड़ने देता था और सारे के सारे हाथी भी गजराज के प्रति बड़ी श्रद्‌घा रखते थे।

एक बार जलवृष्टि न होने के कारण वन में जोरों का अकाल पड़ा। नदियां, सरोवर सूख गए, वृक्ष और लताएं भी सूख गईं। पानी और भोजन के अभाव में पशु—पक्षी वन को छोड़कर भाग खड़े हुए। वन में चीख—पुकार होने लगी, हाय—हाय होने लगी। गजराज के झुंड के हाथी भी अकाल के शिकार होने लगे। वे भी भोजन और पानी न मिलने से तड़प—तड़पकर मरने लगे।

झुंड के हाथियों का बुरा हाल देखकर गजराज बड़ा दुखी हुआ। वह सोचने लगा, कौन सा उपाय किया जाए, जिससे हाथियों के प्राण बचें।

एक दिन गजराज ने तमाम हाथियों को बुलाकर उनसे कहा, श्इस वन में न तो भोजन है, न पानी है! तुम सब भिन्न—भिन्न दिशाओं में जाओ, भोजन और पानी की खोज करो।''

हाथियों ने गजराज की आज्ञा का पालन किया। हाथी भिन्न—भिन्न दिशाओं में छिटक गए।

एक हाथी ने लौटकर गजराज को सूचना दी, श्यहां से कुछ दूर पर एक दूसरा वन है। वहां पानी की बहुत बड़ी झील है। वन के वृक्ष फूलों और फलों से लदे हुए हैं।''

गजराज बड़ा प्रसन्न हुआ। उसने हाथियों से कहा कि अब हमें देर न करके तुरंत उसी वन में पहुंच जाना चाहिए, क्योंकि वहां भोजन और पानी दोनों हैं। गजराज अन्य हाथियों के साथ दूसरे वन में चला गया। हाथी वहां भोजन और पानी पाकर बड़े प्रसन्न हुए।

उस वन में खरगोशों की एक बस्ती थी। बस्ती में बहुत से खरगोश रहते थे। हाथी खरगोशों की बस्ती से ही होकर झील में पानी पीने के लिए जाया करते थे। हाथी जब खरगोशों की बस्ती से निकलने लगते थे, तो छोटे—छोटे खरगोश उनके पैरों के नीचे आ जाते थे। कुछ खरगोश मर जाते थे, कुछ घायल हो जाते थे।

रोज—रोज खरगोशों के मरते और घायल होते देखकर खरगोशों की बस्ती में हलचल मच गई। खरगोश सोचने लगे, यदि हाथियों के पैरों से वे इसी तरह कुचले जाते रहे, तो वह दिन दूर नहीं जब उनका खात्मा हो जाएगा।

अपनी रक्षा का उपाय सोचने के लिए खरगोशों ने एक सभा बुलाई। सभा में बहुत से खरगोश इकट्ठे हुए। खरगोशों के सरदार ने हाथियों के अत्याचारों का वर्णन करते हुए कहा, श्क्या हममें से कोई ऐसा है, जो अपनी जान पर खेलकर हाथियों का अत्याचार बंद करा सके ?'

सरदार की बात सुनकर एक खरगोश बोल उठा, श्यदि मुझे खरगोशों का दूत बनाकर गजराज के पास भेजा जाए, तो मैं हाथियों के अत्याचार को बंद करा सकता हूं। श्सरदार ने खरगोश की बात मान ली और खरगोशों का दूत बनाकर गजराज के पास भेज दिया।

खरगोश गजराज के पास जा पहुंचा। वह हाथियों के बीच में खड़ा था। खरगोश ने सोचा, वह गजराज के पास पहुंचे तो किस तरह पहुंचे। अगर वह हाथियों के बीच में घुसता है, तो हो सकता है, हाथी उसे पैरों से कुचल दे। यह सोचकर वह पास ही की एक ऊंची चट्टान पर चढ़ गया। चट्टान पर खड़ा होकर उसने गजराज को पुकारकर कहा, श्गजराज, मैं चंद्रमा का दूत हूं। चंद्रमा के पास से तुम्हारे लिए एक संदेश लाया हूं।''

चंद्रमा का नाम सुनकर, गजराज खरगोश की ओर आकर्षित हुआ। उसने खरगोश की ओर देखते हुए कहा, श्क्या कहा तुमने? तुम चंद्रमा के दूत हो? तुम चंद्रमा के पास से मेरे लिए क्या संदेश लाए हो?'

खरगोश बोला, श्हां गजराज, मैं चंद्रमा का दूत हूं। चंद्रमा ने तुम्हारे लिए संदेश भेजा है। सुनो, तुमने चंद्रमा की झील का पानी गंदा कर दिया है। तुम्हारे झुंड के हाथी खरगोशों को पैरों से कुचल—कुचलकर मार डालते हैं। चंद्रमा खरगोशों को बहुत प्यार करते हैं, उन्हें अपनी गोद में रखते हैं। चंद्रमा तुमसे बहुत नाराज हैं। तुम सावधान हो जाओ। नहीं तो चंद्रमा तुम्हारे सारे हाथियों को मार डालेंगे।''

खरगोश की बात सुनकर गजराज भयभीत हो उठा। उसने खरगोश को सचमुच चंद्रमा का दूत और उसकी बात को सचमुच चंद्रमा का संदेश समझ लिया उसने डर कर कहा, श्यह तो बड़ा बुरा संदेश है। तुम मुझे तुरंत चंद्रमा के पास ले चलो। मैं उनसे अपने अपराधों के लिए क्षमा याचना करूंगा।''

खरगोश गजराज को चंद्रमा के पास ले जाने के लिए तैयार हो गया। उसने कहा, श्मैं तुम्हें चंद्रमा के पास ले चल सकता हूं, पर शर्त यह है कि तुम अकेले ही चलोगे।'' गजराज ने खरगोश की बात मान

पूर्णिमा की रात थी। आकाश में चंद्रमा हंस रहा था। खरगोश गजराज को लेकर झील के किनारे गया। उसने गजराज से कहा, श्गजराज, मिलो चंद्रमा से श्खरगोश ने झील के पानी की ओर संकेत किया। पानी में पूर्णिमा के चंद्रमा की परछाईं को ही चंद्रमा मान लिया।

गजराज ने चंद्रमा से क्षमा मांगने के लिए अपनी सूंड पानी में डाल दी। पानी में लहरें पैदा हो उठीं, परछाईं अदृश्य हो गई। गजराज बोल उठा, श्दूत, चंद्रमा कहां चले गए ?'

खरगोश ने उत्तर दिया, श्चंद्रमा तुमसे नाराज हैं। तुमने झील के पानी को अपवित्र कर दिया है। तुमने खरगोशों की जान लेकर पाप किया है इसलिए चंद्रमा तुमसे मिलना नहीं चाहते।''

गजराज ने खरगोश की बात सच मान ली। उसने डर कर कहा, श्क्या ऐसा कोई उपाय है, जिससे चंद्रमा मुझसे प्रसन्न हो सकते हैं?'

खरगोश बोला श्हां, है। तुम्हें प्रायश्चित करना होगा। तुम कल सवेरे ही अपने झुंड के हाथियों को लेकर यहां से दूर चले जाओ। चंद्रमा तुम पर प्रसन्न हो जाएंगे।'' गजराज प्रायश्चित करने के लिए तैयार हो गया। वह दूसरे दिन हाथियों के झुंड सहित वहां से चला गया।

इस तरह खरगोश की चालाकी ने बलवान गजराज को धोखे में डाल दिया और उसने अपनी बुदि्‌घमानी के बल से ही खरगोशों को मृत्यु के मुख में जाने से बचा लिया।

चापलूस मंडली

जंगल में एक शेर रहता था। उसके चार सेवक थे चील, भेड़िया, लोमड़ी और चीता। चील दूर—दूर तक उड़कर समाचार लाती। चीता राजा का अंगरक्षक था। सदा उसके पीछे चलता।

लोमड़ी शेर की सैक्रेटरी थी। भेड़िया गृहमंत्री था। उनका असली काम तो शेर की चापलूसी करना था। इस काम में चारों माहिर थे। इसलिए जंगल के दूसरे जानवर उन्हें चापलूस मंडली कहकर पुकारते थे।

शेर शिकार करता। जितना खा सकता, वह खाकर बाकी अपने सेवकों के लिए छोड़ जाया करता था। उससे मजे में चारों का पेट भर जाता।

एक दिन चील ने आकर चापलूस मंडली को सूचना दी श्भाइयों! सड़क के किनारे एक ऊंट बैठा है।''

भेड़िया चौंका श्ऊंट! किसी काफिले से बिछुड़ गया होगा।''

चीते ने जीभ चटकाई, श्हम शेर को उसका शिकार करने को राजी कर लें तो कई दिन दावत उड़ा सकते हैं।''

लोमड़ी ने घोषणा की श्यह मेरा काम रहा।''

लोमड़ी शेर राजा के पास गई और अपनी जुबान में मिठास घोलकर बोली, श्महाराज, दूत ने खबर दी है कि एक ऊंट सड़क किनारे बैठा है। मैंने सुना है कि मनुष्य के पाले जानवर का मांस का स्वाद ही कुछ और होता है। बिल्कुल राजा—महाराजाओं के काबिल। आप आज्ञा दें तो आपके शिकार का ऐलान कर दूं?'

शेर लोमड़ी की मीठी बातों में आ गया और चापलूस मंडली के साथ चील द्वारा बताई जगह जा पहुंचा। वहां एक कमजोर—सा ऊंट सड़क किनारे निढाल बैठा था। उसकी आंखें पीली पड़ चुकी थीं। उसकी हालत देखकर शेर ने पूछा, श्क्यों भाई तुम्हारी यह हालत कैसे हुई?'

ऊंट कराहता हुआ बोला, श्जंगल के राजा! आपको नहीं पता इंसान कितना निर्दयी होता है। मैं एक ऊंटों के काफिले में एक व्यापारी का माल ढो रहा था। रास्ते में मैं बीमार पड़ गया। माल ढोने लायक नहीं, उसने मुझे यहां मरने के लिए छोड़ दिया। आप ही मेरा शिकार कर मुझे मुक्ति दीजिए।''

ऊंट की कहानी सुनकर शेर को दुख हुआ। अचानक उसके दिल में राजाओं जैसी उदारता दिखाने की जोरदार इच्छा हुई। शेर ने कहा, श्ऊंट, तुम्हें कोई जंगली जानवर नहीं मारेगा। मैं तुम्हें अभय देता हूं। तुम हमारे साथ चलोगे और उसके बाद हमारे साथ ही रहोगे।''

चापलूस मंडली के चेहरे लटक गए। भेड़िया फुसफुसाया, ठीक है। हम बाद में इसे मरवाने की कोई तरकीब निकाल लेंगे। फिलहाल शेर का आदेश मानने में ही भलाई है।''

इस प्रकार ऊंट उनके साथ जंगल में आया। कुछ ही दिनों में हरी घास खाने व आराम करने से वह स्वस्थ हो गया। शेर राजा के प्रति वह ऊंट बहुत कृतज्ञ हुआ। शेर को भी ऊंट का निरूस्वार्थ प्रेम और भोलापन भाने लगा। ऊंट के तगड़ा होने पर शेर की शाही सवारी ऊंट के ही आग्रह पर उसकी पीठ पर निकलने लगी, वह चारों को पीठ पर बिठाकर चलता।

एक दिन चापलूस मंडली के आग्रह पर शेर ने हाथी पर हमला कर दिया। दुर्भाग्य से हाथी पागल निकला। शेर को उसने सूंड से उठाकर पटक दिया। शेर उठकर बच निकलने में सफल तो हो गया, पर उसे चोंटें बहुत लगीं।

शेर लाचार होकर बैठ गया। शिकार कौन करता? कई दिन न शेर ने कुछ खाया और न सेवकों ने। कितने दिन भूखे रहा जा सकता है? लोमड़ी बोली, श्हद हो गई। हमारे पास एक मोटा ताजा ऊंट है और हम भूखे मर रहे हैं।''

चीते ने ठंडी सांस भरी, श्क्या करें? शेर ने उसे अभयदान जो दे रखा है। देखो तो ऊंट की पीठ का कूबड़ कितना बड़ा हो गया है। चर्बी ही चर्बी भरी है इसमें।''

भेड़िए के मुंह से लार टपकने लगी, श्ऊंट को मरवाने का यही मौका है, दिमाग लड़ाकर कोई तरकीब सोचो।''

लोमड़ी ने धूर्त स्वर में सूचना दी, श्तरकीब तो मैंने सोच रखी है। हमें एक नाटक करना पड़ेगा।''

सब लोमड़ी की तरकीब सुनने लगे। योजना के अनुसार चापलूस मंडली शेर के पास गई। सबसे पहले चील बोली, श्महाराज, आपको भूखे पेट रहकर मरना मुझसे नहीं देखा जाता। आप मुझे खाकर भूख मिटाइए।''

लोमड़ी ने उसे धक्का दिया, श्चल हट! तेरा मांस तो महाराज के दांतों में फंसकर रह जाएगा। महाराज, आप मुझे खाइए।''

भेड़िया बीच में कूदा, श्तेरे शरीर में बालों के सिवाय है ही क्या? महाराज! मुझे अपना भोजन बनाएंगे।''

अब चीता बोला, श्नहीं! भेड़िए का मांस खाने लायक नहीं होता। मालिक, आप मुझे खाकर अपनी भूख शांत कीजिए।''

चापलूस मंडली का नाटक अच्छा था। अब ऊंट को तो कहना ही पड़ा, श्नहीं महाराज, आप मुझे मारकर खा जाइए। मेरा तो जीवन ही आपका दान दिया हुआ है। मेरे रहते आप भूखे मरें, यह नहीं होगा।''

चापलूस मंडली तो यही चाहती थी। सभी एक स्वर में बोले, श्यही ठीक रहेगा, महाराज! अब तो ऊंट खुद ही कह रहा है।''

चीता बोला, श्महाराज! आपको संकोच हो तो हम इसे मार दें?'

चीता व भेड़िया एक साथ ऊंट पर टूट पड़े और ऊंट मारा गया।

सीखः चापलूसों की दोस्ती हमेशा खतरनाक होती है।

शरारती बंदर

एक समय शहर से कुछ ही दूरी पर एक मंदिर का निर्माण किया जा रहा था। मंदिर में लकड़ी का काम बहुत था इसलिए लकड़ी चीरने वाले बहुत से मजदूर काम पर लगे हुए थे। यहां—वहां लकड़ी के लट्ठे पड़े हुए थे और लट्ठे व शहतीर चीरने का काम चल रहा था।

सारे मजदूरों को दोपहर का भोजन करने के लिए शहर जाना पड़ता था, इसलिए दोपहर के समय एक घंटे तक वहां कोई नहीं होता था। एक दिन खाने का समय हुआ तो सारे मजदूर काम छोड़कर चल दिए। एक लट्ठा आधा ही चिरा रह गया था। आधे चिरे लट्ठे में मजदूर लकड़ी का कीला फंसाकर चले गए। ऐसा करने से दोबारा आरी घुसाने में आसानी रहती है। तभी वहां बंदरों का एक दल उछलता—कूदता आया। उनमें एक शरारती बंदर भी था, जो बिना मतलब चीजों से छेड़छाड़ करता रहता था। पंगे लेना उसकी आदत थी। बंदरों के सरदार ने सबको वहां पड़ी चीजों से छेड़छाड़ न करने का आदेश दिया। सारे बंदर पेड़ों की ओर चल दिए, पर वह शैतान बंदर सबकी नजर बचाकर पीछे रह गया और लगा अड़ंगेबाजी करने। उसकी नजर अधचिरे लट्ठे पर पड़ी। बस, वह उसी पर पिल पड़ा और बीच में अड़ाए गए कीले को देखने लगा। फिर उसने पास पड़ी आरी को देखा। उसे उठाकर लकड़ी पर रगड़ने लगा। उससे किर्रर्र—किर्रर्र की आवाज निकलने लगी तो उसने गुस्से से आरी पटक दी। उन बंदरों की भाषा में किर्रर्र—किर्रर्र का अर्थ ‘निखट्टू' था। वह दोबारा लट्ठे के बीच फंसे कीले को देखने लगा।

उसके दिमाग में कौतुहल होने लगा कि इस कीले को लट्ठे के बीच में से निकाल दिया जाए तो क्या होगा? अब वह कीले को पकड़कर उसे बाहर निकालने के लिए जोर आजमाइश करने लगा। लट्ठे के बीच फंसाया गया कीला तो दो पाटों के बीच बहुत मजबूती से जकड़ा गया होता है, क्योंकि लट्ठे के दो पाट बहुत मजबूत स्प्रिंग वाले क्लिप की तरह उसे दबाए रहते हैं।

बंदर खूब जोर लगाकर उसे हिलाने की कोशिश करने लगा। कीला जोर लगाने पर हिलने व खिसकने लगा तो बंदर अपनी शक्ति पर खुश हो गया। वह और जोर से खौं—खौं करता कीला सरकाने लगा। इस बीच बंदर की पूंछ दो पाटों के बीच आ गई, जिसका उसे पता ही नहीं लगा। उसने उत्साहित होकर एक जोरदार झटका मारा और जैसे ही कीला बाहर खींचा, लट्ठे के दो चिरे भाग फटाक से क्लिप की तरह जुड़ गए और बीच में फंस गई बंदर की पूंछ। बंदर चिल्ला उठा। तभी मजदूर वहां लौटे। उन्हें देखते ही बंदर ने भी भागने के लिए जोर लगाया तो उसकी पूंछ टूट गई। वह चीखता हुआ टूटी पूंछ लेकर वहां से भाग गया। सीखः बिना सोचे—समझे कोई काम न करो।

दुष्ट सर्प

एक जंगल में एक बहुत पुराना बरगद का पेड़ था। उस पेड़ पर घोंसला बनाकर एक कौआ—कौवी का जोड़ा रहता था। उसी पेड़ के खोखले तने में कहीं से आकर एक दुष्ट सर्प रहने लगा। हर वर्ष मौसम आने पर कौवी घोंसले में अंडे देती और दुष्ट सर्प मौका पाकर उनके घोंसले में जाकर अंडे खा जाता।

एक बार जब कौआ व कौवी जल्दी भोजन पाकर शीघ्र ही लौट आए तो उन्होंने उस दुष्ट सर्प को अपने घोंसले में रखे अंडों पर झपटते देखा।

अंडे खाकर सर्प चला गया तो बाद में कौए ने कौवी को ढांढस बंधाया, श्प्रिये, हिम्मत रखो, अब हमें शत्रु का पता चल गया है। कुछ उपाय भी सोच लेंगे।''

कौए ने काफी सोचा—विचारा और पहले वाले घोंसले को छोड़ उससे काफी ऊपर टहनी पर घोंसला बनाया और कौवी से कहा, श्यहां हमारे अंडे सुरक्षित रहेंगे। हमारा घोंसला पेड़ की चोटी के किनारे निकट है और ऊपर आसमान में चील मंडराती रहती हैं। चील—सांप की दुश्मनी है। दुष्ट सर्प यहां तक आने का साहस नहीं कर पाएगा।''

कौए की बात मानकर कौवी ने इस बार नए घोंसले में अंडे दिए तो वो सुरक्षित रहे और उनमें से बच्चे भी निकल आए।

उधर, सर्प उनका घोंसला खाली देखकर यह समझा कि उसके डर से कौआ—कौवी शायद वहां से चले गए हैं, पर दुष्ट सर्प टोह लेता रहता था। उसने देखा कि कौआ—कौवी उसी पेड़ से उड़ते हैं और लौटते भी वहीं हैं। उसे यह समझते देर नहीं लगी कि उन्होंने नया घोंसला उसी पेड़ पर ऊपर बना रखा है। एक दिन सर्प खोह से निकला और उसने कौओं का नया घोंसला खोज लिया।

घोंसले में कौआ दंपति के तीन नवजात शिशु थे। दुष्ट सर्प उन्हें एक—एक करके तुरंत निगल गया और अपनी खोह में लौटकर डकारें लेने लगा।

कौआ व कौवी लौटे तो घोंसला खाली पाकर सन्न रह गए। घोंसले में हुई टूट—फूट व नन्हे कौओं के कोमल पंख बिखरे देखकर वे सारा माजरा समझ गए। कौवी की छाती तो दुख से फटने लगी। कौवी बिलख उठी, श्तो क्या हर वर्ष मेरे बच्चे सांप का भोजन बनते रहेंगे?'

कौआ बोला, श्नहीं! यह माना कि हमारे सामने विकट समस्या है, पर यहां से भागना ही उसका हल नहीं है। विपत्ति के समय ही मित्र काम आते हैं। हमें लोमड़ी मित्र से सलाह लेनी चाहिए।''

दोनों तुरंत ही लोमड़ी के पास गए। लोमड़ी ने अपने मित्रों की दुखभरी कहानी सुनी। उसने कौआ तथा कौवी के आंसू पोछे। लोमड़ी ने काफी सोचने के बाद कहा, श्मित्रो! तुम्हें वह पेड़ छोड़कर जाने की जरूरत नहीं है। मेरे दिमाग में एक तरकीब आ रही है जिससे उस दुष्ट सर्प से छुटकारा पाया जा सकता है।''

लोमड़ी ने अपने चतुर दिमाग में आई तरकीब बताई। लोमड़ी की तरकीब सुनकर कौआ—कौवी खुशी से उछल पड़े। उन्होंने लोमड़ी को धन्यवाद दिया और अपने घर लौट आए। अगले ही दिन योजना अमल में लानी थी।

उसी वन में बहुत बड़ा सरोवर था। उसमें कमल और नरगिस के फूल खिले रहते थे। हर मंगलवार को उस प्रदेश की राजकुमारी अपनी सहेलियों के साथ वहां जल—क्रीड़ा करने आती थी। उनके साथ अंगरक्षक तथा सैनिक भी आते थे।

इस बार राजकुमारी आई और सरोवर में स्नान करने जल में उतरी तो योजना के अनुसार कौआ उड़ता हुआ वहां आया। उसने सरोवर तट पर राजकुमारी तथा उसकी सहेलियों द्वारा उतारकर रखे गए कपड़ों व आभूषणों पर नजर डाली। कपड़े के सबसे ऊपर था राजकुमारी का प्रिय हीरे व मोतियों का विलक्षण हार।

कौए ने राजकुमारी तथा सहेलियों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने के लिए ‘कांव—कांव' का शोर मचाया। जब सबकी नजर उसकी ओर घूमी तो कौआ राजकुमारी का हार चोंच में दबाकर ऊपर उड़ गया। सभी सहेलियां चीखी, श्देखो, देखो! वह राजकुमारी का हार उठाकर ले जा रहा है।''

सैनिकों ने ऊपर देखा तो सचमुच एक कौआ हार लेकर धीरे—धीरे उड़ता जा रहा था। सैनिक उसी दिशा में दौड़ने लगे। कौआ सैनिकों को अपने पीछे लगाकर धीरे—धीरे उड़ता हुआ उसी पेड़ की ओर ले आया। जब सैनिक कुछ ही दूर रह गए तो कौए ने राजकुमारी का हार इस प्रकार गिराया कि वह सांप वाले खोह के भीतर जा गिरा।

सैनिक दौड़कर खोह के पास पहुंचे। उनके सरदार ने खोह के भीतर झांका। उसने वहां हार और उसके पास में ही एक काले सर्प को कुंडली मारे देखा। वह चिल्लाया, श्पीछे हटो! अंदर एक नाग है।''

सरदार ने खोह के भीतर भाला मारा। सर्प घायल हुआ और फुफकारता हुआ बाहर निकला। जैसे ही वह बाहर आया, सैनिकों ने भालों से उसके टुकड़े—टुकड़े कर डाले।

सीख रू बुद्धि का प्रयोग करके हर संकट का हल निकाला जा सकता है।