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भाग-८ - पंचतंत्र

पंचतंत्र

भाग — 08

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पंचतंत्र

एक चमत्कार

मुर्गाभाई और कौवेराम की कथा

क्या बनना चाहते हो?

मुकरा

इनाम का हकदार

एक चमत्कार

आज रोहन तीन दिन बाद विद्यालय आया था। आज फिर उसके गले में सुनहरे मोतियों वाली एक नई माला थी। माला के निचले हिस्से में तांबे की पट्टी—सी लटक रही थी जिस पर आड़ी—तिरछी कई लकीरें खिंची हुई थीं। पिछले सप्ताह वह काले मोतियों वाली माला पहनकर आया था। विद्यालय से छुट्टी मिलते ही उसके मित्र श्रेयस ने पूछा— अरे गले में ये क्या पत्री लटकाए फिरते हो?

फुसफुसाते हुए रोहन ने कहा— ये पत्री नहीं, सिद्धि यंत्र है। पूरे 3 हजार रुपयों का लाया हूं। तीन दिन से मैं पहुंचे हुए बाबा की तलाश में था। आखिर वे मिल गए। उनसे लाया हूं। क्या तुम भी? अंधविश्वास में पड़े रहते हो? रोहन रातोरात करोड़पति बनना चाहता था। उसके पिता गरीब मजदूर थे। अमीर बनने के लिए वह साधुओं और बाबाओं के चक्कर में पड़ा रहता, जो उपाय वो बताया करते। उपाय भी अजीबोगरीब होते। पीले कपड़े में हरी दाल बांधकर घर के दरवाजे पर लटका दो। रोटी और चने चौराहे पर फेंक आओ। वह वैसा ही करता, लेकिन कोई चमत्कार न होता। वह सोचता कहीं कमी रह गई होगी। एक न एक दिन चमत्कार जरूर होगा और वह अमीर बन जाएगा। एकाएक श्रेयस ने कहा— मेरे एक काकाजी हैं, वे करोड़पति बनने का उपाय जानते हैं। वे खुद भी बहुत अमीर हैं। उनकी कोठी देखेगा तो देखता ही रह जाएगा। तो तू वह उपाय करके करोड़पति क्यों नहीं बन जाता?

श्रेयस ने हंसते हुए कहा— मैंने तो वह उपाय करना शुरू कर दिया है। लेकिन... मेरे काकाजी जो चमत्कार जानते हैं, वह आज तक असफल नहीं हुआ है। ऐसा चमत्कार जो हमेशा होते देखा है लोगों ने। शत—प्रतिशत आजमाया हुआ। तू कहे तो तुझे भी मिलवा दूं? काकाजी उपाय बताने के कितने रुपए लेंगे? बिलकुल मुफ्त...! अरे काका हैं वो मेरे...! रोहन खुश होकर श्रेयस के साथ चल दिया। श्रेयस के काका की आलीशान कोठी देखकर रोहन हैरान रह गया। पता चला कि ये शहर के नामी—गिरामी अधिवक्ता (वकील) है। श्रेयस की बात सुनकर पहले तो काका हंसे, फिर बोले— बिलकुल ये चमत्कार हो सकता है बल्कि मैंने ही कर दिखाया है। मेरे पिता भी गरीब मजदूर थे और आज तुम देख ही रहे हो। चमत्कार करना तुम्हारे हाथ में है। बोलो करोगे? हां, क्या करना होगा? तो सुनो। थोड़ा गंभीर होते हुए काकाजी ने कहा— उस चमत्कार का नाम है शिक्षा। शिक्षा का जादू कभी भी असफल नहीं हुआ है। मैं गरीब पिता का पुत्र था। मैंने अपनी पूरी मेहनत शिक्षा में लगा दी। पढ़—लिखकर अधिवक्ता बना। कानून की ऊंची—ऊंची डिग्रियां प्राप्त कीं। आज मैं एक—एक पेशी के 5—5 हजार रुपए लेता हूं। मेरा एक गरीब मित्र था, जो कि आज डॉक्टर बन गया। आज वह एक अॉपरेशन के लाख—लाख रुपए लेता है। जिसमें तुम्हारी रुचि हो। इंजीनियर बन सकते हो। कम्प्यूटर विशेषज्ञ बन सकते हो। तकनीकी शिक्षा प्राप्त कर सकते हो। शिक्षा इंसान को क्या से क्या बना देती है। एक सामान्य आदमी से खास आदमी बना सकती है। पैसा ही नहीं, इज्जत और प्रतिष्ठा दिला सकती है। पढ़—लिखकर अपने अंदर इतनी योग्यता पैदा करो, फिर तुम्हें वो सब मिल जाएगा, जो तुम चाहते हो। मन लगाकर पढ़ो। एक दिन चमत्कार अवश्य होगा।

मुर्गाभाई और कौवेराम की कथा

संसार के सबसे बड़े 3 देवताओं में से एक ब्रह्माजी धरती पर भ्रमण करने निकले थे। सभी जीवचर उनके दर्शनों के अभिलाषी थे। इस कारण जैसे ही उनके आने की सूचना मिली, संसार के सभी प्राणी उनके जोरदार स्वागत की तैयारी में लग गए। कोई सुंदर सुगंधित मालाएं गूथने लगा तो कोई मीठे—मीठे फल—कंद और शहद एकत्रित करने लगा।

जंगली जानवरों को इस बात की भनक लगी तो वे भी ब्रह्माजी के स्वागत की तैयारी करने लगे। जंगल के राजा शेरसिंह ने आदेश पारित कर दिया कि जंगल के सभी जानवरों को ब्रह्माजी के स्वागत के लिए अनिवार्यतरू उपस्थित रहना पड़ेगा। समय कम था इस कारण शेरसिंह ने सभी बड़े जानवरों को बुलाकर समझाया कि एक जानवर दूसरे जानवर को और दूसरा जानवर तीसरे जानवर को इस तरह सूचित करे कि जंगल के छोटे से छोटे जानवर को भी यह समाचार प्राप्त हो जाए कि ब्रह्माजी का स्वागत करना है और उपस्थिति अनिवार्य है। ब्रह्माजी सुबह 6 बजे निकलने वाले थे इससे शेरसिंह ने सबको 5.30 बजे हाजिर होकर पंक्तिबद्ध होकर उनका स्वागत करने की योजना तैयार कर ली थी। सभी जानवर एक—दूसरे को सूचना दे रहे थे ताकि कोई छूट न जाए। यथासमय ब्रह्माजी अपने रथ पर सवार होकर जंगल से गुजरे। सड़क के दोनों ओर जानवर हाथों में माला और फल लेकर कतारबद्ध खड़े थे। उनका स्वागत करने लगे। इस तरह रंगारंग और भव्य स्वागत होता देखकर ब्रह्माजी गदगद हो गए। जंगल में मंगल ही मंगल हो रहा था। उन्हें फूलों की मालाओं से लाद दिया गया था। खुशी के मारे वे मालाएं उतार—उतारकर जानवरों के बच्चों की ओर फेंकने लगे।

अचानक उन्होंने वनराज से पूछा कि श्राजा साहब, सभी जानवर तो यहां दिखाई पड़ रहे हैं, परंतु मुर्गा भाई और कौवाराम नहीं दिख रहे?' शेरसिंह ने देखा कि मुर्गा और कौवा सच में गायब थे। ब्रह्माजी ने इसे अपना अपमान समझा और जोर से दहाड़े कि तुरंत दोनों को मेरे सामने हाजिर किया जाए। डर के मारे शेरसिंह की घिग्गी बंध गई। वह डर गया कि कहीं ब्रह्माजी उससे राजपाट न छीन लें। आनन—फानन में हाथी को भेजकर कौवे और मुर्गे को बुलाकर ब्रह्माजी के समक्ष पेश कर दिया गया। ब्रह्माजी ने दोनों को आग्नेय दृष्टि से देखा और प्रश्न दागा कि श्जब जंगल के सभी जानवर मेरे स्वागत में हाजिर हैं तो आप क्यों नहीं आए?' मुर्गा बोला कि श्नहीं आए, तो नहीं आए मेरी मर्जी, तुम कौन होते हो पूछने वाले? सुबह नींद ही नहीं खुली।'' कौआ बोला कि श्आप कौन हैं? कहां से आए हैं? मैं क्यों आपका स्वागत करूं?'

इतना अपमान सुन ब्रह्माजी का भेजा खराब हो गया तथा एक मंत्र फूंका और कौआरामजी और मुर्गाभाई जहां खड़े थे, वहीं खड़े रह गए। हाथ—पैर वहीं जम गए। हिलना—डुलना बंद हो गया। दोनों डर गए और क्षमा मांगने लगे— श्त्राहिमाम, गलती हो गई सरकार, क्षमा करें, हमारे बाल—बच्चे मर जाएंगे।'' ब्रह्माजी टस से मस नहीं हुए व कहा कि श्उद्दंडों को दंड दिया ही जाना चाहिएश्, ऐसा कहकर वे आगे बढ़ने लगे। श्नहीं प्रभु, हमें माफ करो। आप जो भी प्रायश्चित करने को कहेंगे, हम तैयार हैं किंतु हमें उबारो प्रभुश्, दोनों फफक—फफककर रोने लगे। श्ठीक है आज से तुम सुबह 4 बजे उठकर संसार के सभी प्राणियों को सूचित करोगे कि भोर हो गई है उठ जाओ। इसके लिए तुम्हें कुकड़ूं कूं की सुरीली तान छेड़ना पड़ेगी।'' श्इतना बड़ा दंड?', मुर्गे ने आंसू बहाते हुए पूछा। श्नहीं, यह बड़ा दंड नहीं है, लोग तुम्हारी प्रशंसा करेंगे। स्कूलों में भी तुम्हारे चर्चे होंगे, किताबों में तुम्हारे गीत पढ़े जाएंगे।'' श्मुर्गा बोला हुआ सबेरा, अब तो आंखें खोलोश् अथवा श्मुर्गे की आवाज सुनी, तो मुन्ना भैया जाग उठेश्, जैसे मीठे गीत बच्चे बड़े मजे से गाएंगे। श्जो आज्ञा भगवन्श् मुर्गे की आंखों में आंसू आ गए। भगवान ने फिर मंत्र फूंका और वह अपनी पूर्वावस्था में आ गया। इधर कौआ भी पश्चाताप कर रहा था। ब्रह्माजी बोले कि श्आज के बाद तुम जल्दी उठकर लोगों के घर की छतों अथवा मुंडेरों पर बैठोगे और जिनके यहां मेहमान आने वाले होंगे, उनके यहां कांव—कांव करके पूर्व सूचना दोगे ताकि उस घर का मालिक मेहमान के स्वागत के लिए खाने—पीने के सामान तथा सब्जी—भाजी इत्यादि की व्यवस्था कर सके। अथवा यदि मेहमान श्मान न मान, मैं तेरा मेहमानश् हो तो सुबह से घर में ताला लगाकर भाग सकें।'' तब से ही आज तक ये बेचारे अपना धर्म निभा रहे हैं।

क्या बनना चाहते हो?

एक बार एक नवयुवक किसी जेन मास्टर के पास पहुंचा।

श्मास्टर, मैं अपनी जिंदगी से बहुत परेशान हूं, कृपया इस परेशानी से निकलने का उपाय बताए।'', युवक बोला। मास्टर बोले, श्पानी के गिलास में एक मुट्ठी नमक डालो और उसे पीयो।'' युवक ने ऐसा ही किया। श्इसका स्वाद कैसा लगा?', मास्टर ने पूछा। श्बहुत ही खराब३ एकदम खारा,श् युवक थूकते हुए बोला। मास्टर मुस्कुराते हुए बोले, श्एक बार फिर अपने हाथ में एक मुट्ठी नमक ले लो और मेरे पीछे—पीछे आओ।'' दोनों धीरे—धीरे आगे बढ़ने लगे और थोड़ी दूर जाकर स्वच्छ पानी से बनी एक झील के सामने रुक गए। श्चलो, अब इस नमक को पानी में डाल दोश्, मास्टर ने निर्देश दिया। युवक ने ऐसा ही किया। श्अब इस झील का पानी पियोश्, मास्टर बोले। युवक पानी पीने लगा। एक बार फिर मास्टर ने पूछा, श्बताओ इसका स्वाद कैसा है, क्या अभी भी तुम्हें ये खारा लग रहा है?' श्नहीं, ये तो मीठा है, बहुत अच्छा हैश्, युवक बोला। मास्टर युवक के बगल में बैठ गए और उसका हाथ थामते हुए बोले, श्जीवन के दुख बिलकुल नमक की तरह हैं, न इससे कम न ज्यादा। जीवन में दुख की मात्रा वही रहती है, बिलकुल वही लेकिन हम कितने दुख का स्वाद लेते हैं यह इस पर निर्भर करता है कि हम उसे किस पात्र में डाल रहे हैं। इसलिए जब तुम दुखी हो तो सिर्फ इतना कर सकते हो कि खुद को बड़ा कर लो३ गिलास मत बने रहो, झील बन जाओ।

मुकरा

लूंगा—लूंगा—लूंगा, कम से कम पांच सौ के ही लूंगा।'' मुकरा ने तो जैसे जिद ही पकड़ ली थी। सुबह से ही वह पांच सौ रुपए की मांग कर रहा था। रामरती परेशान थी। पांच सौ रुपए मुकरा पटाखों में फूंके, वह इसके लिए बिलकुल तैयार नहीं थी।

खींचतान के मुश्किल से साढ़े चार—पांच हजार रुपए ही तो घर में आ पाते हैं। उसका पति उमेसा और वे दिनभर जी—तोड़ परिश्रम करते हैं, तब कहीं गुजारे के लायक कमा पाते हैं और यह मुकरा... ऊंह कुछ समझता ही नहीं। रामरती बड़बड़ा रही थी। इतनी—सी कमाई में मुकरा की पढ़ाई, दूध पीती छोटी—सी बुधिया का खर्च और फिर खाने—पीने, राशन—पानी का खर्च। कैसे जिंदगी की गाड़ी चल रही थी, यह वही जानती थी। सुबह से शाम तक पांच—सात घरों में खटती रहती, झाड़ू—पोंछा करती, बर्तन मांझती तब कहीं जाकर पहली तारीख को ढाई—तीन हजार रुपए ही ला पाती। उमेसा का क्या है, कभी डेढ़ हजार तो कभी दो हजार, इतना ही तो लाता है। ठेकेदार के पास मजदूरी करता है। ईंट—गारे का काम है, रोज तो होता नहीं, मिल गया तो ठीक नहीं तो जय सियाराम। कहीं भी बैठकर उमेसा बीड़ी धोंकने लगता है। उसका खुद भी तो कोई ठिकाना नहीं होता। कभी कोई घर छूट जाता तो दूसरा देखना पड़ता। खैर, गाड़ी तो चल ही रही थी। आज वह दो घरों से कुछ रुपए दिवाली खर्च के लिए एडवांस ले आई थी। कुछ लोग होते हैं, जो दूसरों का दुख—दर्द समझते हैं और यदा—कदा सहायता कर देते हैं। मिसेस चड्ढा और मिसेस गवली ने महीने की पगार, महीना समाप्त होने के पांच दिन पहले ही दे दी थी। दिवाली तेईस तारीख को पड़ गई थी। आठ सौ रुपए में पूजा का सामान, प्रसाद, मिठाई, फल—फूल लाएं या कि मुकरा को फूंकने को दे दें। मुकरा का असली नाम मुकुंदीलाल था, किंतु मुख सुख की चाहत ने उसे मुकरा बना दिया था। अभावों में रहते हुए भी रामरती ने बच्चों की परवरिश में कोई भी कमी नहीं आने दी थी। मुकरा सातवीं में हिन्दी माध्यम के स्कूल में पढ़ रहा था। सरकार से किताबों और साइकल की व्यवस्था हो जाने से वह बेफिक्र थी। मिड डे मील में उसे शाला में ही खाना मिल जाता था। चूंकि मुकरा पढ़ने में भी होशियार था अतरू उसे सौ रुपए महीने की छात्रवृत्ति भी मिल रही थी। आज दिवाली होने के कारण उसकी और उमेसा दोनों की छुट्टी थी। वह तो खैर घर मालकिनों को बताकर आई थी कि वह दिवाली के दिन काम पर नहीं आएगी। मालकिनें नागा करने के कभी भी पैसे नहीं काटती थीं किंतु उमेसा... काम नहीं तो पैसा भी नहीं। बाजार जाने का प्रोग्राम बन गया था। दिवाली का सामान तो लाना ही था। दीये, तेल, बत्तियां, केले, मिठाई, लक्ष्मीजी की फोटो और नारियल, फल—फूलों में ही पांच—छह सौ रुपए लग जाएंगे। पूजा का सामान तो आ ही जाएगा, परंतु इस मुकरा का क्या करें, जो सुबह से अड़ा है कि पांच सौ ही लूंगा। श्बेटा पांच सौ तो बहुत होते हैं अपनी हैसियत नहीं है इतनी। फिर पटाखे चलाने का मतलब रुपए फूंकना ही हैश्, रामरती उसे समझा रही थी।

अम्मा पांच सौ से बिलकुल कम नहीं लूंगा। इतनी महंगाई में पांच सौ में आता क्या है? दस अनार और दस रस्सी बम ही तीन सौ रुपए में आएंगे। फिर चकरी, फुलझड़ी दीवाल फोड़... पांच सौ भी कम पड़ जाएंगे।'' श्परंतु बेटे...श् श्मैं कुछ नहीं सुनूंगा। सुन्नी एक हजार के लाया है। टंटू अपने बापू के साथ बाजार जा रहा है, कह रहा था अपने बापू से दो हजार के खरीदवाऊंगा।'' श्पर बेटा वे लोग पैसे वाले हैं, सुन्नी का बाप तहसील अॉफिस में बाबू है। टंटू के बाप की दारू की दुकान है। ये लोग तो कितने भी रुपए खर्च कर सकते हैं, फूंक सकते हैं पर...श् श्नहीं—नहीं बिलकुल भी नहीं, मुझे अभी पांच सौ रुपए दे दो।''

मैं खुद ही बाजार चला जाऊंगा और पटाखे लूंगा अपनी मर्जी के, बिलकुल सौ टंच।'' मुकरा के सिर पर तो पटाखों का भूत सवार था। श्ठीक हैश् रामरती ने उसके सामने एक पांच सौ का नोट फेंक दिया था और गुस्से में फनफनाती हुई भीतर किचन में चली गई थी। मुकरा ने वह नोट उठाया और बाजार चल दिया विजयी मुद्रा में। जैसे मां और बेटे के बीच लड़े गए पानीपत के युद्ध में बेटा जीत गया हो। उसे अब कौन समझाए कि ऐसी पानीपत की लड़ाइयों में माताओं को हारने में कितना आनंद आता है अन्यथा माताओं को कौन हरा सकता है? मां तो मां ही होती है। उसकी ममता बेटों की जिद के आगे अक्सर हथियार डाल देती है। धीरे—धीरे शाम धरती पर उतर आई। मां का गुस्सा कपूर की तरह थोड़ी देर में ही उड़ गया। आखिर बच्चा ही तो है, मन की उमंगें हिलोर लेती रहती हैं। किसी मित्र को कुछ नया करते देखता है तो उसकी भी इच्छा वैसा ही करने की हो उठती है। मां प्रतीक्षा में थी कि मुकरा आते ही कहेगा— श्देखो मां इतने सारे पटाखे! अनार, चकरी, फुलझड़ी, दीवाल फोड़... रामबाण... पांच सौ रुपए में इतने सारे।'' परंतु रात होने को आई और वह आया ही नहीं, तब रामरती को चिंता हुई कि कहां गया होगा? इतनी देर तो वह कहीं रुकता ही नहीं। उमेसा भी परेशान हो गया, जो अभी—अभी बाजार से पूजा का सामान लेकर आया था। उसे बाजार में भी मुकरा कहीं नजर नहीं आया था। हे भगवान! क्या हुआ लड़के को, सोचते—सोचते उमेसा उल्टे पांव लौट गया। मुकरा के दोस्तों के घर जा—जाकर पूछने लगा। उसके एक दोस्त ने बताया कि उसे राम बाबू कक्का के साथ अस्पताल जाते देखा था। श्क्या अस्पताल? क्या हुआ था मुकरा को?' उमेसा बौखला—सा गया। श्उसे कुछ नहीं हुआ। राम बाबू कक्का के सिर से जरूर खून बह रहा था।'' दोस्त के मुंह से यह सुनकर उमेसा की जान में जान आई। दौड़ा—दौड़ा वह अस्पताल जा पहुंचा। ढूंढता—खोजता वह उस कमरे में पहुंच ही गया, जहां राम बाबू कक्का पलंग पर पड़े थे और मुकरा बगल में एक स्टूल पर बैठा था। रामबाबू के सिर पर पट्टी बंधी थी और वे कराह रहे थे। श्क्या हुआ मुकरा? इनको क्या हुआ? तुम यहां कैसे आए?' उमेसा जैसे उस पर टूट पड़ा। इतने सारे प्रश्न एकसाथ सुनकर मुकरा से तत्काल कोई जबाब देते नहीं बना। थोड़ी देर वह चुप रहा फिर उसने बताया कि कक्का रास्ते में चक्कर खाकर गिर पड़े थे। सिर एक पत्थर में टकराने से खून बह रहा था और वह उन्हें अस्पताल ले आया था। राम बाबू कक्का फफककर रोने लगे थे और मुकरा के सिर पर हाथ फेरने लगे थे। क्या हुआ राम बाबू, सब ठीक तो है, अब अच्छे हो न? उमेसा ने सहानुभुति दर्शाते हुए पूछा। श्बिलकुल ठीक हूं भैया, तुम्हारा बेटा तॊ साक्षात कृष्ण का अवतार है। यह न होता तो आज मैं सड़क पर ही मर जाता। मुझे यह यहां तक ले आया और भरती कराया। सब दवाइयां अपने पैसे से ले आया।'' राम बाबू अभी भी कराह रहे थे। श्तू तो पटाखे लेने के लिए बाजार गया था, पटाखे नहीं लिए क्या?' उमेसा ने पूछा। श्नहीं बापू नहीं लिए कक्का की दवाई में...।'' श्तू तो जिद कर रहा था पटाखों की, अब क्या करेगा?' श्नहीं बापू मुझे नहीं चाहिए पटाखे, कक्का ठीक हो गए, मुझे तो बहुत अच्छा लगा। पटाखे तो जलकर राख ही होने थे।'' उमेसा को लगा कि मुकरा अपनी उम्र से बहुत ज्यादा बड़ा हो गया है। उसने बेटे को गले से लगा लिया। राम बाबू कक्का के आंसुओं की धार और तेज हो गई थी।

इनाम का हकदार

राजस्थान के दक्षिण में एक छोटा सा आदिवासी गांव है राजपुर। स्वतंत्रता के बाद गांव में तरक्की हुई है। लोग पढ़ने—लिखने भी लगे। इसी गांव की कहानी है।

जब राजपुर में ग्राम पंचायत का गठन हुआ तो सरपंच बने गांव के ही रामप्रसाद। वे इतने अच्छे आदमी थे कि हमेशा हर आदमी की सहायता करने को तैयार रहते थे। वे गांव वालों के सुख—दुरूख में हमेशा साथ देते और उन्हें नेक सलाह दिया करते। दिवाली में कुछ ही दिन शेष थे। रामप्रसाद ने गांव में ढिंढोरा पिटवा दिया कि इस बार दिवाली की रात जिसका घर सबसे अधिक सुंदर सजा होगा, उसे इनाम दिया जाएगा। यह ढिंढोरा सुनते ही गांव वाले अपने—अपने घरों को सजाने में पूरी मेहनत से जुट गए। लड़कियां मांडने बनाने के लिए खड़िया मिट्टी व गेरू इकट्ठा करने में लग गईं। बच्चे पटाखे और फुलझड़ियां जमा करने लगे। बुजुर्ग और महिलाओं ने दीये, तेल, मिठाइयां, मोमबत्तियां—कंदील खरीद लिए। सभी घरों की पुताई—सफाई में लग गए। दिवाली की शाम तक तो राजपुर दुल्हन की तरह सज गया। सभी ने अपने घरों के अंदर व बाहर माण्डणे बनाकर जगह—जगह दीये और मोमबत्तियां जलाकर रख दीं। बाहर के पेड़ों पर कंदील लटका दिए। सारा गांव रोशनी से जगमगा उठा। बच्चों के पटाखे—फुलझड़ियां छोड़ना शुरू कर दिया। बच्चे—बड़े सभी नए—नए कपड़ों में सजे प्रसन्न थे। रात 8 बजे सरपंच रामप्रसाद अपने कुछ साथियों के साथ गांव की दिवाली देखने निकला। सभी घरों को सुंदर ढंग से सजाया गया था। रामप्रसाद यह नहीं समझ पा रहा था कि किस घर की सजावट को वह सबसे सुंदर माने।

चलते—फिरते रामप्रसाद अपने साथियों के साथ जब गंगाराम के घर के सामने पहुंचा तो चौंक गया। घर के सामने और घर के अंदर सिर्फ एक—एक दीया जल रहा था। सरपंच रामप्रसाद ने जब गंगाराम को आवाज दी तो वह बाहर आया। रामप्रसाद ने पूछा— श्भाई गंगाराम, पूरा गांव दीयों की रोशनी से जगमगा रहा है, पर तुम्हारे यहां सिर्फ दो ही दीये जल रहे हैं। तुमने अपना पूरा घर क्यों नहीं सजाया?' श्सरपंचजी, बात यह है कि कुछ दिन पहले हमारे पड़ोसी नारायण का लड़का मर गया था। हमारे गांव में यह रिवाज है कि जिसके यहां कोई मौत हो गई हो, उसके यहां सालभर कोई त्योहार नहीं मनाते।'' गंगाराम आगे बोला— श्गांव वाले ऐसे आदमी के यहां त्योहार के दिन जाना भी अशुभ मानते हैं इसीलिए नारायण और उसके घर वाले दिवाली मनाना नहीं चाह रहे थे।'' श्पर सरपंचजी, मैं यह सब अंधविश्वास नहीं मानता। मैंने नारायण को समझाया और दिवाली का सारा सामान अपने पैसों से खरीदकर उसके घर दे आया। इस समय मेरी पत्नी और बच्चे वहां पर उसका घर सजा रहे हैं।'' सरपंच रामप्रसाद ने आश्चर्य से गंगाराम को गले लगा लिया और बोला— मुझे तुम पर बहुत गर्व है। दिवाली तो सभी मनाते हैं, पर सच्ची दिवाली इस बार तुमने ही मनाई है। मैं तुम्हें ही इनाम का हकदार घोषित करता हूं। और फिर पंचायत भवन पर अगले दिन एक समारोह हुआ जिसमें गंगाराम को सम्मानित किया गया। सरपंच रामप्रसाद ने गंगाराम का किस्सा उपस्थित लोगों को सुनाते हुए उसे पंचायत की तरफ से निरूशुल्क भूखंड देने की घोषणा की। गंगाराम की आंखें खुशी से छलछला आईं।