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भाग-६ - पंचतंत्र

पंचतंत्र

भाग — 06

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पंचतंत्र

घंटीधारी ऊंट

सात परियां और मूर्ख शेख चिल्ली

मक्खीचूस गीदड़

कोमल कल्पना की मीठी बतिया

तीन मछलियां

घंटीधारी ऊंट

इधर ऊंटनी खूब दूध देने लगी तो जुलाहा उसे बेचने लगा। एक दिन वही कलाकार गांव लौटा और जुलाहे को काफी सारे पैसे दे गया, क्योंकि कलाकार ने उन चित्रों से बहुत पुरस्कार जीते थे और उसके चित्र अच्छी कीमतों में बिके थे।

जुलाहा उस ऊंट बच्चे को अपने भाग्य का सितारा मानने लगा। कलाकार से मिली राशि के कुछ पैसों से उसने ऊंट के गले के लिए सुंदर—सी घंटी खरीदी और पहना दी। इस प्रकार जुलाहे के दिन फिर गए। वह अपनी दुल्हन को भी एक दिन गौना करके ले आया।

ऊंटों के जीवन में आने से जुलाहे के जीवन में जो सुख आया, उससे जुलाहे के दिल में इच्छा हुई कि जुलाहे का धंधा छोड़ क्यों न वह ऊंटों का व्यापारी ही बन जाए। उसकी पत्नी भी उससे पूरी तरह सहमत हुई। अब तक वह भी गर्भवती हो गई थी और अपने सुख के लिए ऊंटनी व ऊंट बच्चे की आभारी थी।

जुलाहे ने कुछ ऊंट खरीद लिए। उसका ऊंटों का व्यापार चल निकला। अब उस जुलाहे के पास ऊंटों की एक बड़ी टोली हर समय रहती। उन्हें चरने के लिए दिन को छोड़ दिया जाता। ऊंट बच्चा जो अब जवान हो चुका था उनके साथ घंटी बजाता जाता।

एक दिन घंटीधारी की तरह ही के एक युवा ऊंट ने उससे कहा, भैया! तुम हमसे दूर—दूर क्यों रहते हो?

घंटीधारी गर्व से बोला श्वाह तुम एक साधारण ऊंट हो। मैं घंटीधारी मालिक का दुलारा हूं। मैं अपने से ओछे ऊंटों में शामिल होकर अपना मान नहीं खोना चाहता।''

उसी क्षेत्र में वन में एक शेर रहता था। शेर एक ऊंचे पत्थर पर चढकर ऊंटों को देखता रहता था। उसे एक ऊंट और ऊंटों से अलग—थलग रहता नजर आया।

जब शेर किसी जानवर के झुंड पर आक्रमण करता है तो किसी अलग—थलग पड़े को ही चुनता है। घंटीधारी की आवाज के कारण यह काम भी सरल हो गया था। बिना आंखों देखे वह घंटी की आवाज पर घात लगा सकता था।

दूसरे दिन जब ऊंटों का दल चरकर लौट रहा था तब घंटीधारी बाकी ऊंटों से बीस कदम पीछे चल रहा था। शेर तो घात लगाए बैठा ही था। घंटी की आवाज को निशाना बनाकर वह दौड़ा और उसे मारकर जंगल में खींच ले गया। ऐसे घंटीधारी के अहंकार ने उसके जीवन की घंटी बजा दी।

सीखः जो स्वयं को ही सबसे श्रेष्ठ समझता है, उसका अहंकार शीघ्र ही उसे ले डूबता है।

सात परियां और मूर्ख शेख चिल्ली

गरीब शेख परिवार में जन्मा शेखचिल्ली धीरे—धीरे जवान हो गया। पढ़ा—लिखा तो था नहीं, अतरू दिनभर कंचे खेलता।

एक दिन मां ने कहा— श्मियां कुछ काम धंधा करो। बस, शेखचिल्ली गांव से निकल पड़े काम की तलाश में।

मां ने रास्ते के लिए सात रोटियां बनाकर दी थीं।

शेखचिल्ली गांव से काफी दूर आ गए। एक कुआं दिखा तो वहां बैठ गए। सोचा रोटियां खा लूं।

वह रोटी गिनते हुए कहने लगा— श्एक खाऊं.. दो खाऊं.. तीन खाऊं या सातों खा जा जाऊं ?

उस कुएं में सात परियां रहती थीं। उन्होंने शेखचिल्ली की आवाज सुनी तो डर गईं। वे कुएं से बाहर आईं।

उन्होंने कहा— श्देखो, हमें मत खाना। हम तुम्हें यह घड़ा देते हैं। इससे जो मांगोगे यह देगा। शेखचिल्ली मान गया।

वह रोटियां और घड़ा लेकर वापस आ गया। मां से सारी बात बताई।

मां ने घड़े से खूब दौलत मांगी। वह मालामाल हो गई। फिर वह बाजार से बताशे लाई। उसने घर के छप्पर पर चढ़कर बताशे बरसाए और शेख चिल्ली से उन्हें लूटने को कहा।

शेखचिल्ली ने खूब बताशे लूटे और खाएं। मुहल्ले वालों को ताज्जुब हुआ कि इसके पास इतनी दौलत कहां से आई।

शेखचिल्ली ने कहा—श्हमारे पास एक घड़ा है। उससे जो मांगते हैं, देता है।

मुहल्लेवालों ने उसकी मां से वह घड़ा दिखाने को कहा।

मां ने कहा— श्ये बकवास करता है। मेरे पास कोई ऐसा घड़ा नहीं है।

शेखचिल्ली बोला— श्क्यों, मैंने घड़ा दिया था न! उस दिन छप्पर से बताशे भी बरसे थे।

मां ने मुहल्ले वालों से हंसकर कहा— श्सुना आपने! भला छप्पर से कभी बताशे बरसते हैं। यह तो ऐसी मूर्खता की बातें करता ही रहता है।''

मक्खीचूस गीदड

जंगल में एक गीदड़ रहता था। वह बड़ा कंजूस था। वह कंजूसी अपने शिकार को खाने में किया करता था। जितने शिकार से दूसरा गीदड़ दो दिन काम चलाता, वह उतने ही शिकार को सात दिन तक खींचता। जैसे उसने एक खरगोश का शिकार किया।

पहले दिन वह एक ही कान खाता। बाकी बचाकर रखता। दूसरे दिन दूसरा कान खाता। ठीक वैसे जैसे कंजूस व्यक्ति पैसा घिस घिसकर खर्च करता है। गीदड़ अपने पेट की कंजूसी करता। इस चक्कर में प्रायः भूखा रह जाता। इसलिए दुर्बल भी बहुत हो गया था। एक बार उसे एक मरा हुआ बारहसिंघा हिरण मिला। वह उसे खींचकर अपनी मांद में ले गया। उसने पहले हिरण के सींग खाने का फैसला किया ताकि मांस बचा रहे। कई दिन वह बस सींग चबाता रहा। इस बीच हिरण का मांस सड़ गया और वह केवल गिद्धों के खाने लायक रह गया। इस प्रकार मक्खीचूस गीदड प्रायः हंसी का पात्र बनता। जब वह बाहर निकलता तो दूसरे जीव उसका मरियल—सा शरीर देखते और कहते श्वह देखो, मक्खीचूस जा रहा है। पर वह परवाह न करता। कंजूसों में यह आदत होती ही हैं। कंजूसों की अपने घर में भी खिल्ली उड़ती है, पर वह इसे अनसुना कर देते हैं। उसी वन में एक शिकारी शिकार की तलाश में एक दिन आया। उसने एक सुअर को देखा और निशाना लगाकर तीर छोड़ा। तीर जंगली सुअर की कमर को बींधता हुआ शरीर में घुसा। क्रोधित सुअर शिकारी की ओर दौड़ा और उसने अपने नुकीले दंत शिकारी के पेट में घोंप दिए। शिकारी ओर शिकार दोनों मर गए।

तभी वहां मक्खीचूस गीदड़ आ निकला। वह्‌ खुशी से उछल पड़ा। शिकारी व सुअर के मांस को कम से कम दो महीने चलाना है। उसने हिसाब लगाया। श्रोज थोड़ा—थोड़ा खाऊंगा।' वह बोला। तभी उसकी नजर पास ही पड़े धनुष पर पड़ी। उसने धनुष को सूंघा। धनुष की डोर कोनों पर चमड़ी की पट्टी कडी से बंधी थी। उसने सोचा श्आज तो इस चमड़ी की पट्टी को खाकर ही काम चलाऊंगा। मांस खर्च नहीं करूंगा। पूरा बचा लूंगा।' ऐसा सोचकर वह धनुष का कोना मुंह में डाल पट्टी काटने लगा। ज्यों ही पट्टी कटी, डोर छूटी और धनुष की लकड़ी पट से सीधी हो गई। धनुष का कोना चटाक से गीदड़ के तालू में लगा और उसे चीरता हुआ। उसकी नाक तोड़कर बाहर निकला। मख्खीचूस गीदड़ वहीं मर गया। सीखः कंजूसी का परिणाम अच्छा नहीं होता।

कोमल कल्पना की मीठी बतिया

बारिश के दिन थे। बरामदे में बैठी दादी अपने नन्हे पोते से बात कर रही थी। बस ऐसी ही मासूम बातें जैसे कि बारिश संग धूप निकल आए तो चिड़िया की शादी होगी। इतने में बिजली कड़की। दादी ने खट कहा— श्वो देखो रामजी आसमान में बैठकर फोटो खींच रहे हैं। कैमरा चमका रहे हैं।'' दादी बोली तो पोता ताली बजाकर हंसा। भीतर बच्चे के पिता यह वार्तालाप सुन रहे थे, वे बाहर आए और मुस्कुराते हुए प्यार से बोले— श्क्या अडंग—बड़ंग बता रही हो मां।'' श्अरे अड़ंग—बड़ंग नहीं, ऐसी बातों से तो बच्चे की कल्पना का विस्तार होता है,श् दादी ने कहा।

फिर वे बच्चे को सारस और लोमड़ी वाली कहानी सुना रही थी। कैसे लोमड़ी ने खीर बनाई और थाली में परोस दी, बेचारा सारस खा ही नहीं पाया, लोमड़ी लप—लप सब खीर चाट गई। जब सारस की बारी आई तो उसने चने बनाए और सुराही में परोस दिए। लोमड़ी उसमें मुंह ही न डाल पाई, सारस अपनी लंबी चोंच से उठाकर सब चने खा गया।

बच्चे को इस कहानी में बहुत मजा आया। उसने कई प्रश्न पूछे कि लोमड़ी का मुंह कैसा होता है, क्या वह सुराही में मुंह डालती तो उसका मुंह फंस जाता वगैरह। बच्चे के पिता ने लैपटॉप लाकर गूगल करके पुत्र को खट्‌ से लोमड़ी बता दी। दादी मां ने कहानी के पीछे लगाया सीख का पुछल्ला कि मेहमान बुलाए जाएं तो उनके पसंद का खाना बनाना और उनकी सुविधानुसार व्यवस्था करना कितना जरूरी है। और, यह भी कि जैसे को तैसा मिलता है। वगैरह।

शायद वे पोते को कोरा उपदेश देतीं तो वह सीख नहीं सुनता। टीवी और कम्प्यूटर के बनी—बनाई और कृत्रिम छबियों के अतिक्रमण से बेहाल लोग अब फिर किस्से—कहानियों की दुनिया में बच्चों का मानसिक विकास देखने लगे हैं। एकल परिवार में रहने वाली एक बड़ी कंपनी की सीईओ कहती हैं कि दादी—नानी के अभाव में उन्होंने अपनी बेटी के लिए एक डायरी तैयार की है।

उसमें वह अपने बचपन में सुने किस्से तो लिखती ही हैं, कुछ समयानुकूल बाल कहानियां उन्होंने खुद तैयार की है, जिन्हें वह समय—समय पर अपनी बेटी को सुनाती हैं। धीरज, मदद, दयालुता, प्यार, एकता, हास्य बोध आदि भावनाओं को उभारने वाली कहानियां उन्होंने तैयार की हैं। उनकी बच्ची को टीवी देखने पर रोक—टोक नहीं है। जो कहानी मम्मी या पापा सुनाते हैं वह तो बच्ची के लिए अतिरिक्त है और बहुत मजेदार है।

इसके कई फायदे हैं। कहानी सुनते वक्त वह पापा या मम्मी से सट कर बैठती है। उसे मम्मी के साथ—साथ एक्टिंग करने को भी मिलता है। जैसे तरह—तरह की आवाज बनाना, आंखें गोल—गोल करना, हाथ की उंगलियां नचाना, भालू या शेर की आवाज निकालना वगैरह। टीवी में यह जिंदा मजा कहां? वहां तो यह कल्पना करने की भी जगह नहीं कि हम महल कांच का बनाएं कि पत्थर का। किले की राजकुमारी किसके जैसी दिखती होगी वगैरह।

इस गुड़िया की मम्मी का तो साफ कहना है कि हम जो किस्से—कहानी सुनाते हैं, वे बच्चों के लिए नैतिक वसीयत हैं। भले वह किस्सा वाचिक परंपरा के जरिए लोक—जीवन से आया हो, पंचतंत्र, हितोपदेश, ईसप की कहानियों से या स्वयं गढ़ा गया हो।

आमने—सामने कहे जाने वाले किस्से बच्चों में जीवन के प्रति गहरी दिलचस्पी जगाते हैं, उनका मनोरंजन भी करते हैं। किस्सागोई का अनुपम संसार न सिर्फ बच्चों को अपनी मोहकता में बांधे रखता है, उन्हें अधिक कल्पनाशील व अधिक संवेदनशील इंसान भी बनाता है। वो कहा जाता है न कहते, सुनते, हुंकारा भरते बच्चे ज्ञान और नैतिकता दोनों ही ग्रहण कर लेते हैं।

तीन मछलियां

एक बड़ा जलाशय था। जलाशय में पानी गहरा होता है, इसलिए उसमें काई तथा मछलियों का प्रिय भोजन जलीय सूक्ष्म पौधे उगते हैं। ऐसे स्थान मछलियों को बहुत रास आते हैं। उस जलाशय में भी बहुत—सी मछलियां आकर रहती थी। अंडे देने के लिए तो सभी मछलियां उस जलाशय में आती थी। वह जलाशय आसानी से नजर नहीं आता था।

उसी में तीन मछलियों का झुंड रहता था। उनके स्वभाव भिन्न थे। पिया नामक मछली संकट आने के लक्षण मिलते ही संकट टालने का उपाय करने में विश्वास रखती थी। रिया कहती थी कि संकट आने पर ही उससे बचने का यत्न करो। चिया का सोचना था कि संकट को टालने या उससे बचने की बात बेकार हैं करने कराने से कुछ नहीं होता जो किस्मत में लिखा है, वह होकर रहेगा। एक दिन शाम को मछुआरे नदी में मछलियां पकड़ कर घर जा रहे थे। बहुत कम मछलियां उनके जालों में फंसी थी। अतः उनके चेहरे उदास थे। तभी उन्हें झाडियों के ऊपर मछलीखोर पक्षियों का झुंड जाता दिखाई दिया। सबकी चोंच में मछलियां दबी थी। वे चौंके। एक ने अनुमान लगाया दोस्तों! लगता हैं झाडियों के पीछे नदी से जुड़ा जलाशय हैं, जहां इतनी सारी मछलियां पल रही हैं। मछुआरे पुलकित होकर झाडियों में से होकर जलाशय के तट पर आ निकले और ललचाई नजर से मछलियों को देखने लगे। एक मछुआरा बोला अहा! इस जलाशय में तो मछलियां भरी पड़ी हैं। आज तक हमें इसका पता ही नहीं लगा। यहां हमें ढेर सारी मछलियां मिलेंगी। दूसरा बोला। तीसरे ने कहा आज तो शाम घिरने वाली हैं। कल सुबह ही आकर यहां जाल डालेंगे।

इस प्रकार मछुआरे दूसरे दिन का कार्यक्रम तय करके चले गए। तीनों मछलियों ने मछुआरे की बात सुन ली थी।

पिया मछली ने कहा साथियों! तुमने मछुआरे की बात सुन ली। अब हमारा यहां रहना खतरे से खाली नहीं हैं। खतरे की सूचना हमें मिल गई हैं। समय रहते अपनी जान बचाने का उपाय करना चाहिए। मैं तो अभी ही इस जलाशय को छोडकर नहर के रास्ते नदी में जा रही हूं। उसके बाद मछुआरे सुबह आएं, जाल फेंके, मेरी बला से। तब तक मैं तो बहुत दूर अठखेलियां कर रही होऊंगी।

रिया मछली बोली तुम्हें जाना हैं तो जाओ, मैं तो नहीं आ रही। अभी खतरा आया कहां हैं, जो इतना घबराने की जरुरत हैं। हो सकता है संकट आए ही न। उन मछुआरों का यहां आने का कार्यक्रम रद्द हो सकता है, हो सकता हैं रात को उनके जाल चूहे कुतर जाएं, हो सकता है, उनकी बस्ती में आग लग जाए। भूचाल आकर उनके गांव को नष्ट कर सकता हैं या रात को मूसलाधार वर्षा आ सकती हैं और बाढ़ में उनका गांव बह सकता है। इसलिए उनका आना निश्चित नहीं है। जब वह आएंगे, तब की तब सोचेंगे। हो सकता है मैं उनके जाल में ही न फंसूं। चिया ने भाग्यवादी बात कही भागने से कुछ नहीं होने का। मछुआरों को आना है तो वह आएंगे। हमें जाल में फंसना है तो हम फंसेंगे। किस्मत में मरना ही लिखा है तो क्या किया जा सकता है? इस प्रकार पिया तो उसी समय वहां से चली गई। रिया और चिया जलाशय में ही रही। भोर हुई तो मछुआरे अपने जाल को लेकर आए और लगे जलाशय में जाल फेंकने और मछलियां पकड़ने। रिया ने संकट को आए देखा तो लगी जान बचाने के उपाय सोचने। उसका दिमाग तेजी से काम करने लगा। आस—पास छिपने के लिए कोई खोखली जगह भी नहीं थी। तभी उसे याद आया कि उस जलाशय में काफी दिनों से एक मरे हुए ऊदबिलाव की लाश तैरती रही हैं। वह उसके बचाव के काम आ सकती है। जल्दी ही उसे वह लाश मिल गई। लाश सड़ने लगी थी। रिया लाश के पेट में घुस गई और सड़ती लाश की सड़ाध अपने ऊपर लपेटकर बाहर निकली। कुछ ही देर में मछुआरे के जाल में रिया फंस गई। मछुआरे ने अपना जाल खींचा और मछलियों को किनारे पर जाल से उलट दिया। बाकी मछलियां तो तड़पने लगीं, परन्तु रिया दम साधकर मरी हुई मछली की तरह पड़ी रही। मछुआरे को सडांध का भभका लगा तो मछलियों को देखने लगा। उसने निर्जीव पड़ी रिया को उठाया और सूंघा आक! यह तो कई दिनों की मरी मछली हैं। सड़ चुकी है। ऐसे बड़बड़ाकर बुरा—सा मुंह बनाकर उस मछुआरे ने रिया को जलाशय में फेंक दिया। रिया अपनी बुद्धि का प्रयोग कर संकट से बच निकलने में सफल हो गई थी। पानी में गिरते ही उसने गोता लगाया और सुरक्षित गहराई में पहुंचकर जान की खैर मनाई। चिया भी दूसरे मछुआरे के जाल में फंस गई थी और एक टोकरे में डाल दी गई थी। भाग्य के भरोसे बैठी रहने वाली चिया ने उसी टोकरी में अन्य मछलियों की तरह तड़प—तड़पकर प्राण त्याग दिए। सीखः भाग्य के भरोसे हाथ पर हाथ धरकर बैठे रहने वाले का विनाश निश्चित है। पिया की तरह संकट का संकेत मिलते ही उपाय सोचना सबसे उत्तम है, रिया की तरह संकट आने पर दिमाग लगाना भी उचित हो सकता है लेकिन चिया की तरह भाग्य के भरोसे रहना सबसे खतरनाक है।