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भाग-७ - पंचतंत्र

पंचतंत्र

भाग — 07

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पंचतंत्र

वासंती मौसम और फलेरी

तिल—गुड़ की खुशियों का गुरुमंत्र

पतंगबाजी का प्रयोजन

भालू और लोमड़ी की मटरगश्ती

विकलांग

वासंती मौसम और फलेरी

एक बड़ा जलाशय था। जलाशय में पानी गहरा होता है, इसलिए उसमें काई तथा मछलियों का प्रिय भोजन जलीय सूक्ष्म पौधे उगते हैं। ऐसे स्थान मछलियों को बहुत रास आते हैं। उस जलाशय में भी बहुत—सी मछलियां आकर रहती थी। अंडे देने के लिए तो सभी मछलियां उस जलाशय में आती थी। वह जलाशय आसानी से नजर नहीं आता था।

उसी में तीन मछलियों का झुंड रहता था। उनके स्वभाव भिन्न थे। पिया नामक मछली संकट आने के लक्षण मिलते ही संकट टालने का उपाय करने में विश्वास रखती थी। रिया कहती थी कि संकट आने पर ही उससे बचने का यत्न करो। चिया का सोचना था कि संकट को टालने या उससे बचने की बात बेकार हैं करने कराने से कुछ नहीं होता जो किस्मत में लिखा है, वह होकर रहेगा। एक दिन शाम को मछुआरे नदी में मछलियां पकड़ कर घर जा रहे थे। बहुत कम मछलियां उनके जालों में फंसी थी। अतः उनके चेहरे उदास थे। तभी उन्हें झाडियों के ऊपर मछलीखोर पक्षियों का झुंड जाता दिखाई दिया। सबकी चोंच में मछलियां दबी थी। वे चौंके। एक ने अनुमान लगाया दोस्तों! लगता हैं झाडियों के पीछे नदी से जुड़ा जलाशय हैं, जहां इतनी सारी मछलियां पल रही हैं। मछुआरे पुलकित होकर झाडियों में से होकर जलाशय के तट पर आ निकले और ललचाई नजर से मछलियों को देखने लगे। एक मछुआरा बोला अहा! इस जलाशय में तो मछलियां भरी पड़ी हैं। आज तक हमें इसका पता ही नहीं लगा। यहां हमें ढेर सारी मछलियां मिलेंगी। दूसरा बोला। तीसरे ने कहा आज तो शाम घिरने वाली हैं। कल सुबह ही आकर यहां जाल डालेंगे।

इस प्रकार मछुआरे दूसरे दिन का कार्यक्रम तय करके चले गए। तीनों मछलियों ने मछुआरे की बात सुन ली थी।

पिया मछली ने कहा साथियों! तुमने मछुआरे की बात सुन ली। अब हमारा यहां रहना खतरे से खाली नहीं हैं। खतरे की सूचना हमें मिल गई हैं। समय रहते अपनी जान बचाने का उपाय करना चाहिए। मैं तो अभी ही इस जलाशय को छोडकर नहर के रास्ते नदी में जा रही हूं। उसके बाद मछुआरे सुबह आएं, जाल फेंके, मेरी बला से। तब तक मैं तो बहुत दूर अठखेलियां कर रही होऊंगी।

रिया मछली बोली तुम्हें जाना हैं तो जाओ, मैं तो नहीं आ रही। अभी खतरा आया कहां हैं, जो इतना घबराने की जरुरत हैं। हो सकता है संकट आए ही न। उन मछुआरों का यहां आने का कार्यक्रम रद्द हो सकता है, हो सकता हैं रात को उनके जाल चूहे कुतर जाएं, हो सकता है, उनकी बस्ती में आग लग जाए। भूचाल आकर उनके गांव को नष्ट कर सकता हैं या रात को मूसलाधार वर्षा आ सकती हैं और बाढ़ में उनका गांव बह सकता है। इसलिए उनका आना निश्चित नहीं है। जब वह आएंगे, तब की तब सोचेंगे। हो सकता है मैं उनके जाल में ही न फंसूं। चिया ने भाग्यवादी बात कही भागने से कुछ नहीं होने का। मछुआरों को आना है तो वह आएंगे। हमें जाल में फंसना है तो हम फंसेंगे। किस्मत में मरना ही लिखा है तो क्या किया जा सकता है? इस प्रकार पिया तो उसी समय वहां से चली गई। रिया और चिया जलाशय में ही रही। भोर हुई तो मछुआरे अपने जाल को लेकर आए और लगे जलाशय में जाल फेंकने और मछलियां पकड़ने। रिया ने संकट को आए देखा तो लगी जान बचाने के उपाय सोचने। उसका दिमाग तेजी से काम करने लगा। आस—पास छिपने के लिए कोई खोखली जगह भी नहीं थी। तभी उसे याद आया कि उस जलाशय में काफी दिनों से एक मरे हुए ऊदबिलाव की लाश तैरती रही हैं। वह उसके बचाव के काम आ सकती है। जल्दी ही उसे वह लाश मिल गई। लाश सड़ने लगी थी। रिया लाश के पेट में घुस गई और सड़ती लाश की सड़ाध अपने ऊपर लपेटकर बाहर निकली। कुछ ही देर में मछुआरे के जाल में रिया फंस गई। मछुआरे ने अपना जाल खींचा और मछलियों को किनारे पर जाल से उलट दिया। बाकी मछलियां तो तड़पने लगीं, परन्तु रिया दम साधकर मरी हुई मछली की तरह पड़ी रही। मछुआरे को सडांध का भभका लगा तो मछलियों को देखने लगा। उसने निर्जीव पड़ी रिया को उठाया और सूंघा आक! यह तो कई दिनों की मरी मछली हैं। सड़ चुकी है। ऐसे बड़बड़ाकर बुरा—सा मुंह बनाकर उस मछुआरे ने रिया को जलाशय में फेंक दिया। रिया अपनी बुद्धि का प्रयोग कर संकट से बच निकलने में सफल हो गई थी। पानी में गिरते ही उसने गोता लगाया और सुरक्षित गहराई में पहुंचकर जान की खैर मनाई। चिया भी दूसरे मछुआरे के जाल में फंस गई थी और एक टोकरे में डाल दी गई थी। भाग्य के भरोसे बैठी रहने वाली चिया ने उसी टोकरी में अन्य मछलियों की तरह तड़प—तड़पकर प्राण त्याग दिए। सीखः भाग्य के भरोसे हाथ पर हाथ धरकर बैठे रहने वाले का विनाश निश्चित है। पिया की तरह संकट का संकेत मिलते ही उपाय सोचना सबसे उत्तम है, रिया की तरह संकट आने पर दिमाग लगाना भी उचित हो सकता है लेकिन चिया की तरह भाग्य के भरोसे रहना सबसे खतरनाक है।

तल—गुड़ की खुशियों का गुरुमंत्र

एक आश्रम में गुरु जब अपने शिष्य को आशीर्वाद दे रहे थे कि थोड़ी ही दूर पर आपस में लड़ते दो शिष्यों की आवाज उन्हें सुनाई दी। उन्हें आश्रम में आए अधिक समय नहीं हुआ था। शिष्यों के पास पहुंचकर उन्होंने पूछा— क्या बात है? क्यों झगड़ रहे हो तुम दोनों?

एक शिष्य बोला— गुरुजी! आज मकर संक्रांति के दिन मैं आपको तिल के लड्डू खिलाना चाहता था। लेकिन मेरा यह सहपाठी कहता है कि पहले मैं खिलाऊंगा। जब विचार पहले मेरे मन में आया है तो मुझे पहले खिलाने का अधिकार है। लेकिन यह बेईमानी कर रहा है। इसे मुझसे ईर्ष्‌या है। आप ही बताएं कि उचित क्या है? गुरुजी बोले— बच्चों! मैं तुम दोनों की भावना समझता हूं। लेकिन तुम्हारी भावना में अभी इस त्योहार की सच्ची भावना सम्मिलित नहीं है। इसलिए तुम आपस में झगड़ रहे हो। मकर संक्रांति के दिन तिल के लड्डू इसी भाव से खिलाए जाते हैं कि हमारे बीच जो भी मतभेद या मनभेद हैं वे नष्ट हों और हम बैर भाव भुलाकर मीठा—मीठा बोलें। इसलिए लड्डू देते वक्त हम कहते हैं— श्तिळ गुळ घ्या आणि गोड गोड बोलाश् यानी श्तिल गुड़ लो और मीठा मीठा बोलो।'' और तुम कितना मीठा बोल रहे हो, यह तुम स्वयं निर्णय करो।

अतः मकर संक्रांति के सच्चे भाव को आत्मसात करते हुए पहले मुझे नहीं एक—दूसरे को तिल के लड्डू खिलाओ। गुरु की बात सुनकर शिष्यों ने उनके कहे का अनुसरण किया और एक—दूसरे को सच्चे हृदय से लड्डू खिलाने के बाद गले लगा लिया। क्या बात है! कितना अनोखा अंदाज था गुरु का अपने शिष्यों को सिखाने का। वे न केवल अपने शिष्यों को सिखा गए बल्कि आज भी हम जैसे लोगों को सिखा रहे हैं। तो मकर संक्रांति पर आपसे भी एक आग्रह है कि आज जब आप काम पर जाएं तो तिल के लड्डू साथ ले जाएं और सभी स्नेहीजनों के साथ ही उस सहकर्मी को अवश्य खिलाएं जिसके साथ आजकल आपकी पटरी नहीं बैठ रही है। हां, शर्त यह है कि भाव भी शुद्ध होना चाहिए। लड्डू खिलाने के साथ ही आज से उससे मीठी—मीठी बातें भी करना शुरू कर दें। कुछ समय बाद निश्चित ही आपको चमत्कारिक परिणाम मिलने लगेंगे और आपके दफ्तर की हवा भी बदलेगी। लेकिन याद रहे कि आप अपनी इस सफलता पर फूल मत जाना। वरना वही होगा जो पतंग और गुब्बारे के साथ होता है। यही है आज का गुरुमंत्र।

पतंगबाजी का प्रयोजन

बहुत समय पहले की बात है। महाराष्ट्र में किसी जगह एक गुरु का आश्रम था। दूर—दूर से विद्यार्थी उनके पास अध्ययन करने के लिए आते थे। इसके पीछे कारण यह था कि गुरुजी नियमित शिक्षा के साथ व्यावहारिक शिक्षा पर भी बहुत जोर देते थे। उनके पढ़ाने का तरीका भी अनोखा था।

वे हर बात को उदाहरण देकर समझाते थे जिससे शिष्य उसका गूढ़ अर्थ समझकर उसे आत्मसात कर सकें। वे शिष्यों के साथ विभिन्न विषयों पर शास्त्रार्थ भी करते थे ताकि जीवन में यदि उन्हें किसी से शास्त्रार्थ करना पड़े तो वे कमजोर सिद्ध न हों। एक बार एक शिष्य गुरु के पास आया और बोला— गुरुजी! आज मैं आपसे शास्त्रार्थ करना चाहता हूं। गुरुजी बोले— ठीक है, लेकिन किस विषय पर? शिष्य बोला— आप अकसर कहते हैं कि सफलता की सीढ़ियां चढ़ चुके मनुष्य को भी नैतिक मूल्य नहीं त्यागने चाहिए। उसके लिए भी श्रेष्ठ संस्कारों रूपी बंधनों में बंधा होना आवश्यक है। जबकि मेरा मानना है कि एक निश्चित ऊंचाई पर पहुंचने के बाद मनुष्य का इन बंधनों से मुक्त होना आवश्यक है, अन्यथा मूल्यों और संस्कारों की बेड़ियां उसकी आगे की प्रगति में बाधक बनती हैं। इसी विषय पर मैं आपके साथ शास्त्रार्थ करना चाहता हूं। शिष्य की बात सुनकर गुरुजी कुछ सोच में डूब गए और बोले— हम इस विषय पर शास्त्रार्थ अवश्य करेंगे, लेकिन पहले चलो चलकर पतंग उड़ाएं और पेंच लड़ाएं। आज मकर संक्रांति का त्योहार है। इस दिन पतंग उड़ाना शुभ माना जाता है। गुरुजी की बात सुनकर शिष्य खुश हो गया। दोनों आश्रम के बाहर मैदान में आकर पतंग उड़ाने लगे। उनके साथ दो अन्य शिष्य भी थे जिन्होंने चकरी पकड़ी हुई थी। जब पतंगें एक निश्चित ऊंचाई तक पहुंच गईं तो गुरुजी शिष्य से बोले— क्या तुम बता सकते हो कि यह पतंगें आकाश में इतनी ऊंचाई तक कैसे पहुंचीं? शिष्य बोला— जी गुरुजी! हवा के सहारे उड़कर यह ऊंचाई तक पहुंच गईं। इस पर गुरुजी ने पूछा— अच्छा तो फिर तुम्हारे अनुसार इसमें डोर की कोई भूमिका नहीं है? शिष्य बोला— ऐसा मैंने कब कहा? प्रारंभिक अवस्था में डोर ने कुछ भूमिका निभाई है, लेकिन एक निश्चित ऊंचाई तक पहुंचने के बाद पतंग को डोर की आवश्यकता नहीं रहती। अब तो और आगे की ऊंचाइयां वो हवा के सहारे ही प्राप्त कर सकती है। अब देखिए गुरुजी! डोर तो इसकी प्रगति में बाधक ही बन रही है न? जब तक मैं इसे ढील नहीं दूंगा, यह आगे नहीं बढ़ सकती। देखिए इस तरह मेरी आज की बात सिद्ध हो गई। आप स्वीकार करते हैं इसे?

शिष्य के प्रश्न का गुरुजी ने कुछ जवाब नहीं दिया और बोले— चलो अब पेंच लड़ाएं। इसके पश्चात् दोनों पेंच लड़ाने लगे। ऐसा लग रहा था जैसे आसमान में पेंच नहीं लड़ रहे बल्कि दोनों के बीच पतंगों के माध्यम से शास्त्रार्थ चल रहा हो। अचानक एक गोता देकर गुरु ने शिष्य की पतंग को काट दिया। कुछ देर हवा में झूलने के बाद पतंग जमीन पर आ गिरी। इस पर गुरु ने शिष्य से पूछा— पुत्र! क्या हुआ? तुम्हारी पतंग तो जमीन पर आ गिरी। तुम्हारे अनुसार तो उसे आसमान में और भी ऊंचाई को छूना चाहिए था। जबकि देखो मेरी पतंग अभी भी अपनी ऊंचाई पर बनी हुई है, बल्कि डोर की सहायता से यह और भी ऊंचाई तक जा सकती है। अब क्या कहते हो तुम? शिष्य कुछ नहीं बोला। वह शांत भाव से सुन रहा था। गुरु ने आगे कहा— दरअसल तुम्हारी पतंग ने जैसे ही मूल्यों और संस्कारों रूपी डोर का साथ छोड़ा, वो ऊंचाई से सीधे जमीन पर आ गिरी। यही हाल हवा से भरे गुब्बारे का भी होता है। वह सोचता है कि अब मुझे किसी और चीज की जरूरत नहीं और वह हाथ से छूटने की कोशिश करता है। लेकिन जैसे ही हाथ से छूटता है, उसकी सारी हवा निकल जाती है और वह जमीन पर आ गिरता है। गुब्बारे को भी डोरी की जरूरत होती है, जिससे बंधा होने पर ही वह अपने फूले हुए आकार को बनाए रख पाता है। इस तरह जो हवा रूपी झूठे आधार के सहारे टिके रहते हैं, उनकी यही गति होती है। शिष्य को गुरु की सारी बात समझ में आ चुकी थी और पतंगबाजी का प्रयोजन भी। शास्त्रार्थ के इस अनोखे प्रयोग से अभिभूत वह अपने गुरु के कदमों में गिर पड़ा। गुरुजी ने उसे आशीर्वाद देते हुए कहा कि यह मकर संक्रांति का सच्चा ज्ञान है। आज से तुम्हारे जीवन का सूर्य भी उत्तरायण की ओर गति करे और बढ़ते दिनों की तरह तुम जीवन के हर क्षेत्र में उन्नति करो।

भालू और लोमड़ी की मटरगश्ती

अब बस पुराना साल खत्म होने को था। सालभर चमकते सूरज के रुख में भी नरमी आ गई थी। दोपहर की हल्की गुनगुनी धूप मटर के खेत में बिखरी थी। लोमड़—लोमड़ी धूप के गुलाबी स्वाद के चटखारे लेती लग रही थी।

असल में उसके मुंह में पानी आने की वजह कुछ और ही थी। किसी दूसरे के खेत में घुसकर मटर खाने के चक्कर में पिछले वर्ष उसकी जो पिटाई हुई थी, उसके चलते लोमड़ी ने तय कर लिया था कि अब यदि वह मटर की फलियों को कभी मुंह लगाएगी तो अपने खेत के ही, नहीं तो नहीं। जिस प्रेम के साथ उसने मटर के नर्म बीज बोए थे। दुलार के साथ पौधों को बड़ा किया था उसी का परिणाम था कि नाजुक से पौधों पर प्यारे—प्यारे फूल खिले थे और कहीं—कहीं नन्ही—नन्ही फलियां भी पत्तों के बीच से झांक रही थीं। बार—बार वह उन पर वारी जाती और कहती कि भगवान करे तुम सदा ऐसे ही रहो, मुस्कुराती—झूलती रहो। दिसंबर का आखिरी सप्ताह था और लोमड़ी ने अभी तक अपने खेत का एक भी दाना मुंह में नहीं डाला था। हाय दैया! कहीं इन मुई फलियों ने मेरी बात को सच तो नहीं मान लिया, कि तुम सदा ऐसी ही रहो। मुटियाओ नहीं। दानों से भरो नहीं। फिर वह एक—एक फली को छूते—टटोलते हुए खेत में घूमने लगी। तो उसने क्या देखा? जगह—जगह खाई हुई मटर के छिलके पड़े हैं। कहीं—कहीं कच्ची फलियां भी किसी नासमझ ने तोड़कर पटक दी हैं। अब समझ में आया। जरूर कोई न कोई मेरी फलियां चुरा रहा है। मटर के हरे—भरे खेत में भूरी लोमड़ी गुस्से से लाल—पीली होने लगी। और लगी पगलाकर अपनी ही दुम नोचने— मैं चालाक लोमड़ी और कोई मुझे ही बेवकूफ बना रहा है। जब दुम में जलन होने लगी तो उसे ध्यान में आया कि चिढ़ने—कुढ़ने से कुछ होना—जाना नहीं। अकल का उपयोग करके खुराफाती जीव को पकड़ना होगा। खेत की बागड़ में जहां अंदर घुसने जितनी जगह थी, वहीं पर फंदा लगाने का लोमड़ी ने तय किया। खरगोश, गिलहरी, नेवला जो भी हो, यहीं से आता—जाता होगा। फंदा एकदम सीधा—सादा पतली रस्सी का था, जिसका एक सिरा बागड़ में बनी पोल के इर्द—गिर्द छुपा था और दूसरा अमरूद के पेड़ में। अमरूद की एक लचीली टहनी को मोड़कर नीचे अटका दिया था, इस तरह कि झटका लगते ही फट से निकलकर ऊपर हो जाए। रस्सी खिंचेगी, फंदा कसेगा और चोरी करने की नीयत से घुसा प्राणी बिलबिलाते हुए डाल से लटक जाएगा।

ऐसा ही हुआ। मटरगश्त खरहा शाम होते ही रोज की भाँति उछलते—कूदते मटर की दावत उड़ाने चला आया। अमावस की रात थी। अंधेरा घुप्प था। किसी के देखने का डर नहीं था। सो वह ज्यादा ही लापरवाह था। मटर के खेतों में हाथ साफ करने का लंबा अनुभव था उसे। तभी तो नाम मटरगश्त पाया था उसने। आज किस्मत धोखा दे गई। मुंह से चूं तक न निकला। इसके पहले ही वह जाकर अमरूद की डाली से लटकने लगा, विक्रमादित्य के वेताल की तरह। सामने के पंजे फंदे में अटके थे और घिग्गी बंध गई थी सो अलग। पूस की रात में भी खरहे को पसीना छूट गया, लेकिन क्या करता। लटका रातभर कुल्फी जमाते हुए।

झुटपुटा हो रहा था। रात को देर से सोयी लोमड़ी साल के पहले दिन देर से ही जागेगी। लेकिन यहां से छूटने की कुछ जुगत तो भिड़ानी ही होगी। खरहे का फितूरी दिमाग खट—खट चलने लगा। तभी पगडंडी पर धप्प—धप्प की आहट सुनाई दी। बागड़ के उस पार कुछ काला सा चला आ रहा था। अरे यह तो भुक्कड़ भालू है। खुराक की तलाश में मुंह अंधेरे ही बालों का घना लबादा ओढ़े निकल पड़ा है। खरहे के दिमाग में क्लिक हुआ और वह लगा जोर—जोर से झूलने। जो भी दोहे—चौपाइयां उसे याद आईं लगा उनका ऊंची आवाज में पाठ करने। पहले तो भालू भी चौंका कि यह क्या माजरा है। भूत—प्रेत तो नहीं? थोड़ी देर वह दूर से ही खरहे की ये हरकतें देखता रहा, फिर पूछ बैठा कि यह क्या चल रहा है? लटूम रहा हूं और कूदा—फांद करके रुपया भी बना रहा हूं। इतना कहकर खरहा और जोर से झूमने लगा। अब भालू से रहा न गया। भई लटूम झूम रहे हो, यह तो मैं भी देख रहा हूं...लेकिन रुपया बनता नहीं दिख रहा। खरहे ने अपना प्रलाप बंद किया और कहा कि लोमड़ी ने बड़े जतन से मटर उगाई है। चिड़िया—कौवे आकर उन्हें चुग न जाए इसलिए उसने मुझे रखवाली का काम सौंपा है। मैं जिंदा लाल बुझक्कड़ बनकर उन्हें भगा रहा हूं। इसके लिए लोमड़ी मुझे घंटे के दस रुपए दे रही है। पिछली शाम से अब तक सवा सौ रुपया बना चुका हूं। लंबे समय तक भालू को चुप देखकर खरहे ने पूछा— क्या तुम्हें भी रोजगार चाहिए? मानो उसने भालू के मन की बात कह दी। भालू का बड़ा कुनबा था और सबके सब उसी की तरह भुक्कड़। बच्चे—कच्चों के लिए राशन जुटाते—जुटाते बेचारा आजीज आ जाता। उसने तुरंत हां भरी। अमरूद के पेड़ पर चढ़कर पहले तो उसने खरहे के पंजे छुड़ाए फिर खुद के पंजे फंदे में अटकाकर डाल से लटूम गया। श्लोक—दोहे उसे आते न थे, सो लगा घों—घों की आवाज निकालने। नए साल का पहला सूरज निकला और अभी पूरब के आसमान में बांस भर ही चढ़ा था कि लोमड़ी उधर आ निकली। कुछ न कुछ तो फंसा होगा। छोटा—मोटा जीव होगा तो दावत हो जाएगी। भारी—भरकम लोठ को लटका देख उसका दिल धक से रह गया। यह तो छूटते ही मुझे मारने दौड़ेगा। लेकिन गुस्सा भी था। लोमड़ ने अपने हाथ की बेंत से भालू की खूब पिटाई उड़ाई। इतनी कि बेंत तो टूटी ही, भालू के छटपटाने से रस्सी भी टूटी और वह धम्म से नीचे आ गिरा। लोमड़ी पहले ही निकल भागी थी सो वह तो भालू को दिखी नहीं लेकिन खरहे पर अपना गुस्सा निकालने के लिए वह उसके पीछे हो लिया। खरहे को पहले से इस होनी का अंदाज था और डर भी। क्योंकि अब साबका लोमड़ी से नहीं भालू से था। रातभर के थके—हारे भूखे खरहे से वैसे भी दौड़ते नहीं बना था सो वह थोड़ी ही दूर पगडंडी पर मचे कीचड़ में छुप कर बैठ गया। इस तरह कि पूरा शरीर तो कीचड़ में धंसा, सिर्फ मुंह और आंखें ऊपर, मानो वह एक मेंढक हो। लाल आंखों वाला खौफनाक मेंढक, खरहे ने मन ही मन सोचा। थोड़ी ही देर बाद हड़बड़ाया भालू उधर आ निकला। ऐसे अजीब से मेंढक को देखकर चौंका। इतनी सुबह जब जंगल में चहल—पहल की शुरुआत भी न हुई हो, इस अजीबो—गरीब मेंढक से ही पूछना होगा कि क्या कोई खरगोश अभी—अभी यहां से गुजरा है क्या। भालू अभी सोच ही रहा था कि खरहे ने भर्राई आवाज में टर्राने की कोशिश करते हुए पूछा कि खुशकिस्मत खरहे को बिदा करने आए थे क्या?

सुबह गला फाड़कर पाठ करने के कारण खरहे की आवाज में बला का खरखरापन आ गया था— श्खरहे को कहीं से रुपया हाथ आ गया था सो सुबह की पहली बस पकड़कर अभी—अभी शहर निकल गया है वहीं नई जिंदगी शुरू करने। सबको नए वर्ष की शुभकामनाएं देने के लिए कह गया है मुझे।''

विकलांग

कक्षा में एक नया प्रवेश हुआ... पूर्णसिंह। उसकी विकृत चाल देखकर बच्चे हंसने लगे। किसी ने कहा लंगड़ूद्दीन, किसी ने तेमूरलंग तो किसी ने कह दिया— वाह नाम है पूर्णसिंह और है बेचारा अपूर्ण। मतलब यह कि अध्यापक के आने से पहले तक उपस्थित विद्यार्थियों ने उसको परेशान करने में किसी प्रकार की कमी नहीं बरती। कक्षाध्यापक ने भी अपना कर्तव्य निभाते हुए उस विद्यार्थी से परिचय कराते हुए सहानुभूति रखने की अपील कर दी। वे बोले— देखो बच्चों, पूरन हमारी कक्षा का नया विद्यार्थी है। वह आप लोगों की तरह सामान्य नहीं है, उसे चिढ़ाना मत बल्कि यथासंभव सहायता करना। हाय बेचारा— पास बैठे नटखट विराट ने व्यंग्य कर दिया। पूरन को अच्छा नहीं लगा। वह तपाक से बोल पड़ा— न मैं बेचारा हूं और न किसी की दया के अधीन। मैं सिर्फ एक पैर से विकलांग हूं, मानसिक रूप से विकलांग कदापि नहीं। विकलांगता मेरे काम में आड़े नहीं आती और अपने सारे काम मैं खुद ही कर सकता हूं। कक्षाध्यापक ने संभलते हुए कहा— बुरा मत मानो बेटे, मैंने तो ऐसे ही कह दिया था। फिर शायद उसका दिल रखने के लिए यह कह दिया। वस्तुतरू हम सब विकलांग हैं। आज की दुनिया विकलांग की दुनिया है। कक्षा के एक विद्यार्थी स्पर्श को यह आरोप पचा नहीं। उसने खड़े होते हुए अपनी आपत्ति दर्ज कराई। क्षमा कीजिए आचार्यजी! जब हमारे सभी अंग सुरक्षित हैं तो हम विकलांग कैसे हो गए?

मैं समझाता हूं। इसे व्यापक अर्थ में लीजिए। हम हर काम में दूसरे का सहारा खोजते हैं। देखो बच्चों, जो दूसरों से दुर्व्‌यवहार करते हैं, वे अपाहिज हैं, क्योंकि वे सद्व्‌यवहार करने जैसे आवश्यक अंग से वंचित हैं। कक्षाध्यापक ने समझाने का प्रयास किया। विद्यार्थी उनकी बात से सहमत नहीं थे। पार्थिव ने खड़े होकर अपना पक्ष रखा— मैं कभी किसी के साथ दुर्व्‌यवहार नहीं करता इसलिए विकलांग कहलाने से बच गया। पहले बात तो पूरी सुन लो, कहते हुए आचार्यजी ने पार्थिव को बैठा दिया, जो अकारण दूसरों को तंग करते हैं, दूसरे का अधिकार छीनते हैं वे भी वस्तुतरू अपाहिज होते हैं। मैं किसी को तंग नहीं करती, न किसी का अधिकार छीनती हूं इसलिए मैं विकलांग नहीं हुई— विदिता ने कहा। अभी मेरी बात समाप्त नहीं हुई। वे लोग भी विकलांग हैं, जो मिथ्या भाषण करते हैं, झूठ बोलते हैं, जिनकी कथनी व करनी में अंतर होता है— कक्षाध्यापक ने आगे कहा। कम से कम मैं तो ऐसा नहीं, विशेष ने विरोध जताया। यही नहीं, जो दूसरो को दुखी देखकर या दुख देकर प्रसन्नता का अनुभव करते हैं, वे भी विकलांग हुए— आचार्यजी ने अपना क्रम जारी रखा। क्या आचार्यजी! आप एक के बाद एक सभी को लपेट रहे हैं— मुंह लगे विद्यार्थी सार्थक ने कहना चाहा। उसे अनसुना करते आचार्यजी ने अपनी धुन में बोलते गए— विकलांग तो वे भी हैं, जो सामने होते हुए भी अन्याय को सहन करते हैं और मौन ओढ़ लेते हैं, क्योंकि वे मानवीय कर्तव्य भूल जाते हैं जिसमें कहा गया है कि अन्याय देखने वाला भी अपराधी होता है— आचार्यजी बोले।

लेकिन आचार्यजी! यह..., मोहन ने कहना चाहा तो आचार्यजी ने टोक दिया— मैंने कहा न, इसे व्यापक अर्थ में लीजिए। हम भ्रष्टाचार को अपने सामने घटित होते हुए देखते हैं, मगर उसके विरुद्ध आवाज उठाने की हिम्मत नहीं दर्शाते... क्या यह हमारी मानसिक विकलांगता नहीं? आचार्यजी ने प्रश्न किया। इसका मतलब बुरे गुण वाला भी विकलांग है या जो अपने कर्तव्य का पालन नहीं करता वह भी? विराट ने जानना चाहा। मैंने कहा न, हम सब विकलांग हैं, क्योंकि किसी न किसी दुर्गुण से ग्रसित हैं। किसी सामान्य गुण की कमी या गुण होते हुए भी उचित अवसर पर इसका उपयोग नहीं करना भी विकलांगता है— आचार्यजी ने जवाब दिया। आचार्यजी— सौम्य ने कुछ कहना चाहा तो उसे चुप कराते हुए आचार्यजी बोले— जिसका एकाध अंग खराब होता है वह शारीरिक रूप से विकलांग कहलाता है लेकिन वे जो सद्व्‌यवहार से दूर रहते हैं मानसिक रूप से विकलांग कहे जा सकते हैं— आचार्यजी ने समझाया। आचार्यजी, आप बुरा नहीं मानें तो एक बात पूछूं? आपने जो व्याख्या की उसके अनुसार तो क्या आप भी विकलांग नहीं हुए? विराट ने पूछा। एक पल के लिए आचार्यजी असहज दिखे फिर संभलकर बोले— हां, मैं समाज से अलग कैसे रह सकता हूं। कहने को मैं शिक्षक हूं, पर मेरी भी सीमाएं हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि कोई भी व्यक्ति किसी भी कारण से अगर अपनी क्षमता या कर्तव्य का पालन नहीं कर पाता, वह विकलांग ही कहलाएगा। आचार्यजी! पहले हम मानसिक रूप से विकलांग का अर्थ पागल समझते थे— विशेष बोला। वह उसका संकुचित अर्थ है, व्यापक अर्थ में वे सभी विकलांग की श्रेणी में रखे जा सकते हैं, जो अपने सामान्य धर्म का पालन नहीं करते। विषय की बोझिलता विद्यार्थियों के चेहरे से दिखाई देने लगी थी। तो आचार्यजी ने पूछ लिया— अब अगर कोई मेरी बात से सहमत नहीं हो तो हाथ खड़े करें।