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भाग-४ - पंचतंत्र

पंचतंत्र

भाग — 4


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पंचतंत्र

बुद्धिमान हंस

चतुर बिल्ली

राह का साथी

झूठी शान

बहुरूपिया गधा

बुद्धिमान कौन

चालाक खरगोश और हाथी

चापलूस मंडली

शरारती बंदर

दुष्ट सर्प

गोलू—मोलू और भालू

रंगा सियार

कौए और उल्लू

शत्रु की सलाह

झगड़ालू मेंढक

नकल करना बुरा है...

घंटीधारी ऊंट

गजराज व मूषकराज

ढोल की पोल

बंदर का कलेजा

गधा रहा गधा ही

आपस की फूट

बगुला भगत

बिल्ली का न्याय

एकता का बल

घंटीधारी ऊंट

सात परियां और मूर्ख शेख चिल्ली

मक्खीचूस गीदड़

कोमल कल्पना की मीठी बतिया

तीन मछलियां

वासंती मौसम और फलेरी

तिल—गुड़ की खुशियों का गुरुमंत्र

पतंगबाजी का प्रयोजन

भालू और लोमड़ी की मटरगश्ती

विकलांग

एक चमत्कार

मुर्गाभाई और कौवेराम की कथा

क्या बनना चाहते हो?

मुकरा

इनाम का हकदार

दीपावली क्यों मनाई जाती है?

गांधीजी का देशप्रेम

बापू का राष्ट्रहित

सच्चाई का आईना

शतरंज

बुढ़िया और कद्दू

बच्चों के चहेते फ्रेंड हैं गणेशजी

राजकुमारी और राक्षस

छोटे भीम का हाथ

पाप का प्रायश्चित

मुट्टा

सुनो सबकी, करो मन की

तेनालीराम की कहानी

ईमानदारी की जीत

कैसा हो सच्चा मित्र

अच्छे काम का पुरस्कार

जादुई छड़ी

बेईमानी का फल

तोता ना खाता है ना पीता है...

राज्य में कौए कितने हैं?

बीरबल कहां मिलेगा

कुंए का पानी

छोटा बांस, बड़ा बांस

पैसे की थैली किसकी

मूखोर्ं की फेहरिस्त

सबसे बड़ा हथियार

बादशाह का सपना

जोरू का गुलाम

कवि और धनवान आदमी

सब बह जाएंगे

नकल करना बुरा है...

एक पहाड़ की ऊंची चोटी पर एक बाज रहता था। पहाड़ की तराई में बरगद के पेड़ पर एक कौआ अपना घोंसला बनाकर रहता था। वह बड़ा चालाक और धूर्त था।

उसकी कोशिश सदा यही रहती थी कि बिना मेहनत किए खाने को मिल जाए। पेड़ के आसपास खोह में खरगोश रहते थे। जब भी खरगोश बाहर आते तो बाज ऊंची उड़ान भरते और एकाध खरगोश को उठाकर ले जाते।

एक दिन कौए ने सोचा, ‘वैसे तो ये चालाक खरगोश मेरे हाथ आएंगे नहीं, अगर इनका नर्म मांस खाना है तो मुझे भी बाज की तरह ऊंची उड़ान भरने होगी और एकाएक झपट्टा मारकर उन्हें पकड़ लूंगा।

दूसरे दिन कौए ने भी एक खरगोश को दबोचने की बात सोचकर ऊंची उड़ान भरी। फिर उसने खरगोश को पकड़ने के लिए बाज की तरह जोर से झपट्टा मारा।

अब भला कौआ बाज का क्या मुकाबला करता। खरगोश ने उसे देख लिया और झट वहां से भागकर चट्टान के पीछे छिप गया।

कौआ अपनी ही झोंक में उस चट्टान से जा टकराया। नतीजा, उसकी चोंच और गर्दन टूट गईं और उसने वहीं तड़प कर दम तोड़ दिया।

सीखः नकल करने के लिए भी अकल का इस्तेमाल करना चाहिए।

घंटीधारी ऊंट

एक बार की बात है कि एक गांव में एक जुलाहा रहता था। वह बहुत गरीब था। उसकी शादी बचपन में ही हो गई थी। बीवी आने के बाद घर का खर्चा बढ़ना था। यही चिन्ता उसे खाए जाती। फिर गांव में अकाल भी पड़ा। लोग कंगाल हो गए।

जुलाहे की आय एकदम खत्म हो गई। उसके पास शहर जाने के सिवा और कोई चारा न रहा। शहर में उसने कुछ महीने छोटे—मोटे काम किए। थोड़ा—सा पैसा अंटी में आ गया और गांव से खबर आने पर कि अकाल समाप्त हो गया है, वह गांव की ओर चल पड़ा।

रास्ते में उसे एक जगह सड़क किनारे एक ऊंटनी नजर आई। ऊंटनी बीमार नजर आ रही थी और वह गर्भवती थी। उसे ऊंटनी पर दया आ गई। वह उसे अपने साथ अपने घर ले आया।

घर में ऊंटनी को ठीक चारा व घास मिलने लगी तो वह पूरी तरह स्वस्थ हो गई और समय आने पर उसने एक स्वस्थ बच्चे को जन्म दिया। बच्चा उसके लिए बहुत भाग्यशाली साबित हुआ।

कुछ दिनों बाद ही एक कलाकार गांव के जीवन पर चित्र बनाने उसी गांव में आया। पेंटिंग के ब्रुश बनाने के लिए वह जुलाहे के घर आकर ऊंट के बच्चे की दुम के बाल ले जाता। लगभग दो सप्ताह गांव में रहने के बाद चित्र बनाकर कलाकार चला गया।

इधर ऊंटनी खूब दूध देने लगी तो जुलाहा उसे बेचने लगा। एक दिन वही कलाकार गांव लौटा और जुलाहे को काफी सारे पैसे दे गया, क्योंकि कलाकार ने उन चित्रों से बहुत पुरस्कार जीते थे और उसके चित्र अच्छी कीमतों में बिके थे।

जुलाहा उस ऊंट बच्चे को अपने भाग्य का सितारा मानने लगा। कलाकार से मिली राशि के कुछ पैसों से उसने ऊंट के गले के लिए सुंदर—सी घंटी खरीदी और पहना दी। इस प्रकार जुलाहे के दिन फिर गए। वह अपनी दुल्हन को भी एक दिन गौना करके ले आया।

ऊंटों के जीवन में आने से जुलाहे के जीवन में जो सुख आया, उससे जुलाहे के दिल में इच्छा हुई कि जुलाहे का धंधा छोड़ क्यों न वह ऊंटों का व्यापारी ही बन जाए। उसकी पत्नी भी उससे पूरी तरह सहमत हुई। अब तक वह भी गर्भवती हो गई थी और अपने सुख के लिए ऊंटनी व ऊंट बच्चे की आभारी थी।

जुलाहे ने कुछ ऊंट खरीद लिए। उसका ऊंटों का व्यापार चल निकला। अब उस जुलाहे के पास ऊंटों की एक बड़ी टोली हर समय रहती। उन्हें चरने के लिए दिन को छोड़ दिया जाता। ऊंट बच्चा जो अब जवान हो चुका था उनके साथ घंटी बजाता जाता।

एक दिन घंटीधारी की तरह ही के एक युवा ऊंट ने उससे कहा, भैया! तुम हमसे दूर—दूर क्यों रहते हो?

घंटीधारी गर्व से बोला श्वाह तुम एक साधारण ऊंट हो। मैं घंटीधारी मालिक का दुलारा हूं। मैं अपने से ओछे ऊंटों में शामिल होकर अपना मान नहीं खोना चाहता।''

उसी क्षेत्र में वन में एक शेर रहता था। शेर एक ऊंचे पत्थर पर चढकर ऊंटों को देखता रहता था। उसे एक ऊंट और ऊंटों से अलग—थलग रहता नजर आया।

जब शेर किसी जानवर के झुंड पर आक्रमण करता है तो किसी अलग—थलग पड़े को ही चुनता है। घंटीधारी की आवाज के कारण यह काम भी सरल हो गया था। बिना आंखों देखे वह घंटी की आवाज पर घात लगा सकता था।

दूसरे दिन जब ऊंटों का दल चरकर लौट रहा था तब घंटीधारी बाकी ऊंटों से बीस कदम पीछे चल रहा था। शेर तो घात लगाए बैठा ही था। घंटी की आवाज को निशाना बनाकर वह दौड़ा और उसे मारकर जंगल में खींच ले गया। ऐसे घंटीधारी के अहंकार ने उसके जीवन की घंटी बजा दी।

सीखः जो स्वयं को ही सबसे श्रेष्ठ समझता है, उसका अहंकार शीघ्र ही उसे ले डूबता है।

गजराज व मूषकराज

प्राचीनकाल में एक नदी के किनारे बसा नगर व्यापार का केन्द्र था। फिर आए उस नगर के बुरे दिन, जब एक वर्ष भारी वर्षा हुई। नदी ने अपना रास्ता बदल दिया।

लोगों के लिए पीने का पानी न रहा और देखते ही देखते नगर वीरान हो गया अब वह जगह केवल चूहों के लायक रह गई। चारों ओर चूहे ही चूहे नजर आने लगे।

चूहों का पूरा साम्राज्य ही स्थापित हो गया। चूहों के उस साम्राज्य का राजा बना मूषकराज चूहा। चूहों का भाग्य देखो, उनके बसने के बाद नगर के बाहर जमीन से एक पानी का स्त्रोत फूट पड़ा और वह एक बड़ा जलाशय बन गया।

नगर से कुछ ही दूर एक घना जंगल था। जंगल में अनगिनत हाथी रहते थे। उनका राजा गजराज नामक एक विशाल हाथी था। उस जंगल क्षेत्र में भयानक सूखा पड़ा। जीव—जन्तु पानी की तलाश में इधर—उधर मारे—मारे फिरने लगे। भारी—भरकम शरीर वाले हाथियों की तो दुर्दशा हो गई।

हाथियों के बच्चे प्यास से व्याकुल होकर चिल्लाने व दम तोड़ने लगे। गजराज खुद सूखे की समस्या से चिंतित था और हाथियों का कष्ट जानता था। एक दिन गजराज की मित्र चील ने आकर खबर दी कि खंडहर बने नगर के दूसरी ओर एक जलाशय है।

गजराज ने सबको तुरंत उस जलाशय की ओर चलने का आदेश दिया। सैकड़ों हाथी प्यास बुझाने डोलते हुए चल पड़े। जलाशय तक पहुंचने के लिए उन्हें खंडहर बने नगर के बीच से गुजरना पड़ा।

हाथियों के हजारों पैर चूहों को रौंदते हुए निकल गए। हजारों चूहे मारे गए। खंडहर नगर की सड़कें चूहों के खून—मांस के कीचड़ से लथपथ हो गईं। मुसीबत यहीं खत्म नहीं हुई। हाथियों का दल फिर उसी रास्ते से लौटा। हाथी रोज उसी मार्ग से पानी पीने जाने लगे।

काफी सोचने—विचारने के बाद मूषकराज के मंत्रियों ने कहा, श्महाराज, आपको ही जाकर गजराज से बात करनी चाहिए। वह दयालु हाथी है।'' मूषकराज हाथियों के वन में गया। एक बडे पेड़ के नीचे गजराज खड़ा था।

मूषकराज उसके सामने के बड़े पत्थर के ऊपर चढ़ा और गजराज को नमस्कार करके बोला, श्गजराज को मूषकराज का नमस्कार। हे महान हाथी, मैं एक निवेदन करना चाहता हूं।''

आवाज गजराज के कानों तक नहीं पहुंच रही थी। दयालु गजराज उसकी बात सुनने के लिए नीचे बैठ गया और अपना एक कान पत्थर पर चढ़े मूषकराज के निकट ले जाकर बोला, श्नन्हे मियां, आप कुछ कह रहे थे। कृपया फिर से कहिए।''

मूषकराज बोला, श्हे गजराज, मुझे चूहा कहते हैं। हम बड़ी संख्या में खंडहर बनी नगरी में रहते हैं। मैं उनका मूषकराज हूं। आपके हाथी रोज जलाशय तक जाने के लिए नगर के बीच से गुजरते हैं। हर बार उनके पैरों तले कुचले जाकर हजारों चूहे मरते हैं। यह मूषक संहार बंद न हुआ तो हम नष्ट हो जाएंगे।''

गजराज ने दुखभरे स्वर में कहा, श्मूषकराज, आपकी बात सुन मुझे बहुत शोक हुआ। हमें ज्ञान ही नहीं था कि हम इतना अनर्थ कर रहे हैं। हम नया रास्ता ढूंढ लेंगे।''

मूषकराज कृतज्ञता भरे स्वर में बोला, श्गजराज, आपने मुझ जैसे छोटे जीव की बात ध्यान से सुनी। आपका धन्यवाद। गजराज, कभी हमारी जरूरत पड़े तो याद जरूर कीजिएगा।''

गजराज ने सोचा कि यह नन्हा जीव हमारे किसी काम क्या आएगा। सो, उसने केवल मुस्कराकर मूषकराज को विदा किया।

कुछ दिन बाद पड़ोसी देश के राजा ने सेना को मजबूत बनाने के लिए उसमें हाथी शामिल करने का निर्णय लिया। राजा के लोग हाथी पकड़ने आए। जंगल में आकर वे चुपचाप कई प्रकार के जाल बिछाकर चले जाते थे। सैकड़ों हाथी पकड़ लिए गए।

एक रात हाथियों के पकड़े जाने से चिंतित गजराज जंगल में घूम रहे थे कि उनका पैर सूखी पत्तियों के नीचे छल से दबाकर रखे रस्सी के फंदे में फंस जाता है। जैसे ही गजराज ने पैर आगे बढ़ाया रस्सा कस गया। रस्से का दूसरा सिरा एक पेड़ के मोटे तने से मजबूती से बंधा था। गजराज चिंघाड़ने लगा। उसने अपने सेवकों को पुकारा, लेकिन कोई नहीं आया। कौन फंदे में फंसे हाथी के निकट आएगा?

एक युवा जंगली भैंसा गजराज का बहुत आदर करता था। जब वह भैंसा छोटा था तो एक बार वह एक गड्ढे में जा गिरा था। उसकी चिल्लाहट सुनकर गजराज ने उसकी जान बचाई थी। चिंघाड़ सुनकर वह दौडा और फंदे में फंसे गजराज के पास पहुंचा। गजराज की हालत देख उसे बहुत धक्का लगा। वह चीखा, श्यह कैसा अन्याय है? गजराज, बताइए क्या करूं? मैं आपको छुड़ाने के लिए अपनी जान भी दे सकता हूं।''

गजराज बोले, श्बेटा, तुम बस दौड़कर खंडहर नगरी जाओ और चूहों के राजा मूषकराज को सारा हाल बताना। उससे कहना कि मेरी सारी आस टूट चुकी है।

भैंसा अपनी पूरी शक्ति से दौड़ा—दौड़ा मूषकराज के पास गया और सारी बात बताई। मूषकराज तुरंत अपने बीस—तीस सैनिकों के साथ भैंसे की पीठ पर बैठा और वो शीघ्र ही गजराज के पास पहुंचे। चूहे भैंसे की पीठ पर से कूदकर फंदे की रस्सी कुतरने लगे। कुछ ही देर में फंदे की रस्सी कट गई व गजराज आजाद हो गए।

सीखः आपसी प्रेम और सद्‌भाव हमेशा एक—दूसरे के कष्टों को हर लेते हैं।

ढोल की पोल

एक बार एक जंगल के निकट दो राजाओं के बीच घोर युद्ध हुआ। एक जीता, दूसरा हारा। सेनाएं अपने नगरों को लौट गईं।

बस, सेना का एक ढोल पीछे रह गया। उस ढोल को बजा—बजाकर सेना के साथ गए भांड व चारण रात को वीरता की कहानियां सुनाते थे।

युद्ध के बाद एक दिन आंधी आई। आंधी के जोर में वह ढोल लुढ़कता—लुढ़कता एक सूखे पेड़ के पास जाकर टिक गया। उस पेड़ की सूखी टहनियां ढोल से इस तरह से सट गईं थीं कि तेज हवा चलते ही ढोल पर टकरा जाती थीं और ढमाढम—ढमाढम की आवाज गुंजायमान होती।

एक सियार उस क्षेत्र में घूमता था। उसने ढोल की आवाज सुनी। वह बड़ा भयभीत हुआ। ऐसी अजीब आवाज पहले उसने किसी जानवर को बोलते नहीं सुनी थी। वह सोचने लगा कि यह कैसा जानवर है, जो ऐसी जोरदार बोली बोलता हैं, श्ढमाढमश्। सियार छिपकर ढोल को देखता रहता, यह जानने के लिए कि यह जीव उड़ने वाला है या चार टांगों पर दौड़ने वाला।

एक दिन सियार झाड़ी के पीछे छिपकर ढोल पर नजर रखने के लिए बैठ गया। तभी पेड़ से नीचे उतरती हुई एक गिलहरी कूदकर ढोल पर उतरी। हल्की—सी ढम की आवाज भी हुई। गिलहरी ढोल पर बैठी दाना कुतरती रही।

सियार बड़बड़ाया श्ओह! तो यह कोई हिंसक जीव नहीं हैं। मुझे भी डरना नहीं चाहिए।''

सियार फूंक—फूंककर कदम रखता ढोल के निकट गया। उसे सूंघा। ढोल का उसे न कहीं सिर नजर आया और न पैर। तभी हवा के झोंके से टहनियां ढोल से टकराईं। ढम की आवाज हुई और सियार उछलकर पीछे जा गिरा।

अब समझ आया।'' सियार उठने की कोशिश करता हुआ बोला, श्यह तो बाहर का खोल है। जीव इस खोल के अंदर है। आवाज बता रही हैं कि जो कोई जीव इस खोल के भीतर रहता है, वह मोटा—ताजा होना चाहिए। चर्बी से भरा शरीर। तभी ये ढम—ढम की जोरदार बोली बोलता है।''

अपनी मांद में घुसते ही सियार बोला, श्ओ सियारी! दावत खाने के लिए तैयार हो जा। एक मोटे—ताजे शिकार का पता लगाकर आया हूं।''

सियारी पूछने लगी, श्तुम उसे मारकर क्यों नहीं लाए?'

सियार ने उसे झिड़की दी, क्योंकि मैं तेरी तरह मूर्ख नहीं हूं। वह एक खोल के भीतर छिपा बैठा है। खोल ऐसा है कि उसमें दो तरफ सूखी चमड़ी के दरवाजे हैं। मैं एक तरफ से हाथ डाल उसे पकड़ने की कोशिश करता तो वह दूसरे दरवाजे से न भाग जाता?'

चांद निकलने पर दोनों ढोल की ओर गए। जब वह निकट पहुंच ही रहे थे कि फिर हवा से टहनियां ढोल पर टकराईं और ढम—ढम की आवाज निकली। सियार, सियारी के कान में बोला, श्सुनी उसकी आवाज? जरा सोच जिसकी आवाज ऐसी गहरी है, वह खुद कितना मोटा—ताजा होगा।''

दोनों ढोल को सीधा कर उसके दोनों ओर बैठे और लगे दांतों से ढोल के दोनों चमड़ी वाले भाग के किनारे फाड़ने। जैसे ही चमड़ियां कटने लगीं, सियार बोला, श्होशियार रहना। एक साथ हाथ अंदर डाल शिकार को दबोचना है।'' दोनों ने ‘हूं' की आवाज के साथ हाथ ढोल के भीतर डाले और अंदर टटोलने लगे। अंदर कुछ नहीं था। एक—दूसरे के हाथ ही पकड़ में आए। दोनों चिल्लाए श्है।''! यहां तो कुछ नहीं है।'' और वे माथा पीटकर रह गए।

सीखः शेखी मारने वाले भी ढोल की तरह ही अंदर से खोखले होते हैं।

बंदर का कलेजा

किसी नदी के किनारे एक बहुत बड़ा पेड़ था। उस पर एक बंदर रहता था। उस पेड़ पर बड़े मीठे—रसीले फल लगते थे। बंदर उन्हें भर पेट खाता और मौज उड़ाता। वह अकेला ही मजे से दिन गुजार रहा था।

एक दिन एक मगर नदी से निकलकर उस पेड़ के तले आया जिस पर बंदर रहता था। पेड़ पर से बंदर ने पूछा, ‘‘तू कौन है, भाई ?''

मगर ने ऊपर बंदर की ओर देखकर कहा, ‘‘मैं मगर हूं। बड़ी दूर से आया हूं। खाने की तलाश में यों ही घूम रहा हूं।''

बन्दर ने कहा, ‘‘यहां पर खाने की कोई कमी नहीं है। इस पेड़ पर ढेरों फल लगते हैं। चखकर देखो। अच्छे लगे तो और दूंगा। जितने जी चाहे खाओ।'' यह कहकर बन्दर ने कुछ फल तोड़कर मगर की ओर फेंक दिए।

मगर ने उन्हें चखकर कहा, ‘‘वाह, यह तो बड़े मजेदार फल हैं।''

बन्दर ने और भी ढेर से फल गिरा दिए। मगर उन्हें भी चट कर गया और बोला, ‘‘कल फिर आऊंगा। फल खिलाओगे ?''

बन्दर ने कहा, ‘‘क्यों नहीं ? तुम मेरे मेहमान हो। रोज आओ और जितने जी चाहे खाओ।''

मगर अगले दिन आने का वादा करके चला गया।

क्या हुआ दूसरे दिन?

दूसरे दिन मगर फिर आया। उसने भर पेट फल खाए और बंदर के साथ गपशप करता रहा। बंदर अकेला था। एक दोस्त पाकर बहुत खुश हुआ।

अब तो मगर रोज आने लगा। मगर और बंदर दोनों भरपेट फल खाते और बड़ी देर तक बातचीत करते रहते।

एक दिन वो यों ही अपने—अपने घरों की बातें करने लगे। बातों—बातों में बंदर ने कहा, ‘‘मगर भाई, मैं तो दुनिया में अकेला हूं और तुम्हारे जैसा मित्र पाकर अपने को भाग्यशाली समझता हूं।''

मगर ने कहा, ‘‘मैं तो अकेला नहीं हूं , भाई। घर में मेरी पत्नी है। नदी के उस पार हमारा घर है।''

बंदर ने कहा, ‘‘तुमने पहले क्यों नहीं बताया कि तुम्हारी पत्नी है। मैं भाभी के लिए भी फल भेजता।''

मगर ने कहा कि वह बड़े शौक से अपनी पत्नी के लिए रसीले फल ले जाएगा। जब मगर जाने लगा तो बंदर ने उसकी पत्नी के लिए बहुत से पके हुए फल तोड़कर दे दिए।

उस दिन मगर अपनी पत्नी के लिए बंदर की यह भेंट ले गया।

क्या मगर की पत्नी को फल पसंद आए, पढ़ें अगले पेज पर

मगर की पत्नी को फल बहुत पसन्द आए। उसने मगर से कहा कि वह रोज इसी तरह रसीले फल लाया करे। मगर ने कहा कि वह कोशिश करेगा।

धीरे—धीरे बंदर और मगर में गहरी दोस्ती हो गई। मगर रोज बंदर से मिलने जाता। जी भरकर फल खाता और अपनी पत्नी के लिए भी ले जाता।

मगर की पत्नी को फल खाना अच्छा लगता था।, पर अपने पति का देर से घर लौटना पसंद नहीं था। वह इसे रोकना चाहती थी। एक दिन उसने कहा, ‘‘मुझे लगता है तुम झूठ बोलते हो। भला मगर और बंदर में कहीं दोस्ती होती है ? मगर तो बंदर को मार कर खा जाते हैं।'

मगर ने कहा, ‘‘मैं सच बोल रहा हूं। वह बंदर बहुत भला है। हम दोनों एक दूसरे को बहुत चाहते हैं। बेचारा रोज तुम्हारे लिए इतने सारे बढ़िया फल भेजता है। बंदर मेरा दोस्त न होता तो मैं फल कहां से लाता ? मैं खुद तो पेड़ पर चढ़ नहीं चढ़ सकता।''

मगर की पत्नी बड़ी चालाक थी। उसने मन में सोचा, ‘‘अगर वह बंदर रोज—रोज इतने मीठे फल खाता है तो उसका मांस कितना मीठा होगा। यदि वह मिल जाए तो कितना मजा आ जाए।' यह सोचकर उसने मगर से कहा, ‘‘एक दिन तुम अपने दोस्त को घर ले आओ। मैं उससे मिलना चाहती हूं।''

मगर ने कहा, ‘‘नहीं, नहीं, यह कैसे हो सकता है ? वह तो जमीन पर रहने वाला जानवर है। पानी में तो डूब जाएगा।''

उसकी पत्नी ने कहा, ‘‘तुम उसको न्योता तो दो। बंदर चालाक होते हैं। वह यहां आने का कोई उपाय निकाल ही लेगा।''

मगर बंदर को न्योता नहीं देना चाहता था। परन्तु उसकी पत्नी रोज उससे पूछती कि बंदर कब आएगा। मगर कोई न कोई बहाना बना देता। ज्यों—ज्यों दिन गुजरते जाते बंदर के मांस के लिए मगर की पत्नी की इच्छी तीव्र होती जाती।

मगर की पत्नी ने एक तरकीब सोची।

एक दिन उसने बीमारी का बहाना किया और ऐसे आंसू बहाने लगी मानो उसे बहुत दर्द हो रहा है। मगर अपनी पत्नी की बीमारी से बहुत दुखी था। वह उसके पास बैठकर बोला, ‘‘बताओ मैं तुम्हारे लिए क्या करूं ?''

पत्नी बोली, ‘‘मैं बहुत बीमार हूं। मैंने जब वैद्य से पूछा तो वह कहता है कि जब तक मैं बंदर का कलेजा नहीं खाऊंगी तब तक मैं ठीक नहीं हो सकूंगी।''

‘‘बंदर का कलेजा ?'' मगर ने आश्चर्य से पूछा।

मगर की पत्नी ने कराहते हुए कहा, ‘‘हां, बंदर का कलेजा। अगर तुम चाहते हो कि मैं बच जाऊं तो अपने मित्र बंदर का कलेजा लाकर मुझको खिलाओ।''

मगर ने दुखी होकर कहा, ‘‘यह भला कैसे हो सकता है ? मेरा वही तो एक दोस्त है। उसको भला मैं कैसे मार सकता हूं ?''

पत्नी ने कहा, ‘‘अच्छी बात है। अगर तुझको तुम्हारा दोस्त ज्यादा प्यारा है तो उसी के पास जाकर कहो। तुम तो चाहते ही हो कि मैं मर जाऊं।''

मगर संकट में पड़ गया। उसकी समझ में नहीं आया कि कि वह क्या करे। बंदर का कलेजा लाता है तो उसका प्यारा दोस्त मारा जाता है। नहीं लाता है तो उसकी पत्नी मर जाती है। वह रोने लगा और बोला, ‘‘मेरा एक ही तो दोस्त है। उसकी जान मैं कैसे ले सकता हूं ?''

पत्नी ने कहा, ‘‘तो क्या हुआ ? तुम मगर हो। मगर तो जीवों को मारते ही हैं।''

मगर और जोर—जोर से रोने लगा। उसकी बुद्धि काम नहीं कर रही थी। पर इतना वह जरूर चाहता था कि वह अपनी पत्नी का जीवन जैसे भी हो बचाएगा।

यह सोचकर वह बंदर के पास गया। बंदर मगर का रास्ता देख रहा था। उसने पूछा, ‘‘क्यों दोस्त, आज इतनी देर कैसे हो गई ? सब कुशल तो है न ?''

मगर ने कहा —'' मेरा और मेरी पत्नी का झगड़ा हो गया है। वह कहती है कि मैं तुम्हारा दोस्त नहीं हूं क्योंकि मैंने तुम्हें अपने घर नहीं बुलाया। वह तुमसे मिलना चाहती है। उसने कहा है कि मैं तुमको अपने साथ ले आऊं। अगर नहीं चलोगे तो वह मुझसे फिर झगड़ेगी।''

बन्दर ने हंसकर कहा, ‘‘बस इतनी—सी बात थी ? मैं भी भाभी से मिलना चाहता हूं। पर मैं पानी में कैसे चलूंगा ? मैं तो डूब जाऊंगा।''

मगर ने कहा, ‘‘उसकी चिंता मत करो। मैं तुमको अपनी पीठ पर बिठाकर ले जाऊंगा।'' बंदर राजी हो गया। वह पेड़ से उतरा और उछलकर मगर की पीठ पर सवार हो गया।

नदी के बीच में पहुंचकर मगर पानी में डुबकी लगाने को था कि बंदर डर गया और बोला, ‘‘क्या कर रहे हो भाई ? डुबकी लगाई तो मैं डूब जाऊंगा।''

मगर ने कहा, ‘‘मैं तो डुबकी लगाऊंगा। मैं तुमको मारने ही तो लाया हूं।''

यह सुनकर बंदर संकट में पड़ गया। उसने पूछा, ‘क्यों भाई, ‘‘मुझे क्यों मारना चाहते हो ? मैंने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है ?''

मगर ने कहा, ‘‘मेरी पत्नी बीमार है। वैद्य ने उसका एक ही इलाज बताया है। यदि उसको बंदर का कलेजा खिलाया जाए तो वह बच जाएगी। यहां और कोई बंदर नहीं है। मैं तुम्हारा ही कलेजा अपनी पत्नी को खिलाऊंगा।''

पहले तो बंदर भौचक्का—सा रह गया। फिर उसने सोचा कि अब केवल चालाकी से ही अपनी जान बचाई जा सकती है उसने कहा, ‘‘मेरे दोस्त ! यह तुमने पहले ही क्यों नहीं बताया? मैं तो भाभी को बचाने के लिए खुशी—खुशी अपना कलेजा दे देता। लेकिन वह तो नदी किनारे पेड़ पर रखा है। मैं उसे हिफाजत के लिये वहीं रखता हूं। तुमने पहले ही बता दिया होता तो मैं उसे साथ ले आता।''

‘‘यह बात है ?'' मगर बोला।

‘‘हां जल्दी वापस चलो। कहीं तुम्हारी पत्नी की बीमारी बढ़ न जाए।''

मगर वापस पेड़ की ओर वापस तैरने लगा और बड़ी तेजी से वहां पहुंच गया।

किनारे पहुंचते ही बंदर छलांग मारकर पेड़ पर चढ़ गया। उसने हंसकर मगर से कहा, ‘‘जाओ मूर्खराज अपने घर लौट जाओ। अपनी दुष्ट पत्नी से कहना कि तुम दुनिया के सबसे बड़े मूर्ख हो। भला कहीं कोई अपना कलेजा निकाल कर अलग रख सकता है?''

इस कहानी से शिक्षा मिलती है कि अनजान लोगों पर कभी भरोसा नहीं करना चाहिए।