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कर्मवीर - 2

कर्मवीर

(उपन्यास)

विनायक शर्मा

अध्याय 2

अगले दिन सारे गाँव वाले महावीर सिंह को बधाई देने के लिए उनके घर आये। उन्होंने भी सभी की मुबारकबाद स्वीकार की। सभी लोग उनके बेटे को यही आशीर्वाद दे रहे थे कि ये भी उन्हीं की तरह बने। उन्हीं की तरह ये भी लोगों की सेवा पूरे मनोयोग से करे और लोगों के साथ ऐसा ही सामंजस्य बना के रखे। उसका नामकरण करने की जब बारी आई तो गाँव के एक बुजुर्ग ने ये सुझाव दिया कि महावीर तो अपने स्वभाव से महान और वीर दोनों हो गया लेकन अब ज़माना बहुत तेज़ी से बदल रहा रही इस जमाने में खैर इस जमाने क्या किसी भी जमाने में कर्म ही प्रधान होता है। इसलिए ये अपने कर्मों में वीर हो ऐसा महावीर भी चाहता है इसलिए इसका नाम कर्मवीर रखा जाए।

उनका ये प्रस्ताव सुनकर महावीर सिंह भी बहुत खुश हुए उन्हें ये लग ही रहा था कि अगर लड़का हुआ तो किसी इसी तरह का नाम रखा जाएगा। उस बुजुर्ग ने उनकी समस्या ही जैसे ख़त्म कर दी। कुछ और सोचना ही नहीं बाकी रह गया था। महावीर का बेटा कर्मवीर हो गया और नामकरण के दिन एक बड़े भोज का आयोजन किया गया। सारे गाँव वाले उस दिन इकठ्ठा उए और बालक को एक बार फिर से आशीर्वचन देते हुए विदा हुए।

महावीर सिंह का परिवार पूरी तरह से खुश था। मंगरू, महावीर सिंह और उनकी पत्नी तो खुश थीं ही साथ साथ उनके गाय बैल और शेरू भी ख़ुशी में झूमते नजर आ रहे थे। कर्मवीर का पालन पोषण केवल उसके माँ बाप और मंगरू ही नहीं बल्कि शेरू भी बहुत अच्छे से करता था। वो उसे तरह तरह के खेल दिखाने की कोशिश करता लेकिन कर्मवीर इतना छोटा था कि उसे ज्यादा कुछ समझ नहीं आता था। महवीर सिंह कहते थे कि इसे साल भर या छः महीने का हो जाने दो उसके बाद ये तुम्हारे साथ जी भर के खेलेगा। महावीर सिंह के इतना कहते ही शेरू शांत हो जाता और एक किनारे जाकर बैठ जाता था।

कर्मवीर धीरे धीरे बड़ा होने लगा और ज़माना भी धीरे धीरे बदलने लग गया था। हरेक गाँव से पक्की सडक निकल रही थी ये लोगों के लिए बहुत ही ख़ुशी की बात थी। लोग बहुत खुश थे कि अब एक जगह से दूसरी जगह जाने में अब कम समय लगेगा। जिस गाँव पर नेताजी की जितनी ज्यादा मेहरबानी होती थी उस गाँव को उतनी ज्यादा सुविधा मिल जाती थी। पक्की सड़क अभी महावीर सिंह के गाँव तक नहीं आई थी। क्यों नहीं आई थी इसका किसी को कुछ पता नहीं था।

पक्की सड़क बनने से लोगों के लिए शहर का रास्ता भी खुल गया। कुछ लोग गाँव से शहर की ओर भी जाने लग गए। ये वो दौड़ था जब कर्मवीर बड़ा हो रहा था और महावीर सिंह बूढ़े हो रहे थे। कर्मवीर जब करीब करीब चार साल का हो गया था तब उसे स्कूल भेजने कि की तैयारी हो रही थी तब एक दिन उनके गाँव का एक आदमी मनोहर आया लेकिन अब उसे लोग शहरी के नाम से जानते थे। मनोहर का नाम शहरी इसलिए पड़ा क्योंकि तीन साल पहले वो शहर गया था और अब साल में केवल एक या दो बार किसिस पर्व या त्यौहार में वो घर आता था। शहरी ने जब देखा कि कर्मवीर को तैयार करके महावीर सिंह कहीं ले जा रहे हैं तो उसने कहा,

“महावीर चाचा आपके पास तो भगवान की दया से सबकुछ है, पैसे की भी कोई कमी नहीं है फिर अपने बच्चे को यहाँ गाँव के सरकारी स्कूल में क्यों पढ़ा रहे हैं? चलिए अभी कुछ दिन पढ़ा लीजिये अभी तो बहुत बच्चा है लेकिन जब और बड़ा हो जाए दस बारह साल का तब इसे मेरे साथ शहर भेज दीजियेगा वहाँ एक से एक बड़े प्राइवेट स्कूल हैं वहाँ बहुत अच्छी पढाई होती है पढ़कर बहुत बड़ा आदमी बन जाएगा। देखिये मैं ही यहाँ रहता था तो कैसे जिंदगी जीता था आज देखिये मेरे पहनावे को कितना मस्त रहता हूँ मैं मेरे जैसा शायद ही हो कोई इस गाँव में मैं तो और सब युवाओं को भी कहता हूँ कि चले मेरे साथ शहर लेकिन कोई गाँव छोड़ने को तैयार ही नहीं होता न जाने गाँव ने क्या दिया है। मैं तो शहर जाकर बहुत खुश हूँ और ये समझ गया हूँ कि जिंदगी में तरक्की करना है तो शहर ही एकमात्र विकल्प है गाँव में रहकर सड़ने से कुछ भी हासिल होने वाला नहीं है।” शहरी की बात सुनकर महावीर सिंह का चेहरा तमतमा गया। उन्हें लगा जैसे तुरंत उसके गाल पर एक थप्पड़ रसीद कर दें लेकिन चूँकि वो स्वभाव से बहुत ही मृदुल थे इसलिए उन्होंने उसे समझाकर ही जवाब देना ज्यादा उचित समझा।

“मैं अपने बेटे को पढने के लिए गाँव से बाहर तभी भेजूँगा जब यहाँ इसकी पढ़ाई का कोई विकल्प नहीं होगा। और पढ़ लिख जाने के बाद भी ये अपने गाँव में आकर ही अपने गाँव की सेवा करेगा जैसे मैंने की है। यहाँ जो भाई चारा है क्या वो शहर में है? यहाँ हमारे परिवार का कोई भी एक आदमी बीमार पड़ता है तो पूरा गाँव दौड़ा आता है। तुम्हारे शहर में तुम्हें पहचानते ही कितने लोग होंगे मदद की बात तो दूर ही है। और रही बात पहनावे की तो ये महंगी पतलून और कमीज पहन लेने से ये पता नहीं चलता कि तुम खुश हो। यहाँ जब पूरा परिवार एक साथ बैठकर दो रोटी कम भी खाता है न तो एक अलग ही सुकून और ख़ुशी मिलती है। वो ख़ुशी शहर में अकेले होटल में बैठकर खाना खाने में बिल्कुल भी नहीं है। तुम शहर का यहाँ गुणगान कर सकते हो लेकिन हमारे गाँव वाले यहीं खुश हैं वो यहाँ छोड़कर कहीं नहीं जाएँगे ना ही मेरा बेटा कहीं जाएगा। अब तुम अपने काम के लिए चले जाओ या यहाँ कोई काम नहीं है तो शहर ही चले जाओ।” महावीर सिंह ने शहरी को बहुत ही खरी खोटी सुना दी। उसका मुँह उतर गया। वो वहाँ से चला गया लेकिन जाते जाते एक नसीहत और दे गया।

“ठीक है चाचा आपकी मर्जी आप चाहे जो करें। आपका बेटा है मुझे क्या मुझे जो सही लगा मैंने तो बस आपको सुझाव दे दिया। अब आगे आपकी मर्जी।”

इन सारी बातों को कर्मवीर वहीं खड़े खड़े सुन रहा था। उसके बालमन में ढेरों सवाल उठने लगे। उसने किसी से कुछ भी पूछना सही नहीं समझा। वो ये देखता था कि जो भी उसके घर पर आता है वो उसके बाबूजी से बड़े अदब से बात करता है, बहुत ही ज्यादा इज्जत देता है इसलिए अभी भी जो कुछ भी हुआ उसमें उसके बाबूजी ही सही होंगे और वो उनकी ही बात पर आगे भी चलता रहेगा। उसके मन में अब एक ही सपना था कि जैसी उसकी बाबूजी की इज्जत है लोग उसे भी बड़े होने पर उसी तरह इज्जत देते रहें। महावीर सिंह भी उसे यही समझाते रहते थे कि सेवा ही सबसे बड़ा धर्म है हमेशा ये कोशिश करना चाहिए कि हम जितना भी हो सके दूसरों की सेवा करें। जितनी हमसे मदद हो सके उसमें हम पीछे नहीं हटे।

महावीर सिंह जितना बोलते थे उससे ज्यादा कर के भी दिखाते थे अपने कर्मवीर को ताकि सचमुच में वो कर्मवीर बन पाए। महावीर सिंह को ये बात पता थी कि जिस तरह का बीज बोया जाएगा उसी तरह का फल भी उगेगा। इसीलिए उन्होंने सद्भाव और सेवा के बीज अपने बालक के मन में बो दिए थे और बराबर उसकी सिंचाई भी करते रहते थे। उन्हें पता था कि भले पेड़ बड़ा होने पर वो फल देखने के लिए हों न हों लेकिन जब फल अच्छे निकलेंगे तो माली को जरूर याद किया जाएगा। वो पूरे जतन से अच्छे संस्कारों को भरने में लग गए थे कर्मवीर के अन्दर। और कमोवेश उन्हें सफलता भी मिल ही रही थी।

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