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कर्मवीर - 3

कर्मवीर

(उपन्यास)

विनायक शर्मा

अध्याय 3

कर्मवीर के विद्यालय का आज पहला दिन था। महावीर सिंह उसे अपने साथ लेकर आये थे। महावीर सिंह ने मास्टर साहब से जाकर खुद बात की और ये बताया कि इसे किताबी शिक्षा के साथ साथ दुनियादारी का ज्ञान भी दिया जाना चाहिए। उसे बताया जाना चाहिए कि किस व्यक्ति के साथ कैसे व्यवहार किया जाता है। बड़ों के साथ कैसे मिलना और छोटों से कैसे बात करनी है। ये सब अगर विद्यालय में भी बताया जायेगा तो उसके चरित्र का निर्माण बेहतर ढंग से होगा। मास्टर जी ने भी महावीर सिंह को ये आश्वस्त कर दिया कि अब कर्मवीर के शिक्षा के पूरी जिम्मेदारी उनपर है, वो बहुत ही अच्छे से उसका ख्याल भी रखेंगे और पढाई भी करवाएंगे। किसी भी शिकायत का कोई भी मौका नहीं आएगा।

“बस बस आपसे यही उम्मीद थी अब हम अपनी उम्मीद आपके हाथ में सौंप रहे हैं।” इतना कहकर महावीर सिंह कर्मवीर का हाथ मास्टर जी के हाथ में थमा के जाने लगे। कर्मवीर ने उनकी धोती पकड़ ली और फिर उनके वहीं रहने की जिद करने लगा। उन्होंने कहा कि घर पर और भी काम है वो तुरंत ही उसे लेने आ जायेंगे लेकिन वो नहीं मान रहा था और जोर जोर से रोने लगा। उन्होंने मास्टर जी से कहा कि आज वो यहीं रहेंगे कर्मवीर के साथ ही और इतना कहकर वो भी मास्टर जी और कर्मवीर के साथ बरामदे में घुस गए।

जब कर्मवीर इस बात से आश्वस्त हो गया कि उसके बाबूजी उसे छोड़कर नहीं जाएँगे तब उसने पहली बार विद्यालय में मौजूद चीजों पर नजर दौड़ाना शुरू किया। सबसे पहले उसने खेल के मैदान पर ही नजर दौड़ाई। इतना बड़ा मैदान उसने बस खेत में ही देखा था। उसके बालमन में तुरंत ही सवाल उठ खड़ा हुआ जो उसने अपने बाबूजी से पूछ लिया। उसने अपने मास्टर जी से कोई भी सवाल नहीं किया क्योंकि अभी पहला ही दिन था इसलिए उसे मास्टर जी से कुछ भी बोलने में हिचकिचाहट हो रही थी। उसने अपने बाबूजी से पूछा कि,

“बाबूजी यहाँ इस मैदान में भी बाद में फसल उग आएगी और जो बच्चे अभी यहाँ खेल रहे हैं वो खेल नहीं पाएँगे?”

“नहीं बेटे ऐसा नहीं है ये विद्यालय का मैदान है यहाँ फसल नहीं बोई जाती ये बच्चों के खेलने के लिए ही बनाया गया है और इसे बस इसी के लिए उपयोग में लाया जाता है।” कर्मवीर ने प्रश्न तो बाबूजी से किया था लेकिन जवाब मास्टर जी ने दिया और उसके सर पर हाथ भी फेर दिया।

कर्मवीर जैसे जैसे अपनी कक्षा की तरफ बढ़ रहा था उसे रास्ते में मिलती हरेक चीज नयी लगती और उसे बहुत ही ज्यादा बारीकी के साथ वो उसे देखने लगता था। बरामदे में घुसते ही सबसे पहले उसे घंटी लटकी हुई दिखी जिसे वो बहुत ही गौर से देख रहा था। उसे ऐसा कर मास्टर जी ने देखा तो वो समझ गए कि कर्मवीर इसके बारे में भी कुछ जानना चाहता होगा इसलिए उन्होंने बिना कुछ पूछे ही उसे बताना शुरू किया।

“ये घंटी है जब भी ये बजती है तो या तो बच्चों का अपनी कक्षा में जाने का समय होता है या फिर मास्टर जी अपनी कक्षा बदलते हैं मतलब अगर एक मास्टर जी एक कक्षा में पढ़ा रहे होते हैं तो वो दूसरी कक्षा में चले जाते हैं और दूसरे मास्टर जी उस कक्षा में चले जाते हैं और एक समय ऐसा भी आता है जब ये घंटी बजती है और फिर सभी बच्चे अपने अपने घर चले जाते हैं।” बाकी चीजों को गौर देखते हुए ही कर्मवीर मास्टर जी की बात भी सुन रहा था। जैसे ही उन्होंने अपनी बात ख़त्म की वैसे ही वो पूछ बैठा कि

“वो वाली घंटी कब बजती है जब सारे बच्चे अपने घर चले जाते हैं?” कर्मवीर के इस प्रश्न पर महावीर सिंह और मास्टर जी दोनों हँस पड़े। कर्मवीर को कुछ समझ नहीं आया फिर मास्टर जी ने उसे समझाया।

“जब दिन की सारी कक्षाएँ पढ़ा दी जाती हैं तब वो घंटी बजती है और फिर सारे बच्चे अपने अपने घर चले जाते हैं।” उनकी बात सुनकर कर्मवीर थोड़ा उदास हो गया क्योंकि घर जाने के लिए उसे सभी कक्षाओं के ख़त्म होने तक का इंतज़ार करना पड़ता।

आगे बढ़ने पर उसे विद्यालय का प्रधान कार्यालय दिखा उसमें उसने बाहर से ही देखा कि अन्दर गाँधी जी की तस्वीर लगी हुई है। उसे अपने पिता की बात तुरंत याद आ गयी। उसके पिता उसे गाँधी जी के बारे में खूब बताया करते हैं। वो बताते हैं कि गाँधी जी ने अपना पूरा जीवन दूसरों की सेवा में ही बिता दिया इसीलिए उन्हें राष्ट्रपिता के नाम से भी जाना जाता है। अपने लिए तो सभी जीते हैं लेकिन याद उन्हीं को किया जाता है जो दूसरों की भलाई का काम करते है। गाँधी जी के अलावा उसके पिता ने उसे स्वामि विवेकानंद के बारे में भी बताया था।

विवेकानंद की जिंदगी से कर्मवीर बहुत प्रभावित हुआ था। महवीर सिंह ने उसे बताया था कि बचपन में विवेकानन्द बहुत ही शरारती थे लेकिन जब से वो स्वामि दयानन्द सरस्वती की शरण में गए उन्होंने अपना जीवन मानव कल्याण के लिए बिताने का संकल्प ले लिया। वो विदेश भ्रमण पर भी गये वहाँ भी वो घुमने के उद्देश्य से नहीं गए थे। वहाँ वो हिन्दू धर्म के प्रतिनिधि के रूप में गए थे और इतने ज्यादा चर्चित हो गए थे कि वहाँ वो बहुत ही आलिशान जिंदगी बिता सकते थे लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। वो वहाँ धर्म प्रचार में लगे रहे और वहाँ भी मानव मात्र की सेवा ही उनका मात्र एक ध्येय था। वहाँ से जो भी राशि उनहोंने कमाई वो सब हिन्दुस्तान में आकर गरीबों की भलाई में ही लगा दिया। इतने बड़े महापुरुष थे वो।

जब उसने कार्यालय को और गौर से देखा तो उसमें विवेकानंद की भी तस्वीर नजर आई। उसके मन में इतना तो बैठ ही चुका था कि वो भी पढ़ लिख कर जब बड़ा हो जाएगा तो अपनी क्षमता से ज्यादा लोगों की भलाई ही करेगा। उसने अपने पिता को देखा था लोगों की भलाई करते हुए और बदले में उसके पिता ने जो आदर और सम्मान कमा रखा था वो उसे बहुत ही लुभाता था। कार्यालय में गाँधी और विवेकानन्द की तस्वीर देखने के बाद उसे ये भी लग रहा था कि बहुत जमाने बाद जब उसके पिता इस दुनिया में नहीं होंगे तो उनकी भी तस्वीर गाँव के किसी कार्यालय में जरूर लगी होगी। वो अपने पिता से बहुत ही ज्यादा प्रभावित था।

मास्टर जी उसे और उसके पिता को लेकर उसकी कक्षा में पहुँच गए। वहाँ उसने देखा ढेर सारे बच्चे बैठ के पढ़ाई कर रहे थे। किसी के भी पिता उसके पास नहीं थे। उसे लगा यहाँ तो उसके पिता जरूर उसे छोड़कर चले जाएँगे। इसलिए उसने अपने पिता की धोती एक बार फिर से पकड़ ली। उसके ने उसके मनोभावों को भाँप लिया।

“अरे मैं तुम्हें छोड़कर कहीं नहीं जा रहा। चलो मैं भी तुम्हारे साथ तुम्हारी कक्षा में बैठकर पढ़ाई करूँगा।” महावीर सिंह ने अपने पुत्र से बहुत ही स्नेह से कहा। पुत्र की आँखों में भी स्नेह उमर रहा था लेकिन उस स्नेह के साथ कहीं न कहीं भय भी व्याप्त था और वो भय ये था कि उसके पिता उसे छोड़कर चले जाएँगे। अगर किसी और विद्यार्थी के पिता उसके साथ बैठे होते तो उसे कोई दिक्कत नहीं होती लेकिन जब किसी और विद्यार्थी के पिता वहाँ अनुपस्थित थे तो वो थोड़ा डर गया।

अपने पिता की ऊँगली पकडे वो अपनी कक्षा में घुसा और उनके साथ ही बैठा। उसके पिता बीच बीच में उसे ये समझा रहे थे कि यहाँ किसी और के पिता नहीं हैं और उसे यहाँ अकेले ही पढ़ाई करनी होगी। उन्होंने उसे ये भी बताया कि अब उसके जीवन रथ की शुरुआत हो गयी है और वो हमेशा उसके साथ नहीं रह सकते कल से उसे यहाँ एनी बच्चों की तरह ही अकेले रहना होगा, अकेले ही पढ़ना होगा। उनकी बातों से वो थोड़ा भयभीत हो गया।

उस दिन जितने भी शिक्षक आये उन्होंने सब ने उसका परिचय पूछा। वो अपना परिचय देने में थोड़ा घबरा रहा था। शिक्षको ने बहुत ही लाड़ प्यार से उसके साथ व्यवहार किया जिसके कारण उसका मनोबल थोड़ा बढ़ गया। जब भी दो कक्षाओं के बीच थोड़ी अवधि के लिए कक्षा खाली होती थी उतने में महावीर सिंह उसे कल से अकेले रहने के लिए कोई न कोई अच्छा उदाहरण देकर उसका मनोबल बढ़ाना शुरू कर देते थे। आज चूँकि कर्मवीर का पहला ही दिन था इसलिए सारी कक्षाएँ ख़त्म किये बगैर उसके पिता उसे लेकर घर चले गए।

अगले दिन भी महावीर सिंह उसे छोड़ने आये लेकिन उस दिन थोड़ी देर ही विद्यालय में बिता कर वो चले गए। दूसरे दिन कर्मवीर का मन विद्यालय में नहीं लग रहा था और उसका ज्यादातर समय रोने में ही जा रहा था। वो जिद कर रहा था कि उसे उसके माता पिता के पास उसके घर भेज दिया जाए उसे पढ़ाई नहीं करनी है। लेकिन एक मास्टर जी को महावीर सिंह ने बता दिया था कि इसे गाँधी जी और विवेकानन्द की तरह बनना है ये कर्मवीर तय कर चुका है इसलिए अगर इसे ये बता दिया जाए कि उन्होंने विद्यालय में बहुत ही अच्छे से पढाई की थी तो फिर ये उनकी तरह बनने के लिए अच्छे से पढाई करनी शुरू कर देगा। जब जब कर्मवीर रोता था तो वो मास्टर जी आते और उसे थोड़ी देर के लिए कक्षा से बाहर घुमा लाते और फिर गाँधी जी और विवेकानन्द की तस्वीर दिखा कर उसे उनकी तरह बनने के लिए प्रेरित करते थे। उस प्रेरणा से वो चुप हो जाता और फिर अपनी कक्षा में बैठ जात था। लेकिन चूँकि वो अपने माता पिता के बहुत ही ज्यादा करीब था इसलिए उसे हमेशा उनकी याद आ जाती और थोड़ी देर बाद फिर उसका बालक दिल द्रवित हो उठता था।

दूसरे दिन भी उसके पिता थोड़ी जल्दी ही उसे लेने आ गए थे। कुछ दिनों बाद विद्यालय जाना कर्मवीर के लिए एक सामान्य बात हो गयी और उसने विद्यालय में रोना बंद कर दिया। अब महावीर सिंह भी अपने काम में फिर से अच्छे से व्यस्त हो गए और कर्मवीर को विद्यालय पहुँचाने का काम अब मंगरू के जिम्मे हो गया था। अब मंगरू ही उसे विद्यालय से लाता और ले जाता था। इस तरह से कर्मवीर की प्रारम्भिक शिक्षा प्रारम्भ हो गयी।

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