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कर्मवीर - 10

कर्मवीर

(उपन्यास)

विनायक शर्मा

अध्याय 10

कुछ दिनों बाद प्रधान का चुनाव होने वाला था। वर्तमान प्रधान एक दिन महावीर सिंह के पास आया। और बोला,

“महावीर सिंह जी जिस तरह हर बार आपका सहयोग मिल रहा था उस तरह इस बार भी आपका सहयोग मुझे चाहिए होगा।”

“अरे अब तो मुझे तुम सेवा निवृत ही समझो अब तो ना तो उतनी भाग दौड़ मुझसे होती है और ना मैं करना ही चाहता हूँ सबकुछ अब कर्मवीर ही देखता है इसलिए उससे ही बात करने में तुम्हारा फायदा है।” महावीर सिंह जानते थे कि कर्मवीर इस बार मुखिया के लिए मंगरू को चुनाव लड़वाने वाला है इसलिए महावीर सिंह ने पहले ही अपना पल्ला इससे झाड लेना चाहा।

“अरे उसके पास तो जाऊँगा ही मैं वो तो बहुत बड़ा आदमी बन गया है न इसलिए तो आपके पास आया हूँ आपकी बात वो नहीं टालेगा इसलिए मैं चाहता हूँ कि आप भी मेरे साथ चलें उससे बात करने के लिए।” प्रधान को पता था कि बिजली वाले प्रकरण में जो बुरा व्यवहार उसने कर्मवीर के साथ किया है इसलिए कर्मवीर उसका साथ तो कभी नहीं देगा। अगर बात केवल कर्मवीर की बेज्जती की होती तो एक बार को कर्मवीर उसका साथ दे भी देता लेकिन उसने तो गाँव हित में होने वाले काम को पूरा टाल मटोल किया था। इसलिए कर्मवीर का समर्थन पाना तो उसे मुशकिल ही लग रहा था।

“ठीक है तुम कहते हो तो मैं तुम्हारे साथ उसके पास जरूर चलूँगा लेकिन बात तो तुम्हें ही करनी पड़ेगी कर्मवीर से।” महावीर सिंह ने मुखिया के साथ कर्मवीर के पास जाने भर की बात स्वीकार ली। उन्हें पता था कि वो मानेगा नहीं और जब वो नहीं मानने के तर्क के रूप में मुखिया की लापरवाहियाँ गिनवायेगा तो शर्म से भी मुखिया उन्हें कुछ भी कर्मवीर को कहने को नहीं कहेगा।

दोनों उठे और कर्मवीर के पास गए।

“और कर्मवीर कैसे हो?” मुखिया ने पूरी जिन्दादिली से प्रश्न किया।

“मैं तो बहुत ही खुश हूँ मुखिया जी अपनी मेहनत भाग दौड़ और अपने गाँव वालों के असीम समर्थन और अथाह प्यार की वजह से मेरे गाँव में जो बिजली आई है उसी बिजली से चल रहे पंखे की हवा खा रहा हूँ।” कर्मवीर के इतन कहते ही प्रधान का मुँह छोटा हो गया और उसने एक बार ऊपर लटक रहे पंखे की तरफ देखा।

“हाँ वो तो है तुमने इस गाँव में बिजली लाने के लिए जितनी मेहनत की है वो तो वाकई काबिले तारीफ़ है। मैंने भी विधायक जी से बात की थी।”

“आप इस मामले में चुप ही रहिये तो ठीक है।” कर्मवीर ने मुखिया जी को बीच में ही रोक दिया।

मुखिया का मुँह फिर से बेरंग हो गया। क्या बोले उसे समझ आना बंद हो गया।

“चलो किसी किसी बात पर मतभेद होना भी जरुरी ही है।” उन्होंने अपनी बात से पलस्तर करने की कोशिश की।

“ये कोई भी बात नहीं है मुखिया जी हमारे गाँव की रंगत ही बदल गयी है बिजली आने से।” महावीर सिंह कर्मवीर के सधे हुए गुस्से को देख रहे थे और प्रधान किस तरह अपना काम निकालने के लिए बातें बना रहा था वो ये भी देख रहे थे।

“वो कर्मवीर क्या है न कुछ ही दिनों में फिर से प्रधान का चुनाव आने वाला है और मैं चाहता हूँ तुम इस बार भी मेरा सपोर्ट करो।” प्रधान ने अब मुख्य बात पर ही आना लाजमी समझा।

“आपने ये सोच भी कैसे लिया कि मैं चुनाव में आपका समर्थन करूँगा। अरे मुखिया किसे कहा जाता है? जो लोगों की समस्यायों के लिए खुद ही आगे बढे। बिजली के लिए मैं जब आपके पास गया था तब तो आप मुझे भी रोक देना चाहते थे। मैंने इस बार का मुखिया सोच लिया है किसे बनाना है। मंगरू भैया से ज्यादा मेहनती और मुझे कोई दिख नहीं रहा है और इस बार मैं उन्हें ही खड़ा करने वाला हूँ मुखिया पद के लिए आप चाहे तो खड़े हो सकते हैं मैं इतना करूँगा कि मैं किसी के पास मंगरू भैया के लिए भी वोट नहीं माँगने जाऊँगा। आपको जितना वोट मांगना है आप माँग लीजिये न तो मैं आपका समर्थन करूँगा और न ही विरोध और न ही मंगरू भैया के लिए किसी से वोट मांगूंगा बस परचा भरने मैं साथ जाऊँगा क्योंकि वो पढ़े लिखे थोड़े कम हैं।’ कर्मवीर ने अपनी बात ख़त्म कर दी। उसके बाद प्रधान को पता चल गया कि यहाँ कोई दाल गलने वाली नहीं है। वो बिना कुछ बोले ही वहाँ से चला गया।

थोड़े ही दिनों बाद मुखिया के चुनाव के लिए नामांकन भरा जाना था। पुराने मुखिया ने जोर शोर से अपना प्रचार करना शुरू कर दिया था। एक और व्यक्ति इस बार मुखिया पद पर खड़ा था। वो भी अपना प्रचार जोरों से कर रहा था। सभी के चुनाव प्रचार का मुद्दा बस यही था कि लोग उन्हें वोट दें और वो गाँव की तरक्की के लिए दिन रात एक कर देंगे। कुछ लोगों को लगा कि कर्मवीर को मुखिया बनना चाहिए लेकिन जब महावीर सिंह ही इसके लिए कभी राजी नहीं हुए थे तो फिर कर्मवीर कैसे मुखिया के पद के लिए चुनाव लड़ता। एक दिन एक व्यक्ति इस चुनाव प्रचार के बीच कर्मवीर के पास पहुँचा और उसने कर्मवीर से पूछा,

“क्या कहते हो कर्मवीर किसे वोट देना चाहिए मुखिया पद के लिए। तुम किसका समर्थन करोगे?”

“चाचा देखिये अभी मैं कुछ नहीं कहूँगा कि आप किसे वोट दीजिये नामांकन हो जाने दीजिये उसके बाद आप मुझसे पूछेंगे मैं भी देख लूँगा कि कौन सा प्रत्याशी गाँव के लिए सही रहेगा तो ही मैं किसी को कुछ सलाह दे पाउँगा। अभी मैं कुछ भी नहीं कह सकता कि किसे वोट दो और किसे वोट नहीं दो।”

“अरे नामांकन का क्या है वो तो बस एक प्रक्रिया भर ही है। चुनाव तो यही दोनों लड़ने वाले हैं जो दोनों चुनाव प्रचार में अभी से ही गोते लगा रहे हैं।” उस व्यक्ति ने कर्मवीर की राय लेने की पूरी कोशिश की।

“जो भी चाचा जब तक परचा भर नहीं लिया जाता मैं तो किसी के नाम की कोई सलाह नहीं दे सकता।” कर्मवीर भी पानी बात पर अड़ा रहा।

“ठीक है भाई फिर नामांकन के बाद ही तुम्हारी सलाह ली जाएगी।” बोलकर वो आदमी अपने रास्ते चला गया।

नामांकन करने की तारिख भी आ गयी। चार दिनों का समय था सभी के नामांकन करने का। उन दोनों प्रत्याशियों ने तो पहले ही दिन जाकर अपना परचा भर दिया। परचा भरकर आये और फिर से चुनाव में लग गए। वर्तमान मुखिया ने अभी तक किसी को कुछ नहीं बताया था कि मंगरू भी इस चुनाव में खड़ा होने वाला है। वो जिस दिन कर्मवीर के घर से आ रहा था उस दिन उसने आते आते महावीर सिंह को एक कोने में ले जाकर कहा था कि आप एक बार मेरे तरफ से आग्रह कर दीजियेगा कि वो भले ही मेरा समर्थन न करे लेकिन मंगरू को भी चुनाव में खड़ा न करे। महावीर सिंह ने उसे इस बात की कोई गारंटी नहीं दी हाँ लेकिन इतना जरूर कहा कि मैं आग्रह तो नहीं करूँगा लेकिन तुम्हारी बात उस तक जरूर पहुँचा दूँगा। उन्होंने मुखिया की बात कर्मवीर तक पहुँचा भी दी। लेकिन हुआ वही जो कर्मवीर ने सोच रखा था।

उसी दिन कर्मवीर ने मंगरू को बुलाया और कहा,

“मंगरू भैया इस बार आप मुखिया का चुनाव लड़ रहे हैं। आप केवल घर के लिए ही काम करके अपनी जिम्मेदारियों से नहीं बच सकते हैं आपको मुखिया बनना पड़ेगा और पूरे गाँव के लिए सोचना पड़ेगा।” कर्मवीर की इस बात को सुनकर मंगरू को पता ही नहीं चला था कि वो क्या प्रतिक्रिया दे। उसका मुँह खुला का खुला रह गया था।

“कर्मवीर म म मैं और मुखिया।” अटकते शब्दों के साथ मंगरू कर्मवीर से बस इतना ही कह पाया था।

“हाँ आप को ही इस बार मुखिया बनना पड़ेगा। सभी लोग अपनी जिम्मेदारियों से भाग जाते हैं आप रहेंगे तो कम से कम आप से पकड़ के गाँव के लिए काम तो कर लूँगा। आपसे हिसाब तो माँग लूँगा कि गाँव के लिए जो फण्ड आये वो गए कहाँ? बाहर मैं किसी से मांगूंगा तो रिश्ता खराब होता है। इसलिए जीतना हारना तो बाद की बात है आपको इस बार मुखिया पद के लिए खड़ा तो होना ही पड़ेगा इसमें कोई शक मत रखिये।” कर्मवीर अपनी बात बोलते जा रहा था और मंगरू का मुँह और बड़ा खुलता ही जा रहा था।

“यार कर्मवीर लेकिन मैं तो थोड़ा सा भी पढ़ा लिखा ही नहीं हूँ। मुझसे कैसे हो पायेगा ये सब?” मंगरू ने अपनी लाचारी बहुत ही गंभीरता के साथ बताई।

“लो ये तो और फायदे की ही बात है आपने तो मेरी नौकरी का भी जुगाड़ कर दिया। आप एक काम कीजियेगा मुझे आप अपने असिस्टेंट के रूप में रख लीजियेगा। थोड़े कम वेतन पर ही मैं आपका काम कर दूँगा। लेकिन आपको चुनाव तो लड़ना ही पड़ेगा। इस मंगरू नाम के पीछे मुखिया तो लगाना ही पड़ेगा।” कर्मवीर भी उससे मजाक करता जा रहा था लेकिन चुनाव लड़ने की बात पर कर्मवीर भी अडिग ही था। वो मंगरू से चुनाव लदवाकर ही दम लेने वाला था ये बात उसने उसी दिन सोच ली थी जिस दिन उसे मुखिया ने बोला था कि विधायक जी के पास यूँ ही नहीं जा सकते बार बार एक छोटे से काम के लिए। उसे ये लग गया था कि गाँव में बिजली लगवाना जिस आदमी को छोटा सा काम लग रहा है वो आदमी तो मुखिया बनने लायक तो है ही नहीं।

मंगरू मुखिया के चुनाव लड़ने वाली बात से खौफजदा था। उसे इस बात का पूरा यकीन था कि वो इस जिम्मेदारी को नहीं निभा पायेगा। उसने इस बार पूरी गंभीरता से कहा,

“कर्मवीर मैं मुखिया की जिम्मेदारी नहीं निभा सकता भाई क्योंकि सबसे बड़ी बात ये है कि मैं पढ़ा लिखा नहीं हूँ और मुझे इस चीज का न तो थोड़ा भी ज्ञान है और न ही थोड़ा सा अनुभव। अगर मैं मुखिया बन भी गया तो क्या होगा इस गाँव का कभी सोचा है तुमने कर्मवीर?” मंगरू ने अपनी पूरी व्यथा कर्मवीर के सामने रख दी। कर्मवीर ने भी यही सोचा कि मंगरू भी इस बार पूरी तरह गंभीर है। उसने भी मुद्दे की गंभीरता को समझते हुए कहा,

“मंगरू भैया मुझे पता है कि आपके लिए मुखिया की जिम्मेदारी निभाना बहुत ही मुश्किल है। और आप मुझे ये बात बता रहे हैं इससे एक बात तो और भी अच्छे तरीके से स्पष्ट होता है कि अगर आपको ये जिम्मेदारी दे दी गयी तो आप पक्का उसे निभाने में अपना जी जान लगा देंगे। और मैं बिल्कुल भी मजाक नहीं करूँगा। मैं आपका असिस्टेंट होने की तनख्वाह नहीं लूँगा लेकिन आप एक बात तो तय मानिए कि पहली बार में मैं हरेक कदम आपके साथ रहूँगा। मैं छात्र संघ का अध्यक्ष रह चुका हूँ इसलिए थोड़ा बहुत इस चीज का अनुभव मुझे है और रही बात अक्षर ज्ञान की तो वो मैं आज से आपको सिखा दूँगा। परचा भरने के दिन आप खुद से ही परचा भरना ताकि गाँव के लोगों को ये नहीं लगे कि उनके होने वाले मुखिया को लिखना पढ़ना नहीं आता है।” कर्मवीर की बात सुनकर जैसे मंगरू के ऊपर जमी बर्फ तुरंत पिघल गयी। उसे सारे रस्ते सुगम लगने लगे। उसके लिए सबसे अच्छी बात ये थी कि वो पढ़ना लिखना सीखने वाला था। वो पढ़ना तो चाहता था लेकिन कभी उसने कुछ बोला नहीं और जब वो बहुत बड़ा हो गया तो कभी किसी को ये महसूस नहीं हुआ कि मंगरू को पढ़ लिख जाना चाहिए। उसी दिन से कर्मवीर ने मंगरू को पढ़ना सिखाना शुरू कर दिया। मंगरू को भी सीखने में बहुत मजा आने लगा था।

परचा भरने का आखिरी दिन आ गया। आज कर्मवीर ने तय किया था कि वो और मंगरू परचा भरने जाएगा। मंगरू ने माँ और बाबूजी का आशीर्वाद लिया और फिर कर्मवीर के पीछे मोटर साइकिल पर बैठ कर परचा भरने के लिए जाने लगा। गाँव में अभी तक किसि को कोई भनक तक नहीं थी कि मंगरू भी इस बार मुखिया पद के लिए परचा भरने वाला है। कर्मवीर पहले मोटर साइकिल मन्दिर में ले गया और वहाँ देवी देवताओं का आशीर्वाद लेकर सीधे परचा भरने पहुँच गए। वहाँ कर्मवीर के गाँव के भी कुछ लोग थे जिनके रिश्तेदार बगल के गाँव वाले परचा भरने के लिए आये थे। कर्मवीर और मंगरू को वहां देख एक ने प्रश्न किया कि क्या उसका भी कोई सम्बन्धी चुनाव के लिए परचा भरने वाला है? कर्मवीर ने ना में उत्तर दिया।

वो आदमी थोड़ी देर तो चुप रहा फिर उसने दुबारा कर्मवीर से पूछा तो फिर तुम दोनों यहाँ पर, कोई अन्य काम है क्या?

“नहीं कोई अन्य काम नहीं है हमलोग परचा भरने आये हैं। मंगरू भैया इस बार अपने गाँव से मुखिया में खड़े हो रहे हैं।” कर्मवीर ने जैसे ही उस व्यक्ति को ये बताया उसकी आँखे तो खुली की खुली रह गयी। गाँव के एक और व्यक्ति वहाँ पर मौजूद थे। उन्होंने भी कर्मवीर की बात सुन ली थे और वो भी भागते हुए आये और उन्होंने कर्मवीर से पूछा,

‘क्या तुम मंगरू को खड़ा कर रहे हो चुनाव में और वहाँ वर्तमान मुखिया तुम्हारा और महावीर सिंह का नाम बेच रहा है सब जगह कह रहा है कि तुम दोनों बाप बेटे उसी का समर्थन कर रहे हो।” उस आदमी की यह बात सुनकर कर्मवीर को मुखिया पर बहुत तेज गुस्सा भी आया लेकिन गुस्सा तो कर्मवीर के व्यवहार का अंश ही नहीं था इसलिए उसने कहा,

‘नहीं नहीं अगर मंगरू भैया चुनाव नहीं लड़ते तो हम किसी का समर्थन करने या नहीं करने के बारे में सोचते भी लेकिन अब जबकि मंगरू भैया खुद चुनाव मैदान में हैं तो किसी और का तो समर्थन करने की बात ही नहीं है। थोड़ा सा रास्ता दीजिए कहीं नामांकन फॉर्म भरने का समय ना निकल जाए।” कहकर कर्मवीर और मंगरू ऑफिस में घुस गए।

मंगरू ने नामांकन फॉर्म भर दिया और सीधे घर आ गया। शाम तक तो पूरे गाँव में यह बात फ़ैल गयी थी कि मंगरू इस बार मुखिया का चुनाव लड़ने वाला है। शाम होते ही गाँव वाले एक एक करके कर्मवीर के घर आ रहे थे और उसे यह बता रहे थे कि अब तो वोट मंगरू को ही देंगे। उनलोगों की कब से यही चाहत थी कि महावीर सिंह जी मुखिया बने लेकिन उन्होंने मना कर दिया था तो ये उम्मीद कर्मवीर से बंध गयी लेकिन जब उसने भी मना कर दिया तो मजबूरी में वो किसी अन्य व्यक्ति को वोट देते। लेकिन अब जबकि मंगरू ही चुनाव लड़ रहा है तो फिर तो कुछ सोचना ही नहीं है।

मंगरू के लिए कोई भी चुनाव प्रचार नहीं किया गया। बस मंगरू और महावीर सिंह ने गाँव के हर घर में घूम कर यह बता दिया कि इस बार चुनाव में मंगरू भी खड़ा है अब बाकि गाँव वालों की इच्छा है वो जिसे चाहे वोट दें। मंगरू चुनाव लड़ रहा था तो फिर किसी ने कुछ सोचा ही नहीं और जिस दिन चुनाव हुआ उस दिन लगभग सारे लोगों ने मंगरू को ही वोट दिया। मंगरू काफी वोटों से मुखिया पद के लिए चुनाव जीत गया। उसने सोचा था कि कोई जुलुस वगैरह नहीं निकाली जायेगी लेकिन गाँव वाले मानने वाले कहाँ थे। उन्होंने एक बहुत ही अच्छे जुलुस की तैयारी कर रखी थी। मंगरू और महावीर सिंह के जिंदाबाद के नारे लगते रहे और उसे पूरे गाँव में घुमाया गया।

कर्मवीर ने गाँव की दशा और दिशा दोनों बदल दी थी। जब गाँव से बाहर रह रहे लोगों को यह पता चला कि गाँव में बिजली आ गयी है तो फिर गाँव वाले भी गाँव आने को आतुर होने लगे थे। कर्मवीर का आखिरी लक्ष्य अब यही था कि जो शहर में बहुत अच्छी नौकरी कर रहा है उसे तो गाँव वापस लाना मुश्किल ही है लेकिन जो वहाँ भी भूखे रह कर पेट काट कर मुश्किल से दो पैसे कमा रहे हैं और दूसरे की गाली बात सुन रहे हैं उससे अच्छा वो अपने गाँव आकर यहाँ शान से रहे और अपना रोजगार तलाशें। गाँव भी अब तक बहुत ज्यादा तरक्की कर चुका था। बाहर रह रहे लोगों को जब ये पता चला कि कर्मवीर उन्हें स्वरोजगार की ट्रेनिंग देगा और फिर वो गाँव में ही पूरे शान से रह सकते हैं तो सब लोगों ने तय कर लिया था कि वो अपने गाँव ही वापस चले जाएँगे। बाहर अपने घर परिवार से दूर रहना किसे पसंद होता है? लोगों ने गाँव वापस आने की तैयारी कर ली थी।

जब ये खबर कर्मवीर को मिली कि गाँव से बाहर शहर में रह रहे लगभग सारे लोगों ने गाँव वापस आने का मन बना लिया है तो उसकी अंतरात्मा बहुत ही ज्यादा खुश हो गयी। वो अपने पिता महावीर सिंह के साथ बैठ के इसी बात पर चर्चा कर रहा था कि लगभग सारे गाँव वाले फिर से गाँव वापस आने वाले हैं। उन्हें ये पता चल गया कि गाँव में ही असली सुख है और शहर में भी रहकर वो कुछ ज्यादा पैसा नहीं कमा पाते हैं ये बस उनका भ्रम ही रहता है कि वो ज्यादा पैसे कमा रहे हैं लेकिन ऐसा कुछ होता नहीं है। शहर से ज्यादा ख़ुशी से वो गाँव में रह सकते हैं। ऐसा कर्मवीर ने कहा,

“यही तो बात हो जाती है न एक पढ़े लिखे आदमी और एक कम पढ़े लिखे आदमी मे। मैं कभी गाँव वालों को यह समझा नहीं पाया कि वो गाँव में भी सुख पूर्वक रह सकते हैं और तुमने देखो ऐसा जादू चलाया कि सब भागे भागे फिर से गाँव वापस आ रहे हैं।” महावीर सिंह ने व्यंग्य किया। इसपर दोनों बाप बेटे हँस पड़े।

अभी दोनों बैठ के बातें ही कर रहे थी कि फोन की घंटी बजी। महावीर सिंह उठने को हुए कि कर्मवीर ने तुरंत ही कहा,

“अब आप आराम किया कीजिये इतनी भाग दौड़ सहीं नहीं है आपके लिए मैं जा रहा हूँ फोन उठाने के लिए।” और कर्मवीर फोन उठाने के लिए चला गया। जैसे ही उसने फोन उठाया उधर से आवाज आई

“और कर्मवीर कैसे हो भाई बहुत नाम कमा लिया अखबारों में हमेशा तुम्हारे बारे में पढने को मिलता है। पूरी सरकार को हिला दिया था तुमने तो।” आवाज जानी पहचानी थी और कर्मवीर एक ही बार में आवाज पहचान गया।

“अरे भाई अच्छा तो तुम्हें आज मेरी याद आई। चलो कम से कम ये तो पता चला कि तुम्हे अपना गाँव और वहां के लोग अभी तक याद हैं मुझे तो लग रहा था कि तुम अपने गाँव और यहाँ के लोगों को भूल चुके हो।” कर्मवीर ने उससे मजाक किया।

“अच्छा तो तुमने मुझे पहचान लिया?”

“भाई तुम भले हम सब को भूल सकते हो लेकिन हम गाँव वाले कभी किसी को नहीं भूलते हैं।” कर्मवीर ने कटाक्ष किया। फोन पर गणेश बातें कर रहा था।

थोड़ी देर के लिए दोनों हँसने लगे फिर कर्मवीर ने पूछा,

“ये बताओ क्या चल रहा है आजकल कभी अपने गाँव आकर गाँव को भी देख लिया करो, कभी गाँव वाले अपने भाइयों से मिल भी लिया करों। या बिल्कुल ही अब यहाँ आने का कोई विचार नहीं है?” इसबार कर्मवीर के सवाल में गंभीरता थी।

“तुम्हें क्या लगता है कर्मवीर मैं इतना ज्यादा निष्ठुर हूँ क्या? मुझे अपने गाँव की कोई फ़िक्र नहीं है अरे भाई मैं भी तुम्हारा ही दोस्त हूँ। मुझे याद है कि जब मैंने तुमसे अंतिम बार बात की थी तो मैंने तुमसे ये कहा था कि पहले मैं अपना जीवन स्तर सुधर लूँगा फिर ही गाँव के बारे में कुछ सोचूँगा। तुमने पता नहीं उसे सच माना या नहीं लेकिन एक बात तो तुम्हें भी पता होनी चाहिए थी कि मैं इतना ज्यादा स्वार्थी नहीं हो सकता। जिस गाँव ने मुझे पालकर बड़ा किया। जिस गाँव में मेरा बचपन बीता है आज जब मैं कुछ लायक हो गया हूँ तो ऐसा कैसे हो सकता है कि मैं अपने गाँव को बिना कुछा लौटाए उससे अपना मुँह फेर लूँ। ये तुम्हें असंभव सा नहीं जान पड़ा क्या मेरे मित्र। तुमने कभी ये नहीं सोचा कि तुम्हारी मैत्री में पला बढ़ा हूँ और तुमने अपना जीवन गाँव को दान देने की सोच ली है और मैं एक तिनका भर भी गाँव के लिए कुछ नहीं करूँगा। मैं अपने गाँव का ऋणी हूँ मैं और मुझे ये पता है कि जिस तरह तुमने अपनी जिंदगी गाँव के लिए न्यौछावर कर दी है अगर उस तरह मैं भी न्यौछावर कर दूँ तो भी मैं पूरा ऋण तो नहीं ही चुका सकता। और अगर गाँव के लिए मैंने कुछ नहीं किया तो सबसे बड़ा दोषी तो मैं तुम्हारे पिता का रहूँगा। क्योंकि उन्होंने ही मेरी पढ़ाई पूरी करवाई थी वर्ना मैं कब का पढाई छोड़ चुका होता और आज शहर से गाँव और गाँव से शहर कर रहा होता।”

गणेश ने जैसे वर्षों से दबी अपने दिल की बात को अपने सबसे करीबी मित्र के सामने रख दी। कर्मवीर भी उसकी बातें सुनकर भावुक हो गया और उसकी आँखों से दो बूँदें नीचे लुढ़क गईं। ठीक उसी तरह जब आम पाक जाता है तो डाली उसे छोड़ देती है उसी तरह जब कर्मवीर का दिल भावनाओं से भर गया तो आँखों के रास्ते बाहर आ गया। कर्मवीर ने कहना शुरू किया,

“भरोसा तो मुझे तुमपर पूरा था मेर मित्र लेकिन परिस्थितियाँ इन्सान को बदल देती हैं। जिस दिन मैंने तुम्हें शराब की बोतल के साथ देख लिया था, हो सकता है मेरी ये बात तुम्हें बुरी लगे लेकिन उसी दिन से मेरा भरोसा तुमपर काफी कम हो गया था। इसलिए जब तुमने मुझसे कहा था कि तुम पहले अपना जीवन स्तर सुधारोगे तभी गाँव के लिए कुछ करोगे तब मुझे ये लग गया था कि तुम अब गाँव के लिए कुछ नहीं करोगे। और इतने सालों में मुझे तुम्हारी याद भी आई तो ये सोचकर दिल को तसल्ली दे देता था कि चलो जहाँ है कम से कम खुश तो है अपनी जिंदगी से।” कर्मवीर ने बिना किसी टाल मटोल के अपनी बात गणेश से कह दी।

“तुम अपनी जगह बिल्कुल ही सही थे मेरे मित्र जो काम मैंने किया था उससे मैं भरोसा खोने के अलावा और कोई उपलब्धि हासिल नहीं कर सकता था। लेकिन जब मुझे ये पता चला था कि तुम अब गाँव में रहकर ही गाँव की सेवा करोगे तो मैंने भी सोच लिया था कि एक दिन मैं भी गाँव के लिए कुछ न कुछ जरूर करूँगा और फिर नौकरी करते हुए उसी के लिए लग गया।” अब अब जाकर गणेश ने अपनी बात पूरी तरह स्पस्ट कर दी थी।

“अच्छा तो फिर तुम क्या करने वाले हो गाँव के लिए बताओ मैं ये बात जानकर कितना खुश हूँ ये तुम नहीं समझ सकते दोस्त।” कर्मवीर ने पूरी आतुरता के साथ कहा।

“हाँ दोस्त मुझे पता है कि तुम ये जानकार बहुत खुश होगे कि मैं अपने गाँव के लिए कुछ करने वाल हूँ। तुम्हें याद होगा स्कूल के समय में ही हमने एक नाटक क्या था जिसमे ये दिखाया गया था कि लोग गाँव से शहर जाते हैं कमाने के लिए और उन्हें न तो ठीक से पैसा मिल पाटा है और इज्जत तो उन्हें कितनी मिलती है ये हम सब को पता ही है। तो बस मैं इसी बात के लिए दिन रात काम कर रहा था कि हमारे गाँव वालों को गाँव में ही काम मिल जाए और वो पूरे इज्जत के साथ अपने परिवार के साथ रहकर अपने गाँव में ही काम करें। इसके लिए मैंने अपनी नौकरी से पैसे बचाए और नौकरी करते हुए विभिन्न कुटीर उद्योगों का मुयायना भी किया और वो कैसे चलाये जाते हैं इस बात का गहन अध्यन भी किया और अब जब मेरे पास इस काम के लिए पर्याप्त पैसा और समझ है तो मैं इसे अपने गाँव में शुरू करना चाहता हूँ। बस एक बार मुखिया की सहमती चाहिए होती है और फिर ब्लाक में एक आवेदन देकर हम वो उद्योग चला सकते हैं हो सकता है फिर सरकार से भी कोई मदद मिल जाए और अगर मदद ना भी मिली तो भी कोई बात नहीं हमारे पास संसाधनों की कोई कमी नहीं होगी।” गणेश ने गाँव के लिए सोचे गए अपने पूरे प्लान से कर्मवीर को अवगत करवाया।

“दोस्त तुम आ जाओ। तुम्हें ये नहीं पता कि अपने गाँव के मुखिया कौन हैं अभी?”

“हाँ पता है वही मोटा खडूस है न?”

“नहीं यार अब मंगरू भैया हमारे गाँव के मुखिया हो गए हैं। इसलिए उस तरफ से तो कोई दिक्कत है ही नहीं। और यहाँ सरकारी दफ्तरों में भी मेरी थोड़ी जान पहचान है तो तुम्हें और भी कोई दिक्कत नहीं होगी। और सबसे बड़ी बात ये है कि तुम्हे और भी सुविधा इसलिए मिल जायेगी क्योंकि गाँव में बिजली आ गयी है।” कर्मवीर ने उसे अपने गाँव में बिजली लगने और मंगरू के मुखिया बनने की बात बताई।

“दोस्त मुझे ये तो पता था कि तुमने बहुत भाग दौड़ करके गाँव में बिजली की व्यवस्था करवा दी है लेकिन ये पता नहीं था कि मंगरू भैया ही मुखिया बन गए हैं तब तो ये बहुत ही अच्छी बात है। और जब मुझे ये बात पता चली थी न कि गाँव में बिजली आ गयी है तभी मैंने ये सोच लिया था कि अब सही समय आ गया है गाँव में गाँव के लोगों के लिए कुटीर उद्योग लगाने का।” गणेश ने कर्मवीर की बातों पर ख़ुशी और आश्चर्य दोनों दिखाते हुए कहा।

“अरे हाँ एक बात तो तुम्हें और बताना मैं भूल ही गया कि गाँव वाले भी जो बाहर गए थे वो सब फिर एक बार गाँव आ रहे हैं अपनी किस्मत आजमाने एक बार फिर से वो गाँव में ही रहकर देखेंगे कि बिजली आ जाने के बाद अगर गाँव की जिंदगी ही बेहतर है तो फिर वो फिर से शहर नहीं जाएँगे। मैंने उन्हें ये कहा है कि मैं गाँव में रहकर कमाने के फायदे उन्हें बताऊंगा। लेकिन अब तुम आ जाओ तुमसे बेहतर अब मैं ये काम नहीं कर सकता और हाँ मुझे हो सके तो माफ़ कर देना दोस्त मैं तुम्हें समझ नहीं पाया और तुम्हें आजतक गलत समझता रहा था। मैं तुम्हारे अन्दर की पवित्र भावना को समझ ही नहीं पाया।” कर्मवीर ने गणेश से माफ़ी माँगते हुए कहा।

“दोस्त मैंने जो किया था उसके लिए कोई भी मेरे बारे में यही सोचता। और मुझे तो तुम्हारा शुक्रिया करना चाहिए क्योंकि तुम ही मेर प्रेरणास्रोत हो तुमसे ही प्रेरणा लेकर आज मैं इतना सबकुछ करने के बारे में सोच भी पाया नहीं तो हो सकता है सचमुच मैं शहरी बाबू बनकर ही रह जाता। और हाँ मैं बस एक हफ्ते में ही गाँव आ रहा हूँ अपने पूरे प्रोजेक्ट के साथ।” गणेश ने कर्मवीर की प्रशंसा कर उसे अपनी बात बताई।

“चलो ठीक है मैं तुम्हारा इन्तजार कर रहा हूँ।” कर्मवीर ने कहा और फिर दोनों ने फोन रख दिया।

कर्मवीर भागता हुआ महवीर सिंह के पास पहुँचा। वो अभी तक वहीं बैठे थे। उन्होंने देखा कि कर्मवीर का चेहरा ख़ुशी से भरा हुआ था।

“क्या हुआ किसका फोन था?” महावीर सिंह ने पूछा।

“पिताजी गणेश ने फोन किया था।’ कर्मवीर ने काफी ख़ुशी से उत्तर दिया।

“अच्छा उससे पूछा नहीं आज कैसे याद आ गयी उसे जब गाँव से कोई मतलब ही नहीं रहा तो फिर याद क्यों कर रहा था?” कर्मवीर सिंह गणेश से थोड़ा गुस्सा थे।

“नहीं पिताजी हमसब गणेश को गलत समझ रहे हैं। उसने अपने गाँव के लिए बहुत कुछ सोच रखा है।” इतना कहने के बाद पर हुई सारी बातें कर्मवीर ने महावीर सिंह को सुना दी। महावीर सिंह को भी ये बातें जानकर काफी ख़ुशी मिली। उन्होंने कहा

“चलो मुझे इस बात की ख़ुशी है कि गाँव का लाल गाँव के ही काम आया। वही तो मैं कहूँ कि गणेश कैसे इतना ज्यादा बदल सकता है। अब वो गाँव आ जाएगा तो तुम्हे बहुत मदद मिल जायेगी हमारा गाँव तो जन्नत जो जाएगा जन्नत।” महवीर सिंह ने अपनी अपार ख़ुशी जाहिर करते हुए कहा।

“हाँ बाबूजी आप बिल्कुल सही कह रहे हैं।” कर्मवीर की तो ख़ुशी का ठिकाना ही नहीं था। उस रात कर्मवीर को बस ख़ुशी के मारे नींद नहीं आई।

एक हफ्ते बाद शहर से लगभग सारे लोग भी आ गये और गणेश भी आ गया। गणेश से कर्मवीर जब मिलने गया तो दोनों की आँखें सजल हो उठीं दोनों पहले गले लग कर खूब रोये उसके बाद दोनों में बातचीत शुरू हुई। गणेश ने सभी लोगों को एक साथ बिठाकर कुटीर उद्योग के फायदे समझाए और गाँव में ही रहकर कैसे खुशहाल जिंदगी जी सकते हैं ये कर्मवीर ने लोगों को समझाया। लगभग तीन घंटे की क्लास के बाद लोग वहाँ से संतुष्ट होकर निकले।

एक महीने बाद गणेश ने पूरी तरह से कुटीर उद्योग लगा दिया था लोग वहां काम करने लगे थे। लोग कर्मवीर के गाँव में बहुत ही खुशहाल जिंदगी जीने लगे थे। सभी लोगों को पता चल चुका था कि शहर से बहुत ही ज्यादा बेहतर जिन्दगी गाँव में गुजारी जा सकती है और इसमें गणेश का भी बहुत बड़ा योगदान था। उस गाँव की चर्चा अब काफी दूर दूर तक होने लगी थी। मीडिया वाले भी उस गाँव के लोगों से आकर उनके इस तरह खुशहाल होने का कारण पूछते थे और सभी की जुबान पर कर्मवीर का ही नाम होता था।

कर्मवीर की चर्चा इतनी फ़ैल गयी कि भारत सरकार ने कर्मवीर के गाँव ओके आदर्श गाँव चुना और कर्मवीर को एक आदर्श गाँव निर्माता का पुरस्कार देकर उसे आदर्श ग्राम योजना का मुख्य प्रचारक भी बना दिया। भारत सरकार के इस फैसले के बाद कर्मवीर को पूरे गाँव वालों ने भी एक बार फिर से सम्मनित किया। गाँव वालों ने अपने गाँव का नाम बदलकर महावीर-कर्मवीर आदर्श ग्राम रख दिया।

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