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मूड्स ऑफ़ लॉकडाउन - 14

मूड्स ऑफ़ लॉकडाउन

कहानी 14

लेखिका: प्रतिष्ठा सिंह

वे दिन

वे दिन ...

प्रतिष्ठा सिंह

घर में कुछ भी अलग-अजीब नहीं था। सब कुछ वैसे ही जैसे पिछले हफ्ते मुम्बई जाने से पहले छोड़ कर गयी थी। रोहिणी और अमर ठाकुर उस घर का एक-एक कोना संवार कर रखते थे। शादी को अब चार साल होने आए थे और उन्हें लगता था कि बहुत समय बीत गया है! वो एक दूसरे के साथ ‘सेटल’ कर गए थे। दोनों दोस्त बन गए थे और एक दूसरे को बेहद पसंद करने लगे थे। अरेंज मैरिज में किस्मत अच्छी हो तो कभी-कभार ऐसा भी होता है।

'खाली-खाली लग रहा है...’, रोहिणी फोन पर अमर से कह रही थी। अपनी नई किताब के सिलसिले में मुम्बई गयी थी। वहां इतनी मसरूफ रही कि तीन दिन समझो बस हां-हूं भर ही बात हुई थी दोनों में। फोन करने का टाइम ही नहीं मिला था। अब घर पहुंचते ही अकेलापन खलने लगा।

'अरे, अभी तो तीन दिन और हैं! मैं 24 तारीख को पहुंचता हूं।', अमर अपने मौसेरे भाई के घर बेंग्लुरू गया था। उसे वहां दफ्तर का कुछ काम भी था तो लगे हाथ दो दिन भैया-भाभी के घर भी रुक गया।

'ओके, लेकिन ये कोरोना का बहुत हल्ला हो गया है। कल कर्फ्यू है... तुम होते तो साथ में कोई फिल्म देखते।', रोहिणी ने बुझे स्वर में कहा।

'हां हां! मैंने पहले ही सोच रखा है! मैं आऊंगा तो हम ‘शक्ति’ देखेंगे... अमिताभ की फिल्म है, उस दिन तुम कह रही थी ना तुमने नहीं देखी?, अमर ने बात को पॉजिटिव बनाने की कोशिश की।

'हम्म... मैं फोन रखती हूं, नींद आ रही है। बाए! मिस यू!', रोहिणी ऊंघते हुए बोली।

अगले दिन का कर्फ़्यू कुछ खाते-पीते बीत गया। उसके घर खाना बनाने लता आंटी आती थीं। रोहिणी को खाना बनाना बिल्कुल नहीं आता था, लेकिन अमर कभी-कभार कोई टेढ़ी-मेढ़ी डिश बना लेता था। अगली सुबह जब आंटी आयीं तो रोहिणी नींद में ही थी।

'क्या हुआ बेटा जी? कल रात सोई नहीं क्या?', आंटी ने रोहिणी की अध-खुली आंखें देखकर दरवाजे पर ही टोका।

'कहां, आंटी! दिमाग कहीं और ही था! रात भर कुछ लिखती रही... एक कप कॉफी हो जाए!', रोहिणी के चेहरे पर उदासी और थकान का पर्दा था। आंटी कुछ और पूछना चाहती थीं, लेकिन बिना कुछ कहे वो कॉफी बनाने चल दीं। सुबह की पहली कॉफी रोहिणी, अमर और आंटी तीनों साथ बैठ के पीते थे।

कॉफी के दो प्याले टेबल पे रखते हुए आंटी ने पूछा, 'क्या लिख दिया ऐसा, बेटा जी? हमें नहीं सुनाओगी?'

रोहिणी अक्सर अपने लेख और किताबों के अंश आंटी को पढ़कर सुनाती थी। फिलहाल उसने कॉफी का कप उठाया और उसकी किनारी पे धीरे-धीरे उंगली घुमाने लगी। वो चुप थी और मानो शून्य में कहीं खो गयी थी। आंटी ने अपना प्याला उठाया और जोर से एक चुस्की भरी।

'कॉफी बढ़िया बनी है आज, है ना बेटा जी?', उन्होंने रोहिणी को होश में लाने के लिए आवाज ऊंची करके कहा।

'हुह? हां, हां... लेकिन कॉफी...', रोहिणी मानो किसी सपने से उठी हो 'लेकिन मैंने तो अभी तक...' कहकर वो आंटी की ओर देखने लगी।

'अभी तक आपने कॉफी पी ही नहीं!', आंटी ने मुस्कुरा कर कहा।

रोहिणी भी हंस दी और कॉफी पीने लगी।

'आंटी, वहां मुम्बई में बहुत ग़रीबी है...'

आंटी खामोश थीं। उन्होंने अपनी टूटी हुई चप्पल की तरफ देख जिसे उन्होंने दरवाजे के पास ही उतार दिया था। वो अपने अपाहिज बेटे के बारे में सोचने लगीं। गरीबी कहां नहीं है? और जहां है, नाखूनों के अंदर जा बसी है। कैसे निकाला जाए इस गरीबी के मैल को?

'आंटी, वहां कई लोग सड़क पे सो रहे थे। मैंने फोटो भी खींची थी। देखिए!', रोहिणी ने अपना फोन आंटी के सामने रख दिया।

आंटी ने मुंह उठाकर फोटो देखी और अफसोस में सिर हिलाने लगीं।

'इन बेघरों पर कुछ लिखा है... सुनाओगी?'

आंटी ने हां में सर हिला दिया।

'आदमी, औरत, नवजात बच्चे, कुत्ते, चूहे और बीमार वृद्ध जन, सब एक साथ सो रहे थे। रात 9 बजे का वक्त था और कोलबा शांत था। कोरोना वायरस के खतरे से सब पहले ही घरों में बंद हो चुके थे। इस मानव समूह का कोई नाम, कोई घर नहीं था। मेरी नजर उन पर अचानक ही पड़ी और मैंने ड्राइवर को गाड़ी रोकने को कहा। उनकी फोटो खींचते समय मुझे खुद पर भी शर्म आ रही थी। क्या किसी के बेडरूम की इस तरह फोटो खींचना सही है? क्या ये उनकी गलती थी कि उनका बेडरूम बीच चौराहे में तारों के नीचे था? उन्हें कुछ देर देखती रही तो लगा कोई भी अमीर पैसा कमाता नहीं है। उसे ‘कमाई’ नहीं कहना चाहिए। इसे पैसा ‘लेना’ या ‘छीनना’ कहना ही सही होगा...', अचानक दरवाजे की घंटी बजी और दोनो चौंक गयीं।

आंटी ने कप टेबल पर रखा और दरवाजा खोलने चल दीं।

'हां, भई? साहब हैं? मैडम?”, बिल्डिंग का मैनेजर मिश्रा था। रोहिणी भी दरवाजे पर पहुंची।

'मैडम, ऐसा है, ये आपकी काम वाली यहां नहीं रह सकती! बिल्डिंग में बाहर के लोगों का आना बंद हो गया है।', उसकी आवाज में एक अजीब सी क्रूरता थी, हालांकि ये सब वो तमीज से ही कह रहा था।

'चलो भई! निकलो!', उसने आंटी को देखकर कहा।

'ऐ! मेरी आंटी से तमीज से बात करेंगे आप! कोई सरकारी रूल नहीं है ऐसा! कर्फ्यू कल था, कल तो किसी ने रोका नहीं... आज जागे हैं आप?', रोहिणी गुस्से से तमतमा गयी।

कुछ देर बहस करने के बाद मैनेजर चला गया। आंटी ने दाल और चावल बना दिए। नाश्ते में पहले ही देर हो चुकी थी। रोहिणी ने कहा एक साथ ब्रंच ही कर लेगी। फिर आंटी झाड़ू ले आयीं।

'आंटी, मुझे लग रहा है, मैंने बेकार में ही लड़ाई की मिश्रा से! शायद आपका ना आना ही ठीक है। आप भी घर में ही रहिए कुछ दिन...', रोहिणी ने बुझी आवाज में कहा।

'मैं नहीं आऊंगी तो आप खाओगे क्या, बेटा जी? मैगी पर कितने दिन चलाओगी?', आंटी ने मजाक किया। वो पहले भी कई बार रोहिणी को खाना बनाना सीखने की सलाह दे चुकी थीं। लेकिन रोहिणी के पास कभी वक्त ही नहीं होता था।

'एक दो दिन की ही बात है, फिर अमर आ जाएगा! कुछ ना कुछ कर लेंगे! आप झाड़ू छोड़ दो! मैं आपको गाड़ी में घर छोड़ आटी हूँ!', रोहिणी सोफे से उठ खाड़ी हुई और कपड़े बदल के आ गयी।

रास्ते भर आंटी कहती रहीं की वो पैदल चली जाएंगी। कोई दो तीन मिनट में उनका घर आ गया। रोहिणी ने उनके हाथ में कुछ पैसे रख दिए। 'ये अभी एक दो दिन के लिए हैं। अमर आएगा तो अगले महीने की तनख़्वाह आपके अकाउंट में डाल देंगे। और भी अगर पैसे चाहिए हों, तो आप बता देना प्लीज!', रोहिणी का अपनापन जरा भी बनावटी नहीं था। आंटी ने उसके सिर पे हाथ रखा और घर के अंदर चली गयीं।

रोहिणी मार्केट गयी। एक आध दुकान खुली थी। उसके कुछ पैकेट लस्सी खरीद ली और एक बड़ा पैकेट मैगी।

दिन भर बालकनी में बैठ वो सड़क को ताकती रही। एक डरावना सन्नाटा छा रहा था। कुछ फोन आए, लेकिन उसने कोई फोन नहीं उठाया। शाम को अमर का फोन आया। उसकी आवाज़ में कुछ गम्भीरता थी, 'रोही, यहां तो सब तरह की बातें चल रही हैं। शायद लम्बे समय तक कर्फ्यू लग जाए... प्लेन कैन्सल होने की बात भी हो रही है। ऊपर से भैया कह रहे हैं कि फ्लाइट हो भी तो सफर करना ठीक नहीं। कोरोना का खतरा...'

'तो मत आओ! रह जाओ वहीं! मुझे क्या फोन कर रहे हो? मैं ठीक हू! मुझे कुछ नहीं होगा। और यहां ऐसी बात भी नहीं हो रही। तुम आराम से रहो भैया के साथ!', रोहिणी ने फोन काट दिया और बालकनी में जाकर रोने लगी। फोन कुछ देर बाद फिर बजा।

'रोही, प्लीज बात सुनो! इसमें मेरी क्या गलती है? मैं भी तो तुम्हारे साथ ही रहना चाहता हूं, लेकिन अगर फ्लाइट...', अमर की बात पूरी होती उससे पहले ही रोहिणी ने फोन फिर से काट दिया। वापस सोफे पर आयी और रोते रोते सो गयी। रात तीन बजे आंख खुली तो भूख के मारे हाल खराब था। आंटी के दाल चावल खाने के बाद, उसने अपना फोन चेक किया। अमर के कई मैसिज थे। उसने बिना कुछ सोचे फोन लगा दिया।

'रोही!', अमर की आवाज नींद से भारी थी 'क्या हुआ? सब ठीक तो है?'

'सॉरी!', रोहिणी ने धीरे से कहा।

'पागल! कोई बात नहीं! मेरा भी हाल खराब है। अभी तो कुछ समझ नहीं आ रहा। फ्लाइट भी कैन्सल हो गयी है। मैं पूरी कोशिश कर रहा हूं!'

'लेकिन तुम तो सो रहे थे!', रोहिणी ने शिकायत की।

'रात के तीन बजे क्या कोशिश करूंगा, रोही!', अमर हंसने लगा।

रोहिणी भी अब थोड़ा ठीक महसूस कर रही थी। दोनो ने कुछ देर बात की और फिर सो गए।

लॉकडाउन! इस शब्द के असल मायने अब भी रोहिणी समझ नहीं पायी थी। हफ्ता बीत चुका था। वो दिन भर फर्नीचर की तरह पड़ी रहती थी। भूख लगती तो मैगी खा लेती, मन खराब होता तो थोड़ा रो लेती और अमर का फोन आता तो बात कर लेती। लेकिन अब उसने शिकायत करना कम कर दिया था। कोई फायदा नहीं था। अमर भी परेशान था और उसकी परेशानी में इजाफा करने की रोहिणी की कोई इच्छा नहीं थी।

शाम को उमर खय्याम की शायरी पढ़ती रहती और दिन भर घर में ओपेरा संगीत बजता रहता था। रोहिणी के जीवन में एक अनदेखा ब्रेक लग गया था। टीवी देखना का उसे कोई शौक नहीं था। कभी-कभी अपने फोन पे खबरें पढ़ लेती और कभी फेसबुक का दौरा लगा लेती।

'क्या कर रही हो?', अमर का फोन हर कुछ घंटों में आता था।

'तुमने देखा? मजदूरों को देखा?', रोहिणी अभी कुछ खबरें पढ़ के हटी थी।

'हां यार! भयावह है!', अमर की आवाज में चिंता थी, लेकिन रोहिणी के अंदर इस खबर ने तूफान मचा दिया था।

'अमर, कोई पांच सौ किलोमीटर कैसे चल सकता है? खाएगा क्या?'

'पता नहीं! मेरे पास सच में कोई जवाब नहीं हैं, रोही! तुमने कुछ खाया?'

'मैंने कॉफ़ी पी थी... अमर, बारिश भी हो रही है हल्की हल्की... जो पैदल सड़क पे हैं उनका क्या होगा? बच्चे भी थे! मैंने फोटो देखी थी नेट पर।'

'रोही, कुछ ना कुछ हो जाएगा। अकेली हो, इतना परेशान मत हो प्लीज। कुछ खा के सो जाओ!'

रोहिणी को भूख नहीं थी। वो अपने कमरे की बालकनी में गयी, जहां वो अक्सर जाती थी। यहां से बिल्डिंग का मेन गेट दिखता था। वहां चौकीदार खड़े थे। कोई नीचे बिल्डिंग कम्पाउंड में सैर कर रहा था। रोहिणी को अजीब सी घुटन हो रही थी। वो वापस अंदर आ गयी। फिर ड्रॉइंग रूम में जा बैठी। यहां भी एक बालकनी थी, जहां रोहिणी कभी नहीं जाती थी। उसने सोचा क्यूं ना आज इधर से बाहर का नजारा देखा जाए। वो बाहर गयी और सड़क देखकर उसकी आंखें पथरा गयीं।

शाम अपना काम कर चुकी थी। एक अच्छे ऐक्टर की तरह अपने परफॉर्मेँस के बाद मानो अपना सर झुकाए खड़ी थी। स्टेज अब रात के हवाले था। रात धीरे धीरे इस मंजर को अपनी बाहों में समेट रही थी। कुछ चींटीनुमा आकृतियां सड़क पे चली जा रही थीं। उनकी कतार लम्बी थी और उनके कदम अस्थिर, लेकिन वो चले ही जा रहे थे। रात के गहराने से उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ रहा था। सबके हाथ में कोई बैग या पोटली थी। किसी ने अपनी मुट्ठी में अपने बच्चे की उंगली छुपाई हुई थी। छोटी कुछ लड़कियां भी थीं। उनके कपड़े चमकीले थे, सिन्थेटिक फ्रॉकें जो दूर से बेहद खूबसूरत लग रही थीं। चींटी की तरह सबने अपने वजन से कई गुना बोझ उठा रखा था। जिसके पास बैग या पोटली नहीं थी, उसके दिल पे पत्थर तो था ही। सब बोझा लिए चले जा रहे थे। रोहिणी सन्न रह गयी। जो लोग अब तक सिर्फ नेट की एक तस्वीर थे, अब चींटी जैसे रेंगते हुए उसकी बिल्डिंग के पास आ पहुंचे थे। नोएडा की ये सड़क सीधे हाइवे में मिलती है। ये सब वहीं जा रहे होंगे। लेकिन हाइवे पे पहुंचकर क्या होगा? कहां जाएंगे ये लोग? क्या इनका बोझा कभी हल्का होगा?

रोहिणी कई घंटे मजदूरों की कतारों को तकती रही। वहीं बालकनी में जमीन पे बैठकर उसने मैगी खायी। जब मच्छरों ने जान लेने की कसम खा ली, तब वो उठ कर भीतर चली गयी। नहायी और सो गयी। सपने में उसने देखा के वो किसी पहाड़ी से गिर रही है और नीचे चींटियों की कतार है। नींद में भी वो समझ नहीं पा रही थी कि खुद को गिरने से बचाए या नीचे चलती चींटियों को।

अगले दिन सुबह उठी तो हल्का बुखार था। अमर ने फोन पे कई बार बात की, उसने रोहिणी को कहा कि थोड़ी देर उठ कर कुछ खा ले, लेकिन रोहिणी का मन नहीं था। अमर डर रहा था कि कहीं रोहिणी को कोरोना संक्रमण तो नहीं हो गया, लेकिन ऐसा बोलना उसे ठीक नहीं लगा। रोहिणी को सांस लेने में तो कोई तकलीफ नहीं थी, लेकिन उसका दिल बैठा जा रहा था। कई बार उसका मन करता कि बालकनी में जाकर देखे। क्या आज भी लोग जाते होंगे? जो कल चले थे, आज कहां तक पहुंचे होंगे? लेकिन फिर उसे घबराहट होने लगती, मानो कोई गहरा काला अंधेरा बालकनी में उसका इंतजार कर रहा हो। कुछ उसे भीतर से कोंच रहा था। वो दिनभर सोती-जागती रही। पानी पी कर दिन बिता दिया। आधी रात में आंख खुली तो मानो कलेजा मुंह को आ रहा हो। भाग के बाथरूम गयी और काफी देर तक उल्टी करती रही। फिर वापस कमरे में आयी तो कुछ बेहतर लग रहा था। भीतर के सब डर का उसने वमन कर दिया। उसने थोड़ा पानी पिया और एक कॉफी और दो बिस्कुट खाकर सो गयी।

सुबह अच्छी धूप खिली थी। कुछ सोचकर उसने आंटी को फोन किया और बोली, 'आंटी, पुलाव कैसे बनाते हैं? वो पीले वाला मटर और आलू वाला?'

आंटी ने उसे डिटेल में समझाया। फिर भी पकाते समय उसे दो-तीन बार उसे फिर से उन्हें फोन करना पड़ा।

'पांच गिलास चावल में एक किलो आलू बहुत हैं?', उसने पूछा।

'कितना बना रही हो, बेटा जी?', आंटी ने हैरानी से पूछा।

'छोटे-छोटे पैकेट बना रही हूं। काम से कम 20-25 बन जाएं! फिर कल और समान लाकर देखूंगी।', उसने कहा।

आंटी ने सब समझा दिया। पुलाव पक कर तैयार था, अब रोहिणी ने पिकनिक वाले एल्यूमिनीयम फॉइल के डिब्बे निकाले और एक-एक करके पुलाव से भरती गयी। उसने सोचा शायद कुछ कमी है। उसने ऊपर वाली कबर्ड से एक बड़ा मर्तबान निकाला और हर डिब्बे में एक-एक आम का अचार भी रख दिया। ये अचार उसकी मां ने बनाया था। बड़ी किफायत से इस अचार को खाया करती थी, ताकि लम्बे समय तक चले। लेकिन आज खाने के पैकेट में रखते हुए उसे जरा भी अफसोस नहीं हुआ। मां भी सुनकर खुश ही होंगी। उसने जल्दी जल्दी पैकेट बंद किए और एक कपड़े के झोले में रख लिए। नीचे जाने से पहले उसने एक बार बालकनी में जाकर देखा। वहां सड़क पर कोई नहीं था। एक मिनट को तो उसका दिल टूट गया। उसने सोचा इतनी मेहनत बेकार ही की। लेकिन तब उसे खयाल आया कि गर्मी में दिन में कौन पैदल चलेगा? शाम तक इंतजार करना चाहिए। वो बालकनी में ही एक कुर्सी और किताब लेकर बैठ गयी। अंदर-बाहर आते जाते शाम ढलने लगी। सड़क पे फिर से कुछ लोग दिखे, लेकिन कतार उतनी नहीं थी, जितनी दो दिन पहले। फिर भी वो दौड़ के अपना झोला उठाए बिल्डिंग के गेट पर पहुंची। चौकीदार ने पूछा, 'मैडम, कहां ज रही हैं? अपनी बिल्डिंग रेड जोन हो गयी है कल से! एक केस पकड़ा गया है... बाहर जाना मना है!'

पास ही पुलिस की गाड़ी भी खड़ी थी। एक हवलदार भी आ गया। कुछ देर तक बहस होती रही। तभी मिश्रा वहां पहुंच गया। उसने रोहिणी को देखा और चौकीदार को बोला, 'भई, बाहर सड़क तक ही तो जा रही हैं! जाने दो।'

रोहिणी को यकीन नहीं हो रहा था कि मिश्रा उसकी पैरवी कर रहा है।

पुलिस वाला बोला, 'जाओ जी मैडम, जाओ! हम आपका जज़्बात समझते हैं! लेकिन बस आज ही!'

रोहिणी ने पूरी बात सुनी भी नहीं और बाहर जाकर मजदूरों को एक-एक पैकेट देती गयी। कुछ लोगों ने कहा कि उनके पास खाने के लिए है और हाथ जोड़कर आगे चल दिए। एक आदमी ने पूरे परिवार के लिए दो ही डिब्बे लिए और बोला, 'इतने में हो जाएगा! बहुत धन्यवाद आपका!'

सब डिब्बे देने में कुछ ही मिनट लगे। अब लोगों की कतार और लम्बी हो गयी थी। झुंड के झुंड चले जा रहे थे। रोहिणी वापस गेट पर आ गयी और पुलिस वाले को धन्यवाद कहा। उसने अपनी बात दोहरायी, 'मैडम, आज हो गया, कल नहीं करने दे सकते। हमारे सीनियर भी होंगे कल!'

वो चुप चाप गेट के अंदर दाखिल होने ही लगी थी कि उसे दो जाने पहचाने चेहरे दिखे। ये एक पहाड़ी दंपति था, पता नहीं किस मंजिल पर रहते थे, लेकिन उनका एक गठीला, पैना सा एक कुत्ता था जिसका चेहरा एकदम उस आदमी से मिलता था। ये कुत्ता कभी बेवजह भौंकता नहीं था। हमेशा सीधा खड़ा रहता। कोई इमोशन ही नहीं दिखाता था! अमर के साथ इन लोगों ने कई बार इन तीनों को सैर करते देखा था। वे बाहर जा रहे थे और दो थैले हाथ में लिए थे।

'आपको जाने दे रहे हैं?', रोहिणी ने हैरानी से पूछा।

'जी, मैं पुलिस में हूं ना... वैसे हम बस इस कोने तक जा रहे हैं। ‘बड्डी’ की सैर भी हो जाती है और हम कुछ और जानवरों के लिए खाना भी रख आते हैं।', उस आदमी ने बड़ी सहजता से कहा।

फिर उसकी पत्नी बोली, 'आप भी आ जाइए! हम यहीं हैं, चौकीदार की नजरों के सामने। सड़क तक नहीं जाते।'

रोहिणी भी उनके साथ हो ली। लगभग 20-25 क़दम ही चले होंगे कि कई कुत्ते उनकी ओर आने लगे। दोनों ने खाना रखना शुरू किया... कुछ रोटियां उन्होंने रोहिणी की तरफ भी कर दी। वो भी उन्हें तोड़-तोड़ कर स्नेह से परोसने लगी। फिर सब वापस बिल्डिंग में दाखिल हो गए।

'क्या मैं रोज आपके साथ जानवरों को खाना देने जा सकती हूँ?', रोहिणी ने पूछा।

'क्यूं नहीं! हम रोज इस वक्त ही जाते हैं। आप भी कुछ बना लाएंगी तो अच्छा ही रहेगा।', पत्नी बोली।

'क्या बनाऊँ? मुझे तो रोटी बनाना नहीं आता...'

'कोई बात नहीं, आप चावल बना लाइए! और हाँ, अगर किसी दिन रोटी खाने का मन करे तो हमारे घर आ जाइएगा बेझिझक!', पत्नी बहुत हँसमुख थी।

रोहिणी ने उन दोनों का शुक्रिया किया और ‘बड्डी’ को प्यार से सहलाया।

घर वापस आकर उसने अमर को फ़ोन किया और पूरी बात बतायी।

'और अभी फिलहाल मुझे बिल्कुल बुख़ार नहीं है और जबर्दस्त भूख लगी है! अपने हाथ का बना पुलाव खाने जा रही हूं, रात को बात करेंगे!'

अमर को काफी इत्मिनान हुआ।

रोहिणी ने खाना खाया और लैपटॉप खोल के बालकनी वाली कुर्सी पे बैठ गयी। नीचे सड़क पे लोग चले जा रहे थे। मजदूरों की दुर्दशा के बारे में उसने एक लम्बा लेख लिखा और एक वेबसाइट को भेज दिया। उन्होंने लेख अगले दिन छाप भी दिया।

अमर ने लेख पढ़ा और उसे फोन किया।

'तुम इन सब की तकलीफ में दिल से उनके साथ हो! मुझे पता है तुम्हें कई बातें बहुत गहरा असर करती हैं। लेकिन गरीब मजदूरों की दुविधा में हम कम से कम दिल से तो उनका साथ दे ही सकते हैं! तुम्हारा लेख सोचने पर मजबूर कर देता है। अंतिम लाइन मुझे बहुत पसंद आयी। जो है, उसमें खुश रहना होगा, क्योंकि घरों में बंद लोगों के पास कम-से कम घर तो हैं! वेल डन, रोही!'

'थैंक्स! लेकिन अभी मैं बात नहीं के सकती... शाम के लिए चावल बनाने हैं सब जानवरों के लिए!', कहकर रोहिणी ने फोन रख दिया।

आगे लॉकडाउन कितना लम्बा था, क्या पता लेकिन हर दिन किसी की मदद करने की कोशिश ने रोहिणी को अमर के बिना भी गुजारा करने की शक्ति दी। और सबसे अच्छी बात की ‘बड्डी’ और रोहिणी गहरे दोस्त भी बन गए!

लेखिका परिचय

डॉ. प्रतिष्ठा सिंह, दिल्ली विश्विद्यालय में इतालवी साहित्य पढ़ाने के साथ ही हिंदी, अंग्रेज़ी और इतालवी में कहानी-किताबें लिखती रही हैं। भारत में इटली से “नाइटहुड” की उपाधी पाने वाली सबसे कम आयु की स्कॉलर हैं। इन्होंने प्रसिद्ध कवि गुलज़ार की एक सौ एक कविताओं का अनुवाद इतालवी में किया है।