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मूड्स ऑफ़ लॉकडाउन - 17

मूड्स ऑफ़ लॉकडाउन

कहानी 17

लेखिका: शुचिता मीतल

उसकी बातें

उसने मोबाइल पर टाइम देखा। सवा तीन। तीन बजे का सिंड्रोम। रोज़ाना रात को तक़रीबन इसी वक़्त उसकी आंख खुल जाती है। फिर चार-पांच बजे तक करवटें बदलती, टहलती, कभी सोती-कभी जगती, फिर जो सोती है तो आठ बजे से पहले नहीं उठती। हां, आजकल लॉकडाउन में जल्दी उठना पड़ता है। सुबह को दो-तीन घंटे ही गेट खुलता है, तो दूध वग़ैरा लाने जाना पड़ता है। उसका ध्यान खिड़की से आती कुछ अलग रुहानी सी रोशनी पर गया। उसने उठकर परदा हटाकर झांका। खिड़की के पार दूर आसमान के माथे पर टिकुली सा चांद जगर-मगर कर था।

वो बालकनी में चली आई। चारों ओर सन्नाटा पसरा था। वैसे तो आजकल दिन में भी सड़कों पर सन्नाटा सा ही छाया रहता है। बस गाहे-बगाहे कोई कार निकल जाती है, कोई साइकिल से गुज़र जाता है, या सब्ज़ीवाला दिख जाता है। उसने ऊपर नज़र घुमाई। बालकनी से दिखने वाले उसके हिस्से के आसमान में, दाहिनी ओर की दूसरी सोसाइटी पर और सामने के मैदान में चांदनी बिखरी थी। एक तारा सबसे अलग कुछ ज़्यादा ही टिमटिमा रहा था।

चांदनी रातें उसे बहुत अज़ीज़ थीं, अब से नहीं बचपन से ही, जब वो एक छोटे से शहर अपने घर में गर्मियों में छत पर चारपाइयों पर सोते थे। घर के सारे लोगों की अपनी-अपनी चारपाइयां, सब पर मच्छरदानियां लगी। अचानक उसे एक बार का वाक़ेया याद आ गया जब एक रोज़ सुबह उसकी आंख देर से खुली थी। परिवार के सारे लोग नीचे जा चुके थे। उसने मुंह से चादर उठाई और दो फ़ुट दूर रेलिंग पर एक मोटे से बंदर को अपनी ओर देखते पाया। बारह-तेरह साल की रही होगी वो। डर के मारे उसने वापस चादर तान ली। वो तो पड़ोस के एक भाईसाहब ने देख लिया और शोर मचा दिया था, “अंकल, छत पर बंदर है!” और पापा-भाई डंडे लेकर भागते आए, बंदर को भगाया। बंदर बहुत होते थे तब। एक बार तो एक बंदर उसके पास रखा रोटी का कटोरदान उठाकर तिमंज़िले पर जा बैठा था। कितने केले दिखाए, ललचाया-धमकाया तब जाकर उसने कटोरदान छोड़ा था। कितनी बार झुंड का झुंड आ जाता और टीवी के एंटीनों को हिला-हिला डालता था। टीवी के एंटीने! उफ़, आजकल के बच्चे तो समझ ही नहीं सकते। तिमंज़िले पर पचास-साठ फ़ुट के एंटीने लगते थे, कितने तारों से बांधकर उन्हें रोका जाता था। और उन तारों में कभी पतंगें फंसती थीं तो कभी चिड़ियां टकराती थीं। ये भी एक काम ही होता था कि कोई टीवी के एंटीनों को घुमाए और आवाज़ें लगाकर पूछा-बताया जाए कि रिसेप्शन ठीक आ गया या नहीं। एक के बाद एक यादें फ़िल्म की रील की तरह दिमाग़ में चलती जा रही थीं।

शाम को छत पर पानी छिड़कते, बिस्तर बिछाते। और रात को ठंडी-ठंडी चादरों पर लेटना। तब रातें कितनी अच्छी लगती थीं। पॉल्यूशन और तेज़ रोशनियों के बिना आसमान गहरा नीला दिखता था, मुकैश जड़े आंचल की तरह उस पर दूर तक बेतरतीब से छितरे तारे, जब-तब टूटकर गिरता कोई तारा—उसे हैरानी होती थी कि ये तारे आख़िर कहां गिरते होंगे। रातों को ज़ोर-ज़ोर से कहीं कोई पक्षी चीख़ता और कहीं और से कोई उसे जवाब देता। पता नहीं वो उसका साथी होता होगा या कोई बड़ा-बूढ़ा जो डपटकर उसे चुप कर रहा होता होगा। यहां उसकी सोसाइटी के आसपास उल्लू की नस्ल का खसूसट सारी रात बहुत चीख़ता है, अजीब दर्द भरी सी आवाज़ लगती है उसकी। उन दिनों भी अक्सर वो आज की जैसी ही चांदनी रात में उठ जाती थी और देर तक अपनी चारपाई पर बैठी चांदनी में नहाए दूर तक फैले घरों की डिब्बे जैसी दिखती छतों को, कहीं नीम तो कहीं पीपल के पेड़ों के शिखरों, और उनके पार शहर की सफ़ेद-शफ़्फ़ाफ़ जामा मस्जिद को देखती रहती। सब कुछ रहस्यमयी सा लगता था।

अलग ही दिन थे वो। शामों से छतों पर रौनक़ लग जाती थी, कहीं पतंगें उड़तीं, तो कहीं छोटी सी छत क्रिकेट का मैदान बनी होती थी, तो कहीं बस दूर की छत पर खेलती-बतियाती, काम में लगी लड़कियों को ताड़ा जा रहा होता था। उन दिनों प्यार भी बस छतों-छतों वाले होते थे। छतों पर शुरू और न जाने कब वहीं ख़त्म। छतों पर पढ़ते वक़्त बहुत ध्यान रखना होता था। कभी ग़लती से भी किसी की ओर निगाह चली जाए, तो बस वो लड़का सातवें आसमान पर पहुंच जाता, “फ़लां लड़की ने मुझे देखा। शायद मुस्कुराई भी थी।“ और अगले ही दिन से नियमित रूप से वो अपनी छत पर नज़र आने लगता। एक-दो रोज़ में ही लड़की के स्कूल-कॉलेज का पता लगाकर चार-फ़ुट आगे-पीछे रहते हुए उसे सुरक्षित पहुंचाने-लाने की ज़िम्मेदारी भी ओढ़ लेता। फिर दस-पांच रोज़ में या तो लड़की के बाप-भाई से पिटता या लड़की से गाली खाता और कुछ दिन मजनूं बना फिरने के बाद फिर किसी और लड़की की खोज में लग जाता। मगर आजकल की तरह ताव खाकर बदला-वदला लेने की नहीं सोचता था। गाली-गलौज भी नहीं करता था।

वैसे, आजकल गालियां देना कितनी बढ़ गया है। टीवी सीरियल्स और फ़िल्मों ने तो अश्लीलता और गालियों को लेकर सारी हदें ही पार कर दी हैं। ज़रा-ज़रा से लड़के और लड़कियां भी बात-बेबात मां-बहनों को बातों में घसीट लाते हैं। एक बार तो, फ़ेसबुक पर उसकी दोस्त के बेटे के किसी दोस्त की पोस्ट थी जिसमें बस भद्दी सी गाली लिखी थी, और तो और उसे कुछ लोगों ने लाइक भी किया था। वो तो शॉक्ड रह गई, डिस्गस्टिंग! मन चाहा था कि अपनी दोस्त के बेटे की क्लास ले डाले। अरे, फ़ेसबुक सोशल मीडिया है, पब्लिक टॉयलेट (वैसे पब्लिक टॉयलेट में भी क्योंकर कुछ लिखा जाए) नहीं कि जो मर्ज़ी लिख दो। लेकिन कुछ कहने की जगह उसने उस बच्चे को अनफ़ॉलो कर दिया। आजकल किसी से कुछ कहने-सुनने का ज़माना नहीं रहा। अपनी इज़्ज़त अपने हाथ में है। फिर एक ख़्याल उसके मन में उठा, नोटबंदी की तरह सरकार मां-बहन की गालियों पर ब्लैंकेट बैन क्यों नहीं लगा सकती? चाहें तो सरकारें कुछ भी कर सकती हैं। मगर चाहें ना! चाह तो ये भी सकती हैं कि चुनावों के बाद अगर किसी सांसद-विधायक का ‘हृदय-परिवर्तन’ हो और वो दूसरे पक्ष से जुड़कर ‘देश की सेवा’ करना चाहे तो पहले अपने क्षेत्र से इस्तीफ़ा दे, दुबारा जनता के सामने पेश होकर चुनाव लड़े। जिससे जनता ख़ुद को ठगा सा महसूस न करे और वो भी इज़्ज़त पाए। लेकिन उसकी बातें किस तक पहुंचेंगी और कोई क्यों ध्यान देने लगा?

हल्की ठंडी हवा के साथ ख़ुशबू का एक झोंका उसे वर्तमान में ले आया। कौन सा फूल होगा? रात की रानी, चमेली, बेला या चंपा? अच्छा, ये फूलों के नाम ज़्यादातर फ़ीमेल क्यों होते हैं? ऊंह.... जाने कहां-कहां की बातें उसके दिमाग़ में चली आती हैं। वैसे, ख़ुशबू वाले फूल उसे बहुत पसंद हैं। रात की रानी, मोगरा, चमेली, बेला... उसे हमेशा से लगता है कि रात की रानी से महकती चांदनी रातें किसी को भी दीवाना बना सकती हैं। और साथ में धीमी आवाज़ में तलत महमूद या रफ़ी के पुराने गाने हों तो वो सारी रात आंखों में निकाल दे... मगर फ़िलहाल तो एक मच्छर ने कान में गुनगुन करके उसे कमरे में वापस जाने पर मजबूर कर दिया। एक मच्छर भी इंसान को... नचाकर रख देता है। ऐसे ही उसके मन में एक आइडिया कौंधा। क्या मच्छर कोई क्राइम सॉल्व करवा सकता है? मान लें, कोई मर्डर हुआ है, और प्राइम सस्पैक्ट के पास पक्की एलिबाइ है कि वो शहर में नहीं था। तहक़ीक़ात कर रहे तेज़ डिटेक्टिव की नज़र कमरे की दीवार पर बैठे एक मोटे से मच्छर पर गई और उसने बड़ी सावधानी से उसे एविडेंस बैग में सहेज लिया। उसके नन्हे से जिस्म में भरे ख़ून का डीएनए प्राइम सस्पैक्ट के डीएनए से मैच कर गया और उसका पर्दाफ़ाश हो गया। क्या बात है! उसने ख़ुद को दाद दी, क्या यूनिक आइडिया है। ये तो करमचंद को भी नहीं सूझा होगा। उसे हंसी आ गई। वैसे इस आइडिया को डैवलप किया तो जा सकता है! मगर आजकल वो कुछ लिख ही नहीं रही है। दिमा़ग़ जैसे ठस्स सा हो गया है। फ़ाइल खोले बैठी रहती है अक्सर, फिर बंद करके फ़ेसबुक या नेटफ़्लिक्स या एमेज़ॉन प्राइम वग़ैरा पर कुछ देखने लगती है। कुछ दिन पहले “फ़ॉरगॉटेन आर्मी” देखा। अच्छा सीरियल है नेताजी की आईएनए पर। सबको ज़रूर देखना चाहिए और याद करना चाहिए कि उस वक़्त के लोगों ने, नौजवानों ने किस क़ीमत पर आज़ादी हासिल की थी, जिसे आजकल हम कौड़ियों के मोल ले रहे हैं।

बिस्तर पर आंखें खोले लेटे-लेटे अचानक उसे अपनी बचपन की एक दोस्त का ध्यान आ गया जिसे उसने कल व्हाट्सएप पर ब्लॉक किया था। उफ़! कितनी नेगेटिव पोस्ट भेजती है। पहले भी उसे मना किया था कि मुझे अपने आसपास नेगेटिविटी पसंद नहीं है। मगर नहीं, उसे ही बुरा-भला कहने लगी। उसने भी झट से ब्लॉक कर दिया। नहीं चाहिए ऐसी दोस्त जिससे पल-दो पल बात हो और तनाव घंटों का हो जाए। आजकल तो जिसे देखो, वही बात-बिना बात हवा में नफ़रत घोल रहा है। न ये देखते हैं कि उनके ग्रुप में कोई दूसरे जाति-धर्म का या प्रांत का है, बस कहीं से कोई मैसेज आया और उसे जस का तस चेंप दिया। लगता है जैसे लोग बस नफ़रत ही बो रहे हैं, काट रहे हैं, पका-खा रहे हैं, हग रहे हैं। उसे कोफ़्त होती है इस सबको देखकर। इसीलिए वो ज़्यादा किसी से बात नहीं करती। अपने आप में मस्त, ख़ुद से हज़ारों-हज़ार बातें करती रहती है, मगर किसी को कानोकान ख़बर नहीं होती। अज़हर इनायती का एक शेर वो जब-तब ख़ुद के लिए पढ़ती है:

मज़ा देने लगे जब ख़ुदक़लामी,

तो फिर काहे को मैं तुझ मुझ से बोलूं।

सोचते-सोचते न जाने कब आंख लग गई। उसे ज़्यादा नींद नहीं चाहिए होती। चार-पांच घंटे सो ले तो तरोताज़ा हो जाती है। लॉकडाउन में ज़्यादा कुछ करने को भी तो नहीं है। शुरू के कुछ दिन जोश-जोश में उसने सारी अल्मारियां साफ़ कर लीं, गर्म कपड़े सहेज दिए, फिर फ़्रिज, और किचन भी साफ़ कर डाला। बस कुछेक ड्राअर्स रह गई हैं तो उन्हें छोड़ रखा है कि कुछ तो करने को रहे। आजकल अगर किसी चीज़ को लेकर उसे ख़ुद पर झल्लाहट होती है तो कपड़ों को देखकर। अल्मारी खोलती है तो सब फ़ैब इंडिया टाइप कॉटन के कपड़े। बिना प्रेस तो घर में भी नहीं पहने जा सकते। पहले जब घर-परिवार में महिलाओं को ऐसे कपड़े चुनते देखती थी कि बस धोया और पहन लिया, तो लगता था कि ऐसे कपड़े कोई कैसे पहन सकता है। अब लगता है कुछ कपड़े ऐसे ले लिए होते तो कितना अच्छा होता। कभी सोचा ही नहीं था कि ऐसा भी वक़्त आएगा जब प्रेस करने वाले नहीं मिलेंगे। लॉकडाउन खुलने पर वो दो-तीन जोड़ी वाश एंड वीयर टाइप कपड़े ज़रूर लेगी।

आज लॉकडाउन को क़रीब डेढ़ महीना हो गया है। इंटरनेट पर वो देख रही थी कि नदियां, आसमान कितने साफ़ हो गए हैं, जगह-जगह जानवर शहरों-सड़कों पर आराम से हवाख़ोरी कर रहे हैं। सोचो, अगर इंसान इंसान न होता, वो भी और जानवरों की तरह रहता, “सभ्य” न हुआ होता, या होता ही नहीं तो आज धरती का क्या रूप होता! चारों तरफ़ हरियाली, जंगल, तरह-तरह के जानवर, इंसान नाम के जानवर के डर से बेख़ौफ़ घूम रहे होते। कितने जानवर जिनकी नस्लें ही मिटा डाली हैं इंसान ने, वो सब ज़िदा होते। इंसान जिसने ख़ुद को प्रकति की सबसे सुंदर रचना का ख़िताब दे डाला, और प्रकृति को ही अपने क़दमों तले रौंद डाला। कैसी विडंबना है! इंसान इस सुंदर दुनिया का हक़दार नहीं था! वीयर्ड सा थॉट है! वैसे उसकी बातें होतीं कुछ वीयर्ड सी हैं। इसीलिए तो किसी से कहती नहीं है। बहुत दिन से सोच रही है कोई कहानी-उपन्यास लिखे। मन में रूपरेखा बनती है-बिगड़ती है, मगर हक़ीक़त का जामा नहीं पहन पाती।

लॉकडाउन में उसकी दिनचर्या भी अजीब सी हो गई है। सुबह दूध वग़ैरा लाकर चाय पियो, पौधों में पानी डालो—ये उसका पसंदीदा काम है। एक-एक पौधे को देखती, नज़रों से सहलाती, झांक-झांककर देखती कि बेले पर कितनी कलियां हैं, मोगरे पर ढेरों फूल खिलने वाले हैं, शाम ढले रात की रानी महकेगी। माली कांट-छांट नहीं कर रहा है, तो पौधे भी भरपूर बढ़ रहे हैं। इतने फूल तो उसके मोगरे और बेला पर कभी नहीं आए थे, जितने इस बार आ रहे हैं। उसकी मधुमालती पर बहुत मुश्किल से फूल आते हैं। आज मधुमालती में पानी डालते हुए उसकी बेलौस बढ़ आई एक कोमल सी टहनी उसके चेहरे को छू गई, उसे बहुत अच्छा लगा था।

सोच रही है आज कुछेक लोगों को फ़ोन करे, ख़ैरियत पता करे। लेकिन फ़ोन करने, बात करने में वो बहुत क़ाहिल है। मगर लौट-फिरकर लोगों का यही सवाल होता है, खाना खा लिया, क्या बनाया। नहीं खाया तो क्यों नहीं खाया। अरे, कुछ भी खा लेगी। वैसे भी वो जो बनाने का सोचती है, अक्सर किचन में जाकर उसकी जगह कुछ और ही बना लेती है। खाने की बातें उसे बहुत उबाऊ लगती हैं। वो रेसिपी देख-देखकर नाप-तौलकर कुछ नहीं बना पाती। उसे लगता है थोड़ा-बहुत ऊपर-नीचे मसाले हो जाएं तो हो जाएं। क्या फ़र्क़ पड़ता है कि रोटी गोल बनी या थोड़ी आड़ी-तिरछी। निवाला बनाने में तो उसे तोड़ना ही है! उसका तो उसूल है जीने के लिए खाओ, खाने के लिए मत जियो। आज भी अभी कुछ नहीं खाया है। दोपहर होने वाली है। अब जाएगी कुछ देर में किचन में और तभी सोचेगी क्या खाया जाए। फिर लैपटॉप चलाकर बैठेगी। शायद कोई कहानी मचल जाए मन में।

छोटे-मोटे लेखों के अलावा आजकल वो कुछ क्रिएटिव नहीं लिख रही। लिख ही नहीं पा रही। अजीब सी मनहूसियत है माहौल में। सोसाइटी में भी तो कहीं कोई खटपट नहीं हो रही। पहले हफ़्ते-दस दिन में किसी न किसी की आपस में झड़प हो जाती थी, मगर अब सोशल डिस्टैंसिंग के चलते लोगों ने झगड़ना भी बंद कर दिया है। मगर पति-पत्नी कैसे एक दूसरे को चौबीस घंटे झेल रहे होंगे? आम हालात में तो दिन में दस-बारह घंटे बाहर रहने, फिर सात-आठ घंटे सोकर कट जाते हैं। अब तो घर-घर में दोनों हर वक़्त एक दूसरे की सूरत पर सवार, हर काम में मीनमेख़ निकालते रहते होंगे। पहले समय में बड़ी-बूढ़ियां शायद इसीलिए कहती थीं कि मर्द घर में बैठे अच्छे नहीं लगते। छिपा मतलब ये होता होगा कि वो घर से दफ़ा हों तो घर की औरतें चैन की सांस लें।

आजकल तो बालकनी एक बड़ा सहारा है। जब-तब कभी चाय लेकर, तो कभी झाड़ू लगाते-लगाते या कभी वैसे ही वो बालकनी में आकर खड़ी हो जाती है। कोशिश करती है कि घुमक्कड़ आंखें किसी के घर में न घुस जाएं। इसलिए ज़्यादातर तो उसकी निगाहों का रुख़ सामने के मैदान या फिर सड़क की ओर ही रहता है।

वैसे लॉकडाउन की सबसे अच्छी बात ये है कि वक़्त-बेवक़्त कोई घंटी नहीं बजा रहा। उसे ये बहुत अखरता है, ख़ासतौर से तब जब वो वाशरूम में हो। ये वाशरूम शब्द भी न जाने किन-किन शब्दों से होता आया है। जब अपने हिंदी शब्दों से शर्म आने लगी तो लोग बाथरूम कहने लगे। तब बाथरूम ‘आता’ था, फिर कुछ साल पहले ‘लू’ फ़ैशन में आया, तो बाथरूम घटिया लगने लगा। मगर ‘लू’ की लाइफ़ कम ही रही। शायद कंफ़्यूज़न होने लगा होगा। जब बच्चा कहता होगा, “पापा, ‘लू लगी है’।“ तो पापा या तो उसे शॉवर के नीचे खड़ा कर देते होंगे या डॉक्टर के पास पहुंच जाते होंगे। ख़ैर, जो भी वजह रही हो, मगर अब फ़ैशन में है ‘वाशरूम।‘ अब लोगों को ‘वाशरूम’ ही ‘आता’ है!

क्या दिमाग़ का दही हुआ जा रहा है! अब वो धीरे-धीरे मन बना रही है कि बरसों से मन में उमड़-घुमड़ रहे उपन्यास को लिखना शुरू कर ही दे। दिक़्क़त ये है कि जब प्लॉट दिमाग़ में उभरता है तब वो लैपटॉप पर नहीं होती, और जब लैपटॉप पर होती है तो दिमाग़ ख़ाली होता है। मगर आज वो छूटे सिरे पकड़कर ही रहेगी। इस लॉकडाउन का कुछ तो सदुपयोग हो... वरना उसकी बातें तो चलती ही जाती हैं... अविराम... बेतरतीब...

लेखिका परिचय

शुचिता मीतल एक लंबे समय से भारतीय अनुवाद परिषद एवं यात्रा बुक्स से जुड़ी हुई हैं। आपने नमिता गोखले की शकुंतला, संजीव सान्याल की मंथन का सागर, अमीश की वायुपुत्रों की शपथ, नीलिमा डालमिया आधार की कस्तूरबा की रहस्यमय डायरी समेत तीस से अधिक पुस्तकों का अनुवाद किया है।