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कल, आज और हम

अन्नदा पाटनी

स्टडी के कमरे से झल्लाने की आवाज आ रही थी,” क्या कर रहा है ? जल्दी हाथ चला, नहीं तो पूरा गेम बिगाड़ देगा । ”और भी न जाने क्या कह रहा था, मेरे तो पल्ले ही नहीं पड़ रहा था । 

उत्सुकतावश कमरे में झाँका तो देखा मेरा पोता मेज़ पर रखा अपना लैपटॉप खोले बैठा है । मुझसे रहा न गया, बोली, “अरे बेटा, अभी अभी तो स्कूल से आए हो, कुछ खा पी कर थोड़ा आराम कर लो । फिर शाम को बाहर जाकर दोस्तों के साथ खेल लेना। ”

“दादी, मुझे अभी भूख नहीं है । मैं लैपटॉप पर दोस्त के साथ गेम ही तो खेल रहा हूँ । प्लीज़ मुझे डिस्टर्ब मत करो । देखो ग़लत मूव हो गया न । जाते हुए दादी प्लीज़ दरवाज़ा बंद करते जाना । ”

मैं दरवाज़ा बंद कर बाहर आकर सोचने लगी । समय कितना बदल गया है। 

हमारे पास इतने आधुनिक उपकरण तो थे नहीं । लड़कियाँ, गुड्डे गुड़ियों और खाना बनाने के बर्तन पाकर ख़ुश हो जाती थीं । गुडियाएं भाँति भाँति की होती थीं । घर घर खेलते, कोई माँ बनती, कोई चाची ताई तो कुछ मेहमान । लड़कों का कोई काम नहीं था । उनकी भूमिका भी लड़कियाँ ही निभातीं । घर की महिलाओं की तरह चुन्नी से घूँघट काढ़तीं, डाँटती फटकारती यानी कि जो घर में महिलाओं का व्यवहार होता, उसी की नक़ल करतीं । नक़ली खाना बनता, नकली मेहमान, फिर शादी ब्याह का पूरा स्वाँग रचा जाता । बिदाई, रोना-धोना वग़ैरह वग़ैरह । 

लड़के पूरे दिन गिल्ली डंडा, छुपन छुपाई, आँख मिचौनी और हद से हद पेड़ की टहनियों की विकेट और क़पडे़ धोने वाला डंडा लेकर रबड़ की बॉल से क्रिकेट खेलते । लड़ाई, हाथापाई जम कर होती। दे दनादन वह मुट्ठी भींच कर मुक्के पड़ते कि नानी याद आ जाय । फिर रोते धोते शिकायत करने बड़ों के पास जाते । चुग़ली करने को सब तैयार रहते और बेक़सूर को डाँट और मार पड़वाते । 

मुझे याद है कि रामलीला, दशहरा, होली, दिवाली आदि त्यौहारों का

बड़ी बेसब्री से इंतज़ार रहता । सबसे अधिक लुभावना लगता था रावण दहन । बड़े बड़े तीन पुतले, रावण, मेघनाद और कुम्भकर्ण के । क्या मज़ा आता था जब रामचंद्र जी का बाण लगते ही तीनों में आग लग जाती थी और उनमें भरे पटाखे कानफोड़ू धमाके करते ऊँची ऊँची पलटों के साथ धूं धूं जलने लगते । फिर तीनों धराशायी । बड़ा मन करता था कि हम भी कभी रावण जलाएं । 

गरमी की छुट्टियों में नाना नानी के पास जाते । वह हमारा सुनहरा काल होता। मनमानी करते और डाँट भी नहीं पड़ती । मम्मी से रोज़ सुनने को मिलता,” लाड़ प्यार ने बिगाड़ कर रख दिया है, किसी की सुनते ही नहीं है । ”

एक मज़ेदार क़िस्सा याद आ रहा है । गर्मी की छुट्टियों में सब नाना नानी के यहाँ इकट्ठे हो जाते थे । एक दिन दोपहर के समय खसखस की ख़ुशबूदार भीगी भीगी चिकें लगा कर सब सो रहे थे । उस समय हाथ से झलने वाले पंखे होते थे, बिजली के नहीं । बड़े से हॉल में सब पसर जाते थे । एक बड़ा सा कपड़े का पंखा ऊपर बाँध दिया जाता था जिसे बेचारा एक सेवक बैठा बैठा हाथों से झुला कर हवा देता रहता था । 

एक दिन मैं,मेरे भाई और हमउम्र मामाजी ने (सभी 10- 11 साल के ) सबके सोने का फ़ायदा उठा कर रावण दहन की कई दिनों की इच्छा पूरी करने की सोची । घर के अंदर एक बड़ा सा आँगन था । उसके और मुख्य दरवाज़े के बीच आड़ के लिए एक बाँस की बड़ी टटिया लगी हुई थी जिसके बीच बीच में झरोखे थे । हमें रावण के लिए यही सही लगी । फिर क्या, हमने अख़बार इकट्ठे किए और उन्हें उन झरोखों में ठूँस दिया । अब आग लगाने को दियासलाई घर से लायेंगे तो कोई जग न जाय इसलिए मामाजी बाज़ार से अपनी पॉकेट मनी यानी इकन्नी से माचिस खरीद कर ले आए । अब भाई, भगवान राम बन कर आग लगाने की ज़िद करने लगा । छोटा समझ कर हम भी मान गए । जैसे ही माचिस की तीली जला कर दो तीन जगह

उसने आग लगाई कि अख़बार जलने शुरू हो गए । तेज़ हवा के कारण आग की लपटें ख़ूब ऊँची ऊँची उठने लगी । बाँस की टटिया पूरी की पूरी आग की चपेट में थी । हम तीनों इतने धूमधाम से रावण को जलते देख ख़ुश होकर तालियाँ बजाने लगे । टटिया के ऊपर हमारे पड़नाना जी की सफ़ेद धोती सूख रही थी, वह भी जलने लगी । आग की लपटें बिजली के तारों तक पहुँचने वाली थी । यह देख कर हम घबराए और फूँक मार मार कर आग बुझाने की कोशिश करने लगे क्योंकि हम बच्चे यही सुनते आए थे कि फूँक मारने से आग बुझ जाती है । दिया, मोमबत्ती ऐसे ही तो बुझाते हैं । पर आग को और जो़र पकड़ते देख हमारी तो हवा टाइट। अब तीनों ने डर के मारे रोना शुरू कर दिया । यह तो अच्छा हुआ कि आस पास के मकान वालों ने यह देख कर फ़ौरन बाल्टी भर भर कर पानी आग पर डालना शुरू कर दिया । तब तक घर के सब लोग और पूरा मोहल्ला इकट्ठा हो गया । पड़नानाजी तो धोती जल जाने के कारण ग़ुस्से से आगबबूला हो गए । फिर तो उन्होंने उस समय प्रचलित गालिओं की तबीयत सेबौछार की । हम तीनों तो डर के मारे छुप गए और बहुत देर तक सामने नहीं आए । बाद में मैं और मामाजी यह सोच कर बाहर आ गए कि असली दोष तो आग लगाने वाले का था जो भाई ने लगाई थी । वह बहुत देर बाद इस शर्त पर बाहर निकला कि कोई उस से रावण जलाने की बात नहीं पूछेगा । 

अब यह सब सोच सोच कर हँसी आ रही है कि ऐसे ही खेल होते थे हमारे । 

फिर हमारे बच्चों की बारी आई। खेलने के बहुत से इलेक्ट्रॉनिक उपकरण आ गए जो उन्हें देर तक टी वी से बाँधे रखते । पढ़ाई का स्टैंडर्ड भी बहुत ऊँचा हो

गया । कोचिंग और ट्यूशन की अनिवार्यता बढ़ गई । बच्चों पर भार बहुत बढ़ गया था । 

मुझे अपने पिताजी की बात याद आ गई । हमेशा कहते रहते कि “हमने भी पढ़ाई की है पर इन लोगों जैसे नहीं । इनके पास तो बड़ों बूढ़ों के पास बैठ कर बात करने का समय ही नहीं । स्कूल से आते हैं ट्यूशन चले जाते हैं । फिर बचे समय में होमवर्क करते रहते हैं । पूरा दिन यों ही निकल जाता है । बाहर जा कर खेलने का समय भी नहीं बचता । व्यायाम नहीं करेंगे को शरीर का विकास कैसे होगा । ”

बच्चे सुनते तो कहते,” नानाजी और दादा जी यही कहते रहते हैं । नंबर कम आयेंगे तो आप लोग पीछे पड़ जायेंगे । फिर क्या करें हम । ”

मैं समझाती,” बेटे, बहुत प्यार करते है तुम्हें इसलिए ऐसा कहते हैं । “

अब बच्चे बड़े अफ़सर बन गए हैं तो सबसे ज़्यादा घर के बड़े बूढ़े ही गर्व से कहते हैं,” बहुत मेहनत की है बच्चों ने । ”

अब मैं भी उनकी जगह पर खड़ी हूं और वही महसूस कर रही हूँ जो वे महसूस करते थे । पर बहुत अच्छी तरह से समझ गई हूँ कि समय बदल गया है,पढ़ाई का स्तर और मापदंड बहुत ऊँचे हो गए हैं । स्पर्धा के इस युग में हमारे बच्चों के लिए समय और श्रम, दोनों ही बहुत ज़रूरी हो गए हैं । हमें भी अपनी अपेक्षाओं और दृष्टिकोण में बदलाव लाना पड़ेगा । 

मैंने तो बीच का एक रास्ता निकाल लिया है । अपने बच्चों को कह दिया है कि दिन में कभी भी, किसी भी समय, आते जाते, बस एक बार ज़रा गले लग कर चले जाया करो । अब रोज यही होता है । बच्चे भी खुश, मैं भी खुश । उनके ज़रा ने मुझे बहुत कुछ दे दिया है ।