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कौन आया मेरे घर के द्वारे

आवत ही हरषै नहीं, नैनन नहीं सनेह,

तुलसी तहाँ न जाइये, कंचन बरसे मेह ।।

संत तुलसीदास जी कहते हैं कि जहाँ आपको आते देख, लोग खुश न हों और जिनकी आँखों में आपके लिए प्रेम न हो, ऐसी जगहों पर आपको नहीं जाना चाहिए। भले ही वहाँ धन की वर्षा हो रही हो ।

महान संत तुलसीदास भगवान राम के उपासक, भारतीय संस्कृति के पोषक,मानवीय मूल्यों में आस्था रखने वाले व्यक्ति, सोचा होगा कि ‘अतिथि देवो भव’ की मान्यता तो हर काल में जन साधारण के मन में रहेगी ।उनको क्या पता था कि आगे पासा ही पलट जाएगा। ‘अतिथि देवो भव’की जगह ‘अतिथि विपदा भव’ हो जाएगा ।

राम त्रेता युग में जन्मे । तब आदर्शों और सिद्धांतों का लोग पालन करते थे ।यह कलियुग है । यहाँ अतिथि के आते ही कोई हर्षता नहीं है न किसी के नैनों में स्नेह उमड़ता है । अब तो अतिथि को दरवाज़े पर देख कर ऊपर से नमस्कार और अंदर से चीत्कार निकलता है कि ये कहाँ से धमक पड़े। अगर किसी के आने की सूचना मिले तो घर में कोहराम मच जाता है “ क्या पड़ी थी अभी आने की । पूछने की ज़रूरत भी नहीं समझी । आयेंगे तो टिक जायेंगे,जाने का नाम ही नहीं लेंगे।” पत्नी बोलेगी, “तुम्हारे रिश्तेदार हैं, मना कर दो आने को ।” अरे, रिश्तेदार पति के हों या पत्नी के कोई कैसे मना कर सकता है ।

पहले चिट्ठी पत्री द्वारा आगमन की पूर्व सूचना दी जाती थी तब समय मिल जाता था बहाने बनाने को । पर अब तो मोबाइल, इमेल,व्हॉट्सएप आदि है न, तो फ़टाक से कुछ घंटों में सूचना दे दी और ले ली जाती है । बहाने बनाने का समय ही नहीं मिल पाता ।

एक समय था जब मेहमानों के आने की खबर मिलते ही, वे कौन से कमरे में ठहरेंगे, उनके लिए नाश्ते, लंच और डिनर में क्या क्या बनेगा, सब योजनाबद्ध तरीक़े से तै होता था ताकि उनके साथ अधिक से अधिक समय गुजारा जा सके ।पर अब सुबह, दोपहर और रात को यही सोचा जाता है कि मेहमानों को जल्दी भगाने के लिए क्या क्या बहाने बनाए जाएँ। वाह रे कलियुग ! खाने और बहाने को एक ही जमात में डाल दिया।

आप टी वी पर अपना पसंदीदा सीरियल देख रहे हैं कि तभी घंटी बजी । “अब कौन कमबख़्त आ गया, अभी ही टपकना था ?” दरवाजा खोलते ही दिल में हर्ष और आँखों में स्नेह दिखता है या ताबड़तोड़ कोसने का सिलसिला !

अब आ ही गए हैं तो बैठने को तो कहना ही पड़ेगा, भले ही बेमन से । टी वी फिर भी बंद नहीं होगा और सब फिर से सीरियल देखने में मशगूल । बेचारा मेहमान ! अग़ल बग़ल नज़र घुमाता है कि किसी की नज़र उस पर पड़े तो बात करे पर सबकी नज़रें तो टी वी पर गढ़ी हैं । यह नजारा देख बेचारा ख़ुद ही उठ खड़ा होता है,” अच्छा चलता हूँ ।”

“अरे अच्छा। रुक जाते थोड़ी देर, आप भी देखिए, बड़ा बढ़िया सीरियल आ रहा है । आप देखियेगा तो छोड़ने का मन नहीं करेगा।”

अभी तो मेहमान और मेज़बान दोनों का ही एक दूसरे से पिंड छुड़ाने का मन हो रहा था ।

रही सही कसर कोरोना ने पूरी कर दी । सोशल डिस्टेंसिंग के नियमानुसार आस पास न फटकने की सख़्त हिदायत दी गई थी । साथ ही मास्क पहनना भी अनिवार्य कर दिया गया ।

प्रारंभ में तो सभी तरह के समारोहों पर पाबंदी लग गई । फिर धीरे धीरे लोगों की संख्या निर्धारित कर दी गई । कोरोना का भय इतना व्याप्त हो गया कि लोग स्वयं ही मिलना जुलना टालने लगे ।

सब कुछ वर्चुअल होने लगा । शादी ब्याह सब टीवी पर दिख जाते । वर और वधु दोनों ही पक्ष के परिवार खुश कि ख़र्चा बचा पर दुख भी हुआ कि लिफ़ाफ़े जो मिलते थे, उन्हें खोलने के नयनसुख और धनसुख से वंचित रह जाएँगे । बाकी आमंत्रित लोग इसलिए खुश कि आमंत्रण तो औपचारिक था, असल में तो अनामंत्रण था । चलो, पेट्रोल का ख़र्चा बचा और लिफ़ाफ़ा भी भेजने की क्या ज़रूरत ।गए होते और दावत उड़ाई होती तब सोचते ।

हाँ लॉकडाउन का फ़ायदा यह हुआ कि घर परिवार में समय और प्रेम दोनों की बहुतायत हो गई । साथ में उठना-बैठना, खाना-पीना, पिक्चर देखना, म्यूज़िक सुनना । कितने वर्षों बाद ऐसा दुर्लभ अवसर मिल पाया था जब इतना समय साथ गुज़ारा हो। वाह क्या आनंद आ रहा था ! पर आख़िर कब तक ?

आलम यह था कि 24/7 एक दूसरे की शक्लें देख देख कर धाप गए । बातों की मिठास,कड़वाहट में बदल गई । भेजा फ्राई होने लगा ।बहस, झगड़े,फ़साद यहाँ तक कि तलाक़ की नौबत याद आ गई । वह व्यंजन जो रेस्टोरेंट और होटल के खाने को मात दे रहे थे, उनसे जीभ और पेट को अब विरक्ति होने लगी ।

कहने का मतलब यह कि अब तो घर के अंदर लोगों के चेहरे देख कर ही मन हर्षित नहीं हो रहा है और नैनों में नेह नहीं उपज रहा है तो बाहर की बात तो छोड़ ही दें । अब लगता है तुलसीदास जी के दोहे का रूप ही बदलना पड़ेगा -

हर्ष और नेह की बंद करो अब बात,

मन मरुथल हो गए,नयना सूखे पात,

आवक जावक छोड़, घर सोइये मुँह ढाँक

हर्ष और नेह को ढूँढिए अपने अंदर झाँक।

बोलो सियावर रामचंद्र की जय, पवनसुत हनुमान की जय |

अन्नदा पाटनी ।