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कुर्सी मेज

लड़कियों को पता नहीं ज़िंदगी से क्या चाहिए होता है
पूरी आयु असंतुष्ट रहती हैं
और मजे में रहती हैं
असंतोष को दूर करने के लिए गहने बनवाती हैं और गहने तुड़वाती रहती हैं।पति से नफ़रत करती है,बात-बेबात जताती रहती हैं,"मुझे मन का पुरुष नहीं मिला।मेरे वाला आलसी,लापरवाह और निष्ठुर है।"
लेकिन उसके बीमार होते ही चिंता में पड़कर रात-रात भर उसके सिरहाने बैठी रहती हैं।कोई कुछ कहे तो ठंडी उसांस भर कर कहती हैं,क्या करें।इस नीरस जीवन का एक यही अवलंब है।नारी तो लता की भांति होती है।सूरज की धूप और ताज़ी हवा पाने के लिए किसी न किसी पेड़ से लिपटना ही होता है।अब यह उसकी किस्मत वह पेड़ नीम का है या बबूल का"और यह कहकर फीकी हँसी हँसती हैं।
इसके विपरीत पुरुष मन को भाती पत्नी न मिलने पर भी निराश नहीं होता। ज़िंदगी गुजारने का कोई न कोई हीला कर ही लेता है।कोई न कोई ज़रिया ढूंढ ही लेता है।कोई शराबी हो जाता है कोई फिलॉस्फर!कोई-कोई मज़े ले लेकर चोरी का गुड़ खाने वाला प्रेमी।पत्नी के रहते हुए प्रेमिका रखना शाहाना ख़्याल है और राजाओं-नवाबों की किस्मत पाया आदमी ही ऐसा कर सकता है।
हरगीत कौर अपने बेवकूफ पति संजीत के सारे काले कारनामे और चारित्रिक दोष जानती थी।दो बेटियाँ थी,उनकी भलाई के लिए चुप रहती थी।संजीत उसके चुप रहने को उसकी कमजोरी समझकर बेपरवाह रहता था।शुरुआत में कुछ पूछे जाने पर बहाने बनाता था।आजकल हरगीत न कुछ पूछती थी न संजीत को बहाना घड़ने की जरूरत महसूस होती थी।कमाई या तो थी ही नहीं या कहीं और जा रही थी।गरीबी, तंगहाली और दुर्व्यवहार के बीच समय गुजारती हुई वह अंदर ही अंदर टूटी हुई किरचियाँ दिल में चुभती हुई महसूस करती थी।रोती न थी लेकिन रोने में कोई कसर भी बाक़ी न थी।
अपनी करतूतों को लोग कैसे अपनी जातीय विशेषता का नाम देकर उसका औचित्य सिद्ध करने की कोशिश करते हैं ऐसा वह बचपन से देखती आई थी।वे लोग जाति के मजहबी थे।मजहबी सिखों में शराबनोशी और निकम्मेपन की आदत कमोबेश उतनी ही थी जितनी जट्ट सिखों या अन्य जातियों के मर्दों में थी।लेकिन मजहबी तो होते ही शराबी हैं ऐसा विचार गाँव की औरतों में आम तौर पर व्याप्त था।
पति शराबी हो,निकम्मा और झूठा हो पत्नी उसे कोसती हुई उसके संग जीवन गुजार लेती है लेकिन पति के विवाहेत्तर संबंध उससे बर्दाश्त नहीं होते। सौतिया डाह से ग्रस्त हरगीत को अपने हृदय की पीड़ा कम करने के लिए किसी पराए मर्द के कंधे की जरूरत महसूस होने लगी।भगवान ने उसकी कभी कोई प्रार्थना न सुनी थी।लेकिन शैतान ने उसकी एक प्रार्थना ही सुन ली चाहे वह कच्चे मन के कमजोर क्षणों में ही क्यों न की गई थी।
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संजीत दीवार की तरफ़ मुँह करके सो रहा था।उसका चारखाने का हरा साफ़ा उसके मुँह को ढक रहा था।कमर पर बंधा काला चादरा जाँघों पर से ऊपर उठ रहा था।संजीत की बड़ी बेटी नामो उर्फ हरनाम कौर पिता को चाय देने आई तो उसे पिता का चादरा ठीक कर देने की जरूरत महसूस हुई।दसवें वर्ष में थी नामो!माँ के घर छोड़कर चले जाने के बाद छोटी बहन वतन कौर और पिता को संभालने की जिम्मेदारी उस पर आ गई थी।गाँव वाले कहते थे उसकी माँ हरगीत कौर पड़ोसी गाँव के कमोह जीत सिंह के साथ भाग गई थी।लेकिन वह इसे घर छोड़कर चले जाना ही कहती थी।क्योंकि वह अकेली ही इस बात की गवाह थी कि उस रोज क्या हुआ था।कैसे उसके पिता संजीत ने उसकी फूलों से भी कोमल और हरसिंगार के फूल से भी सुंदर माँ को ऐसे पीटा था जैसे कोई खूँटा तुड़ाकर गई भैंस को पीटता है।इतनी पिटाई खाकर कोई भी अनख वाली औरत न रुकती।मायके जाती तो समझा-बुझाकर वापिस भेज दी जाती।
इसलिए उसने जीत कमोह का सहारा लिया था।सारे गाँव वाले कहते थे कि जीत कोई अच्छा आदमी नहीं है।अवैध शराब का कारोबार है उसका।रन्ना(औरतों)का व्यापारी है।सोहनी-सुन्नखी(सुंदर चेहरे और सुंदर आँखों वाली)औरतों को बरगला कर ले जाता है और अमीर बूढ़ों के हाथ उन्हें बेच देता है।कुछ बदकिस्मत तो दिल्ली मुंबई के वेश्या बाजारों की शरण पाती हैं।नामो को ऐसी बातों पर विश्वास नहीं है।फिर भी माँ की बेहतरी के लिए दुआ करती है।समाधा वाले बाबा पर हर वीरवार जाकर फुलियों का प्रशाद बाँटती है।
संजीत ने मुँह धो लिया है।अब बैठा चाय पी रहा है।फिर रोटी माँगेगा।रोटी बनने के दौरान मन करेगा तो नहा लेगा।नहीं तो उदास बैठा दीवार तकता रहेगा।मुँह से कभी कुछ नहीं कहता संजीत।लेकिन नामो जानती है कि पिता को माँ को उस रोज पीटने का पछतावा जरूर है।
वह चाहती है कि पिता एक दिन रो दें।वह रोते हुए पिता को सीने से लगाकर चुप कराए और कहे,"डैडी!माँ को ढूंढ लाओ कहीं से।वह आपके ढूंढे जाने का इंतजार कर रही है।"
लेकिन नामो पथरीली सच्चाई से परिचित है।पिता कभी नहीं रोयेंगे और वह कभी अपने मन की बात नहीं कह पायेगी।
शायद सभी मर्दों के मन ऐसे होते हैं।
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हरगीत आजकल गुरुद्वारे नहीं जाती।मंदिर जाती है और मुहल्ले में गीता के नाम से जानी जाती है।उसका बावन साल उम्र का फैक्ट्री मालिक पति बनवारी लाल यही चाहता है।यहां उसके अतीत के बारे में कोई नहीं जानता।जीत कमोह उसे दो लाख रुपए में बनवारी लाल को बेच गया है।हरगीत कभी अकेले में बैठकर सोचती है कि क्या उसकी दो लाख कीमत कुछ ज़्यादा नहीं थी।दो बेटियों की माँ थी वह।जब आई थी चेहरे पर जरा भी लुनाई नहीं थी।अधभूखे रहने से उसका शरीर कमजोर हो चला था।फिर भी बनवारी लाल ने उसका दाम चुकता किया था।जिसे मुफ़्त में मिली थी उसने बकरी जितनी भी कद्र नहीं की।यहाँ खाने-पीने की मौज है।फिर भी बेटियों की परेशानी का अंदाजा लगाकर कौर उसके गले में अटक जाता है।
बनवारी लाल के घर में पहुंचने का रास्ता उतना सुगम भी नहीं रहा हरगीत के लिए।शुरू का एक हफ़्ता जीत के प्रेम की खुमारी में गुजरा।वह जानती थी कि जीत शादीशुदा है और पाँच बच्चों का बाप है।फिर भी वह उसकी दूसरी पत्नी बनकर रहने को तैयार थी।जीत ने उसे उसके भगाकर लाने का प्रयोजन उस पर जाहिर कर दिया था।फिर भी वह उसके साथ आस की डोरी लटकाए रही।
एक सहेली के मार्फ़त उसे अपने पति और बेटियों की ख़बर लगती रही।उसके पति ने उसकी ममेरी बहन कंचन से शादी कर ली थी।कंचन दो साल पहले ही विधवा हुई थी।उसके पति ने नरमे की फसल बर्बाद होने के दुख में स्प्रे पीकर जान दे दी थी।वह खुद चाहती थी कि कंचन किसी हीले लग जाए।लेकिन वह उसकी जगह लेगी यह सोच उसकी कल्पना से भी परे थी।
यह समाचार सुनकर वह ख़ामोश बैठी रही।न रोई न मुस्काई।
उसके वापिस लौटने की नाव जल चुकी थी।संसार की बाढ़ भरी नदी उफ़नते हुए उसके सीने तक आ गई थी।निराश होकर वह जीत से बोली,"तुम किसी फैक्ट्री मालिक की बात कर रहे थे।"
जीत उसकी बात सुनकर मुस्कराया था।
बनवारी लाल के यहाँ जाने वाली सुबह से पहले की रात वे पूरी रात जागते रहे।बातें करते रहे और प्यार करते रहे।
हरगीत का दिल रखने के लिए जीत ने उसकी बेटियों के नाम पचास हज़ार रुपए की एफ डी करवाने का वायदा भी किया।
हरगीत को जीत की बात का बिल्कुल भी विश्वास नहीं था।फिर भी वह खुश हो गई थी।
बनवारी लाल फैक्ट्री मालिक यूँ ही नहीं था।उसकी फैक्ट्री में हर तरह की मोटरें बनती थी।मोटरें बनाने के लिए तांबा,लोहा,पुर्जे,कीलें जाने क्या-क्या तो खरीदना होता था।उसकी फैक्ट्री में सौ से ज़्यादा तो वर्कर ही थे।बनवारी लाल की उम्र गुजर गई थी आदमी हो या माल उसको पहचानने और उसकी सही कीमत लगाने में।उसे धोखा देना आसान न था।जीत ने पाँच लाख रुपए माँगे थे।बहुत देर की झिकझिक के बाद दो लाख में सौदा तय हुआ था।
बनवारी लाल गारंटी चाहता था कि औरत भागेगी नहीं।
जीत ने कह दिया,"भुखमरी से भागकर आई है सेठजी।पति मर गया।औलाद कोई है नहीं।ससुराल ने लात मारकर निकाल दिया।मायके में अपना कहने को कोई नहीं।कहाँ जाएगी आपका खूँटा छोड़कर!आपके तो पैर धो-धो पीयेगी।"
बनवारी लाल को जीत की एक बात पर भी विश्वास नहीं था।
उसे आश्वासन चाहिए था।
जीत ने बनवारी लाल के कंधे पर हाथ रखकर कहा,"औरत हो या जमीन!मालिक को कब्ज़ा बरकरार रखना आना चाहिए।मैं क्या संसार का कोई भी दलाल इस बात की गारंटी नहीं दे सकता।हां!इतना जरूर कहता हूँ।बरसों से इस धंधे में हूँ इतनी असील औरत नहीं देखी।"
बनवारी लाल थोड़ा आश्वस्त हुआ।
शुरुआत में वह उसे ताले में बंद रखता था।लेकिन जताता नहीं था।वह भी विरोध न करती थी।उसने उसे खरीदा था।गले में रस्सी डालकर खूँटे से बांधकर रखता तब भी वह जुबान न खोलती।
धीरे-धीरे उसे विश्वास हो गया कि वह कहीं नहीं जाने वाली।
फिर वह मंदिर भी जाने लगी।
मंदिर में वह अपने लिए क्या माँगती।उसे तो इतना भी यकीन नहीं था कि कोई भगवान होता है या नहीं।उसके लिए तो पैसे वाला सेठ भगवान था बाकी सब लोग याचक!सेठों ने ही यह लंबा चौड़ा मंदिर बनवाया है और पैसा खर्च करके पंडित जी बैठाया है जो नित्य नियम से सफ़ेद संगमरमर के राम-सीता और काले सफेद पत्थर के कृष्ण राधा और लाल सिंदूर पुते हनुमान जी की पूजा करता है।पैसा न मिले तो यह पंडित पूजा न करके कोई और काम देखे।ऐसी बातों को सोचती हुई वह निर्लिप्त मन और उदास मुख लिए मंदिर जाती है।शिवलिंग पर जल चढ़ा आती है।दीप-धूप जला देती है।पंडित जी को मालूम है वह कौन है।इसलिए उसके आगे-पीछे सेठानी जी ,सेठानी जी करके चापलूसी सी करता घूमता है।वह उस पर कोई खास तवज्जो नहीं देती।पंडित सोचता है बड़े और ख़ानदानी लोग हैं थोड़ी बेरुखी तो दिखाएंगे ही।
हरगीत मंदिर से बाहर आ गई है।कतारबद्ध भिखारियों की लाइन लगी है। हाथ फैलाते और मुँह बिसूरते भिखारी।
"मालकिन!सेठानी,कुछ दे जा।भगवान तेरे रंग भाग लगाए।"
क्या रंग-भाग लगाएगा मेरे ,भगवान?दो बेटियां हैं उनका मुख देखने को तरसती हूँ।बनवारी लाल को औलाद की बड़ी चाह थी।चार साल हो गए।हरगीत गर्भवती होती है और तीन-चार महीने में ही गर्भ गिर जाता है।दो बार ऐसा हो चुका।आजकल बनवारी लाल भी उससे बेरुख होता जा रहा।सेठ आदमी है जो चाहिए उसे कैसे भी हासिल करेगा।इस दौरान हरगीत का बेड़ा जाने कौन से किनारे लगे?"
वह भविष्य की अनिश्चितता से डरना चाहती है लेकिन उसे डर नहीं लगता।
उस दिन बनवारी लाल किसी से फोन पर कह रहा था।
"यह औरत मुझे औलाद नहीं दे सकी।शरीफ़ और सेवाभावी है इसलिए इसे झेल रहा हूँ।मैंने इसे लाकर गलती की।30-31 से ऊपर की औरत बच्चे पैदा करने लायक़ नहीं रहती।इस पर खाने की चोर है।इतने फल और मेवे आते हैं घर में।ऐसे ही रखे रहते हैं।हाथ तक नहीं लगाती।औरत सेहतमंद नहीं होगी तो बच्चा कैसे जनेगी।"
सुनकर उसके हृदय में टीस उठी है।
वह कहना चाहती है कि दोष उसके वीर्य में है।मेरी कोख में नहीं।जब मैं आई थी तीस की नहीं सताइस की थी।
दो बेटियां जनी थी मैंने।तब मुझे कौन सी ख़ुराक मिली थी।दो ख़ुश्क फुलकों के भी लाले थे।
जीवन में इतने अपमान झेले हैं लेकिन कोख का अपमान सहन नहीं होता।
वह खुश रहने की कोशिश करेगी।डट कर खाना खायेगी।बनवारी लाल की साध पूरी करने की कोशिश करेगी।
जीवन में इतनी परीक्षाएं झेली हैं एक यह भी सही।
लेकिन बूढ़े बनवारी लाल का वीर्य क्या इतना सक्षम है कि उसकी कोख में टिक पाए।
सत्तावन का हो गया है बनवारी लाल।दस मिनट में हाँफ जाता है।
मर्द का दोष उसे दिखाई नहीं देता।
फिर वह तो उसकी ब्याहता भी नहीं है।किसी कुर्सी-मेज की तरह खरीदी हुई वस्तु है।कुर्सी मेज में मालिक कितने भी नुक्स देखे।कुर्सी-मेज पलटकर मालिक के दोष नहीं देखती।