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बेटी या माँ

अन्नदा पाटनी

अचानक पता लगा कि पिताजी को कैंसर है तो सावेरी की तो जैसे जान ही निकल गई । कैसे क्या होगा ? मां हैं नहीं और परिवार में भी कोई और नहीं है जो उनकी देखभाल कर सके । एक भाई है पर वह परिवार सहित विदेश में है । बाबूजी दिल्ली से टस से मस नहीं होने वाले । जब माँ का देहांत हुआ तो उन्हें कितना समझाया बच्चों के साथ रहने के लिए पर नहीं माने । सावेरी ने तब उनके लिए सब सुविधाएँ जुटाईं ताकि उनका रोज का काम सुचारू रूप से चल सके और वह आराम से ज़िंदगी बिता सकें ।

अब स्थिति भिन्न थी। उन्हें अकेला नहीं छोड़ा जा सकता था । इलाज चलना था और कई महीनों तक । सबने पिताजी को उनके असाध्य रोग के बारे में बताने क्या, भनक भी न पड़ने की सलाह दी । भाई को ख़बर दी कि पिताजी चंद समय के मेहमान हैं, जल्दी आ जाओ ।

सावेरी को बहुत दुख हुआ जब भाई ने नए जॉब के कारण जल्दी आने में असमर्थता व्यक्त की । उसे याद आया कि भाई के जन्म पर कितनी ख़ुशी मनाई गईं थीं और बड़ा जश्न भी । उसके बाद अनेकों बार सावेरी ने सुना कि लड़कियों का क्या, पढ़ लिख कर शादी करके पराये घर में चली जायेंगी, नैया पार तो बेटा ही लगाएगा । सावेरी को बहुत दुख होता, ऐसा सुन कर । पर चुप रह जाती ।

अभी भी उसे ऐसा लगा कि जब बाबूजी, अम्माँ का लाड़ला आ जायेगा तो उनकी तबीयत में में सुधार अवश्य आ जायेगा । वह जब आयेगा तब आयेगा, सावेरी ने सोचा पर मुझे तो उन्हें संभालना होगा । मेरे लिए तो मेरे पिता से बढ़ कर इस दुनिया में कोई नहीं है । वह उनकी सेवा में जुट गई ।

कीमोथेरेपी और रेडिएशन के लिए हॉस्पिटल के चक्कर, घंटों घंटों बैठना । रात को उन्हीं के साथ सोना, दर्द अधिक होने के कारण शरीर दबाना । ३०० हाथ की कुछ उँगलियों में हरकत न होने के कारण वह उन्हें खाना भी बच्चों की तरह कौर तोड़ तोड़ सब्ज़ी में चूर कर खिलाती । तीन महीने यही क्रम चला पर सावेरी को हर रोज यह महसूस होता कि भाई के होने पर पिताजी अधिक खुश होते और मनोवैज्ञानिक दृष्टि से इसका असर उनकी तबीयत पर अवश्य पड़ेगा ।

आख़िर भाई आ पहुँचा । सावेरी ने चैन की साँस ली । आते ही वह बोला,” बाबूजी, आज से मैं आपके पास रात को सोऊँगा। बेचारी सावेरी पिछले तीन महीनों से अपने कमरे में नहीं सोई है ।”

बाबूजी कुछ नहीं बोले तो सावेरी को थोड़ा आश्चर्य हुआ । दोपहर को जब भाई उन्हें अपने हाथ से खाना खिला रहा था तब भी बाबूजी के चेहरे पर सावेरी ने कुछ उलझन देखी । बाबूजी सहज नहीं महसूस कर रहे थे । अत: उसने अकेले में बाबूजी से पूछा कि आप खुश हैं न कि आज से भाई आपके पास सोयेगा । बाबूजी बोले,” कोई भी सोए पर बेटी, जब तू सोती है तो मैं निश्चिंत रहता हूँ और तुझे अपनी तकलीफ़ बताने में झिझकता नहीं हूँ ।”

सावेरी बाबूजी का आशय समझ गई ।उसकी आँखें भर आईं । जिस भाई में उनके प्राण बसे थे, आज उसके प्रति वह इतने उदासीन हो रहे थे । शायद गत पचास वर्षों से बाहर रहने के कारण पारिवारिक मूल्यों के प्रति उसके बदलते रवैये को बाबूजी भाँप गए थे ।

सावेरी ने दवाई का बहाना बना कर बाबूजी के पास ही सोने का इरादा भाई को बता दिया । उसने सोचा था, भाई को बुरा लगेगा पर वह शायद ख़ुश ही हुआ । बोला,” ठीक है, मैं अपना जेट लेग निकाल लूँगा । कई दिनों की नींद इकट्ठी हो गई है ।

बाबूजी की हालत दिन पर दिन बिगड़ती गई और वे इस दुनिया को छोड़ कर चले गए । मृत्यु के बाद उनके सिरहाने रखा एक काग़ज़ का टुकड़ा मिला जिसमें लिखा था कि “मेरा अंतिम संस्कार मेरे बेटे के साथ मेरी बेटी भी संपन्न करेगी ।”

सावेरी तो घबरा गई पर भाई ने उसे गले से लगाकर, हाथ पकड़ कर बाबूजी की अंतिम इच्छा पूरी की । तीसरे दिन उठावनी की रस्म समाप्त कर वह अमेरिका के लिए रवाना हो गया ।

दुखी मन से सावेरी बाबूजी की चीज़ें संभाल रही थी कि उनकी डायरी हाथ लगी जो वह रोज लिखा करते थे । उत्सुकतावश खोल कर पढ़ने लगी तभी एक पृष्ठ पर नज़र पड़ी । लिखा था “ सावेरी मेरी बेटी नहीं, मेरी माँ है ।”

सावेरी की आँखों से अविरल अश्रुधारा बहने लगी । उसे माँ भी याद आ गई जब उन्होंने अंतिम क्षणों में उसे हृदय से लगा कर कहा था, “ तू हमारी बेटी नहीं, हमारा बेटा है ।” इस से बढ़ कर उसके जीवन की सार्थकता क्या हो सकती थी । उसे लगा जैसे माँ, बाबूजी और भगवान, तीनों साथ खड़े उसे आशीर्वाद दे रहे हों ।

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